राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) और नागरिकता संशोधन क़ानून : भारत को हिटलरी युग में धकेलने का फ़ासिस्ट क़दम

– पावेल पराशर

दिसम्बर महीने की 9 तारीख़ को लोकसभा और 11 तारीख़ को राज्यसभा से पारित होने के बाद भारतीय नागरिकता संशोधन विधेयक (CAB) क़ानून बनकर अस्तित्व में आ चुका है। यह लेख लिखे जाने तक इस नये क़ानून के ख़िलाफ़ देशभर के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन जारी है, ख़ासकर त्रिपुरा और असम में यह विरोध उग्र रूप ले चुका है।

क्या है नागरिकता संशोधन बिल?

संसद में जो बिल पास हुआ है, वह नागरिकता अधिनियम 1955 में बदलाव करेगा। नागरिकता संशोधन बिल के क़ानून का रूप लेने से पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न के कारण वहाँ से पलायन करके भारत आये हिन्दू, ईसाई, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध धर्म के लोगों को भारत की नागरिकता दी जायेगी। पेंच यह है कि इस बिल में मुस्लिम धर्म के लोगों को शामिल नहीं किया गया है। नागरिकता हासिल करने के लिए इन हिन्दू, ईसाई, सिख, पारसी, जैन और बौद्ध धर्म को मानने वालों को भारत में कम से कम 6 साल बिताने होंगे, पहले नागरिकता हासिल करने के लिए कम से कम 11 साल बिताने का पैमाना तय था। साथ ही नागरिकता का दावा पेश करने के लिए भारत में प्रवेश करने की निर्णायक तारीख़ 31 दिसम्बर 2014 से पहले की होगी।

गृहमंत्री अमित शाह ने इस बिल को सदन के पटल पर पेश करते हुए ख़ुद को पड़ोसी मुल्क़ों से आये ग़ैर-मुस्लिम “शरणार्थियों” का मुक्तिदाता साबित करने की कोशिश में दिये गये भाषण में ख़ुद ही अपनी पीठ जमकर थपथपायी। संविधान के स्तुतिगान में चन्द शब्द कहे गये, और अमित शाह ने संविधान को अपनी पार्टी का धर्म घोषित कर दिया। यह बिल सदन में पेश करते हुए भारतीय संस्कृति के “वसुधैव कुटुम्बकम्” के सिद्धान्त को चरितार्थ करने का दावा किया गया। प्रधानमंत्री मोदी जो वैसे तो ख़ुद इस बिल के पेश होते समय सदन से अवकाश लेकर झारखण्ड के चुनाव प्रचार में व्यस्त रहे, पर अपने चुनावी भाषणों और ट्वीट के माध्यम से उन्होंने इस बिल को भारतीय संस्कृति के सदियों पुराने सहिष्णुता और आत्मसातीकरण की परम्परा का विस्तार घोषित कर डाला। पर तमाम भाषणबाज़ी, जुमलों और गोदी मीडिया जनित उन्माद के अन्त में जो बिल सदन में पेश हुआ, वह जनवाद के न्यूनतम पैमानों पर भी खरा उतरना तो दूर, मानवाधिकार के बुनियादी मूल्यों के भी बिल्कुल विपरीत खड़ा मिलता है। एक तरफ़ भारतीय राज्य दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और सबसे “महान” धर्मनिरपेक्ष राज्य होने का दावा करता है, वहीं यह नागरिकता संशोधन क़ानून नागरिकता देने अथवा छीनने का पैमाना धर्म को ही मानते हुए ख़ुद अपने संविधान की प्रस्तावना में वर्णित “धर्मनिरपेक्षता”, “लोकतंत्र”, “समानता”, “न्याय”, “बंधुत्व” जैसे शब्दों को भी महज़ जुमला और पाखण्ड साबित करता है।

