Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

कविता – शहीद भगत सिंह के इहे एक सपना रहे

शहीद भगत सिंह के एही एक सपना रहे
सब बराबर रहे कोई न भूखा मरे
उनके बतिया पर कर हम धियान भईया।
मिल-जुल कर…

जानवरों जैसा सलूक किया जाता है मज़दूरों के साथ

मुझे 2200 महीने की पगार मिलती है और 12-14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। ओवरटाइम सिंगल रेट से देता है और एक भी छुट्टी नहीं मिलती। मैं काम से नहीं घबराता, लेकिन इतनी मेहनत से काम करने के बाद भी सुपरवाइजर माँ-बहन की गाली देता रहता है, ज़रा सी ग़लती पर गाली-गलौज करने लगता है, और अक्सर हाथ भी उठा देता है। मज़दूर लोग दूर गाँव से अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए आये हैं, इसलिए नौकरी से निकाले जाने के डर से वे लोग कुछ नहीं बोलते। शुरू-शुरू में एक-दो फैक्टरी में मैंने पलटकर जवाब दिया तो मुझे काम से निकाल दिया गया। यहाँ मेरा कोई जानने वाला नहीं है, इसलिए मेरे लिए काम करना बहुत ही ज़रूरी है। इसी बात पर मैं भी अब कुछ नहीं बोलता। लेकिन बुरा बहुत लगता है कि सुपरवाइज़र ही नहीं, मैनेजर, चौकीदार और ख़ुद मालिक लोग भी हमें जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते। कारख़ाने में घुसने के समय और काम खत्म करने के बाद बाहर लौटते समय गेट पर बैठे चौकीदार हम लोगों की तलाशी ऐसे लेते हैं, जैसे हम चोर हों। यही नहीं, हम लोगों को चाय पीने, बीड़ी पीने और यहाँ तक कि पेशाब करने के लिए नहीं जाने दिया जाता। बस लंच में ही समय मिलता है। उसके अलावा यदि ज़रूरत हो तो सुपरवाइज़र के आगे नाक रगड़नी पड़ती है। औरत मज़दूरों के साथ तो और भी बुरा बर्ताव होता है। गाली-गलौज, छेड़छाड़ तो आम बात है, जैसे वे औरत नहीं, उस फैक्टरी का प्रोडक्ट हों। एक-दो औरत मज़दूरों ने विरोध किया और पलटकर गाली भी दी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया और बड़ा बेइज्ज़त किया।

कविता – मई दिवस

निर्दोष ग़रीबों के ख़ून से जब शहर शिकागो लाल हुआ,
जब गूँजा नारा अधिकारों का जब फटे कान सरकारों के
मौत से लड़ते जोश के आगे अमरीका बेहाल हुआ।
सारी दुनिया दहल गयी जब तूफ़ान उठा मज़दूरों का,
एक मई इतिहास बना है दुनिया के मज़दूरों का।

जीवन में बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि संघर्ष करना सीखो

लेकिन दोस्तो, उस बैल को लोग इतना चारा तो डालते हैं कि उसे खाकर वह मस्त हो जाये और काम पर लग सके। लेकिन दोस्तो, आपको इस बदलते युग (पूँजीवादी) में कोई पूछने भी नहीं आयेगा। आप सब क्यों जानते हुए भी जानवरों की तरह जीना चाहते हैं? यह भी कोई ज़िन्दगी है? आज अपनी मजबूरी दूर करने के लिए 8 घण्टे काम करो, 12 घण्टे खटो, 16 घण्टे लगाओ या साथी तुम पूरा वक्त लगाओ, चाहे मालिकों के पीछे पूरी ज़िन्दगी लगाओ, तुम मर जाओगे लेकिन तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा और तुम ज़िन्दगी में कभी सुख का अनुभव नहीं कर पाओगे। कुछ गिने-चुने लोग कम्पनी में यह कहते हुए भी सुने होंगे – “हमारी कम्पनी में आठ घण्टे काम चलता है। तो क्या पैसा बनेगा? ओवर टाइम तो लगता नहीं तो क्या बचेगा?” “हम तो उस कम्पनी में टाइम ज़्यादा लगाते थे तो पैसा अच्छा बचता था और सुख से रहते थे”। लेकिन साथियो, यह सुख वाली बात नहीं है बल्कि उसी से तुम दुखी हो। 8 घण्टे में पैसा पूरा नहीं मिला। अब मनोरंजन के समय को काम में लगाकर ओवर टाइम करते हो और परिवार का ख़र्च चलाते हो। यह सुख की बात है? यह बिल्कुल मूर्खता है। अगर आप ऐसा सोचोगे तो आपके बच्चे भी ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़े जायेंगे – जैसेकि कुछ जगहों पर बँधुआ मज़दूर दिखते हैं।

आपस की बात

सूली चढ़कर शहीद भगत ने दुनिया को ललकारा है,
नींद से जागो ऐ मज़लूमो सारा देश तुम्हारा है।
जीवनभर जो वस्त्र बनाया फटी बहन की साड़ी है,
सारी उम्र जो बैठ के खाया उसकी बंगला गाड़ी है।
जो काम करे वो रोटी खाये यही हमारा नारा है,
नींद से जागो ऐ मज़लूमो सारा देश तुम्हारा है।

