मनमोहन का बेशर्म झूठः ”आर्थिक सुधारों से ग़रीबी घटी है!”
प्रधानमन्त्री महोदय! आँकड़ों की बाज़ीगरी से ग़रीबी नहीं घटती!
देश को ग़रीबी और बेरोज़गारी से निजात सिर्फ़ मज़दूर क्रान्ति दिला सकती हैशासक वर्ग की लफ्फाज़ियाँ नहीं

सम्‍पादकीय

27 दिसम्बर को भुवनेश्वर (उड़ीसा) में भारतीय आर्थिक संघ के 92वें सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए हमारे देश के अर्थशास्त्री प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने ऐसा दावा किया जिसे सुनकर देश का हर ग़रीब नागरिक दंग रह जाये। दुनिया के शीर्ष अर्थशास्त्रियों में गिने जाने वाले, लन्दन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षण प्राप्त कर चुके और दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में शिक्षण दे चुके प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने घोषणा की कि 1991 में उनके द्वारा नयी आर्थिक नीतियों के श्रीगणेश के बाद देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद में कमी आयी है! उन्होंने कहा कि अगर हम आर्थिक सुधारों की रफ्तार को घटायेंगे तो अर्थव्यवस्था उस गति से विकास नहीं कर पायेगी कि पर्याप्त रोजगार पैदा हो सकें। यानी साफ है कि आगे नवउदारवादी नीतियों को और जोर-शोर से लागू करने की पूरी योजना है। 1991 में लागू हुई नयी आर्थिक नीतियों का मूलमन्त्र था निजीकरण (यानी, सार्वजनिक क्षेत्र के उन उद्योगों को तेजी से औने-पौने दामों पर पूँजीपतियों को बेचना जिन्हें जनता के पैसे से खड़ा किया गया था और साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा, पेयजल, बिजली आदि जैसी बुनियादी सुविधाओं को भी निजी हाथों में सौंपकर उन्हें मुनाफा कमाने के धन्धों में तब्दील कर देना) और मजदूरों को श्रम कानूनों के रूप में प्राप्त उन थोड़े बहुत अधिकारों को भी छीन लेना जिन्हें देश में कहीं भी ढंग से लागू भी नहीं किया जाता। इन नयी आर्थिक नीतियों का मतलब था पूँजीपतियों के लिए पूरे आर्थिक और प्रशासनिक ढाँचे को उदार बनाना (उदारीकरण!) और मेहनतकश जनता के लिए रहे-सहे श्रम अधिकारों को छीनकर उसे बाजार की अन्धी शक्तियों के हवाले कर देना (कठोरीकरण!)। उदारीकरण और निजीकरण के दो दशकों ने मेहनतकश जनता पर जो कहर बरपा किया है उसके बारे में अब तक सरकारी एजेंसियाँ भी ऐसे सफेद झूठ नहीं बोल रही थीं जो हमारे देश के प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने उड़ीसा में बोला है। अब यह एक विडम्बना ही है कि जिस राज्य में ग़रीबी का प्रतीकस्थान बन चुका कालाहाण्डी स्थित है, वहाँ भी मनमोहन सिंह यह झूठ बोलने में हिचकिचाये नहीं। इसके बावजूद हमारे देश का खाता-पीता पढ़ा-लिखा शहरी मध्‍यवर्ग इस”सज्जन” प्रधानमन्त्री की सादगी और भलेपन पर लहालोट होता रहता है!

