Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

सीटू की असलियत

एफ 2 80, बादली औद्योगिक क्षेत्र जिसके मालिक दो भाई हैं। जिनका नाम अजय बंसल व विपिन बंसल है। इस कारखाने में बाल्टी, टंकी व अनेक प्रकार के बर्तन बनते हैं। इसमें 10 जुलाई 2012 को मालिकों ने तनख्वाह नहीं बढ़ायी जिसके विरोध में क़रीब 50 मज़दूरों ने लिखित रूप से तनख्वाह नहीं ली जिनका प्रमाण है। मालिकों ने जवरी 2012 में 600 रुपये बढ़ाये थे। जबकि मज़दूरों का कहना है कि हर साल मालिक 1100 रुपये बढ़ाता है। इस साल अप्रैल में सरकारी रेट बढ़ा तब से मज़दूर माँग कर रहे हैं कि तनख्वाह बढ़ाओ जो कभी मई तो कभी जून कहकर टाल रहा था और अब जुलाई में बढ़ायेंगे पर वह नहीं बढ़ायेगा। अब तो काम की भी कमी है। किसी दिन ओवरटाइम नहीं लगता।

रोज़ी-रोटी की तलाश में शहर आये एक मज़दूर की कहानी, उसी की ज़ुबानी

मैं असहाय-सा उसके पास लेटा सोचता रहा कि हम इतने मज़दूर रोज कम्पनी में हाड़तोड़ काम करते हैं… हमारे खून-पसीने से मालिक को करोड़ों का मुनाफा होता है… अगर वो हमारी मेहनत भर का ही पैसा हमको दे दे, तो क्या गरीब हो जायेगा? हमारी ज़िन्दगी क्या इन्सानों की ज़िन्दगी है? मालिक-मैनेजर के लिए हम बस काम करने की मशीन हैं… वो हमें इन्सान ही नहीं समझते! अपने शरीर और मन पर लगे घावों के दर्द से हम दोनों सारी रात नहीं सो पाये।

मज़दूरों का अमानवीकरण

चौक पर मेरी मुलाक़ात एक भिखारी से हुई जिसकी उम्र करीब 35 साल थी। शरीर से स्वस्थ था। सभी मज़दूर उसको घेरकर सलाह दे रहे थे-अरे अभी जवान हो, भीख क्यों माँग रहे हो। कहीं काम क्यों नहीं कर लेते। तो उसने अपनी कहानी सुनायी कि भइया मैं भिखारी नहीं हूँ। एक महीना पहले काम की तलाश में गुड़गाँव आया था। मेरे पास करीब छह सौ रुपये थे। रहने का ठिकाना नहीं था। रात में सड़क किनारे सो रहा था। पुलिस वाले आये, मारा-पीटा, मेरे रुपये भी छीन लिये। मैंने ख़ूब हाथ जोड़े, रोया, गिड़गिड़ाया पर वे गाली-गलौच करके और यह कहकर चले गये कि अगली बार यहाँ दिखायी दिये तो जेल में डाल दूँगा। मैं गाँव से आया था, घर में बीवी-बच्चे मेरी राह देख रहे होंगे। तो मैं डर गया। यही सोचकर तसल्ली कर ली कि चलो हाथ-पैर सही सलामत है। कहीं किसी कम्पनी में काम मिल जायेगा। 3 दिन तक लगातार फैक्ट्रियों के चक्कर काटता रहा, मगर काम नहीं मिला। किसी होटल वाले का काम करके प्लेट धोकर माँगने से खाना मिल जाता था। सो मैं ज़िन्दा हूँ। फिर एक रात पुलिस वाले तो नहीं मगर तीन पियक्कड़ों से मेरी मुठभेड़ हो गयी। वे यहीं लोकल के ही गुण्डे टाइप के थे। नशे में मुझसे मारपीट की और मेरा पैण्ट और कमीज़ भी फाड़ दिया। अब मेरे पास दो रास्ते थे। या तो में मौत को अपने गले लगाऊँ या जैसे-तैसे ज़िन्दा रहूँ। तो लोगों से माँग-जाँचकर ही ज़िन्दा हूँ। अब मेरे पास ये शरीर और एक यही चड्ढी बनियान ही रह गया। मेरी बीवी और दो छोटे-छोटे बच्चे मेरा इन्तज़ार कर रहे होंगे कि पापा दिल्ली में पैसा कमाने गये हैं। और एक दिन हम सबकी हालत अच्छी हो जायेगी।

