फ़ैक्टरी-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास – 1*
(रूसी सामाजिक-जनवादी पार्टी के मसौदा कार्यक्रम की व्याख्या का एक अंश)

– व्ला.इ. लेनिन


(लेनिन ने 1895 में सेण्ट पीटर्सबर्ग के सभी मार्क्सवादी मज़दूर मण्डलों को मिलाकर ‘मज़दूर मुक्ति संघर्ष लीग’ की स्थापना की थी जिसने मज़दूरों के बीच मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार के साथ ही हड़तालों और आन्दोलनों में भी गुप्त रूप से अग्रणी भूमिका निभायी। उस समय तक रूस के कई शहरों में मार्क्सवादी ग्रुप गठित हो चुके थे जिन्हें एकजुट करके लेनिन सर्वहारा वर्ग की एक अखिल रूसी पार्टी बनाना चाहते थे। इसी बीच, दिसम्बर 1895 में ज़ारशाही ने लेनिन को गिरफ़्तार कर लिया। चौदह महीने तक विचाराधीन क़ैदी के रूप में जेल में रखने के बाद उन्हें तीन वर्ष के लिए साइबेरिया निर्वासन का दण्ड सुनाया गया।

जेल और निर्वासन के दौरान लेनिन लगातार सैद्धान्तिक और प्रचारात्मक-आन्दोलनात्मक लेखन करते रहे। जेल में रहते हुए दिसम्बर 1895 से जुलाई 1896 के बीच उन्होंने रूस की सामाजिक-जनवादी पार्टी के कार्यक्रम का एक मसौदा तैयार किया और आम कार्यकर्ताओं तथा मज़दूरों को समझाने के लिए उसकी एक लम्बी व्याख्या भी लिखी। यह सबकुछ उन्होंने दवाइयों की किताब की पंक्तियों के बीच अदृश्य स्याही के रूप में दूध का इस्तेमाल करते हुए लिखा। यह लेनिन का महत्वपूर्ण प्रारम्भिक लेखन है। पार्टी कार्यक्रम के इस प्रस्तावित मसौदे और उसकी व्याख्या का पहले-पहल प्रकाशन 1924 में हो पाया।

यह दस्तावेज़ मज़दूरों और कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं के अध्ययन के लिए आज भी बेहद प्रासंगिक है। हम यहाँ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए उक्त मसौदा पार्टी कार्यक्रम की व्याख्या का एक हिस्सा प्रकाशित कर रहे हैं जिसमें इस प्रक्रिया का सिलसिलेवार ब्योरा दिया गया है कि किस प्रकार कारख़ानों में बड़ी पूँजी का सामना करने के लिए एकता मज़दूर वर्ग की ज़रूरत बन जाती है, और किस प्रकार उनकी वर्ग-चेतना विकसित होती है तथा उसके संघर्ष व्यापक होते जाते हैं। लेनिन ने इस बात पर बल दिया है कि पूँजीपतियों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष जब राजनीतिक संघर्ष (राज्यसत्ता के विरुद्ध संघर्ष) बन जाता है, तभी वे अपनी और शेष जनता की मुक्ति की दिशा में आगे डग भर पाते हैं। लेनिन के अनुसार, अपनी राजनीतिक पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर ही मज़दूर वर्ग अपना यह लक्ष्य हासिल कर सकता है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त की रूसी फ़ैक्टरियों से आज की फ़ैक्टरियों के तौर-तरीक़े कई मायनों में बदल गये हैं, लेकिन पूँजीवादी शोषण और उसके विरुद्ध मज़दूरों की एकजुटता एवं लामबन्दी का जो चित्र लेनिन ने उपस्थित किया है, उसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। मज़दूरों और मज़दूर कार्यकर्ताओं के लिए इस ऐतिहासिक दस्तावेज़ का गम्भीर अध्ययन बेहद ज़रूरी है।

(*इस अंश का यह शीर्षक हमारा दिया हुआ है — सम्पादक)


…मज़दूर पूँजीपति के, जो मशीनें चलवाता है, सामने असहाय तथा अरक्षित है। मज़दूर को किसी भी क़ीमत पर पूँजीपति का विरोध करने के साधनों की तलाश करनी होती है, ताकि वह अपना बचाव कर सके। और उसे ऐसा साधन एकता में मिल जाता है। अकेले वह असहाय होता है, परन्तु अपने साथियों के साथ ऐक्यबद्ध होने पर वह एक शक्ति बन जाता है तथा पूँजीपति से संघर्ष करने और उसके प्रहार का मुक़ाबला करने में सक्षम हो जाता है।