यह कितना बड़ा झूठ है इसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि अभी कुछ समय पहले बनी अर्जुन सेनगुप्ता समिति रिपोर्ट ने बताया था कि इस देश में 77फीसदी आबादी यानी करीब 84 करोड़ लोग, 20 रुपया या उससे कम की प्रतिदिन आय पर गुजर कर रहे हैं (इसमें से 27 करोड़ तो 11 रुपये से कुछ अधिक की प्रतिदिन आय पर मुश्किल से जी पा रहे हैं। एक स्वास्थ्य संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार 46 प्रतिशत भारतीय बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और लगभग 55प्रतिशत महिलाओं का वजन अस्वस्थ होने की हद तक कम है। देश के 18 करोड़ लोग बेघर हैं और 18 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं। इन सब आँकड़ों के बावजूद अगर कोई हमें बता रहा है कि ग़रीबी घट रही है तो सामान्य बोध से समझा जा सकता है कि हमें मूर्ख बनाया जा रहा है। लेकिन इस बात को ठोस तौर पर आँकड़ों के साथ समझ लेने की भी जरूरत है। आम मेहनतकश आबादी को मूर्ख बनाने के लिए व्यवस्था हमेशा ही आँकड़ों का खेल खेलती है और लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश करती है कि ग़रीबी और भुखमरी घट रही है, तरक्की का फल सबको मिल रहा है, ऊपर के पूँजीपतियों की तरक्की होगी, तभी देश के मेहनतकश वर्ग का जीवन भी सुधरेगा। लेकिन सच्चाइयाँ हमेशा ही आँकड़ों की बाजीगरी को बेअसर कर देती हैं। आइये, जरा आँकड़ों की इस बाजीगरी की असलियत को समझें।

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ग़रीबी कम होने के प्रधानमन्त्री के दावों का आधार है हाल के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ऑंकड़े। इस सर्वेक्षण के मुताबिक ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोग अब महज 28.6 प्रतिशत रह गये हैं। यह पहली बार नहीं है जब राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आँकड़ों के जरिये देश के शासक वर्ग ने यह यकीन दिलाने की कोशिश की है कि ग़रीबी घट रही है। 1979 से, जब योजना आयोग द्वारा ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की गणना शुरू हुई, अब तक ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या करीब 52 प्रतिशत से घटकर 28 प्रतिशत तक आ चुकी है! हर 5 वर्ष बाद योजना आयोग के अर्थशास्त्री बैठकर ग़रीबी को कम दिखाने के लिए राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों में गोते लगाते हैं और हर बार वे यह दिखलाने में सफल रहते हैं कि ग़रीबी कम हो रही है। लेकिन हम अपने जीवन के अनुभव से जानते हैं कि यह दावा खोखला है और झूठों और लफ्फाजियों पर आधारित है। आइये देखते हैं कि शासक वर्गों के टुकड़ों पर पलने वाले योजना आयोग के अर्थशास्त्री आँकड़ों के साथ कैसा खिलवाड़ करते हैं!