इस क़ानून के अघोषित उद्देश्यों और इरादों पर तो बाद में चर्चा करेंगे ही, पर सबसे पहले इस क़ानून को लाने के घोषित उद्देश्यों के आधार पर ही इसका आकलन करें तो पायेंगे कि विधेयक को संसद के पटल पर रखते हुए भारत सरकार देश की जनता के साथ धोखेबाज़ी और फ़रेब के अलावा और कुछ नहीं कर रही है। इनका यह दावा कि यह बिल पड़ोसी मुल्क़ों में रहने वाले प्रताड़ित अल्पसंखयक समुदायों को शरण देने के “मानवीय उद्देश्य” से किया गया है, अपने आप में तब झूठा सिद्ध होता है, जब नागरिकता देने का आधार धर्म को घोषित करते हुए म्यांमार में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार रहे रोहिंग्या शरणार्थियों, श्रीलंका के तमिल (हिन्दू व मुसलमान) शरणार्थियों, पाकिस्तान के शिया व अहमदिया समुदायों, चीन के वीगरों को, अफ़ग़ानिस्तान में तालिबानी शासन के बर्बर दौर में वहाँ से भागकर भारत में शरण लेने वालों (जिनमें महिलाओं की अच्छी ख़ासी संख्या थी) इन सबको इस सूची से बाहर रखा गया है।

बिल को पेश करते वक़्त यह तर्क दिया गया है कि पड़ोसी देशों में सिर्फ़ ग़ैरमुसलमान ही साम्प्रदायिक आधार पर उत्पीड़न के शिकार होते हैं, जोकि अपने आप में सच्चाई से कोसों दूर है। दरअसल इस बिल के साम्प्रदायिक प्रावधानों की मदद से एक धार्मिक समुदाय को पूरी तरह से बाहर करके नागरिकता को नये तरीक़े से परिभाषित करने की परिपाटी तय करने की दिशा में इस क़ानून का आकलन ज़रूरी है। यह क़ानून सीधे-सीधे संविधान के अनुच्छेद 15 का उल्लंघन है, जो किसी भी व्यक्ति (चाहे वह नागरिक हो अथवा न हो) के साथ धर्म, जाति, नस्ल, लिंग अथवा जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। (वो अलग बात है कि व्यवहार में संविधान के अंतर्गत दिये तमाम अधिकारों के साथ उन्हें छीन लेने के रास्ते भी छोड़ रखे गये हैं।)

CAB और NRC का मेल, देश को नाज़ी जर्मनी की दिशा में ले जाने वाला ख़तरनाक क़दम

NRC यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, असम में भारतीय नागरिकों के नाम व अन्य प्रासंगिक सूचनाएँ दर्ज करने के लिए 1951 की जनगणना के वक़्त अस्तित्व में आया। यह रजिस्टर 1951 के बाद से अपडेट नहीं हुआ था। इसे अपडेट करने वाला पहला राज्य असम बना। बीते 20 नवम्बर को अमित शाह ने घोषणा की कि सरकार पूरे देश में NRC लागू करने की मंशा रखती है। इसके तहत जिन लोगों का नाम नागरिक रजिस्टर में किन्हीं कारणों से नहीं आ सका, उन्हें ग़ैरक़ानूनी प्रवासी घोषित करके विशेष बन्दी शिविरों में रखा जायेगा, जिन शिविरों के हालात मौजूदा जेलों से बेहतर नहीं हैं। केन्द्र सरकार ने तमाम राज्य सरकारों को अपने-अपने राज्य के प्रमुख शहरों में ऐसे बन्दी शिविरों के निर्माण करने का निर्देश दे दिया है। असम में तो ऐसे बन्दी शिविर तैयार भी हो चुके हैं जहाँ नज़रबन्द लोग बेहद नारकीय हालत में रहने को मजबूर हैं। कुछ दिनों पहले देश के गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में यह क़बूल किया था कि इन शिविरों में अब तक 29 मौतें हो चुकी हैं। असली आँकड़ा इससे कई गुना अधिक होने की सम्भावना जतायी जा रही है और इन मौतों के प्रमुख कारणों में, रहने के बेहद अमानवीय हालात से लेकर, गन्दगी, बीमारियाँ व चिकित्सा सेवाओं के भीषण अभाव को ज़िम्मेदार ठहराया जाता रहा है।

