बग़ावत की चिंगारी सुलगा गया गुज़रा साल
नये साल में इसे इन्क़लाब की ज्वाला में तब्दील करने की तैयारी करनी होगी!

– सम्पादकीय

इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक भी पूरा हो चुका है। इस पूरे दशक के दौरान लगातार जारी पूँजीवाद का विश्वव्यापी संकट दुनियाभर की मेहनतकश आवाम की ज़िन्दगी को तार-तार करता रहा। क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैरमौजूदगी या कमज़ोरी की वजह से दुनिया के तमाम देशों में इस संकट का लाभ धुर-दक्षिणपन्थी और फ़ासिस्ट ताक़तों ने उठाया। हमारे देश में भी फ़ासीवाद का दानव मज़दूर वर्ग पर कहर बरपा करने के साथ ही साथ सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक-प्रशासनिक-न्यायिक संरचना में अपनी घुसपैठ बढ़ाता रहा।

लेकिन निराशा और घुटन से भरे इस अँधेरे फ़ासीवादी दौर में बीते साल प्रतिरोध की आग भभक उठी। विभिन्न देशों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर शुरू हुए जनान्दोलनों ने जल्द ही जनबग़ावत का रूप ले लिया जो जंगल की आग की तरह दुनिया के कई महाद्वीपों में फैल गयी। इस वैश्विक विद्रोह की वजह से पूँजीवाद के अस्तित्व पर ख़तरा भाँपते हुए लग्गू-भग्गू विचारक भी ख़ौफ़ज़दा होकर पूँजीपति वर्ग को चेताने में जुट गए। भारत में भी जब फ़ासीवाद की अँधेरी सुरंग अन्तहीन लगने लगी थी तभी नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के ख़िलाफ़ स्वत:स्फूर्त जनप्रतिरोध की चिंगारी नज़र आने लगी। यह जनप्रतिरोध अब एक देशव्यापी जनान्दोलन की शक्ल अख़्तियार कर चुका है।

इसमें कोई शक नहीं है कि सीएए और एनआरसी के ख़िलाफ़ शुरू हुए स्वत:स्फूर्त जनान्दोलन में एक व्यापक फ़ासीवाद-विरोधी और व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन की सम्भावना छिपी है, बशर्ते कि सही रणनीति के तहत इसकी दिशा तय की जाये। आज क्रान्तिकारी ताक़तों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस आन्दोलन को स्वत:स्फूर्ततावाद और संविधानवाद की चौहद्दी से बाहर निकालने की है। इस चुनौती पर हम आगे बात करेंगे, लेकिन आइए पहले हम पिछले साल के घटनाक्रम पर एक नज़र दौड़ा लें।

राष्ट्रीय पटल पर बीते साल घटी प्रमुख घटनाएँ

गुज़रा साल भारत के समकालीन इतिहास के सबसे अहम सालों में गिना जाएगा क्योंकि जहाँ एक ओर इस साल के दौरान फ़ासीवाद की आक्रामकता अभूतपूर्व स्तर पर जा पहुँची वहीं दूसरी ओर उसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध भी व्यापक हुआ। राजनीतिक रूप से साल की सबसे महत्वपूर्ण घटना निस्संदेह सोलहवें लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में फ़ासीवादी भाजपा की विशाल जीत रही। यह जीत इस मायने में अहम है क्योंकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान आम जनता की ज़िन्दगी बद से बदतर होने के बावजूद फ़ासिस्ट फिर से सत्ता में वापस आने में कामयाब हो गए। इस जीत ने साफ़ तौर पर दिखाया कि राजनीतिक नतीजे सीधे-सीधे आर्थिक हालात से तब तक तय नहीं होते जब तक कोई राजनीतिक शक्ति जनता के बीच सक्रिय होकर राजनीतिक एजेण्डा नहीं सेट करती। इस जीत ने यह भी दिखाया कि फ़ासिस्ट भारत के बुर्जुआ संवैधानिक ढाँचे की तमाम संस्थाओं को दीमक की तरह चाटकर अन्दर से खोखला बना चुके हैं और अब महज़ लोकतंत्र का खोल बचा हुआ है।

मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के शुरुआती महीनों में ही अपनी मंशा ज़ाहिर करते हुए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एजेण्डे के तहत एक के बाद एक निरंकुश क़ानून बनाए। इस कार्यकाल में मोदी सरकार की ओर से गृहमंत्री और भाजपा अध्यक्ष और हत्या के आरोपी तड़ीपार अमित शाह ने मोर्चा सँभाला। सबसे पहले कुख़्यात यूएपीए क़ानून में संशोधन करके सरकार ने अपना विरोध करने वाले किसी भी व्यक्ति को उसकी विचारधारा के आधार पर आतंकी घोषित करने की पूरी तैयारी कर ली और एनआईए को और ज़्यादा ताक़तवर बना दिया। उसके बाद आरटीआई क़ानून में भी संशोधन करके सूचना आयुक्त के पद की स्वायत्तता ख़त्म करके अपने अधीन कर लिया।

बीते साल मोदी सरकार ने हिन्दुत्व की अपनी घिनौनी अन्धराष्ट्रवादी राजनीति की बिसात में कश्मीर का जमकर इस्तेमाल किया। चुनाव से ठीक पहले अपनी लोकप्रियता गिरती देख सरकार ने संदिग्ध पुलवामा आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के बालाकोट पर फ़र्जी एयरस्ट्राइक करके अन्धराष्ट्रवाद का बवण्डर खड़ा करके लोगों की आँखों में जमकर धूल फेंकी जिसका असर चुनावी नतीजों में भी दिखा। जीत के बाद अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने आर.एस.एस. के पुराने एजेण्डे को लागू करते हुए संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए में जम्मू एवं कश्मीर को दिये गये विशेष राज्य के दर्जे को छीन लिया। यही नहीं, जम्मू एवं कश्मीर का राज्य के रूप में अस्तित्व ही ख़त्म करके उसे दो केन्द्र शासित क्षेत्रों में तब्दील कर दिया गया। उसके बाद पिछले पाँच महीने से कश्मीर में अभूतपूर्व नाकेबन्दी के हालात बना दिये गये और मोबाइल फ़ोन, इण्टरनेट के साथ ही साथ लैण्डलाइन फ़ोनों तक को बन्द करवाकर कश्मीर को दुनिया से काटकर अँधेरे युग में पहुँचा दिया गया। कश्मीर की अर्थव्यवस्था तबाह करके कश्मीरी क़ौम के वजूद को ही नेस्तनाबूद करने का इन्तज़ाम कर दिया गया है। सरकार दावा कर रही है कि कश्मीर में अब शान्ति बहाल हो गयी है, लेकिन कश्मीर की हक़ीक़त से वाक़िफ़ कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि यह तूफ़ान से पहले की शान्ति है।

लोकसभा चुनावों से पहले आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार के फिसड्डीपन को छिपाने के लिए संघ परिवार की वानरसेना ने एक बार फिर राम मन्दिर की काठ की हाड़ी चुनावी आँच पर रखने की पुरज़ोर कोशिश की, हालाँकि उन्हें इस बार जनता की ओर से कोई ख़ास समर्थन नहीं मिला। संवैधानिक-न्यायिक प्रक्रिया की धज्जियाँ उड़ाकर बाबरी मस्जिद को ढहाने वाले संघ परिवार को मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में एकाएक देश की न्यायिक प्रक्रिया पर पूरा यक़ीन हो गया। राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद में उच्चतम न्यायालय की ओर से आये फ़ैसले ने भारत के बुर्जुआ संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता की ताबूत पर आख़िरी कील गाड़ते हुए हिन्दुओं की आस्था के आधार पर उनके पक्ष में फ़ैसला सुनाया, हालाँकि इस फ़ैसले के बाद हिन्दुत्ववादी जिस तरह का साम्प्रदायिक माहौल बनाना चाहते थे वैसा बन नहीं पाया।