पहली बात, जब 1973-74 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों को आधार बनाकर ग़रीबी रेखा तय की जा रही थी, तो यह मानकर चला गया था कि शिक्षा और स्वास्थ्य के ख़र्चों को ग़रीबी रेखा की गणना में नहीं जोड़ा जायेगा क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी राज्य उठायेगा। लेकिन हम सभी जानते हैं कि ऐसा1973-74 में भी नहीं था और आज तो ऐसा और भी नहीं है। सरकारी अस्पतालों के नाम पर ग़रीबों को जो चिकित्सा सुविधा हासिल है वह मरते आदमी को बचाती कम है, उसे जल्द से जल्द श्मशान घाट अधिक भेजती है! और यह सरकारी सुविधा भी लगातार महँगी हुई है। सर्वशिक्षा अभियान और ऐसे तमाम अभियानों के नाम पर जो नि:शुल्क शिक्षा देने की बात की जाती है, वह न तो आसानी से उपलब्ध है और अगर मिल भी गयी तो वैसी शिक्षा का मिलना न मिलना एकसमान है। इसलिए जिस शर्त पर ग़रीबी रेखा की गणना में शिक्षा और चिकित्सा को नहीं शामिल किया गया था, वह शर्त न तो 1970 के दशक में ही पूरी होती थी, और न ही आज पूरी होती है। उस समय ग़रीबी रेखा को इस रूप में परिभाषित किया गया था: शहर में जो भी परिवार 2100 कैलोरी प्रति व्यक्ति से अधिक का उपभोग कर रहा है, वह ग़रीबी रेखा के ऊपर माना जायेगा और गाँव में जो भी परिवार 2400 कैलोरी प्रति व्यक्ति से अधिक का उपभोग कर रहा है उसे ग़रीबी रेखा से ऊपर माना जायेगा। यानी, जो इतना खाना खा ले रहा है कि शहर में 2100 कैलोरी और गाँव में 2400 कैलोरी तक हासिल कर ले रहा है,वह ग़रीब नहीं है। यह पैमाना इतना हास्यास्पद है कि इसके बारे में क्या कहा जाये! जाहिर सी बात है कि कोई व्यक्ति खाना खायेगा तो उसे पकाकर ही खायेगा; पकायेगा तो उसे ईंधन की भी जरूरत होगी लेकिन ग़रीबी रेखा की गणना में ईंधन का ख़र्च नहीं जोड़ा जाता! खाना खाने के बाद वह कहीं न कहीं रहेगा भी और कुछ पहनेगा भी! लेकिन शासक वर्गों के लिए ग़रीबों का बेघर और नंगा होना सामान्य और अपेक्षित है! इसलिए कपड़े और मकान के किराये के ख़र्च को भी ग़रीबी रेखा की गणना में नहीं जोड़ा गया। एक हालिया सर्वेक्षण बताता है कि आज ग़रीबों की कुल आय का 75 से 80 फीसदी हिस्सा ईंधन, जूते,रिहायश और कपड़े पर ख़र्च होता है। इसी से पता चलता है कि यह ग़रीबी रेखा बिल्कुल अतार्किक और वास्तविक ग़रीबी को छिपाने के लिए बनायी गयी है। मेहनतकश ग़रीब को यह सत्ता इंसान ही नहीं मानती। वह उसके लिए मुनाफा पैदा करने के एक यन्त्र से अधिक कुछ भी नहीं है। 2400 कैलोरी और 2100कैलोरी का पैमाना तय करने के पीछे भी यही अमानवीय धारणा काम कर रही थी। एक शहरी मजदूर को काम करने के योग्य होने के लिए 2100 कैलोरी और एक खेतिहर मजदूर को काम करने के योग्य होने के लिए 2400 कैलोरी प्रतिदिन उपभोग करने की आवश्यकता होती है। यानी, जो जी-मर के पूँजीपतियों के लिए काम करने लायक हो जाये, वह ग़रीब नहीं माना जाता! सोचने की बात है कि इतना भी न मिले तब तो इंसान अस्वस्थ, कुपोषित और अक्षम की श्रेणी में आयेगा। इसलिए मौजूदा ग़रीबी रेखा वास्तव में ग़रीबी रेखा नहीं है बल्कि कुपोषण रेखा है; या इसे भुखमरी रेखा कहें तो ज्यादा सटीक होगा।