बेइज़्ज़ती में किसी तरह जीते रहने से अच्छा है इज़्ज़त और हक़ के साथ जीने के लिए लड़ते हुए मर जाना

जिन लोगों ने आजकल के औद्योगिक इलाक़ों को नज़दीक से नहीं देखा है वे सोचते होंगे कि आज के आधुनिक युग में शोषण भी आधुनिक तरीक़े से, बारीक़ी से होता होगा। किसी अख़बार में मैंने एक प्रगतिशील बुद्धिजीवी महोदय का लेख पढ़ा था जिसमें उन्होंने लिखा था कि अब पहले की तरह मज़दूरों का नंगा, बर्बर शोषण-उत्पीड़न नहीं होता। ऐसे लोगों को ज़्यादा दूर नहीं, दिल्ली के किसी भी औद्योगिक इलाक़े में जाकर देखना चाहिए जहाँ 95 प्रतिशत मज़दूर असंगठित हैं और काम की परिस्थितियाँ सौ साल पहले के कारख़ानों जैसी हैं। मज़दूर आन्दोलन के बेअसर होने के कारण ज़ालिम मालिकों के सामने मज़दूर इतने कमज़ोर पड़ गये हैं कि उन्हें रोज़-रोज़ अपमान का घूँट पीकर काम करना पड़ता है। मज़दूरों की बहुत बड़ी आबादी छोटे-छोटे कारख़ानों में काम कर रही है और ये छोटे मालिक पुराने ज़माने के ज़मींदारों की तरह मज़दूरों के साथ गाली-गलौच और मारपीट तक करते हैं।

बस फ़ैक्ट्री ही दिखाई पड़ती है

मैं दिल्ली के बादली इण्डस्ट्रियल एरिया के पास राजा विहार बस्ती में रहता हूँ। इसके पास से पंजाब जाने वाली रेल लाइन गुज़रती है। इस पर गाड़ियों का ताँता लगा रहता है। एक दिन सुबह ड्यूटी जाते समय मैंने देखा कि पटरी के किनारे ख़ून गिरा है। काफ़ी भीड़ थी। पता लगा कि एक मज़दूर की ट्रेन की वजह से दुर्घटना हो गयी। मज़दूर का शरीर एम्बुलेंस में पड़ा था। पुलिस वाले खाना-पूर्ति के लिए जाँच-पड़ताल कर रहे थे। मज़दूर का सिर कान के ऊपर से फट चुका था। काफ़ी ख़ून निकल रहा था। मज़दूर बेहोश पड़ा था। लोगों ने बताया कि ड्यूटी जाने की देर हो रही थी। पटरी पार करते समय राजधानी एक्सप्रेस से बचने के लिए जल्दी में भागा। जाकर खम्भे से सिर टकरा गया। मज़दूर वहीं गिर पड़ा। पुलिस एम्बुलेंस लेकर आयी, मज़दूर को लिटा दिया। मगर अस्पताल आधे घण्टे बाद ले गयी। तब तक वह फटे हुए सिर के साथ ऐसे ही बेहोश पड़ा रहा। अगर कोई पैसे वाला होता तो उसकी इतनी दुर्दशा कभी न होती। आज म़जदूर दो वक़्त की रोटी में इतना चिन्तित है कि उसे राह चलते हुए भी बस कम्पनी ही दिखायी पड़ती है कि कहीं देर न हो जाये और पैसे न कट जायें। और आये दिन मज़दूर यूँ ही सड़क दुर्घटना व ट्रेन दुर्घटना का शिकार होते रहते हैं।

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत

पॉलिथीन कारख़ानों के मज़दूरों की हालत मोती, दिल्ली दिल्ली के बादली, समयपुर, लिबासपुर आदि इलाक़ों में प्लास्टिक की पन्नी बनाने के अनेक छोटे-छोटे कारख़ाने हैं। बड़े उद्योगों में पैकिंग की…

