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केवल सत्‍ता से ही नहीं, पूरे समाज से फ़ासीवादी दानव को खदेड़ने का संकल्‍प लो!

खस्ताहाल अर्थव्‍यवस्‍था का सीधा असर इस देश की मेहनतकश आबादी की ज़ि‍न्दगी पर पड़ रहा है जिसका नतीजा छँटनी, महँगाई, बेरोज़गारी और भुखमरी के रूप में सामने आ रहा है। हर साल की ही तरह पिछले साल भी मज़दूरों की ज़ि‍न्दगी की परेशानियाँ बढ़ती गयीं। पक्‍का काम मिलने की सम्‍भावना तो पहले ही ख़त्‍म होती जा रही थी, अब ठेके वाले काम मिलने भी मुश्किल होते जा रहे हैं जिसकी वजह से मज़दूरों की आय लगातार कम होती जा रही है। नरेन्द्र मोदी द्वारा नये रोज़गार पैदा करने का वायदा तो बहुत पहले ही जुमला साबित हो चुका था, लेकिन पिछले साल यह ख़ौफ़नाक सच्‍चाई सामने आयी कि रोज़गार के अवसर बढ़ना तो दूर कम हो रहे हैं।

ग़ैर-सरकारी संगठनों का सरकारी तन्त्र

सरकारी योजनाओं में ग़ैर-सरकारी संगठनों की घुसपैठ को समझा जा सकता है। नब्बे के दशक में जब भारत में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ लागू की गयीं, उस समय हमारे देश में एनजीओ की संख्या क़रीब एक लाख थी। आज इन नीतियों ने जब देश की मेहनतकश जनता को तबाह-बर्बाद करने में कोई कोर-कसर बाक़ी नहीं रख छोड़ी है, इनकी संख्या 32 लाख 97 हज़ार तक पहुँच चुकी है (सीबीआई की तरफ़ से सुप्रीम कोर्ट में दाखि़ल रिपोर्ट)। यानी देश के 15 लाख स्कूलों से दुगने और भारत के अस्पतालों से 250 गुने ज़्यादा!

लखनऊ का तालकटोरा औद्योगिक क्षेत्र जहाँ कोई नहीं जानता कि श्रम क़ानून किस चिड़िया का नाम है

प्‍लाई, केमिकल, बैटरी, स्‍क्रैप आदि का काम करने वाले कारख़ानों में भयंकर गर्मी और प्रदूषण होता है जिससे मज़दूरों को कई तरह की बीमारियाँ होती रहती हैं। स्क्रैप फ़ैक्‍टरी के मज़दूरों की चमड़ी तो पूरी तरह काली हो चुकी है। अक्सर मज़दूरों को चमड़ी से सम्बन्धित बीमारियाँ होती रहती हैं। अधिकतर मज़दूरों को साँस की समस्या है। इलाज के लिए प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र है जहाँ कुछ बेसिक दवाएँ देकर मज़दूरों को टरका दिया जाता है। इसके अलावा कुछ प्राइवेट डॉक्‍टर हैं जिनके पास जाने का मतलब है अपना ख़ून चुसवाना। गम्‍भीर बीमारी होने की स्थिति में बड़े अस्पतालों जैसे केजीएमयू, लोहिया, बलरामपुर हास्पिटल जाना पड़ता है जिसका ख़र्च उठाना भी मज़दूरों के लिए भारी पड़ता है और इलाज के लिए छुट्टी नहीं मिलने के चलते दिहाड़ी का भी नुक़सान उठाना पड़ता है।