दूसरी बात, ग़रीबी के नये ऑंकड़े तैयार करने के लिए योजना आयोग के और अन्य सरकारी प्रतिष्ठानों के अर्थशास्त्री जो धोखाधड़ी करते हैं, उसके लिए तो उनपर चार सौ बीसी का मुकदमा चलाया जाना चाहिए! जी हाँ, हम बात को बढ़ा-चढ़ाकर नहीं पेश कर रहे हैं! वाकई उन पर चार सौ बीसी का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। ग़रीबी के नये आँकड़ों की गणना करने के लिए अर्थशास्त्री 1973-74 के वर्ष को आधार वर्ष बनाते हैं। उस समय के उपभोग की न्यूनतम मात्रा की तुलना नये उपभोक्ता कीमत सूचकांकों से कर दी जाती है। यानी कि आज के उपभोग का कोई सीधा प्रत्यक्ष मूल्यांकन नहीं किया जाता, बल्कि 1973-74 के उपभोग स्तर का समायोजन आज के उपभोक्ता कीमत सूचकांक से कर दिया जाता है, जिसके कारण ग़रीबी रेखा बेहद नीचे आती है। मिसाल के तौर पर, नयी ग़रीबी रेखा के अनुसार जिस परिवार की प्रति व्यक्ति आय गाँवों में रुपये 356.30 प्रतिमाह होगी और शहरों में रुपये 538.60 प्रतिमाह होगी, वह ग़रीबी रेखा के ऊपर माना जायेगा! यानी कि गाँव में जिसकी आय रुपये 11.87 प्रतिदिन होगी वह ग़रीब नहीं माना जायेगा और शहर में जिसकी आय रुपये 17.95 प्रतिदिन होगी वह ग़रीब नहीं माना जायेगा! यह इस देश के मेहनतकश अवाम के साथ एक भद्दा मजाक है। और जब ग़रीबी रेखा इतनी मजाकिया है, तब इस देश 28प्रतिशत लोग ग़रीबी रेखा के नीचे रहते हैं। यह अपने आप में इस देश में ग़रीबी की विकरालता को बयान करता है। ग़रीबी रेखा का आधार कैलोरी उपभोग को माना गया है इसलिए हर सर्वेक्षण में सरकारी एजेंसियों को कैलोरी उपभोग की नये सिरे से गणना करके यह तय करना चाहिए कि आज गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों में 2100 कैलोरी का उपभोग करने के लिए कितनी औसत पारिवारिक आय होनी चाहिए। लेकिन सरकारी एजेंसियाँ करती यह हैं कि आज के उपभोग स्तर की गणना किये बग़ैर 1973-74 के उपभोग स्तर को आय में बदलकर उस आय की तुलना मौजूदा उपभोक्ता सूचकांकों से कर देती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि ग़रीबी रेखा के लिए अब न्यूनतम कैलोरी उपभोग 2400 या 2100 कैलोरी रह ही नहीं जाता। अगर किसी ग्रामीण परिवार की प्रति व्यक्ति मासिक आय मात्र रुपये 356.30 हो तो उसका हर सदस्य प्रतिदिन महज 1890 कैलोरी का उपभोग कर सकता है, जो न्यूनतम पैमाने से 500 कैलोरी से भी ज्यादा कम है। वहीं अगर कोई शहरी परिवार रुपये 538.60 प्रतिमाह की प्रति व्यक्ति आय पर बसर करता है तो उसका हर सदस्य प्रतिदिन मात्र 1875 कैलोरी का उपभोग कर सकता है जो कि न्यूनतम कैलोरी उपभोग पैमाने से लगभग 225 कैलोरी कम है। यानी, कि यह ग़रीबी नहीं है जो नीचे आ रही है, बल्कि ग़रीबी रेखा है जिसे नीचे खिसका-खिसका कर हर पाँच साल पर सरकार इस देश की जनता को बताती है कि ग़रीबी कम हो रही है। हर बार अगर न्यूनतम कैलोरी उपभोग की गणना कर उसे आय में बदलकर न देखा जाये तो आँकड़ों को तोड़-मरोड़कर ग़रीबी को मनमाने ढंग से कम दिखाया जा सकता है। इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण की कल्पना कीजिये। मान लीजिये कि आप टेलीविजन पर ऊँची कूद का खेल देख रहे हैं। आप देखते हैं कि पहली बार कूदते समय खिलाड़ी बार से टकरा जाता है। दूसरी बार कूदते समय वह बार से 2 इंच ऊँचा कूदता है। तीसरी बार कूदते वक्त वह बार से 4 इंच ऊँचा कूदता है। देखने पर लगता है कि वह खिलाड़ी हर बार अधिक ऊँचा कूद रहा है। लेकिन अगर सच्चाई यह हो कि बार को पहली कूद के बाद 4 इंच नीचे कर दिया गया और दूसरी कूद के बाद 4 इंच और नीचे कर दिया गया, जो कि टेलीविजन पर आपको नहीं दिखाया गया तो सच्चाई क्या हुई? क्या वह खिलाड़ी हर बार 2 इंच ऊँचा कूद रहा है? नहीं! वह हर बार 2 इंच नीचा कूद रहा है, क्योंकि हर बार कूद को मापने वाले पैमाने को ही 4 इंच नीचा कर दिया जाता है! ग़रीबी का मामला भी कुछ ऐसा ही है। अगर हर बार ग़रीबी रेखा को ही नीचे खिसका दिया जाये तो जाहिर है कि ग़रीबी कम होती नजर आयेगी। अगर 1974 में ग़रीबी रेखा के ऊपर होने के लिए न्यूनतम कैलोरी उपभोग 2400/2100 कैलोरी था तो आज इसे घटाकर 1890/1875 कैलोरी कर दिया गया है। इसीलिए आँकड़ों में ग़रीबी कम नजर आती है, लेकिन वास्तव में वह बढ़ रही है।

