एकीकृत ने.क.पा. (माओवादी) के संशोधनवादी विपथगमन के ख़तरे और नेपाली क्रान्ति का भविष्य : संकटों-समस्याओं-चुनौतियों के बारे में कुछ जरूरी बातें

आलोक रंजन

नेपाल के बारे में ‘बिगुल’ में अन्तिम लेख हमने प्रचण्ड सरकार के इस्तीफे (4 मई ’09) के एक माह बाद जून ‘2009 के अंक में लिखा था। उसके पहले फरवरी’2009 में प्रकाशित अपने लेख में नेकपा (माओवादी) के दक्षिणपंथी विपथगमन के लक्षणों-संकेतों की हमने विस्तार से चर्चा की थी। जून के लेख में भी हमने पार्टी के भटकावों का उल्लेख किया था और साथ ही नेपाली क्रान्ति के सामने उपस्थित बेहद प्रतिकूल वस्तुगत स्थितियों की भी चर्चा की थी।

अब विगत सात महीनों के घटनाक्रम-विकास को देखने के बाद हमें लगता है कि नेपाली क्रान्ति के सामने उपस्थित वस्तुगत (ऑब्जेक्टिव) बाधाएँ और मनोगत (सब्जेक्टिव) समस्याएँ – दोनों ही और अधिक गहन-गम्भीर होकर सामने खड़ी हैं। हमारी यह स्पष्ट मान्यता है कि क्रान्तियाँ प्रतिक्रियावादी शक्तियों के दमन,षडयन्त्र या अन्य बाह्य पारिस्थितिक कारणों से विलम्बित हो सकती हैं, पीछे हट सकती हैं (या वक्ती तौर पर हार भी सकती हैं); लेकिन ज्यादातर मामलों पर विघटन, पराजय और विपर्यय का मूल कारण नेतृत्वकारी हरावल शक्ति की विचारधारात्मक कमजोरी (संशोधनवादी या उग्र ”वामपंथी” भटकाव) होता है, पार्टी की विचारधारात्मक एकजुटता का अभाव होता है। प्रतिक्रिया की ताकतों के हमले या कुचक्र भी प्राय: तभी अपने मकसद में कामयाब होते हैं, जब सर्वहारा क्रान्ति की नेतृत्वकारी पार्टी विचारधारात्मक रूप से एकजुट और परिपक्व नहीं होती। नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की विचारधारात्मक स्थिति और समस्याओं की चर्चा हम अरसे से करते आये हैं। दुर्भाग्यवश, समय ने हमारी चिन्ताओं-आशंकाओं को सही ठहराया है और आगे की स्थिति के बारे में भी हम फिलहाल बहुत अधिक आशावादी नहीं हैं। जाहिर है, हम इतिहास के बारे में निराशावादी दृष्टि कत्तई नहीं रखते, न ही ”तबाही” की भविष्यवाणी हमारा शौक है। हम वैज्ञानिक यथार्थवादी आकलन पर आधारित आशावाद के कायल हैं। मिथ्या आशावाद, यथार्थ से परे काल्पनिक आशावाद, अगले ही दौर में जनसमुदाय में मायूसी और नाउम्मीदी की भावना को और अधिक गहरा बनाने का ही काम करता है। इसी दृष्टि से, नेपाली क्रान्ति की नेतृत्वकारी पार्टी की विचारधारात्मक कमजोरियों की चर्चा हम उस दौर से ही करते रहे हैं, जब क्रान्तिकारी वामपंथी धारा के बहुतेरे पर्यवेक्षकों को वहाँ विजय आसन्न लग रही थी। नेपाल में जारी क्रान्तिकारी संघर्ष और उसकी नेतृत्वकारी ताकतों का समर्थन और क्रान्तिकारी अभिनन्दन करते हुए भी उसके भविष्य को देखना और तदनुरूप अपनी राय रखना हम जरूरी अन्तरराष्ट्रीयतावादी दायित्व समझते रहे हैं।