कपड़ा मज़दूरों की हड़ताल से काँप उठा बांग्लादेश का पूँजीपति वर्ग

वॉलमार्ट, टेस्को, गैप, जेसी पेनी, एच एण्ड एम, इण्डिटेक्स, सी एण्ड ए और एम एण्ड एस जैसे विश्व में बड़े-बड़े ब्राण्डों के जो कपड़े बिकते हैं और जिनके दम पर पूरी फै़शन इण्डस्ट्री चल रही है, उस पूरी सप्लाई श्रृंखला के मुनाफ़े का स्रोत बांग्लादेश के मज़दूर द्वारा किये गये श्रम का ज़बरदस्त शोषण ही है। सरकारें और देशी पूँजीपति मुनाफ़ा निचोड़ने की इस श्रृंखला का ही हिस्सा हैं और इसलिए पुरज़ोर कोशिश करते हैं जिससे कम से कम वेतन बना रहे और उनका शासन चलता रहे। पुलिस, सरकार, ट्रेड यूनियनों के कुछ हिस्सों और पूँजीपतियों का एक होकर मज़दूरों को यथास्थिति में बनाये रखने की कोशिश करना साफ़ दर्शाता है कि ये सभी मज़दूर विरोधी ताक़तें हैं।

सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़ों को दिये गये 10 प्रतिशत आरक्षण के मायने

नौकरियों की हालत देखी जाये तो हाल-फ़िलहाल रेलवे पुलिस फ़ोर्स के 10,000 पदों के लिए 95 लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं! उससे पहले उत्तर प्रदेश में चपरासी के 62 पदों के लिए 93,000 आवेदन आये थे तथा 5वीं पास की योग्यता होने के बावजूद आवेदकों में क़रीब 5,400 पीएचडी थे! हरेक भर्ती का यही हाल है। सरकारी महकमों में लाखों पद पहले ही ख़ाली पड़े हैं, आरक्षण जैसे मुद्दे उछालकर अपने वोट बैंक के हित साधने की बजाय सरकारों को सबसे पहले तो इन ख़ाली पदों को भरना चाहिए। आज के समय आरक्षण का मुद्दा वोट बैंक को साधने के लिए एक ज़रिया बन चुका है। आर्थिक तौर पर ग़रीब सामान्य वर्ग के सामने 10 प्रतिशत आरक्षण का लुकमा फेंककर भाजपा ने एक और तो जनता का ध्यान असल सवालों से भटकाने का प्रयास किया है तथा दूसरा सामान्य वर्ग और ख़ासतौर पर स्वर्ण जातियों में अपने खिसकते जनाधार को रोकने का एक हताशाभरा क़दम उठाया है।

उद्योगपतियों को खरबों की सौगात देने वाली झाारखण्ड सरकार को ग़रीब कुपोषित बच्चों को पौष्टिक भोजन देना ”महँगा” लग रहा है!

झारखंड सरकार ने मिडडे मील के तहत बच्चों को मिलने वाले अंडों में कटौती करते हुए इसे हफ्ते में तीन से दो करने का फैसला किया है। सरकार ने कहा है कि हर दिन बच्चों को अंडा खिलाना सरकार को “महँगा” पड़ रहा है। बाकी औने पौने दाम पर खनिज संपदाओं, जंगलों को अपने कॉर्पोरेट मित्रों को बेचना सरकार को “महँगा” नहीं पड़ता। गौरतलब है झारखंड देश के सबसे कुपोषित राज्यों में से एक है और झारखंड के कुल 62% बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। कुल कुपोषित बच्चों में से 47% बच्चों में stunting यानी उम्र की अनुपात में औसत से कम लंबाई पाई गई है जो कि कुपोषण की वजह से शरीर पर पड़ने वाले स्थाई प्रभावों में से एक है।

संकट में धँसती पूँजीवादी व्यवस्था! संकट का सारा बोझ आम मेहनतकश जनता पर ही पड़ने वाला है!!