तीसरी बात, कैलोरी उपभोग को हर बार सीधो जोड़कर रुपयों में तब्दील करने के अतिरिक्त, मात्र कैलोरी उपभोग को ही ग़रीबी रेखा का पैमाना माना जायेगा तो निश्चित तौर पर ग़रीबी ठहरी हुई या कम होती हुई प्रतीत हो सकती है, या इसे ऐसा प्रतीत कराया जा सकता है। अगर कैलोरी उपभोग का रिश्ता हर बार इस बात से कायम नहीं किया जाता कि पोषण के मायने में उतनी कैलोरी के उपभोग का नतीजा क्या हो रहा है तो ग़रीबी रेखा अर्थहीन हो जायेगी। देश में यदि कुपोषण और भुखमरी बढ़ रही है, तो जाहिर है कि देश की मेहनतकश ग़रीब जनता को पोषण पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल रहा है। संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 182 देशों में से 134वाँ है। ज्ञात हो कि यह 2005 में 128वाँ था। हर वर्ष भारत में बढ़ती भुखमरी और कुपोषण के कारण मानव विकास के मामले में वह उप-सहारा के देशों से भी पीछे छूटता जा रहा है। अफगानिस्तान, चाड, अंगोला और बुरुण्डी में भी प्रति व्यक्ति पोषण भारत के मुकाबले ज्यादा है! मानव दरिद्रता सूचकांक में 135 देशों में भारत का स्थान 88वाँ है। ज्ञात हो कि पिछले सर्वेक्षण में भारत का 155 देशों में 52वाँ स्थान था। ऐसे सर्वेक्षण जो पोषण, रिहायश और अन्य मानवीय आवश्यकताओं की कीमत को ग़रीबी की गणना में शामिल करते हैं, वे साफ़ तौर पर बता रहे हैं कि भारत में ग़रीबी बढ़ने की रफ्तार भयंकर है। और ख़ास तौर पर पिछले 20 वर्षों में यह सबसे तेजी से बढ़ी है। मनमोहन सिंह के मनमौजी दावों से ग़रीबी की सच्चाई नहीं छिप सकती है! सरकारी आँकड़ों का ही ईमानदारी से विश्लेषण करें तो पता चलता है कि आज जिस आय को सरकार गरीबी रेखा के रूप में परिभाषित करती है,उस आय पर कोई भी परिवार गरीबी रेखा के रूप में परिभाषित न्यूनतम कैलोरी उपभोग की शर्त को पूरा नहीं कर सकता।

चौथी बात, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ऑंकड़े बताते हैं कि प्रति व्यक्ति अनाज उपभोग देश में नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद लगातार घटा है। जहाँ1993-94 में गाँवों में प्रति व्यक्ति अनाज उपभोग 13.4 किलोग्राम प्रति माह था, वहीं 2006-07 में यह घटकर 11.7 किलोग्राम प्रति माह रह गया। शहरों में1993-94 में प्रति व्यक्ति अनाज उपभोग 10.6 किलोग्राम प्रति माह था जो 2006-07 में घटकर 9.6 किलोग्राम प्रति माह रह गया। इसका कारण यह है कि नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से जीवन तेजी से महँगा होता गया है। इंसान सिर्फ खाकर तो नहीं जियेगा। अन्य बुनियादी सुविधाएँ लगातार महँगी होते जाने से अनाज उपभोग पर ख़र्च कम होता गया है जिसके कारण अनाज उपभोग कम होता गया है। दूसरी बात यह कि अनाज भी इतना महँगा होता गया है कि उसके उपभोग के पुराने स्तर को कायम रख पाना मेहनतकश आबादी के लिए सम्भव नहीं रह गया है।

