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ये दरिद्रता के आँकड़े नहीं बल्कि आँकड़ों की दरिद्रता है

इनकी अक्ल ठिकाने लगाने का एक आसान तरीक़ा तो यह है कि इनके एअरकंडीशंड दफ्तरों और गद्देदार कुर्सियों से घसीटकर इन्हें किसी भी मज़दूर बस्ती में ले आया जाये और कहा जाये कि दो दिन भी 28 रुपये रोज़ पर जीकर दिखाओ। मगर ये अकेले नहीं हैं। अमीरों से लेकर खाये-पिये मध्यवर्गीय लोगों तक एक बहुत बड़ी जमात है जो कमोबेश ऐसा ही सोचते हैं। इनकी निगाह में मज़दूर मानो इन्सान ही नहीं हैं। वे ढोर-डाँगर या बोलने वाली मशीनें भर हैं जिनका एक ही काम है दिन-रात खटना और इनके लिए सुख के सारे साधन पैदा करना। ग़रीबों को शिक्षा, दवा-इलाज़, मनोरंजन, बच्चों की ख़ुशी, बुजुर्गों की सेवा, किसी भी चीज़ का हक़ नहीं है। ये लोग मज़दूरों को सभ्यता-संस्कृति और मनुष्यता की हर उस उपलब्धि से वंचित कर देना चाहते हैं जिसे इन्सानियत ने बड़ी मेहनत और हुनर से हासिल किया है।

प्रधानमन्त्री महोदय! आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबी नहीं घटती!

जाहिर है कि शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों का यह काम होता है कि वे पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डालें या फिर आँकड़ों और तथ्यों की हेराफेरी से उन्हें कम करके दिखायें। हम मनमोहन सिंह जैसे लोगों से और कोई उम्मीद रख भी नहीं सकते। यही मनमोहन सिंह हैं जिनके वित्त मन्त्री बनने के बाद नयी आर्थिक नीतियों का श्रीगणेश 1991 में हुआ था। इसके बाद बनने वाली हर सरकार के कार्यकाल में उदारीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से जारी रखा गया। स्वदेशी का ढोल बजाने वाली और राष्ट्रवाद की पिपहरी बजाने वाली भाजपा नीत राजग सरकार के कार्यकाल में तो जनता की सम्पत्ति को पूँजीवादी लुटेरों को बेच डालने के लिए एक अलग मन्त्रालय ही बना दिया गया था। उससे पहले संयुक्त मोर्चा सरकार ने भी, जिसमें देश के कुछ संसदीय वामपंथी शामिल थे और कुछ बाहर से समर्थन दे रहे थे, अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को तेजी से बढ़ावा दिया था। इसके बाद, 2004 में तो मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री के रूप में वापस लौटे। उम्मीद की ही जा सकती थी कि इन नीतियों के सूत्रधार मनमोहन सिंह और अधिक परिष्कृत रूप में उन्हें जारी रखेंगे।