Category Archives: अक्‍टूबर क्रान्ति

सोवियत संघ में सांस्कृतिक प्रगति – एक जायज़ा (पहली किश्त)

एक ऐसा देश जहाँ क्रान्ति से पहले हालत भारत जैसी ही थी, जहाँ  60% से ज़्यादा लोग अनपढ़ थे वह सिर्फ़़ 36 सालों में सांस्कृतिक लिहाज़ से (इस मामले में ख़ास किताबों की संस्कृति) इतना आगे निकल जाता है कि भारत अपने 70 सालों के ‘आज़ादी’ के सफ़र के बाद भी उसके आगे बेहद बौना नज़र आता है? और यह सब वह क्रान्ति-पश्चात चले तीन वर्षों के गृह-युद्ध को सहते हुए, सत्ता से उतारे शोषक वर्गों की ओर से पैदा की जा रही अन्दरूनी गड़बड़ियों के चलते और नाज़ी फ़ासीवादियों के ख़िलाफ़ चले महान युद्ध का नुक़सान उठाते हुए हासिल किया जिस युद्ध में कि सोवियत संघ की आर्थिकता का बड़ा हिस्सा तबाह और बरबाद हो गया था, 2 करोड़ से ज़्यादा नौजवानों को लामिसाली कुर्बानियाँ देनी पड़ीं थीं।

अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की रचना के लिए – सजेंगे फिर नये लश्कर! मचेगा रण महाभीषण!

यूँ तो दुनिया लगातार अविराम गति से बनती-बदलती रहती है, पर इसकी गति सदा एकसमान नहीं रहती। इतिहास के कुछ ऐसे गतिरोध भरे कालखण्ड होते हैं, जब चन्द दिनों के काम शताब्दियों में पूरे होते हैं और फिर ऐसे दौर आते हैं जब शताब्दियों के काम चन्द दिनों में पूरे कर लिये जाते हैं। महान अक्टूबर क्रान्ति (नये कैलेण्डर के अनुसार 7 नवम्बर) का काल एक ऐसा ही समय था जब सर्वहारा वर्ग की जुझारू क्रान्तिकारी पार्टी के मार्ग-निर्देशन में रूस के मेहनतकश उठ खड़े हुए थे और सदियों पुरानी जड़ता और निरंकुशता की बेड़ियों को तोड़ दिया था। बग़ावत शुरू करने का संकेत देते हुए आधी रात को युद्धपोत अव्रोरा की तोपों ने जो गोले दागे, उनके धमाके मानो पूरी दुनिया में गूँज उठे और पूरी दुनिया में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक प्रचण्ड रणभेरी बन गये।

‘‘अब हम समाजवादी व्यवस्था का निर्माण शुरू करेंगे!’’ : जॉन रीड

एक हज़ार कण्ठों से निकली यह प्रबल ध्वनि सभा भवन में तरंगित होकर खिड़कियों-दरवाज़ों से बाहर निकली और ऊपर उठती गयी, ऊपर उठती गयी और निभृत आकाश में व्याप्त हो गयी। ‘‘लड़ाई ख़त्म हो गयी! लड़ाई ख़त्म हो गयी!’’ मेरे पास खड़े एक नौजवान मज़दूर ने कहा, जिसका चेहरा चमक रहा था। और जब यह गान समाप्त हो गया और हम वहाँ निस्तब्ध खोये से खड़े थे, हाॅल के पीछे से किसी ने आवाज़ दी, ‘‘साथियो, हम उन लोगों की याद करें, जिन्होंने आज़ादी के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया!’’ और इस प्रकार हमने शोकगान ‘शवयात्रा’ गाना शुरू किया, जिसका स्वर धीमा और उदास होते हुए भी विजयपूर्ण था। यह था दिल को हिला देने वाला एक ठेठ रूसी गाना। कुछ भी हो, ‘इण्टरनेशनल’ का राग विदेशी ही ठहरा, परन्तु ‘शवयात्रा’ में उस विशाल जनता के प्राणों की गूँज थी, जिसके प्रतिनिधि इस हाॅल में बैठे थे और अपनी धुँधले-धुँधले मानस-चित्र के आधार पर नये रूस का सृजन कर रहे थे – और शायद और भी ज़्यादा…