पाँचवीं बात, ग़रीबी रेखा तय करते समय दो और कारकों को उचित रूप से शामिल नहीं किया जाता। ये कारक हैं मुद्रास्फीति और वास्तविक मजदूरी में कमी। कई सरकारी अर्थशास्त्री दावा कर सकते हैं कि उपभोक्ता कीमत सूचकांक की गणना में इन कारकों का विश्लेषण शामिल होता है। लेकिन हम सभी जानते हैं कि इन्हीं सूचकांकों के अनुसार महँगाई पिछले कुछ महीनों से कम हो रही है, लेकिन ज्यों ही आप किसी पंसारी की दुकान, सब्जी मण्डी या बाजार जाते हैं तो आपको पता चल जाता है कि महँगाई कम नहीं हो रही है, बल्कि लगातार बढ़ रही है, और पहले से भी तेज रफ्तार से। इसका कारण यह है कि थोक मूल्यों के अनुसार उपभोक्ता कीमत सूचकांकों की जो गणना की जाती है, वह अपने आप में अधूरी और ग़लत है। वास्तव में, आम बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुओं की खुदरा कीमतों में बढ़ोत्तरी लगातार जारी है। खाद्य मुद्रास्फीति के भी कम होने के दावे किये जा रहे हैं लेकिन अगर खुदरा बाजार मूल्यों पर निगाह डालें तो दाल, चावल, तेल, चीनी, सब्जियाँ, दूध आदि सभी लगातार आम मेहनतकश जनता की जेब की पहुँच से बाहर होते जा रहे हैं। मुद्रास्फीति के कारण होता यह है कि रकम के मायने में मजदूरी बढ़ती नजर आती है लेकिन मुद्रा के मूल्य में ही सरकार स्फीति (रुपये के मूल्य में कमी) करती जाती है, जिससे कि मुद्रा की क्रय शक्ति वास्तव में घट जाती है। इससे मजदूरी अगर रुपयों में बढ़े भी, तो वास्तव में कम हो जाती है। क्‍योंकि मुद्रा के पुराने मूल्य पर आप 100 रुपये में जितना ख़रीद सकते थे, मुद्रा के अवमूल्यन के बाद आप 200 रुपये में भी उतना नहीं ख़रीद सकते। अगर रुपये के मूल्य में 50 प्रतिशत की गिरावट आती है तो आपकी आय को 25 प्रतिशत बढ़ा भी दिया जाये तो आप पहले के मुकाबले 25 प्रतिशत ज्यादा ग़रीब हो गये। अगर ग़रीबी रेखा की प्रत्यक्ष तुलना मुद्रास्फीति और वास्तविक मजदूरी में कमी से नहीं की जाती तो निश्चित रूप से वह ग़रीबी रेखा एक साजिशाना ग़रीबी रेखा होगी जिसका मकसद इस व्यवस्था के अपराधों को छिपाना होगा। और यही पूँजीपति वर्ग और मनमोहन सिंह, चिदम्बरम, प्रणब मुखर्जी जैसे उसके मुनीमों का काम है!

अब आइये, जरा देखें कि वास्तविक ऑंकड़े क्या बताते हैं। अभी अगर हम सरकार की ही तरह सिर्फ कैलोरी उपभोग को ही एकमात्र पैमाना मानें तो आज के उपभोक्ता कीमत सूचकांकों से समायोजित करने पर 2400 कैलोरी/2100 कैलोरी के उपभोग के लिए जितनी औसत प्रति व्यक्ति आय की आवश्यकता होगी,उसके मुताबिक देश की करीब 80 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 60 प्रतिशत शहरी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे है। लेकिन हम पहले ही दिखला चुके हैं कि महज2400 कैलोरी देने वाले भोजन को ग़रीबी रेखा का पैमाना बनाना अपने आप में कोई मतलब नहीं रखता। क्योंकि वह खाना आसमान से नहीं टपकेगा। उसे कोई भी मेहनतकश परिवार ख़रीदकर लायेगा, पकायेगा और तब खायेगा। इस लिए ईंधन का ख़र्च भी ग़रीबी रेखा में जोड़ा जाना चाहिए। खाना आदमी तभी खायेगा जब वह जीवित रहेगा, और जीवित रहने के लिए कम से कम उसके बदन पर कपड़ा और सिर पर छत होनी चाहिए। अगर जीवित रहने के लिए न्यूनतम कपड़े और रिहायश के लिए न्यूनतम किराये को ग़रीबी रेखा में नहीं जोड़ा जाता, तो फिर वह ग़रीबी रेखा कहलाने के योग्य ही नहीं है। भारतीय संविधान ने माना है कि शिक्षा एक सम्पूर्ण मानवीय जीवन के लिए अनिवार्य है और इसीलिए 14 वर्ष तक की अनिवार्य शिक्षा को राज्य की जिम्मेदारी और जनता का हक माना गया है। अगर राज्य नि:शुल्क शिक्षा की कारगर और व्यावहारिक व्यवस्था नहीं करता तो शिक्षा के ख़र्च को भी ग़रीबी रेखा के गणना में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, गुणवत्त वाली चिकित्सा सेवा ग़रीब जनता के लिए जीने के अधिकार के समान है। मेहनतकश आबादी के काम और रिहायश की जगहें ही ऐसी हैं जो उनके स्वास्थ्य को सबसे अधिक अरक्षित बनाती हैं और ग़रीबों की एक अच्छी-ख़ासी तादाद उन बीमारियों से अच्छी चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हर दिन मरती है, जिनका इलाज दशकों पहले निकाला जा चुका है। नतीजतन, चिकित्सा के ख़र्च को भी ग़रीबी रेखा के आकलन में शामिल किया जाना चाहिए। ये तो कुछ न्यूनतम आवश्यक कारक हैं जिन्हें ग़रीबी रेखा निर्धारित करने में शामिल किया ही जाना चाहिए। अगर इन्हें ग़रीबी रेखा के आकलन में शामिल नहीं किया जाता और सिर्फ कैलोरी उपभोग के आधार पर ग़रीबी रेखा को परिभाषित किया जाता है, तो वह वास्तव में ग़रीबी रेखा नहीं है बल्कि ‘भुखमरी रेखा’ है। और आज 28 प्रतिशत से भी ज्यादा भारतीय भुखमरी रेखा के नीचे जी रहे हैं, न कि ग़रीबी रेखा के नीचे। ग़रीबी रेखा को सही तरीके से परिभाषित किया जाये तो देश 80 फीसदी आबादी ग़रीबी रेखा के नीचे जी रही है। यह है ग़रीबी की सच्चाई। और नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से इस संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है न कि कमी।

