Category Archives: मज़दूरों की क़लम से

मज़दूरों में मालिक-भक्ति की बीमारी

मज़दूरों को मालिकों की ऐसी नौटंकियों के झाँसे में नहीं आना चाहिए। मालिक की परख करनी हो तो वेतन बढ़वाने, श्रम कानून लागू करवाने और रिहायशी सुविधाओं के लिए मालिक के मुनाफे में से हिस्सा आदि माँगें मालिक के सामने रखकर देखो। तुरन्त मालिक की अच्छाई और कल्याणकारी प्रवृति पर से मुखौटा उतर जाएगा और पूजा-पाठ करने वाले, देवी-देवताओं के भक्त मालिक के भीतर बैठा जानवर जाग उठेगा और पुलिस-शासन-प्रशासन को साथ लेकर मज़दूरों पर टूट पड़ेगा। मालिक मज़दूर के कल्याण के बारे में कभी नहीं सोच सकता। पँजीवादी व्यवस्था की यही सच्चाई है। मालिक सिर्फ मज़दूरों की एकता के आगे झुकता है। मालिक इसी से डरता है और मज़दूरों को एकता न बनाने देने के लिए और बनी हुई एकता तोड़ने के लिए सभी चालें चलता है। मालिक द्वारा पूजा-पाठ, भण्डारे, जागरण आदि करना भी ऐसी चालों में से एक है।

यहाँ मज़दूर की मेहनत की लूट के साथ ही उसकी आत्मा को भी कुचल दिया जाता है

अगर यहाँ मज़दूरों को कारख़ाना परिसर में दी जाने वाली सुविधाओं की बात करें, तो वे हमारे साथ मज़ाक करती सी लगती हैं। यहाँ हम औरतों की संख्या कोई दो-ढाई हज़ार के आस-पास है। लेकिन शौचालय हैं सिर्फ दो, जिनमें चार-चार टॉयलेट हैं यानि कुल आठ टॉयलेट इतनी औरतों के लिए हैं। इनमें से चार में पानी नहीं आता। इनमें नल को स्थाई रूप से बन्द कर दिया गया है। ये आठों टॉयलेट इतने गन्दे होते हैं कि सड़ाँध मार रहे होते हैं। दोनों शौचालयों के लिए सिर्फ एक-एक टयूब लाइट लगी है। सीलन का साम्राज्य तो, छत, दीवारों को पार करके फर्श तक फैला है। फर्श पर कीचड़ ही कीचड़ होता है। इन कीचड़ भरे, सड़ाँध मारते, सीलन भरे अँधेरे शौचालयों से हम औरतें क्या-क्या बीमारियाँ अपने शरीरों में पाल रही हैं — हमें ख़ुद नहीं पता।

मज़दूर कुछ करे तो क़ानून, मालिक लूटें तो कोई क़ानून नहीं

मैं सोचता हूँ कि एक मज़दूर द्वारा एक छोटी सी चोरी करने पर, वह भी पता नहीं किस मज़बूरी में की होगी, पुलिस तुरन्त पहुँच गयी और कानून अपना काम फुर्ती से करने लग पड़ा। जबकि मालिक रोज मज़दूरों को लूटते हैं और गाली-गलौज करते हैं, मज़दूरों को राह में अक्सर लूट लिया जाता है, कारखानों में रोज मालिकों की मुनाफे की हवस के कारण मज़दूरों के हाथ-पैर कट जाते हैं या वे मौत के मुँह में धकेल दिये जाते हैं। मालिक सभी श्रम कानूनों को कुछ नहीं समझते लेकिन पुलिस और कानून कभी किसी मज़दूर की मदद के लिए नहीं आते। अगर कभी मज़दूर शिकायत दर्ज करवाने थाने चले भी जायें तो पुलिस उनकी एक नहीं सुनती और कई बार तो उल्टा मज़दूरों को ही हवालात में बन्द कर दिया जाता है। मज़दूरों की काम की परिस्थितियाँ और रिहायश के इलाके बहुत बुरे हैं लेकिन यह किसी कानून को दिखाई नहीं देता। यह कैसा कानून है जो सिर्फ मज़दूरों पर ही लागू होता है, यह कैसा पुलिस-प्रशासन है जिसे सिर्फ मज़दूरों के गुनाह ही दिखते हैं?