उसके बाद गृहमंत्री अमित शाह की अगुवाई में मोदी सरकार ने अगला दाँव नागरिकता संशोधन विधेयक के रूप में खेला। इस संशोधन के ज़रिये बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान से भारत में आने वाले ग़ैर-मुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने का प्रावधान कर दिया गया, लेकिन मुस्लिम शरणार्थियों को इस अधिकार से वंचित रखा गया। इस घोर साम्प्रदायिक क़ानून के ख़िलाफ़ पूरे देश में छात्रों-युवाओं, मुसलमानों और धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन करने वाले नागरिकों का ग़ुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा। जैसाकि अक्सर होता है, फ़ासिस्ट सत्ता द्वारा इस आन्दोलन का बर्बर दमन करने की नाकाम कोशिशें की गयीं, जिनकी वजह से इस आन्दोलन ने और बड़ा रूप धारण कर लिया। हालाँकि यह आन्दोलन स्वत:स्फूर्त ढंग से उभरा है, परन्तु इस आन्दोलन की सबसे बड़ी चुनौती अब आगे इसे सुनियोजित ढंग से चलाते हुए व्यापक फ़ासीवाद-विरोधी और व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन में तब्दील करना है। इसके लिए क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच एनआरसी व सीएए के ख़तरे के बारे में सघन प्रचारात्मक कार्रवाई करनी होगी और उन्हें इस आन्दोलन से जोड़ना होगा। साथ ही लोगों को यह बताने की ज़रूरत है कि इस आन्दोलन का मूलमंत्र ‘संविधान बचाओ’ जैसे रक्षात्मक नारे की बजाय फ़ासिस्ट ताक़तों को धूल चटाकर वास्तविक धर्मनिरपेक्षता पर आधारित नया समाज बनाना होना चाहिए। इसकी वजह यह है कि फ़ासिस्ट जो करतूतें अंजाम दे रहे हैं वे संविधान का उल्लंघन करके नहीं, बल्कि उसी में दिये गये प्रावधानों का इस्तेमाल करके कर रहे हैं।

पिछले साल मोदी सरकार द्वारा राजनीतिक मोर्चे पर उठाये गये अभूतपूर्व क़दमों को आर्थिक मोर्चे पर उसकी विफलता के सन्दर्भ में देखने पर ही तस्वीर पूरी होती है। अब इसमें कोई विवाद नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था एक भयंकर मन्दी के भँवरजाल में फँस चुकी है। यहाँ तक कि मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम को भी यह स्वीकार करना पड़ा कि अर्थव्यवस्था आईसीयू में पहुँच गयी है। अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र से कोई उम्मीद नहीं नज़र आ रही है। मैन्युफ़ैक्चरिंग, ऑटोमोबाइल, इंफ़्रास्ट्रक्चर, बैंकिंग और नॉन-बैंकिंग वित्तीय सेक्टर एवं रियल एस्टेट तो कोमा में जा चुके हैं। पिछले साल अप्रैल-जून की तिमाही में जीडीपी वृद्धि की दर 5 फ़ीसदी रही जबकि जुलाई-सितम्बर की तिमाही में वह लुढ़ककर 4.5 फ़ीसदी रह गयी। यह पिछले छह सालों में सबसे कम है। कहने की ज़रूरत नहीं कि वास्तविक जीडीपी दर इससे भी कम होगी क्योंकि जीडीपी मापने के नए तरीक़े में गड़बड़ी की बात सर्वज्ञात है। इसके अलावा डॉलर के मुक़ाबले रुपये का मूल्य भी पिछले साल लगातार गिरता रहा। विदेशी व्यापार में भी सुस्ती छायी रही। बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सबसे अधिक रही है। हर साल की ही तरह पिछले साल भी महँगाई की वजह से आम मेहनतकश आबादी की कमर टूटती रही। इसके अलावा पिछले साल निजीकरण की गाड़ी को बुलेट ट्रेन की रफ़्तार से चलाते हुए मोदी सरकार ने रेलवे, एचएएल, ऑर्डनांस फ़ैक्टरी और ओएनजीसी जैसे अहम सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के निजीकरण की दिशा में धकेलने के लिए अहम फ़ैसले लिये।