 

जाहिर है कि शासक वर्गों के राजनीतिज्ञों का यह काम होता है कि वे पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डालें या फिर आँकड़ों और तथ्यों की हेराफेरी से उन्हें कम करके दिखायें। हम मनमोहन सिंह जैसे लोगों से और कोई उम्मीद रख भी नहीं सकते। यही मनमोहन सिंह हैं जिनके वित्त मन्त्री बनने के बाद नयी आर्थिक नीतियों का श्रीगणेश 1991 में हुआ था। इसके बाद बनने वाली हर सरकार के कार्यकाल में उदारीकरण और निजीकरण की नयी आर्थिक नीतियों को जोर-शोर से जारी रखा गया। स्वदेशी का ढोल बजाने वाली और राष्ट्रवाद की पिपहरी बजाने वाली भाजपा नीत राजग सरकार के कार्यकाल में तो जनता की सम्पत्ति को पूँजीवादी लुटेरों को बेच डालने के लिए एक अलग मन्त्रालय ही बना दिया गया था। उससे पहले संयुक्त मोर्चा सरकार ने भी, जिसमें देश के कुछ संसदीय वामपंथी शामिल थे और कुछ बाहर से समर्थन दे रहे थे, अर्थव्यवस्था में विदेशी निवेश को तेजी से बढ़ावा दिया था। इसके बाद, 2004 में तो मनमोहन सिंह प्रधानमन्त्री के रूप में वापस लौटे। उम्मीद की ही जा सकती थी कि इन नीतियों के सूत्रधार मनमोहन सिंह और अधिक परिष्कृत रूप में उन्हें जारी रखेंगे।