लेबर चौक : मज़दूरों की खुली मण्डी

अगर आपको गाँवों में लगने वाले जानवरों के मेले में कभी जाने का मौका मिला हो तो आप यहाँ के दृश्य का अनुमान लगा सकते हैं। जैसे मेले में बैल की पूँछ उठाकर, कन्धे टटोलकर उसके मेहनती होने की जाँच-पड़ताल की जाती है वैसे ही ‘लेबर चौक’ पर मालिक-ठेकेदार लोग ऑंखों से परखते हैं। कई बेशर्म ठेकेदार तो हाथ से भी जाँचने की कोशिश करते हैं। हमने स्कूल की किताब में पढ़ा था कि बहुत साल पहले ग़ुलामों को चौराहे पर ख़रीदा-बेचा जाता था। दुनिया बदल गयी, इन्सान कहाँ से कहाँ पहुँच गया, लेकिन हम मज़दूर फिर से उसी ग़ुलामी की हालत में धकेल दिये गये हैं।

पहले अद्धा दो फिर होगा इलाज

मैं एक मज़दूर हूँ और लुधियाना में करीब 10-11 साल से काम कर रहा हूँ। मेरा छोटा भाई जगन्नाथ सात-आठ साल से यहाँ काम कर रहा है। पिछले नौ महीने से वह न्यू शन फैक्टरी, फोकल प्वाइण्ट, फेस-8 में काम कर रहा था। इसी वर्ष 21 जनवरी को अचानक काम के दौरान उसके बायें हाथ की एक उँगली टूट गयी। फैक्टरी वाले उसे एक नज़दीकी प्राईवेट अस्पताल में भर्ती करवा दिये। मालिक की इस अस्पताल से साँठ-गाँठ थी। दो दिन तक उसी अस्पताल में इलाज करवाकर उसे छुट्टी दे दी गयी। चार दिन घर पर दवाई हुई। 27 जनवरी को मेरे छोटे भाई का ई.एस.आई. कार्ड बनाया गया लेकिन उसे 30 जनवरी को ही दिया गया। मेरे भाई को कहा गया कि अब वो अपना इलाज ई.एस.आई. से करवाये। ई.एस.आई. डिस्पेंसरी में पर्ची बनवाने के लिए लम्बी लाइन लगी थी। पर्ची बनाने वाला बार-बार उठकर इधर-उधर घूम रहा था। मैंने कहा सर जी जल्दी पर्ची बना दीजिये मेरे छोटे भाई की उँगली बहुत दर्द कर रही है। लेकिन उस समय 1 बज गया था। पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अब तो वो खाना खाने जायेगा। वो करीब ढाई बजे आया और बोला अब नहीं बनेगा क्योंकि उनके स्टाफ के किसी व्यक्ति का रिटायरमेंट पार्टी है। तुम लोग अगले दिन आना। मैंने कहा कि सर जी डॉक्टर साहब से मिलना बहुत ज़रूरी है नहीं तो उँगली ख़राब हो जायेगी। करीब 10 मिनट तक हमको रोके रखने के बाद पर्ची बनाने वाले ने कहा कि अगर आज ही पर्ची बनवाना है तो एक अंग्रेजी अधिया लाकर देना होगा। वो पहले ही दारू पी रखा था। मैंने कहा कि आप तो पहले ही पिये हुए हो कल पी लीजियेगा। मेरी बात पर वो गुस्से में बोला कि आज तेरी पर्ची नहीं मिलेगी, कल सुबह आकर ले लेना। हम दोनों अगली सुबह 9 बजे वहाँ पहुँचे। करीब 11 बजे कोई दूसरा व्यक्ति पर्ची बनाने के लिए आया। चार बजे डॉक्टर आया। उसने एक हफ़्ते की दवा लिख दी। ई.एस.आई. स्टोर में दवा लेने गये तो वहाँ हमें पूरी दवा नहीं दी गयी। बाकी दवा हमें बाहर मेडिकल स्टोर से लेने के लिए कहा गया। अब हमें दवाइयाँ बाहर से लेनी पड़ रही हैं और इलाज भी बाहर से कराना पड़ रहा है। हमारा दो हफ्ते में करीब दो हज़ार रुपये खर्चा हो चुका है। जो छुट्टी का पैसा मिलना था उसके लिए आज-कल करके दौड़ाया जा रहा है। लगभग एक महीना होने वाला है लेकिन पैसा नहीं मिल रहा। पूछो तो कहते हैं कि जल्दी है तो पहले दो सौ रुपया महीना देना पड़ेगा। हमने कहा कि हमारे पास तो दवा करवाने के लिए पैसा नहीं है आपको कहाँ से दें। इस बात को सुनकर हमें कहा गया कि यहाँ नेतागिरी नहीं चलेगी। फिर कहा गया कि इलाज यहाँ पर नहीं अब पुलिस चौकी में होगा।