बैंकिंग व्यवस्था का संकट पहले की तरह ही बदस्तूर जारी है। बैंकों की स्थिति बेहतर दिखाने के लिए उन्हें छूट दी जा रही है कि वे डूबे क़र्ज़ों को भी एनपीए वर्गीकृत न करें। लघु एवं मध्यम उद्योग, विद्युत क्षेत्र, आदि के लाखों करोड़ रुपये के डूबे क़र्ज़ इसी प्रकार छिपाये जा रहे हैं। लेकिन कुछ समय बाद ये सब एक झटके में ही एनपीए बनेंगे। मोदी द्वारा बड़े ज़ोर-शोर से प्रचारित मुद्रा ऋणों का हाल भी रिज़र्व बैंक की हाल की रिपोर्ट में सामने आ गया है। बेरोज़गारी मिटाने हेतु स्व-रोज़गार को प्रोत्साहित करने वाले क़र्ज़ में होने वाले एनपीए का हाल देखिए : 2015-16 के वर्ष में 597 करोड़ रुपये, 2016-17 के साल में 3790 करोड़ रुपये और 2017-18 के वर्ष में बढ़कर 7277 करोड़ रुपये।

मेघालय खदान हादसा : क़ातिल सुरंगों में दिखता पूँजीवादी व्यवस्था का अँधेरा

खदान मज़दूरों की औसत उम्र कम हो जाती है। अगर मज़दूर हादसों से बच भी जाते हैं, तो भी खदानों के अन्दर की ज़हरीली गैसें उनके फेफड़ों और शरीर की कोशिकाओं को काफ़ी नुक़सान पहुँचा चुकी होती हैं। सस्ते श्रम और ज़्यादा मुनाफ़े के चक्कर में खदान मालिक और ठेकेदार बच्चों और महिलाओं को बड़े पैमाने पर काम पर रखते हैं। बेहद पिछड़े इलाक़े से आने के कारण इन्हें कोई क़ानूनी सुरक्षा की भी जानकारी नहीं होती है।

कार्यस्थल पर मज़दूरों की मौतें : औद्योगिक दुर्घटनाएँ या मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था के हाथों क्रूर हत्याएँ

कार्यस्थल पर मज़दूरों की मौतें : औद्योगिक दुर्घटनाएँ या मुनाफ़ाकेन्द्रित व्यवस्था के हाथों क्रूर हत्याएँ वृषाली हाल-फ़िलहाल देश में कई औद्योगिक हादसे सामने आये हैं। इन हादसों ने दिखा दिया…

रिज़र्व बैंक और सरकार का टकराव और अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत

यह बात तो अब बुर्जुआ मीडिया के लिए भी छिपानी नामुमकिन होती जा रही है कि भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अति-उत्पादन और घटती मुनाफ़ा दर के भँवर में गहरे तक फँस चुकी है। इसका ही असर है कि न सिर्फ़ वित्तीय बाज़ार में भुगतान और ऋण के लिए नक़दी का संकट है बल्कि ख़ुद सरकार की वित्तीय स्थिति संकट में है। एक ओर आम मेहनतकश जनता व मध्य वर्ग पर करों का बोझ बढ़ाते जाने लेकिन पूँजीपतियों से टैक्स वसूली में कमी, दूसरी ओर अनुत्पादक प्रशासनिक ख़र्च फ़ौज-हथियारों पर ख़र्च व पूँजीपतियों को तरह-तरह की छूटों में भारी वृद्धि से पूरे साल के बजट में जितने वित्तीय घाटे (6.24 लाख करोड़ रुपये) का अनुमान था, वर्ष के पहले 7 महीनों में ही उसका 104% घाटा (6.48 लाख करोड़) हो चुका है। वजह – चुनावी साल में ख़र्च तो बढ़ा है, पर टैक्स वसूली अनुमान से बहुत कम है। टैक्स आय 7 महीने में सालाना अनुमान की सिर्फ़ 44% है। वह तो सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति की बिक्री से ग़ैर टैक्स आय अनुमान के 52% तक हो गयी है अन्यथा हालात और भी बदतर होते। स्थिति यह है कि अक्टूबर 18 में सरकारी आय अक्टूबर 17 से भी कम हो गयी है।