एकता मज़दूर के लिए, जिसका सामना अब बड़ी पूँजी से होता है, आवश्यकता बन जाती है। परन्तु क्या लोगों के, जो एक-दूसरे के लिए अजनबी होते हैं, भले ही वे एक फ़ैक्टरी में काम करते हैं, इस पंचमेली समूह को ऐक्यबद्ध करना सम्भव है? कार्यक्रम में वे परिस्थितियाँ इंगित की गयी हैं जो मज़दूरों को एकता के लिए तैयार करती हैं तथा उनमें ऐक्यबद्ध होने की क्षमता तथा योग्यता का विकास करती हैं।

ये परिस्थितियाँ इस प्रकार हैं : 1) बड़ी फ़ैक्टरी, जिसमें पूरे साल नियमित काम का तक़ाज़ा करने वाला मशीनी उत्पादन होता है, मज़दूर और उसकी ज़मीन तथा उसके अपने फ़ार्म के बीच सम्बन्ध को पूरी तरह भंग कर देती है और उसे पूर्ण सर्वहारा बना देती है। यह तथ्य कि प्रत्येक मज़दूर अपने खेत के टुकड़े पर अपने लिए काम करता था, मज़दूरों को एक-दूसरे से अलग करता था तथा उनमें से प्रत्येक को विशिष्ट हित प्रदान करता था, इस प्रकार वह एकता की राह में बाधक था। ज़मीन के साथ मज़दूर का सम्बन्ध-विच्छेद इन बाधाओं को नष्ट कर देता है। 2) इसके अलावा सैकड़ों और हज़ारों मज़दूरों का संयुक्त कार्य स्वयं मज़दूरों को संयुक्त रूप से अपनी आवश्यकताओं पर विचार करने, संयुक्त कार्रवाई करने का आदी बना देता है और उन्हें स्पष्ट रूप से बताता है कि मज़दूरों के पूरे समूह की स्थिति तथा हित एक जैसे हैं। 3) अन्तिम बात, एक फ़ैक्टरी से दूसरी फ़ैक्टरी में मज़दूरों का लगातार स्थानान्तरण उन्हें भिन्न-भिन्न फ़ैक्टरियों में हालात और अमल की तुलना करने, तमाम फ़ैक्टरियों में शोषण के एक जैसे स्वरूप के बारे में आश्वस्त होने, पूँजीपति के विरुद्ध संघर्षों के अन्य मज़दूरों के अनुभव को ग्रहण करने और इस प्रकार मज़दूरों की ऐक्यबद्धता तथा एकजुटता बढ़ाने का आदी बना देता है।

समग्र रूप में इन परिस्थितियों के कारण बड़ी फ़ैक्टरियों में मज़दूरों की एकता का जन्म हुआ है। रूसी मज़दूरों के बीच एकता मुख्यतया तथा बहुधा हड़तालों के रूप में प्रकट होती है (इस कारण पर हम और विचार करेंगे कि यूनियनों या पारस्परिक सहायता कोषों के रूप में संगठन क्यों हमारे मज़दूरों के वश के बाहर की चीज़ है)। बड़ी फ़ैक्टरियों का विकास जितना अधिक होता है मज़दूरों की हड़तालें उतनी ही बारम्बारता के साथ, उतनी ही सशक्त तथा उतनी ही अनमनीय होती हैं; पूँजीवाद द्वारा उत्पीड़न जितना ज़्यादा होता है, मज़दूरों के संयुक्त प्रतिरोध की आवश्यकता उतनी ही बढ़ जाती है। जैसाकि कार्यक्रम में बताया गया है, मज़दूरों की हड़तालों तथा छुटपुट विद्रोहों ने अब रूसी फ़ैक्टरियों में सबसे अधिक व्यापक परिघटना का रूप ग्रहण कर लिया है। परन्तु वे पूँजीवाद की और संवृद्धि होने के कारण तथा हड़तालों की बढ़ती बारम्बारता बढ़ने के कारण अपर्याप्त सिद्ध होते हैं। मालिक उनके ख़िलाफ़ संयुक्त कार्रवाई करते हैं : वे अपने बीच समझौते करते हैं, दूसरे इलाक़ों से मज़दूर लाते हैं तथा मदद के लिए राजकीय यंत्र का संचालन करने वालों की ओर मुड़ते हैं, जो उन्हें मज़दूरों के प्रतिरोध को चकनाचूर करने में मदद देते हैं।

