Tag Archives: आलोक रंजन

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (तीसरी किस्त)

आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से भारतीय पूँजीपति वर्ग युध्दोत्तर काल में इतना मजबूत हो चुका था कि ब्रिटेन पर देश छोड़ने के लिए दबाव बना सके, पर जनसंघर्षों से डरने की अपनी प्रवृत्तिा के चलते उसे समझौते से ही राजनीतिक स्वतन्त्रता हासिल करनी थी। ब्रिटिश आर्थिक हितों की सुरक्षा का आश्वासन देना और साम्राज्यवादी विश्व से असमानतापूर्ण शर्तों पर बँधो रहना उसकी वर्ग प्रकृति के सर्वथा अनुकूल था। युध्द के दौरान भारत के औद्योगिक उत्पादन में भारी वृध्दि हुई थी। फौजी आपूर्तियों के लिए प्राप्त भारी ऑर्डरों की बदौलत तथा युध्द के दौरान आयात के अभाव के चलते देशी बाजार की माँग का भरपूर लाभ उठाकर भारतीय उद्योगपतियों ने काफी पूँजी संचित की तथा शेयरों की खरीद के जरिये उन क्षेत्रों में भी प्रवेश किया (जैसे चाय बागान, जूट उद्योग आदि) जो अब तक ब्रिटिश पूँजी के अनन्य क्षेत्र थे। रसायन उद्योग (जैसे टाटा और इम्पीरियल केमिकल्स के बीच) और ऑटोमोबाइल (जैसे बिड़ला और एनफील्ड के बीच) आदि क्षेत्रों में भारतीय शीर्ष उद्योगपति मिश्रित कम्पनियाँ बनाने लगे। टाटा, बिड़ला, डालमिया-जैन आदि भारतीय इजारेदार समूह ब्रिटिश इजारेदार समूहों के छोटे भागीदार बनने लगे।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (दूसरी किस्त)

भारतीय बुर्जुआ वर्ग की यह चारित्रिक विशेषता थी कि वह उपनिवेशवादी ब्रिटेन की मजबूरियों और साम्राज्यवादी विश्व के अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर अपनी आर्थिक शक्ति बढ़ाता रहा था और ‘समझौता-दबाव-समझौता’ की रणनीति अपनाकर कदम-ब-कदम राजनीतिक सत्ता पर काबिज होने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। व्यापक जनसमुदाय को साथ लेने के लिए भारतीय बुर्जुआ वर्ग की प्रतिनिधि कांग्रेस पार्टी प्राय: गाँधी के आध्‍यात्मिक चाशनी में पगे बुर्जुआ मानवतावादी यूटोपिया का सहारा लेती थी। किसानों के लिए उसके पास गाँधीवादी ‘ग्राम-स्वराज’ का नरोदवादी यूटोपिया था। जब-तब वह पूँजीवादी भूमि-सुधार की बातें भी करती थी, लेकिन सामन्तों-जमींदारों को पार्टी में जगह देकर उन्हें बार-बार आश्वस्त भी किया जाता था कि उनका बलात् सम्पत्तिहरण कदापि नहीं किया जायेगा। मध्‍यवर्ग को लुभाने के लिए कांग्रेस के पास नेहरू, सुभाष और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के रैडिकल समाजवादी नारे थे, जिनका व्यवहारत: कोई मतलब नहीं था और इस बात को भारतीय पूँजीपति वर्ग भी समझता था। ब्रिटिश उपनिवेशवादी भी समझते थे कि नेहरू का ”समाजवाद” ब्रिटिश लेबर पार्टी के ”समाजवाद” से भी ज्यादा थोथा, लफ्फाजी भरा और पाखण्डी है। भारतीय पूँजीपति वर्ग राजनीतिक स्वतन्त्रता के निकट पहुँचते जाने के साथ ही यह समझता जा रहा था कि आधुनिक औद्योगिक भारत का नेहरू का सपना बुर्जुआ आकांक्षाओं का ही मूर्त रूप था।

कैसा है यह लोकतन्त्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है? (पहली किस्त)

हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतान्त्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना जनवादी है? पिछले साठ वर्षों के दौरान आम भारतीय नागरिक को कितने जनवादी अधिकार हासिल हुए हैं? हमारा संविधान आम जनता को किस हद तक नागरिक और जनवादी अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिध्दान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है? ये सभी प्रश्न एक विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं। इस निबन्ध में हम थोड़े में संविधान के चरित्र और भारत के जनवादी गणराज्य की असलियत को जानने के लिए कुछ प्रातिनिधिक तथ्यों के जरिये एक तस्वीर उपस्थित करने की कोशिश करेंगे।

एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के संशोधनवादी विपथगमन के ख़तरे और नेपाली क्रान्ति का भविष्य

नेपाल में कम्युनिस्ट आन्दोलन के साठ वर्षों के इतिहास ने, विशेषकर विगत दो दशकों ने वहाँ की कम्युनिस्ट कतारों को काफी कुछ सिखाया है। आज भले ही स्थितियाँ प्रतिकूल लग रही हैं, पर ऐसा कत्तई नहीं हो सकता कि वहाँ के पूरे क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन को दक्षिणपंथी अवसरवाद अपने आगोश में ले ले। इतिहास से शिक्षा लेकर, वहाँ कतारों के बीच से आगे आने वाले नये नेतृत्व, और अतीत का समाहार करके सही रास्ते पर आने वाले नेतृत्व की पुरानी पीढ़ी के कुछ लोगों की रहनुमाई में, देर-सबेर सही क्रान्तिकारी लाइन एक बार फिर नयी उफर्जस्विता के साथ अवश्य उठ खड़ी होगी और दृढ़तापूर्वक आगे कदम बढ़ायेगी।

बिगुल पुस्तिका – 17 : नेपाली क्रान्ति: इतिहास, वर्तमान परिस्थिति और आगे के रास्ते से जुड़ी कुछ बातें, कुछ विचार

इस पुस्तिका में ‘बिगुल’ में मई, 2008 से लेकर जनवरी-फ़रवरी 2010 तक नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन और वहाँ जारी क्रान्तिकारी संघर्ष के बारे में लिखे गये आलोक रंजन के लेख कालक्रम से संकलित हैं। इन लेखों में शुरू से ही नेपाल की माओवादी पार्टी के उन भटकावों-विसंगतियों को इंगित किया है, जिनके नतीजे 2009 के अन्त और 2010 की शुरुआत तक काफ़ी स्पष्ट होकर सतह पर आ गये। नेपाली क्रान्ति की समस्याएँ गम्भीर हैं, लेकिन लेखक उसके भविष्य को अन्धकारमय मानने के निराशावादी निष्कर्षों तक नहीं पहुँचता। उसका मानना है कि दक्षिणपन्थी अवसरवाद की हावी प्रवृत्ति को निर्णायक विचारधारात्मक संघर्ष में शिकस्त देकर और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी-माओवादी क्रान्तिकारी लाइन पर नये सिरे से अपने को पुनगर्ठित करके ही एकीकृत नेकपा (माओवादी) नेपाली क्रान्ति को आगे बढ़ाने में नेतृत्वकारी भूमिका निभा सकती है। यदि वह ऐसा नहीं कर सकती तो फिलहाली तौर पर उसके बिखराव और क्रान्तिकारी प्रक्रिया के विपयर्य की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। लेकिन आने वाले समय में बुर्जुआ जनवादी और संसदीय राजनीति में आकण्ठ धँसे सभी कि़स्म के संशोधनवादी वाम का ‘एक्सपोज़र’ काफ़ी तेज़ी से होगा। साथ ही, क्रान्तिकारी वाम के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया नये सिरे से तेज़ हो जायेगी। नेपाली क्रान्ति की धारा कुछ समय के लिए बाधित या गतिरुद्ध हो सकती है, लेकिन उसका गला घोंट पाना अब मुमकिन नहीं है। पुस्तिका के परिशिष्ट के रूप में रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी, यू.एस.ए. के मुखपत्र ‘रिवोल्यूशन’ (नं. 160, 28 अप्रैल 2009) में प्रकाशित एक लेख का अनुवाद भी दिया गया है। नेपाल में क्रान्ति के रास्ते के प्रश्न पर संसदीय मार्ग बनाम क्रान्तिकारी मार्ग की जो बहस नये सिरे से उठ खड़ी हुई है, उसका सार्वभौमिक विचारधारात्मक महत्त्व है। इस बहस की विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु को समझना भारत की क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट क़तारों और सर्वहारा वर्ग के लिए भी उतना ही ज़रूरी है जितना नेपाल की पार्टी क़तारों और मेहनतकशों के लिए।