मज़दूर वर्ग के लिए गुज़रा साल भी जद्दोजहद भर रहा। अर्थव्यवस्था की इस ख़स्ता हालत का सबसे ज़्यादा ख़ामियाज़ा मज़दूर वर्ग को चुकाना पड़ा। औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों को काम के लाले पड़ गये और जिनके पास काम थे उनपर छँटनी की तलवार लगातार लटकती रही। मोदी सरकार ने पूँजीपतियों की ओर से मज़़दूरों के अधिकारों पर सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए 44 मौजूदा केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर चार संहिताएँ—मज़दूरी पर श्रम संहिता, औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा पर श्रम संहिता और औद्योगिक सुरक्षा एवं कल्याण पर श्रम संहिता—बनाने की दिशा में अहम क़दम उठाये। गत 20 नवम्बर को तीन पुराने श्रम क़ानूनों—औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926 और औद्योगिक रोज़गार अधिनियम 1946—को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता (लेबर कोड ऑन इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स) को मंज़ूरी दे दी गयी जिसके तहत अब पूँजीपति मज़दूरों को क़ानूनी तरीके़ से 3 महीने, 6 महीने या सालभर के लिए ठेके पर रख सकता है और फिर उसके बाद उसे काम से बाहर निकाल सकता है। इसके अलावा पिछले साल मज़दूरी श्रम संहिता अधिनियम (कोड ऑफ़ वेजेज एक्ट) भी पारित किया गया जिसके लागू होने के साथ ही चार पुराने अधिनियमों – वेतन भुगतान अधिनियम 1936, न्यूनतम वेतन अधिनियम 1948, बोनस भुगतान अधिनियम 1965, और समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 को ख़त्म कर दिया गया। पिछले साल नवम्बर में मज़दूरी संहिता नियमावली का ड्राफ़्ट भी जारी कर दिया गया जिसमें 8 घण्टे के कार्यदिवस की बजाय 9 घण्टे के कार्यदिवस की सिफ़ारिश की गयी और आपातकालीन परिस्थितियों में 16 घण्टे तक काम कराने की छूट देने की सिफ़ारिश भी की गयी है। साफ़ है कि हर साल की ही तरह पिछले साल भी मोदी सरकार ने पूँजीपतियों को मनचाहे तोहफ़े देते हुए मज़दूरों के रहे-सहे अधिकारों को छीनकर उनकी हडि्डयाँ तक निचोड़ने का पुख़्ता इंतज़ाम किया।

पिछले साल जहाँ एक ओर अनाजमण्डी जैसे हादसों में मज़दूर मुनाफ़े की हवस को शान्त करने के लिए आग में झोंके गये वहीं दूसरी ओर पूँजीवादी पितृसत्ता के नशे में चूर दरिन्दों द्वारा स्त्रियों को भी आग में झोंकने की कई बर्बर घटनायें सामने आयीं। विशेषकर हैदराबाद और उन्नाव में हुई हैवानगी के बाद देशभर में आक्रोश देखा गया। लेकिन ये घटनाएँ अपवाद नहीं थीं। पिछले साल की शुरुआत में ही बिहार के गया जिले में 16 साल की लड़की का दुष्कर्म के बाद सिर धड़ से अलग कर दिया गया और तेज़ाब डालकर पहचान मिटाने की कोशिश की गयी। फ़रवरी में मुंबई के माहिम इलाक़े एक पाँच साल की बच्ची से दुष्कर्म कर हत्या कर दी गयी। अप्रैल में यूपी के कन्नौज में रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना हुई, जिसमें सात साल की लड़की की दुष्कर्म के बाद यातनाएँ देकर हत्या कर दी गई, उसके शरीर की 12 हडि्डयाँ टूटी मिलीं। अप्रैल में ही कर्नाटक के रायचूर जिले में में एक महिला से दुष्कर्म के बाद उसे ज़िन्दा जला दिया गया। मई में यूपी के रामपुर में तीन दरिन्दों ने एक 17 साल की मूक-बधिर लड़की के साथ रेप किया और उसका वीडियो वायरल कर दिया। पिछले ही साल उन्नाव में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर ने पीड़िता को उसके परिवार सहित ख़त्म करने की साज़िश रची जो नाकाम रही। देशभर में उन्नाव की घटना के ख़िलाफ़ जनाक्रोश की वजह से वहाँ के पुलिस प्रशासन और न्यायपालिका पर भी दबाव पड़ा जिसका नतीजा यह हुआ कि सेंगर को निचली अदालत ने दोषी करार दिया और आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी। लेकिन अभी भी पूर्व गृहराज्यमंत्री चिनमयानन्द को सज़ा नहीं हुई है। इसके अलावा नित्यानन्द तो देश छोड़कर ही भाग गया और इतना पैसा लेकर भागा कि एक टापू ख़रीदकर कैलासा नामक एक नया देश ही बना लिया।

मज़दूर बिगुल, जनवरी 2020


 

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