यही हुआ भी। एक ओर राष्ट्रीय रोजगार गारण्टी योजना और अन्य कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की गयी, और दूसरी ओर विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए खेती योग्य भूमि का अधिग्रहण, सार्वजनिक उपक्रमों को बेचा जाना, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देकर देश के श्रम को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी पूँजीपतियों की लूट के लिए खुला चरागाह बना देना, श्रम कानूनों को एक-एक करके ढीला करते जाना, शुरू कर दिया गया। नरेगा जैसी नीतियाँ सिर्फ एक ‘सेफ्टी वॉल्व’ का काम करती हैं और भूखे मरते लोगों की विशाल संख्या में से एक छोटे-से हिस्से को अधभुखमरी की कगार पर लाकर खड़ा कर देती हैं। इससे और कुछ तो नहीं होता लेकिन इस व्यवस्था के बारे में एक भ्रम आम जनता के मन में भी बैठ जाता है। ऐसी किसी भी योजना से वास्तविक स्थिति में कोई फर्क नहीं आ सकता। नरेगा एक दूसरा काम यह भी कर रही है कि यह ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर उजड़े खेतिहर मजदूरों, ग़रीब किसानों और ग्रामीण गैर-खेतिहर मजदूरों के पलायन की रफ्तार को थोड़ा कम कर रही है। इससे शहरों पर दबाव थोड़ा कम हो रहा है और शहरी असन्तोष को नियन्त्रित करने में मदद मिल रही है जो इस व्यवस्था के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकता है। अब सामाजिक सुरक्षा योजना और खाद्य सुरक्षा योजना की भी बात की जा रही है। जाहिर है, कि सत्ता में बैठे पूँजीवाद के कुशल हकीम और मुनीम जनता को भ्रमित करने वाली योजनाओं को बनाने में व्यस्त हैं। वे जानते हैं कि बदस्तूर बढ़ती पूँजीवादी लूट के समक्ष कुछ मामूली पैबन्दनुमा राहतें जनता के सामने नहीं फेंकी जायेंगी तो स्थितियाँ विस्फोटक हो सकती हैं। स्थितियों को ख़तरनाक दिशा में जाने से रोकने के लिए ही आँकड़ों की बाजीगरी भी की जाती है ताकि जनता को बताया जा सके कि ‘देखो! ग़रीबी कम हो रही है! थोड़ा धौर्य धरो! ज्यादा नाराज होने की जरूरत नहीं है। हमारी नीतियाँ बिल्कुल दुरुस्त हैं!’

लेकिन वे यह कहावत भूल जाते हैं – ‘हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े-लिखे को फारसी क्या’। ग़रीब मेहनतकश को अपनी ग़रीबी को समझने के लिए सरकारी ऑंकड़े और मनमोहन की ‘मनमोहिनी बातें’ सुनने की आवश्यकता नहीं है। वे अपनी जिन्दगी से जानते हैं कि उनकी जिन्दगी हर बीतते दिन के साथ बद से बदतर होती जा रही है। बढ़ती महँगाई से उनकी पूरी आजीविका ही चरमरा चुकी है। वे अपने बच्चों को शिक्षा और चिकित्सा तो दूर, दो वक्त का खाना तक मुहैया नहीं करा पाते। बीमार हो जाने की सूरत में वे अपने लोगों को दवा-इलाज के अभाव में तड़पता-मरता देख सकते हैं, बस! ऐसे में जिन्दगी और मौत के अहसास के बीच जो बारीक-सी रेखा होती है, वह धुँधली पड़ने लगती है। अपनी ग़रीबी को इस देश की 80 करोड़ मजदूरों और ग़रीब किसानों की आबादी अपने अनुभव से जानती है।

पूँजीवादी व्यवस्था इस देश के मेहनतकश अवाम को यही दे सकती है – भूख, ग़रीबी, कुपोषण, बेरोजगारी, अपमान और अन्याय। इस सच्चाई को आँकड़ों के झीने परदे से ढँकने की सारी कोशिशें बेकार हैं। आजादी के बाद के छह दशक हमारे सामने इस तथ्य को बिल्कुल अकाटय रूप से स्थापित कर चुके हैं कि यह आजादी, यह व्यवस्था हम मेहनतकशों की नहीं है। पूरी व्यवस्था और उसमें बैठे लोगों का काम है पूँजीपतियों की चाकरी करना और इस बात की गारण्टी करना कि वे बिना रोक-टोक हमारी हड्डियों और शिराओं से अपना मुनाफा निचोड़ते रह सकें। हमारी ग़रीबी और बदहाल जिन्दगी का समाधान हर पाँच साल पर इन पूँजीपतियों के लिए नीतियाँ बनाने और लागू करने वाली किसी नयी प्रबन्धन समिति का चुनाव करने से नहीं हो सकता है। पिछले 62 वर्षों में, हम सभी को चुनकर और आजमाकर देख चुके हैं। हमारी आने वाली पीढ़ियाँ एक बेहतर मानवीय जीवन जी सकें, इसकी गारण्टी सिर्फ एक ही है – मेहनतकशों की इंकलाबी पार्टी के नेतृत्व में, मेहनतकश वर्गों द्वारा पूँजीवादी सत्ता का ख़ात्मा और मेहनतकशों के लोक स्वराज्य की स्थापना! लोक स्वराज्य – जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले लोगों का हक होगा और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में होगी!

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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