नाना पाटेकर, सनी देओल और चिदम्बरम

आतंकवादियों से निपटने की नीति पर चिदम्बरम और सनी देओल-नाना पाटेकर की भाषा एक है – एकदम ‘मिले सुरे मेरा-तुम्हारा।’ आइये, अब जरा इस साझा क्षोभ के निहितार्थों को समझने की कोशिश की जाये। मानवाधिकार संगठन इस मामले में क्या कहते हैं? उनका मात्र यह कहना है कि सजा देने से पहले आतंकवाद का अभियोग न्यायालय में सिद्ध तो होना चाहिए! यदि दोष तय करने और सजा दे देने का अधिकार पुलिस को ही है, तो फिर कानून-कोर्ट-कचहरी का मतलब ही क्या है? फिर तो यही तर्क आतंकवाद ही नहीं, बल्कि हर तरह के अपराध के बारे में लागू होना चाहिए! पुलिस द्वारा किसी को भी आतंकवादी बताकर एनकाउण्टर कर देने, यन्त्रणा देकर गुनाह कबुलवाने और हिरासत में मौतें हमारे देश में एकदम आम बात है। ”वामपन्थी” उग्रवाद या किसी प्रकार के उग्रवाद के दमन के नाम पर ‘कॉम्बिंग ऑपरेशन’ के दौरान व्यापक आम आबादी को बर्बर दमन का शिकार बनाने की घटनाएँ सिद्ध हो चुकी हैं। ‘सलवा जुडुम’ की नंगी सच्चाई आज पूरे देश के सामने है। मानवाधिकार संगठन इन्हीं चीजों का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि एक अपराधी के भी जनवादी अधिकार होते हैं। न्याय पाना उसका हक है और दोष सिद्धि के बाद ही उसे सजा दी जा सकती है। जहाँ तक आतंकवाद की बात है, अपने हर रूप में वह एक राजनीतिक विचारधारा है। आतंकवादी राज्य के विरुद्ध युद्ध चलाता है। इस युद्ध में यदि वह मारा जाता है तो यह अलग बात है। यदि वह पकड़ा जाता है तो उस पर राजद्रोह का अभियोग लगाया जा सकता है। पर मुकदमे के दौरान उसे राजनीतिक बन्दी के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। उसे हिरासत में यन्त्रणा देकर गुनाह नहीं कबुलवाया जा सकता या फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उसकी हत्या नहीं की जा सकती। पूरी दुनिया के सभी पूँजीवादी जनतन्त्र इन बातों को उसूली तौर पर स्वीकार करते हैं, लेकिन अमली तौर पर नहीं।

नेपाली क्रान्ति किस ओर? नयी परिस्थितियाँ और पुराने सवाल

नेपाल की घटनाओं ने एक बार फिर इस इतिहाससिद्ध धारणा को ही पुख्ता किया है कि संसदीय चुनावों में बहुमत पाने के बावजूद मेहनतकश जनसमुदाय राज्य मशीनरी का अपने हितों के अनुरूप पुनर्गठन नहीं कर सकता। वह शासक वर्ग की राज्य मशीनरी का ध्‍वंस करके ही नयी राज्य मशीनरी की स्थापना कर सकता है। बेशक बुर्जुआ संसदीय चुनावों और संसद का (और यहाँ तक कि अन्तरिम या आरज़ी सरकारों का भी) रणकौशलगत (टैक्टिकल) इस्तेमाल किया जा सकता है, पर इनके द्वारा व्यवस्था परिवर्तन, या एक वर्ग से दूसरे वर्ग के हाथों सत्ता-हस्तान्तरण, नामुमकिन है। बुर्जुआ सत्ता का ध्‍वंस ही एकमात्र ऐतिहासिक विकल्प है।