अलग-अलग फ़ैक्टरी में अलग-अलग मालिक का सामना करने के बजाय मज़दूरों को अब पूरे पूँजीपति वर्ग और उसकी सहायता करने वाली सरकार का सामना करना पड़ता है। पूरा पूँजीपति वर्ग पूरे मज़दूर वर्ग के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए मैदान में उतरता है। वह हड़तालों के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाइयों का आयोजन करता है, सरकार पर मज़दूर वर्ग-विरोधी क़ानून पास करने के लिए दबाव डालता है, फ़ैक्टरियों को दूर-दराज़ बस्तियों में स्थानान्तरित करता है, घर पर काम करने वाले लोगों के बीच काम बाँटता है, मज़दूरों के ख़िलाफ़ सैकड़ों दूसरी चालों और युक्तियों का सहारा लेता है। पृथक फ़ैक्टरी, यही नहीं, पृथक उद्योग के मज़दूरों की एकता पूरे पूँजीपति वर्ग का प्रतिरोध करने के लिए अपर्याप्त सिद्ध होती है तथा पूरे मज़दूर वर्ग की संयुक्त कार्रवाई नितान्त आवश्यक हो जाती है। इस तरह अलग-अलग हड़तालों से पूरे मज़दूर वर्ग के संघर्ष का जन्म होता है। मालिकों के ख़िलाफ़ मज़दूरों का संघर्ष वर्ग-संघर्ष में परिणत हो जाता है। सारे मालिक मज़दूरों को अपनी मातहती की स्थिति में रखने और यथासम्भव न्यूनतम मज़दूरी देने के हित से ऐक्यबद्ध होते हैं।

मालिक देखते हैं कि उनके हितों की रक्षा का एकमात्र तरीक़ा यह है कि पूरा मालिक वर्ग संयुक्त कार्रवाई करे, राजकीय यंत्र पर अपना प्रभाव स्थापित करे, इसी तरह मज़दूर भी एक जैसे हित से परस्पर ऐक्यबद्ध होते हैं, यह हित है – अपने को पूँजी द्वारा रौंदे जाने से बचाना, ज़िन्दा रहने के, मानव-अस्तित्व के अपने अधिकार की रक्षा करना। मज़दूरों को भी इसी तरह पक्का यक़ीन हो जाता है कि उन्हें भी एकता, पूरे वर्ग, मज़दूर वर्ग की संयुक्त कार्रवाई की आवश्यकता है और इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्हें राजकीय यंत्र पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहिए।

(क) 4. हम बता चुके हैं कि फ़ैक्टरी मज़दूरों तथा मालिकों के बीच संघर्ष कैसे और क्यों वर्ग-संघर्ष, मज़दूर वर्ग — सर्वहाराओं — का पूँजीपति वर्ग — बुर्जुआ — के विरुद्ध वर्ग-संघर्ष बनता है। सवाल उठता है — इस संघर्ष का पूरी जनता, पूरी मेहनतकश जनता के लिए क्या महत्व है? समकालीन अवस्थाओं में जिनकी हम मुद्दा 1 की व्याख्या में पहले ही चर्चा कर चुके हैं, उजरती मज़दूरों द्वारा किया जाने वाला उत्पादन लघु अर्थव्यवस्था को बाहर धकेल देता है। उजरती श्रम के सहारे जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ती है, नियमित फ़ैक्टरी मज़दूरों की संख्या ही नहीं बढ़ती, अपितु उन किसानों की संख्या में और ज़्यादा वृद्धि होती है, जिन्हें जीवन-यापन कर सकने की ख़ातिर उजरती मज़दूरों के रूप में काम की तलाश भी करनी पड़ती है।

इस समय भाड़े पर काम, पूँजीपति के लिए काम श्रम का सबसे व्यापक रूप बन गया है। श्रम पर पूँजी का प्रभुत्व उद्योग को ही नहीं वरन कृषि क्षेत्र की आबादी के अधिकांश को भी अपनी परिधि में ले आया है। तो समकालीन समाज में अन्तर्निहित उजरती श्रम का यही शोषण है, जिसका बड़ी फ़ैक्टरियाँ अधिकतम विकास करती हैं। शोषण की तमाम विधियाँ, जिनको सारे उद्योगों में सारे पूँजीपति अमल में लाते हैं तथा जिनसे सारी रूसी मेहनतकश आबादी पीड़ित है, ठीक फ़ैक्टरी में संकेन्द्रित हैं, गहन की जाती हैं, उन्हें बाक़ायदा नियम बनाया जाता है और वे मज़दूर के श्रम तथा जीवन के तमाम पहलुओं तक प्रसारित होती हैं, वे एक पूरा नित्यक्रम, एक पूरी पद्धति तैयार करती हैं, जिनके ज़रिये पूँजीपति मज़दूर का ख़ून चूसता है।