CAB के पारित होने के बाद किसी व्यक्ति को अपनी नागरिकता को इन तीन बिन्दुओं पर सिद्ध करना पड़ेगा: 1. उस व्यक्ति ने अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान से भारत में 31 दिसम्बर 2014 की कट ऑफ़ तारीख़ से पहले प्रवेश किया हो; 2. उस व्यक्ति के पास अपने मूल देश का पहचान प्रमाणपत्र व भारत आने की यात्रा के दस्तावेज़ हों; 3. उसने धार्मिक उत्पीड़न के आधार पर पलायन किया हो। यह साफ़ है कि इन तीन बिन्दुओं में से ख़ासकर दूसरे व तीसरे बिन्दु को सिद्ध कर पाना बेहद कठिन है, व ऐसा करने में विफल होने का मतलब है बन्दी शिविरों में नज़रबन्द हो जाना, या फिर लम्बी व बेहद तकलीफ़देह क़ानूनी प्रक्रिया में अपना सबकुछ झोंक देना।

इन प्रावधानों के आधार पर भारी संख्या में ऐसे लोग NRC में पंजीकृत होने से वंचित रह जायेंगे जो भारत में कई पुश्तों से रह रहे हैं लेकिन ग़रीबी, अशिक्षा, विस्थापन जैसे तमाम कारणों से दस्तावेज़ प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं। लाखों लोग जो इन फ़िज़ूल के सरकारी दस्तावेज़ी तामझाम में फँसकर अपने परिवारों से अलग हो जायेंगे। कई ग़रीब जिन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ने हेतु अपनी मुफ़लिसी के बीच तमाम संसाधनों को फूँकना पड़ जायेगा। इस मुद्दे पर एक ज़रूरी पक्ष ये भी है कि भारत के सरकारी दफ़्तरों में कामकाज की स्थिति इतनी निष्प्रभावी व निकम्मी है, जिसके उदाहरण हम वोटर कार्ड से लेकर राशन कार्ड, आधार कार्ड तक में होने वाली ग़लतियों के रूप में प्रत्यक्ष देखते हैं। इसकी मार भी NRC की प्रक्रिया झेल रहे लाखों नहीं करोड़ों लोगों को झेलनी पड़ेगी। अमेरिका के जॉर्ज मैसन यूनिवर्सिटी में रिसर्च कर रही श्रुति राजगोपालन कहती हैं कि भारत के सरकारी विभाग यदि NRC की प्रक्रिया को अप्रत्याशित रूप से बेहद प्रभावी ढंग से भी अंजाम देते हैं, और सिर्फ़ 5% की त्रुटि दर से NRC की प्रक्रिया पूरी करते हैं तो भी क़रीब 6.75 करोड़ भारतीय, नागरिकता खोकर बन्दी शिविर में क़ैद हो जायेंगे। ये संख्या द्वितीय विश्व युद्ध में हुए विस्थापन की संख्या से भी बड़ी है। ये तब जब ये सारे सरकारी तामझाम बेहद कम त्रुटि दर के साथ सम्पन्न हो जायें, जबकि सरकारी विभागों का अबतक की तमाम योजनाओं को ज़मीन पर उतारने का ट्रैक रिकॉर्ड इशारा करता है कि प्रबल सम्भावना इस प्रक्रिया के इससे कहीं अधिक बुरे कार्यान्वयन की है।