अनजान बचपन

सुबह ड्यूटी जा रहा था तो एक लड़का मेरे साथ-साथ चल रहा था। मुझे उसने देखा, मैंने उसे देखा। लड़के की उम्र करीब 12 साल थी। मैंने पूछा कहाँ जा रहे हो। उसने कहा ड्यूटी। कहाँ काम करते हो? लिबासपुर! क्या काम है? जूता फ़ैक्टरी! कितनी तनख्वाह मिलती है? आठ घण्टे के 3500 रुपये। मैंने पूछा, आठ घण्टे के 3500 रुपये? बोला हाँ। मैंने पूछा सुबह कितने बजे जाते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा शाम कितने बजे आते हो, बोला 9 बजे। मैंने कहा तो 12 घण्टे हो गये। कहा नहीं… आठ घण्टे के 3500 रुपये।

मुनाफाख़ोर मालिक, समझौतापरस्त यूनियन

मज़दूरों के पास जानकारी का अभाव होने और संघर्ष का कोई मंच नहीं होने के कारण, उन्होंने सीटू की शरण ले ली। मज़दूरों का कहना है कि हम लड़ने को तैयार हैं, लेकिन हमें कोई जानकारी नहीं है इसलिए हमें किसी यूनियन का साथ पकड़ना होगा। जबकि सीटू ने मज़दूरों से काम जारी रखने को कहा है और लेबर आफिसर के आने पर समझौता कराने की बात कही है। आश्चर्य की बात यह है कि संघर्ष का नेतृत्व करने वाले किसी भी आदमी ने यह स्वीकार नहीं किया कि वे संघर्ष कर रहे हैं। सीटू की सभाओं में झण्डा उठाने वाले फैक्ट्री के एक व्यक्ति का कहना था कि हमारी मालिक से कोई लड़ाई नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि जहाँ मालिक को सीटू के नेतृत्व में आन्दोलन चलने से कोई समस्या नहीं है, वहीं सीटू के लिए यह संघर्ष नहीं ”आपस की बात” है।

बेकारी के आलम में

मज़दूरों की ज़िन्दगी तबाह और बर्बाद है। बेरोज़गारी का आलम यह है कि लेबर चौक पर सौ में से 10 मज़दूर ऐसे भी मिल जायेंगे जिन्हें महीने भर से काम नहीं मिला। ऐसे में, जब कोई रास्ता नहीं बचता, तो ज़िन्दगी बचाने के लिए वो उल्टे-सीधे रास्ते अपना लेते हैं। ऐसे ही एक तरीक़े के बारे में बताता हूँ — भारत सरकार ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए नसबन्दी अभियान चलाया है। इसी अभियान में लगे दो एजेण्ट यहाँ के लेबर चौक पर लगभग हर रोज़ आते हैं और नसबन्दी कराने पर 1100 रुपये नकद दिलाने का लालच देकर हमेशा कई मज़दूरों को ले जाते हैं। ज़ाहिर सी बात है कि भूख से मरते लोग कोई रास्ता नहीं होने पर इसके लिए भी तैयार हो जाते हैं।

इस जानलेवा महँगाई में कैसे जी रहे हैं मज़दूर

टीवी चैनलों में कभी-कभी महँगाई की ख़बर अगर दिखायी भी जाती है तो भी उनके कैमरे कभी उन ग़रीबों की बस्तियों तक नहीं पहुँच पाते जिनके लिए महँगाई का सवाल जीने-मरने का सवाल है। टीवी पर महँगाई की चर्चा में उन खाते-पीते घरों की महिलाओं को ही बढ़ते दामों का रोना रोते दिखाया जाता है जिनके एक महीने का सब्ज़ी का खर्च भी एक मज़दूर के पूरे परिवार के महीनेभर के खर्च से ज्यादा होता है। रोज़ 200-300 रुपये के फल खरीदते हुए ये लोग दुखी होते हैं कि महँगाई के कारण होटल में खाने या मल्टीप्लेक्स में परिवार सहित सिनेमा देखने में कुछ कटौती करनी पड़ रही है। मगर हम ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के सामने एक तस्वीर रखना चाहते हैं कि देश की सारी दौलत पैदा करने वाले मज़दूर इस महँगाई के दौर में कैसे गुज़ारा कर रहे हैं।