एक उदाहरण देकर इस पर प्रकाश डालें — सदैव तथा सर्वत्र जो कोई भाड़े पर काम करता है, वो किसी उत्सव के मनाये जाने पर आराम करता है, अपना काम छोड़ देता है। परन्तु फ़ैक्टरी में दूसरी बात होती है, फ़ैक्टरी के प्रबन्धक एक बार किसी मज़दूर को काम पर रख लेने के बाद उसकी सेवाओं का मनचाहे ढंग से उपयोग करते हैं, मज़दूर की आदतों, उसके जीवन-यापन के प्रथागत तरीक़ों, उसकी पारिवारिक स्थिति, उसकी बौद्धिक आवश्यकताओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते। फ़ैक्टरी को अपने कर्मचारी के श्रम की जब ज़रूरत होती है तब वह उसे काम की ओर धकेलती है, उसे मजबूर करती है कि वह अपना पूरा जीवन उसकी आवश्यकताओं के साँचे में बिठाये, उसके आराम के घण्टों को टुकड़ों में बाँट देती है और अगर वह पाली में काम करता है तो उसे रात को और त्यौहारों के दिन काम करने के लिए मजबूर करती है। कार्य-समय के जितने भी दुरुपयोगों की कल्पना की जा सकती है, फ़ैक्टरी उन सबका आश्रय लेती है, साथ ही वह अपने “नियम”, अपने “अमल” को लागू करती है, जो प्रत्येक मज़दूर के लिए अनिवार्य होते हैं। फ़ैक्टरी में कार्य-व्यवस्था जान-बूझकर इस तरह ढाली जाती है कि भाड़े पर काम करने वाले मज़दूर से उसकी क्षमता के अनुरूप सारा श्रम निचोड़ लिया जाये, द्रुततम गति से निचोड़ लिया जाये और फिर उसे धक्का देकर बाहर निकाल दिया जाये!

यह रहा एक और उदाहरण। जो कोई व्यक्ति काम पर लगता है, वह निस्सन्देह मालिक को वचन देता है कि उसे जो कुछ करने का आदेश दिया जायेगा, वह उसे करेगा। परन्तु जो कोई स्थाई काम के लिए अपना श्रम भाड़े पर देता है, वह अपनी इच्छा कदापि समर्पित नहीं करता; यदि वह मालिक की माँगों को ग़लत और ज़्यादतीभरा समझता है, तो वह उसे छोड़ देता है। फिर भी फ़ैक्टरी यह माँग करती है कि मज़दूर अपनी इच्छा पूरी तरह समर्पित करे। वह अपनी चारदीवारियों के अन्दर अनुशासन लागू करती है, मज़दूर को घण्टी बजने या बन्द होने पर काम शुरू करने या रोकने के लिए विवश करती है, मज़दूर को सज़ा देने का अधिकार ग्रहण करती है, उस पर उन नियमों के, जो उसने स्वयं बनाये हैं किसी भी उल्लंघन के लिए ज़ुर्माना करती है या मज़दूरी में कटौती करती है। मज़दूर मशीन के विशाल समुच्चय का अंग बन जाता है : उसे स्वयं मशीन की तरह आज्ञाकारी, ग़ुलाम होना चाहिए। उसकी अपनी कोई इच्छा नहीं होनी चाहिए।