सिर्फ़ असम की ही बात करें तो 3 करोड़ की जनसंख्या को 4 साल से अधिक समय तक भयंकर पीड़ादायक प्रक्रिया से गुज़ारने के बाद NRC ने 19 लाख लोगों की ज़िन्दगी को बेहद तकलीफ़देह तनाव व असुरक्षा से भर दिया। लेकिन इस प्रक्रिया ने दशकों से चुनावबाज़ पार्टियों द्वारा फैलाये जा रहे उस झूठ और प्रोपागैण्डा का भी पर्दाफ़ाश कर दिया कि बांग्लादेश से भारी संख्या में मुसलमानों ने आकर राज्य की जनसांख्यिकी को बदल दिया है और तमाम संसाधनों पर क़ब्ज़ा कर लिया है, असमियों को अल्पसंख्यक बना दिया है और उनकी भाषा-संस्कृति को ख़तरे में डाल दिया है। इस झूठ को फैलाने का प्रमुख उद्देश्य शासक वर्ग की पार्टियों द्वारा जनता को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार, जैसी बुनियादी ज़रूरतें मुहैया न करा पाने की नाकामी पर पर्दा डालना और मेहनतकश जनता को एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ाकर उन्हें बाँटना होता है। NRC में आने में असफल रहे 19 लाख लोगों में भी 13 लाख तो असमिया बंगाली हिन्दू, नेपाली, गोरखा, व असम के आदिवासी हैं। असम में ही 4 साल की इस जटिल व महँगी प्रक्रिया पर 15 हज़ार करोड़ फूँकने के बाद भी असम की कुल आबादी के बमुश्किल दो प्रतिशत ऐसे लोग मिले जिनके बांग्लादेशी होने का शक हो। कल को इनमें से भी अधिकतर असमिया ही निकलें तो ताज्जुब न करें। अब सोचिए यही प्रक्रिया पूरे देश में अपनायी जायेगी तो क्या हाल होगा। असम में लगभग हर साल बाढ़ आती है, गाँव के गाँव डूब जाते हैं। ग़रीब वंचित तबक़ों का तो सबकुछ बाढ़ में बह जाता है, दस्तावेज़ भी। उनसे ये फ़ासिस्ट सरकार 1971 और 1951 से पहले के दस्तावेज़ माँग रही है और न दे पाने की सूरत में तमाम नागरिक अधिकार छीनकर बन्दी कैम्प के नरक में झोंक देना चाहती है।

असम तो छोड़िए पूरे देश में 1951 से पहले के दस्तावेज़ की शर्त लागू की जाये तो अधिकतर ग़रीब मज़दूर, किसान इसे प्रस्तुत कर पाने में असमर्थ होंगे। हालाँकि यह बात भाजपा भी जानती है कि इतनी बड़ी संख्या को बांग्लादेश भेजना सम्भव नहीं, लेकिन इस उन्माद का इस्तेमाल देशभर में साम्प्रदायिक विभाजन और नफ़रत को हवा देने व बेरोज़गारी, मन्दी, भुखमरी जैसी तमाम समस्याओं से भटकाने के लिए ही किया जा सकता है। साम्प्रदायिक आधार पर नागरिकता और एक अल्पसंख्यक समुदाय विशेष के लिए अमानवीय बन्दी शिविरों का निर्माण नाज़ी यातना शिविरों की यादें ताज़ा करने के लिए काफ़ी है।