”यह सबकुछ जनता की सम्पत्ति है!” : अल्बर्ट रीस विलियम्स

यह निष्ठुर और हृदयहीन महल एक सदी से नेवा के तट पर खड़ा था। जनता ने प्रकाश पाने की आशा से इस ओर देखा, परन्तु उसे अन्धकार मिला। लोगों ने अनुकम्पा की भीख माँगी, परन्तु उन्हें कोड़े मिले, उनके गाँव फूँके और उन्हें निष्कासन की सज़ा देकर साइबेरिया भेज दिया गया, नारकीय यन्त्रणाएँ दी गयीं। 1905 की शीत ऋतु में एक दिन सुबह ठिठुरते हुए हज़ारों निहत्थे लोग अन्याय को दूर कराने के लिए ज़ार से अनुनय-विनय करने के ख़याल से यहाँ जमा हुए थे। मगर महल ने इस प्रार्थना के उत्तर में उन पर गोली-वर्षा की और उन्हें तोपों से भून डाला; उनके ख़ून से बर्फ़ लाल हो गयी थी। जन-समुदाय के लिए यह प्रासाद निर्दयता एवं उत्पीड़न का स्मारक बन गया था। यदि उन्होंने इसे भूमिसात कर दिया होता, तो यह केवल अपमानित जनता के ग़ुस्से का एक और दृष्टान्त होता, जिसने सदा के लिए अपने उत्पीड़न के घृणास्पद प्रतीक को मिटाकर आँखों से ओझल कर दिया होता।

हथौड़े की मार : राहुल सांकृत्यायन (‘सोवियत भूमि’ पुस्तक का अंश)

मज़दूरों की पूरी स्वाधीनता कहीं दीख पड़ती है, तो सोवियत संघ में ही। वहाँ का कारख़ाना मज़दूरों का ‘कै़दखाना’ नहीं है, जहाँ कुछ मुट्ठी अन्न या कुछ पैसों की क़ीमत पर उन्हें आजन्म कै़द की सज़ा स्वेच्छा से स्वीकार करनी पड़ती है। सोवियत कारख़ाना मज़दूरों का वह ‘आज़ादी का महल’ है, जहाँ उनकी सभी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है और जहाँ उनके व्यक्तित्व को अधिक से अधिक विकास का मौक़ा मिलता है।

“मैं आश्चर्य से भर जाता हूँ”: रवीन्द्रनाथ टैगोर

मुझे याद है, कैसे सोवियत संघ ने अपने नि:शस्त्रीकरण प्रस्तावों से उन देशों को चौंका दिया था, जो शान्ति-प्रिय होने की बातें करते थे। सोवियत संघ ने ऐसा इसलिए किया था, क्योंकि उनका उद्देश्य राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ताकत बढ़ाते जाना नहीं है – शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था और जनता की आजीविका के साधनों को सबसे कुशलता से और व्यापक रूप से विकसित करके अपने आदर्शों को ज़मीन पर उतारना ही उनका मकसद है – उनके इस मकसद के लिए अत्यन्त ज़रूरी है, बाधारहित शान्ति।

उन्मुक्त स्त्री / रामवृक्ष बेनीपुरी

सोवियत ने स्त्रियों को स्वतन्त्र पेशा अख्तियार करने के लिए सारे दरवाज़े खोल दिये हैं। आज वहाँ ऐसी स्त्री का मिलना मुश्किल है; जो पति की कमाई पर गुज़ारा करती हो। स्थलीय, समुद्री और वायवीय – तीनों सेनाओं में साधारण सिपाही से लेकर बड़े-बड़े अफ़सर बनने तक का अधिकार स्त्रियों को प्राप्त है। वायुसेना में तो उनकी काफ़ी तादाद है। राजनीति में वह खुलकर हिस्सा लेती हैं; और राष्ट्रीय प्रजातन्त्रों तथा सोवियत संघ प्रजातन्त्र के मन्त्री जैसे दायित्वपूर्ण पदों पर वह पहुँच रही हैं। पार्लियामेण्ट के मेम्बरों में उनकी ख़ासी संख्या है। इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर ही नहीं, बड़ी-बड़ी फ़ैक्टरियों में कितनी ही डायरेक्टर तथा डिप्टी डायरेक्टर तक स्त्रियाँ हैं। वर्तमान सोवियत पार्लियामेण्ट के सबसे कम उम्र के सदस्य क्लाउदिया सखारोवा को ही ले लीजिए। सखारोवा की उम्र अभी 19 साल है। वह रोदिन्की स्थान में पैदा हुई थी। उसके माँ-बाप उसी जगह कपड़े की मिल में मज़दूर थे। आजकल की बोल्शेविक बुनाई मिल, जिसकी सखारोवा डिप्टी डायरेक्टर है, क्रान्ति के पहले एक व्यापारी की सम्पत्ति थी।