एक तीसरा उदाहरण ले लें। जो कोई काम पर लगता है, वह अपने मालिक से अक्सर असन्तुष्ट होता है, उसकी शिकायत अदालत में या सरकारी अधिकारी के पास करता है। अधिकारी तथा अदालत दोनों विवाद आमतौर पर मालिक के पक्ष में निपटाते हैं उसका समर्थन करते हैं। परन्तु मालिक का यह हित साधन किसी आम विनियम या किसी क़ानून पर नहीं, वरन पृथक-पृथक अधिकारियों की ताबेदारी पर आधारित होता है, जो भिन्न-भिन्न अवसरों पर कम या अधिक मात्रा में उसकी रक्षा करते हैं और जो मामले को अनुचित रूप से, मालिक के पक्ष में इसलिए तय करते हैं कि वे या तो मालिक के परिचित होते हैं, या फिर इसलिए कि वे कामकाज के हालात के बारे में अपरिचित होते हैं तथा मज़दूर को समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे अन्याय का प्रत्येक पृथक मामला मज़दूर तथा मालिक के बीच प्रत्येक पृथक टक्कर पर, प्रत्येक पृथक अधिकारी पर निर्भर करता है। लेकिन फ़ैक्टरी मज़दूरों का इतना बड़ा समूह जमा कर लेती है, उत्पीड़न को ऐसी सीमा पर पहुँचा देती है कि प्रत्येक पृथक मामले की जाँच करना असम्भव हो जाता है। आम विनियम तैयार किये जाते हैं, मज़दूरों तथा मालिकों के बीच सम्बन्धों के बारे में एक क़ानून बनाया जाता है, ऐसा क़ानून, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। इस क़ानून में मालिकों के लिए हित साधन को राज्य की सत्ता का सहारा दिया जाता है। पृथक अधिकारी द्वारा अन्याय का स्थान क़ानून द्वारा अन्याय ले लेता है। उदाहरण के लिए, इस प्रकार के विनियम सामने आते हैं — यदि मज़दूर काम से ग़ैर-हाज़िर है, तो वह मज़दूरी से ही हाथ नहीं धोता, वरन उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ता है, जबकि मालिक यदि काम के न होने पर मज़दूरों को घर वापस भेज देता है, तो उसे कुछ नहीं देना पड़ता; मालिक मज़दूर को कठोर भाषा का उपयोग करने पर बरख़ास्त कर सकता है, जबकि मालिक का इस प्रकार का बर्ताव होने पर मज़दूर काम नहीं छोड़ सकता; मालिक को अपनी ही सत्ता के आधार पर ज़ुर्माना करने, मज़दूरी में कटौतियाँ करने, उससे ओवरटाइम काम करने की माँग करने का अधिकार होता है, आदि।

ये सब उदाहरण हमें बताते हैं कि फ़ैक्टरी कैसे मज़दूरों का शोषण गहन बनाती है और इस शोषण को सार्वत्रिक बनाती है, उसे एक पूरी “प्रणाली” बना देती है। मज़दूर का अब चाहे-अनचाहे एक अलग मालिक, उसकी इच्छा तथा उसके द्वारा उत्पीड़न से नहीं, वरन एक पूरे मालिक वर्ग के मनमाने बर्ताव तथा उत्पीड़न से साबिक़ा पड़ता है। मज़दूर देखता है कि कोई एक पूँजीपति नहीं, वरन पूरा पूँजीपति वर्ग उसका उत्पीड़क है, क्योंकि शोषण की प्रणाली सारे प्रतिष्ठानों में एक जैसी है। अकेला पूँजीपति इस प्रणाली से अलग होकर नहीं चल सकता : उदाहरण के लिए, उसके दिमाग़ में यदि कार्य-घण्टे घटाने की बात आ जाये, तो उसके माल पर आने वाली लागत उसके पड़ोसी, एक अन्य फ़ैक्टरी मालिक द्वारा, जो अपने मज़दूरों से उतनी ही मज़दूरी पर ज़्यादा घण्टे काम करवाता है, उत्पादित माल की लागत से ज़्यादा होगी। अपनी हालत में सुधार हासिल करने के लिए मज़दूर का उस पूरी सामाजिक प्रणाली से साबिक़ा पड़ता है, जिसका लक्ष्य श्रम का पूँजी द्वारा शोषण है।

मज़दूर को अब एक अलग अधिकारी के अलग अन्याय का नहीं, वरन स्वयं राजकीय सत्ता के अन्याय का सामना करना पड़ता है, जो पूरे पूँजीपति वर्ग को अपना संरक्षण प्रदान करती है, सबके लिए अनिवार्य ऐसे क़ानून जारी करती है, जो उस वर्ग का हित साधन करते हैं। इस तरह मालिकों के विरुद्ध फ़ैक्टरी मज़दूरों का संघर्ष अनिवार्यतः पूरे पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध पूँजी द्वारा श्रम के शोषण पर आधारित पूरी सामाजिक प्रणाली के विरुद्ध संघर्ष में परिणत हो जाता है। यही कारण है कि मज़दूरों का संघर्ष सामाजिक महत्व ग्रहण कर लेता है, पूरी मेहनतकश जनता की ओर से उन तमाम वर्गों के विरुद्ध संघर्ष बन जाता है, जो दूसरों के श्रम के सहारे ज़िन्दा रहते हैं। यही कारण है कि मज़दूरों का संघर्ष रूसी इतिहास में एक नये युग के द्वार खोलता है, वह मज़दूरों की मुक्ति की प्रभात वेला है।