सदन में बिल पर चर्चा के दौरान इस बिल के नंगे साम्प्रदायिक चरित्र पर सवाल पूछे जाने पर अमित शाह ने ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते हुए कहा कि यदि 1947 में कांग्रेस ने धर्म के आधार पर विभाजन न किया होता तो आज इस बिल की ज़रूरत ही न पड़ती। यहाँ कांग्रेस की विभाजन में भूमिका से पहले इस विभाजन के मुख्य सूत्रधारों की काली भूमिका पर बात होनी सबसे पहले ज़रूरी है, जिन्होंने दो राष्ट्र का सिद्धान्त देकर हिन्दुओं व मुसलमानों को अलग-अलग राष्ट्र के रूप में चिह्नित किया, और साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन की बुनियाद रखी। अक्सर धर्म के आधार पर हिन्दू और मुसलामानों को दो राष्ट्र के रूप में अलग-अलग परिभाषित करने का श्रेय मुहम्मद अली जिन्ना को दिया जाता है। लेकिन जिन्ना के साथ इस कुकर्म के साझे गुनाहगार भाजपा–संघ के परम श्रद्धेय माफ़ीवीर विनायक दामोदर सावरकर भी रहे जिन्होंने जिन्ना से पहले 1935 में, अहमदाबाद में हुए हिन्दू महासभा के अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धान्त की प्रस्थापना दी थी। इसके अलावा भाजपा के मातृसंगठन, आरएसएस के संस्थापकों ने भी बार- बार इस बात को दोहराते हुए मुस्लिम लीग और जिन्ना के सुर में सुर मिलाने का काम किया और साम्प्रदायिक विभाजन में प्रमुख भूमिका निभायी थी। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एम. एस. गोलवलकर ने अपनी पुस्तक “वी ऑर आवर नेशनहुड डिफ़ाइन्ड” में तो ये तक लिखा है कि जो लोग हिन्दू राष्ट्र के सिद्धान्त से सहमत नहीं, वो देश के ग़द्दार हैं। ऐसे में अमित शाह द्वारा विभाजन का ठीकरा दूसरों पर फोड़ना और अपने ख़ुद के राजनीतिक पूर्वजों के विभाजनकारी कुकृत्यों और शर्मनाक इतिहास पर कुछ न कहना उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाली बात है।

साफ़ है कि NRC की यह प्रक्रिया व CAB भारत की एक विशाल आबादी को, जो कई पुश्तों से भारतीय समाज का अभिन्न अंग है, सिर्फ़ दस्तावेज़ो की असमर्थता के कारण तमाम नागरिक अधिकारों व मूलभूत नागरिक सुविधाओं से वंचित करने का फ़ासीवादी षड्यंत्र है। इस प्रक्रिया के कारण भारी संख्या में लोगों के वोट देने का अधिकार, खेती व रोज़गार छिन जायेगा। नागरिक अधिकार छिन जाने और ग़ैरक़ानूनी आप्रवासी घोषित कर दिये जाने पर यह विशाल आबादी श्रम के सस्ते स्रोत में बदल दी जायेगी। असम या भारत ही नहीं, दुनियाभर में क्षेत्रीयता, नस्ल, भाषा व सम्प्रदाय के आधार पर इन्सानों को “ग़ैरक़ानूनी” घोषित करने का यह प्रचलन श्रम की मण्डी में मेहनतकशों के मोलभाव की शक्ति को और भी कम कर देता है। जब इतनी विशाल आबादी नागरिक अधिकार खोने की वजह से श्रम की मण्डी में मोलभाव की शक्ति खो देगी और बेहद कम क़ीमत पर अपनी श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होगी, तो बाक़ी के मेहनतकश नागरिक, जिनके पास नागरिकता है, उन्हें भी अपनी श्रमशक्ति को बेहद सस्ते में बेचने को मजबूर होना पड़ेगा। यानी कि धनपशु पूँजीपतियों को सस्ते से सस्ते में मज़दूर मुहैया होंगे जो अपनी बर्बादी की बुनियाद पर मालिकों के मुनाफ़े की तिजोरी भरेंगे। इसके अलावा सरकार द्वारा भयंकर बेरोज़गारी, मन्दी, आर्थिक संकट, जर्जर होती शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएँ व भ्रष्टाचार से उपजे जनाक्रोश को शान्त करने हेतु मेहनतकश जनता के सामने काल्पनिक शत्रु खड़ा कर देना और उन्हें आपस में धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र के आधार पर लड़ाकर विभाजित करना ही इस पूरी प्रक्रिया का मुख्य उद्देश्य है।

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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