मज़दूरों की लूट के लिए मालिकों के कैसे-कैसे हथकण्डे

यहीं पर मैंने देखा कि पीस रेट पर काम करने वाले कारीगरों को लूटने के लिए मालिक कैसी-कैसी तिकड़म करते थे। कारीगर सुबह जल्दी आकर लूम पर जुट जाते थे कि ज़्यादा पीस बना लेंगे तो ज़्यादा कमा लेंगे। लेकिन मालिक के चमचे फ़ोरमैन और मैनेजर आख़िर किसलिये थे? कारीगर अगर 9 या 10 चादर तैयार कर लेता था तो उसमें से 3-4 चादर मामूली फाल्ट निकाकर रिजेक्ट कर देते थे। उसका एक भी पैसा मज़दूर को नहीं मिलता था हालाँकि मालिक तो उसे बेच ही लेता था। लम्बाई में आध-पौना इंच की कमी-बेशी हो जाये तो माल रिजेक्ट। अगर बहुत हिसाब से कारीगर लम्बाई का ध्यान रखे, तो वज़न में 10-20 ग्राम कमी-बेशी निकालकर रिजेक्ट कर देते। यही हाल कढ़ाई के कारीगरों का होता था। कुछ न कुछ नुक्स निकालकर रोज़ पैसे काट लेते थे। ‘हरीसन्स एंड हरलाज’ नाम की इस कम्पनी में 3000 मज़दूर थे। जोड़ लीजिये कि अगर रोज़ 30-35 रुपये की औसत कटौती हो तो महीने में मालिक की कितनी बचत होती होगी। यहीं पर शीना एक्सपोर्ट कम्पनी में तो कुल मिलाकर 20 हज़ार से ऊपर आदमी काम करते हैं। हरीसन्स और शीना दोनों कम्पनियों का सारा माल एक्सपोर्ट के लिए जाता है। मैंने सुना है कि कोई-कोई कढ़ाईदार चादर विदेश में 3-3 लाख रुपये में बिकती है। लेकिन एक चादर पर काम करने वाले सारे कारीगरों को मिलाकर 250 रुपये भी नहीं मिलते।

क़ानून गया तेल लेने, यहाँ तो मालिक की मर्ज़ी ही क़ानून है!

ऐसे उदाहरण तो ढेरों हैं, लेकिन मेरा मक़सद उदाहरण गिनाना नहीं बल्कि यह है कि लोगों को पता चले कि चमचमाती इमारतों, महँगी लम्बी गाड़ियों, चौड़ी सड़कों, आलीशान होटलों, कोठियों वाले देश में हम जैसे मज़दूरों की क्या औक़ात है। और यह भी, कि सरकार कितने ही क़ानून बना ले लेकिन मालिकों के लिए उन क़ानूनों का कोई मतलब नहीं। क़ानून का पालन भी हम जैसे मज़दूरों और ग़रीबों को ही करना पड़ता है!

मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है!

हमारे आसपास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनमें स्त्रियों ने मजबूरी में फ़ैक्ट्री जाना शुरू किया या अपनी आज़ादी के लिए गर्व से यह रास्ता चुना। मज़दूर मुक्ति के लिए ज़रूरी है कि स्त्रियाँ आत्मनिर्भर हों, और पुरुषों के कन्धे से कन्ध मिलाकर चलें। यदि हम आधी आबादी को क़ैद करके रखेंगे या ग़ुलाम बनाकर रखेंगे तो हम भी पूँजीवाद की बेड़ियों से आज़ाद नहीं हो पायेंगे। इसलिए मज़दूर स्त्रियों का फ़ैक्ट्री जाना मज़दूर वर्ग के लिए अच्छी बात है।

मालिक की मिठास के आगे ज़हर भी फेल

यह हालत हर फ़ैक्ट्री की है। मेरी उम्र ज़्यादा तो नहीं है, लेकिन पिछले 4 सालों में करीब 15 फ़ैक्ट्री में काम का अनुभव है। हर फ़ैक्ट्री का मालिक बड़ा मृदुभाषी मीठा दिखता है, मगर इनकी मिठास के आगे ”विष फेल” है।

संघर्ष ईमानदार-बहादुराना होगा तो समाज के अन्य तबके भी मज़दूरों का साथ देंगे

बहादुराना संघर्ष लड़ने वाले मज़दूरों के समर्थन में जिस तरह देश के अलग-अलग हिस्सों से तथा अन्य देशों से मज़दूर संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तथा बुद्धिजीवियों ने समर्थन किया, प्रशासन के खिलाफ़ मुखर हुए उससे यह साबित होता है कि हक और इंसाफ़ की लड़ाई ईमानदारी और बहादुरी से लड़ने वालों के साथ देश-दुनिया के सभी इंसाफ़पसंद लोग होते हैं। अपनी लड़ाई के लिए एक बार तो मज़दूरों को खुद आगे आना ही होगा। जब संघर्ष ईमानदार और बहादुराना होगा तभी दूसरे लोग उनका साथ देंगे।