अक्टूबर क्रान्ति से सबक लो! नई समाजवादी क्रान्ति की मशाल जलाओ!!

कठिन विचारधारात्मक संघर्ष, अटल विचारधारात्मक दृढ़ता और गहरी विचारधारात्मक समझ के बिना कोई सच्ची सर्वहारा पार्टी क्रान्ति करना तो दूर, गठित ही नहीं हो सकती और यदि गठित हो भी गयी तो जल्दी ही बिखर जायेगी। लेनिन और उनके साथी बोल्शेविकों ने एकदम अलग-थलग पड़ जाने का खतरा मोल लेते हुए भी विचारधारा के प्रश्न पर कोई समझौता नहीं किया और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी विचारधारा में किसी भी तरह की मिलावट की मेंशेविकों और कार्ल काउत्स्की के चेलों की साजिशों को एकदम से खारिज कर दिया। उन्होंने पार्टी को कभी भी चवन्निया मेम्बरी वाली महज़ चुनावबाज, यूनियनबाज, धन्धेबाज संगठन नहीं बनने दिया।

भारतीय और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन पर दो विचारोत्तेजक व्याख्यान

नक्सलबाड़ी का जन-उभार भारत में क्रान्तिकारी वामपन्थ की नयी शुरुआत और संशोधनवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद की एक प्रतीक घटना सिद्ध हुआ। इसने मज़दूर-किसान जनता के सामने राज्यसत्ता के प्रश्न को एक बार फिर केन्द्रीय प्रश्न बना दिया। तेलंगाना-तेभागा-पुनप्रा वायलार और नौसेना विद्रोह के दिनों के बाद, एक बार फिर देशव्यापी स्तर पर जनसमुदाय की क्रान्तिकारी ऊर्जा और पहलक़दमी निर्बन्ध हुई, लेकिन ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद के विचारधारात्मक विचलन और विरासत के तौर पर प्राप्त विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण भारतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना एवं राज्यसत्ता की प्रकृति की ग़लत समझ और उस आधार पर निर्धारित क्रान्ति की ग़लत रणनीति एवं आम रणकौशल के परिणामस्वरूप यह धारा आगे बढ़ने के बजाय गतिरोध और विघटन का शिकार हो गयी।

स्त्रियों को पहली बार वास्तविक आज़ादी की राह पर आगे बढ़ाने का काम अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्थापित सोवियत समाजवाद ने किया

आज तमाम बुर्जुआ नारीवादी, उत्तर आधुनिकतावादी, अस्मितावादी चिन्तक, वर्ग-अपचयनवादी सूत्रीकरण पेश करते हुए स्त्री-प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तन को गुज़रे ज़माने की चीज़ बताते हैं। अकादमिक हलक़ाें में भी इस तथ्य का उल्लेख हमें नहीं मिलता है कि रूसी क्रान्ति के बाद इतिहास में सोवियत सत्ता ने पहली बार, स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया, इसे न केवल क़ानूनी धरातल पर बल्कि आर्थिक-राजनीतिक व सामाजिक धरातल पर इसे सम्भव बनाया। ज्ञात इतिहास में पहली बार स्त्रियों को चूल्हे-चौखट की गुलामी से मुक्त किया गया। विवाह, तलाक व सहजीवन जैसे मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को ख़त्म किया गया। भारी पैमाने पर स्त्रियों की उत्पादन और समस्त आर्थिक-राजनीतिक कार्यवाहियों में बराबरी की भागीदारी को सम्भव बनाया। यह कहा जा सकता है कि प्रबोधन कालीन मुक्ति और समानता के आदर्शों को पहली बार इतिहास में वास्तविकता के धरातल पर उतारने का काम अक्टूबर क्रान्ति ने किया।