नेपाली क्रान्ति: नये दौर की समस्याएँ और चुनौतियाँ, सम्भावनाएँ और दिशाएँ

‘रेड स्टार’ के अंकों में एकाधिक बार यह अहम्मन्यतापूर्ण दावा किया गया है कि लेनिन ने संविधान सभा का जो नारा दिया था, वह अक्टूबर क्रान्ति के बाद पूरा नहीं हुआ था, लेकिन नेपाली क्रान्ति ने उसे पूरा कर दिखाया। लेनिन के समय में संविधान सभा के चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर पाने के बाद उसे भंग कर दिया गया था, लेकिन नेपाल में हमने संविधान सभा में भी जीत हासिल करके सर्वहारा जनवाद की अवधारणा को व्यवहार में आगे विकसित किया है। इस बड़बोलेपन के दिवालियेपन और संशोधनवादी चरित्र पर ग़ौर करना ज़रूरी है। लेनिन के समय में संविधान सभा बनाम सोवियत का प्रश्न बुर्जुआ राज्यसत्ता के बलपूर्वक ध्वंस के बाद पैदा हुआ था। बोल्शेविकों के सामने प्रश्न था कि नयी सर्वहारा सत्ता का, सर्वहारा जनवाद का, या यूँ कहें कि सर्वहारा अधिनायकत्व का मुख्य ‘ऑर्गन’ क्या होगा? सैद्धान्तिक तौर पर बहुदलीय संसदीय जनतन्त्र को बोल्शेविक पहले ही ख़ारिज़ कर चुके थे। संविधान सभा को नयी सर्वहारा सत्ता का एक ‘ऑर्गन’ बनाने के बारे में कुछ समय तक उन्होंने सोचा था, लेकिन फिर जल्दी ही वे इस नतीजे पर पहुँचे कि सोवियतें ही सर्वहारा सत्ता का मुख्य ‘ऑर्गन’ होंगी, वे विधायिका और कार्यपालिका दोनों की भूमिका निभायेंगी तथा उनके चुनाव में शोषक वर्गों की कोई भागीदारी नहीं होगी। दो वर्षों के अनुभव के बाद बोल्शेविक पार्टी इस नतीजे पर पहुँची कि सोवियतों के माध्यम से शासन चलाने या सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने में पार्टी की संस्थाबद्ध नेतृत्वकारी भूमिका होगी तथा ट्रेडयूनियनों की भूमिका राज्यसत्ता की “आरक्षित शक्ति” की या शासन चलाने के प्रशिक्षण केन्द्र की होगी। ने.क.पा. (माओवादी) इस बात को भूल जाती है कि नेपाल में संविधान सभा का प्रश्न राज्यसत्ता के बलात ध्वंस के बाद नहीं उठा है। यह वर्ग-संघर्ष में रणनीतिक शक्ति-सन्तुलन की संक्रमण-अवधि के दौरान एक अन्तरिम समझौते की व्यवस्था के रूप में सामने आया है और ऐसी संविधान सभा के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरना इतनी बड़ी क्रान्तिकारी उपलब्धि नहीं है, जिसके आधार पर बोल्शेविक पार्टी के अनुभवों के समाहार को संशोधित करने और मार्क्सवादी विज्ञान में इज़ाफ़ा करने का दावा ठोंक दिया जाये। ऐसा वही कर सकता है जो शान्ति समझौते और संविधान सभा के चुनाव को अक्टूबर क्रान्ति की तरह राज्यसत्ता परिवर्तन की घटना माने। कहना नहीं होगा कि यह बेहद सतही किस्म की संशोधनवादी समझ ही हो सकती है।

सद्दाम को फाँसी : बर्बरों का न्याय

सद्दाम हुसैन निश्‍चय ही एक पूँजीवादी शासक था और कुर्दों और शियाओं पर अस्सी और नब्बे के दशक में उसकी सत्ता ने जु़ल्म भी किये थे । पर उसके विरुद्ध संघर्ष इराकी जनता का काम था । अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने मात्र इन अन्तरविरोधों का लाभ उठाया और इस बहाने इराक की तेल सम्पदा पर कब्जा जमाने की कोशिश की । सद्दाम को “सजा” अपनी जनता पर दमन की नहीं, बल्कि इस बात की मिली कि उसने अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के मंसूबों को चुनौती दी ।

मज़दूर नायक : क्रान्तिकारी योद्धा – इवान वसील्येविच बाबुश्किन – बोल्शेविक मज़दूर संगठनकर्ता

रूस में जिन थोड़े से उन्नत चेतना वाले मज़दूरों ने कम्युनिज़्म के विचारों को सबसे पहले स्वीकार किया और फिर आगे बढ़कर पेशेवर क्रान्तिकारी संगठनकर्ता की भूमिका अपनायी तथा पूरा जीवन पार्टी खड़ी करने और क्रान्ति को आगे बढ़ाने के काम में लगाया उनमें पहला नाम इवान वसील्येविच बाबुश्किन (1873-1906) का आता है। 1894 में बाबुश्किन जब कम्युनिस्ट बना तो उसकी उम्र महज़ 21 वर्ष थी।