तो फिर पूरे मेहनतकश जनसाधरण पर पूँजीपति वर्ग का प्रभुत्व किसपर आधारित है? वह इस तथ्य पर आधारित है कि सारी फ़ैक्टरियाँ, मिलें, खानें, मशीनें तथा श्रम के औज़ार पूँजीपतियों के हाथों में हैं तथा उनकी सम्पत्ति हैं; इस तथ्य पर आधारित है कि उनके पास भूमि विशाल परिमाण में है (यूरोपीय रूस में पूरी भूमि का एक-तिहाई से अधिक भाग भूस्वामियों के पास है, जिनकी तादाद पाँच लाख से ज़्यादा नहीं है)। मज़दूरों के पास श्रम के कोई औज़ार या सामग्री नहीं होती, इसलिए वे अपनी श्रम-शक्ति पूँजीपतियों के हाथों में बेचने के लिए मजबूर होते हैं, जो उन्हें केवल इतना देते हैं कि वे बस अपना गुज़ारा कर सकें, और जो श्रम का सारा अतिरिक्त उत्पाद अपनी जेबों में ठूँस लेते हैं; इस तरह वे उन्हें इस्तेमाल किये गये कार्य-समय के केवल एक भाग की अदायगी करते हैं शेष वे हस्तगत कर लेते हैं। मज़दूर जनसमुदायों के संयुक्त श्रम के अथवा उत्पादन में सुधारों के परिणामस्वरूप सम्पदा में होने वाली सारी वृद्धि पूँजीपति वर्ग के पास चली जाती है, जबकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी कठोर परिश्रम करने वाले मज़दूर सम्पत्तिहीन सर्वहारा बने रहते हैं।

इसीलिए श्रम के पूँजी द्वारा शोषण का अन्त करने का केवल एक ही रास्ता है, और वह है श्रम के औज़ारों के निजी स्वामित्व का उन्मूलन, सारी फ़ैक्टरियाँ, मिलें, खानें, साथ ही बड़ी जागीरें, आदि पूरे समाज के हवाले करना, स्वयं मज़दूरों के निर्देशन में समाजवादी उत्पादन करना। श्रम द्वारा मिलकर उत्पादित वस्तुएँ तब स्वयं मेहनतकश जनता को लाभान्वित करेंगी, जबकि उनके अपने गुज़ारे से अधिक अतिरिक्त उत्पाद से स्वयं मज़दूरों की आवश्यकताओं की पूर्ति होगी, उनकी सारी क्षमताओं का विकास होगा तथा उन्हें विज्ञान और संस्कृति की समस्त उपलब्धियों का उपभोग करने का समान अधिकार प्राप्त होगा। इसी कारण कार्यक्रम में कहा गया है कि मज़दूर वर्ग तथा पूँजीपतियों के बीच संघर्ष का केवल इसी तरह का अन्त हो सकता है। लेकिन इसके लिए यह आवश्यक है कि राजनीतिक सत्ता, अर्थात राज्य पर शासन करने की सत्ता ऐसी सरकार के, जो पूँजीपतियों तथा भूस्वामियों के प्रभाव में है, हाथों से, अथवा सीधे पूँजीपतियों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को लेकर बनी सरकार के हाथों से मज़दूर वर्ग के हाथों में पहुँचे।

ऐसा है मज़दूर वर्ग के संघर्ष का अन्तिम लक्ष्य, ऐसी है उसकी पूर्ण-मुक्ति की शर्त। यह है वह अन्तिम लक्ष्य, जिसकी सिद्धि के लिए सचेत, संगठित मज़दूरों को प्रयास करना चाहिए। परन्तु यहाँ रूस में उन्हें ज़बर्दस्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो मुक्ति के उनके संघर्ष का रास्ता रोकती हैं।

(इस अंश का दूसरा भाग पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें)

दिसम्बर 1895 – जुलाई 1896 के दौरान लिखित।
पहले पहल 1924 में प्रकाशित।
अंग्रेज़ी से अनूदित

मज़दूर बिगुल, दिसम्बर 2019


 

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