भोरगढ़, नरेला के कारख़ानों में मज़दूरों का बर्बर शोषण बेरोकटोक जारी है

मैं जिस कम्पनी में काम करता हूँ उसमें केबल की रबर बनाने में पाउडर (मिट्टी) का इस्तेमाल होता है। मिट्टी इतनी सूखी और हल्की होती है कि हमेशा उड़ती रहती है। आँखों से उतना दिखाई तो नहीं देता किन्तु शाम को जब अपने शरीर की हालत देखते हैं तो पूरा शरीर और सिर मिट्टी से भरा होता है। ये मिट्टी नाक, मुँह के जरिये फ़ेफ़ड़ों तक जाती है। इस कारण मज़दूरों को हमेशा टी.वी., कैंसर, पथरी जैसी गम्भीर बीमारियाँ होने का खतरा बना रहता है। जो पाउडर केबल के रबर के ऊपर लगाया जाता है उससे तो हाथ फ़ट कर काला-काला हो जाता है। जलन एवँ खुजली होती रहती है। इन सबसे सुरक्षा के लिए सरकार ने जो नियम (दिखावटी) बना रखे हैं जैसे कि नाक, मुँह ढँकने के लिए कपड़े देना, हाथों के लिए दस्ताने, शाम को छुट्टी के समय गुड़ देना आदि। इनमें से किसी भी नियम का पालन मालिक या ठेकेदार नहीं करता है। वह सभी नियम-कानून को अपनी जेब में रख कर चलता है।

मज़दूरों की क़ब्रगाह बनता दिल्ली-सोनीपत हाइवे

सुबह के समय जब मज़दूरों को काम पर पहुँचने की जल्दी होती है क्योंकि फ़ैक्ट्री में 5 मिनट भी लेट पहुँचने पर आधा दिन की दिहाड़ी काट ली जाती है। तो उन्हें तेज़ रफ़्तार से गुज़रने वाले गाड़ियों के रेले को गुज़रने का इन्तज़ार करना पड़ता है। ज्यों ही सड़क थोड़ी ख़ाली दिखती है वैसे ही मज़दूर लपककर सड़क पार करने लगते हैं। फिर उन्हें पतले से डिवाइडर पर खड़े होकर उस पार गाड़ियों के रेले को गुज़र जाने का इन्तज़ार करना पड़ता है। समय पर पहुँचने की जल्दी में आये दिन मज़दूर तेज़ रफ़्तार से आती गाड़ियों के नीचे कुचले जाते हैं। बुजुर्ग मज़दूर महिलाएँ इस तरह की दुर्घटनाओं का अधिक शिकार होती हैं।

कम्पनी के लिए एक मज़दूर की जान की क़ीमत महज़ 50,000 रुपये

पैसे की हवस फिर एक मज़दूर की ज़िन्दगी को लील गयी। जिस उम्र में एक नौजवान को स्कूल कॉलेज में होना चाहिये था उस उम्र में वह नौजवान फ़ैक्ट्री में मालिकों के मुनाफ़े के लिए हाड़-माँस गलाते हुए असमय मौत का शिकार बन गया। मालिकों ने मज़दूर की एक ज़िन्दगी को 50,000 रुपये में तौल दिया। रात को जब चारों ओर सन्नाटा था तो सोनू की माँ की चीख-चीख कर रोने की आवाज़ अन्तरात्मा पर हथौड़े की चोट की तरह पड़ रही थी। और सवाल कर रही थी कि हमारे मज़दूर साथी कब तक इस तरह मरते रहेंगे। कुछ लोगों के लिए हर घटना की तरह यह भी एक घटना थी उसके बाद वे अपने कमरे में जाकर सो गये। क्या वाकई 10-12 घण्टे के काम ने हमारी मानवीय भावनाओं को इस तरह कुचल दिया है कि ऐसी घटनाओं को सुनकर भी इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की आग नहीं सुलग उठती। एक बार अपनी आत्मा में झाँककर हमें ये सवाल ज़रूर पूछना चाहिए।

नोएडा की झुग्गी बस्ती की एक तस्‍वीर

मैं नोएडा, सेक्टर–8 की झुग्गी बस्ती में रहता हूं। बस्ती के दक्षिण–पश्चिमी कोने में मेरी झुग्गी है। इस बस्ती में रहना धरती पर ही नर्क भोगने जैसा है। यहां इतनी ज्यादा समस्याएं हैं कि अगर किसी को एक सबसे महत्वपूर्ण और बुनियादी समस्या बताने को कहा जाये तो वह असमंजस में पड़ जायेगा। सुबह से शाम तक हर आदमी इस बस्ती में समस्याओं से ही दो–चार होते हुए जीता है।

इधर कुआं उधर खाई

मैं कंट्रोल एंड स्विचगियर कम्पनी (प्लाट नं. ए–7 और 8 से 8, नोएडा –में एक परमानेंट मजदूर हूं। मुझे इस कम्पनी में हड्डियां गलाते हुए 10 साल हो गये। मुझे केवल 2500 रु. मिलते हैं। सरकार की तरफ से जो डी.ए. मिलता था वह भी कम्पनी ने देना बंद कर दिया है। मजदूर कैजुअल हो या परमानेंट यह डी.ए. सभी के लिए होता है पर कम्पनी उसे हमें देती ही नहीं। काम करने की दशा यह है कि हम सुबह 9 बजे यहां घुसते हैं और रात 10–11 बजे घर जाते हैं। सारा दिन प्रोडक्शन का भूत सवार रहता है। अगर एक–दो मिनट थोड़ी थकान दूर करने के लिए सुस्ताने लगें तो फौरन गेट पर खड़ा करने की धमकी मिलती है।