हमारा आज भी मानना है कि नेपाल में जारी वर्ग-संघर्ष में जन-समुदाय की निर्णायक जीत का समय एकीकृत नेकपा (माओवादी) के भीतर दक्षिणपंथी, मध्‍यमार्गी और सारसंग्रहवादी (एक्लेक्टिक) प्रवृत्तियों की मौज़ूदगी और विचारधारात्मक एकता के अभाव के चलते कुछ आगे भले ही धकेल दिया जाये, संघर्ष कुछ समय के लिए गतिरोध का शिकार भले ही हो जाये, लेकिन अब न तो पुरानी स्थिति में वापस लौटना मुमकिन है, न ही क्रान्तिकारी वाम धारा को निष्प्रभावी बनाया जा सकता है। अतीत से सबक लेकर, वहाँ का क्रान्तिकारी वाम पुन: अपनी एकजुटता और संघर्ष की प्रक्रिया को आगे बढ़ायेगा। निश्चय ही, वह इस बात को भी समझेगा कि नेपाल में क्रान्ति की प्रगति का मार्ग लम्बा होगा और जटिल भी। विशेषकर, जब पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में क्रान्तिकारी उभार जैसी स्थिति उत्पन्न होगी, तो वह समय नेपाली क्रान्ति के तीव्र अग्रवर्ती विकास और निर्णायक विजय के लिए भी अनुकूल होगी। फिलहाल, नेपाल में जारी कश्मकश का अन्त यदि किसी किस्म के बुर्जुआ जनवाद की स्थापना के रूप में भी होता है, तो संसदीय राजनीति के खिलाड़ी अपना खेल चैन से कत्तई नहीं खेल पायेंगे। व्यवस्था के बढ़ते संकट के साथ ही (और विश्व पूँजीवादी व्यवस्था की वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह अवश्यम्भावी है) वर्ग संघर्ष की लपटें फिर से विकराल ज्वाला बनने लगेंगी। बिखरी हुई क्रान्तिकारी वाम शक्तियों में एकजुटता की प्रक्रिया फिर गति पकड़ेगी और तब अतीत की नकारात्मक-सकारात्मक शिक्षाएँ उनके सामने होंगी।

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गत वर्ष मई के पहले सप्ताह में प्रधानमंत्री प्रचण्ड के इस्तीफे के बाद से नेपाल की राजनीति में अस्थिरता और तरलता की जो स्थिति पैदा हुई है, फिलहाल उसके जल्द ख़त्म होने के आसार नजर नहीं आते। वर्ष के उत्तरार्ध्द में, प्रशासन चलाने के बुनियादी कामों के अतिरिक्त और जनान्दोलनों को नियंत्रित करने में पूरी ताकत लगाने के अतिरिक्त माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व वाली नेकपा (ए.माले), नेपाली कांग्रेस कुछ मधोस पार्टियों और कुछ अन्य छोटे दलों की मिली-जुली सरकार ने लगभग कोई काम नहीं किया। एक तो एकीकृत नेकपा (मा) और उसके नेतृत्व वाले संयुक्त मोर्चे और जनसंगठनों की अगुवाई में पूरे नेपाल में जनान्दोलन लगातार चलते रहे। दूसरे, अंतरिम संसद/संविधान सभा के सबसे बड़े दल को अलग रखकर सरकार का काम करना वैसे भी मुश्किल था, ख़ास तौर पर तब जबकि सरकार में शामिल और समर्थन देने वाले दलों के बीच भी सत्ता की बन्दरबाँट और भावी राज्य-व्यवस्था और संविधान के स्वरूप को लेकर अन्तरविरोध और खींचतान लगातार जारी हों।

याद रहे कि प्रचण्ड की सरकार को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा था क्योंकि उन्होंने सरकारी आदेशों की अवहेलना करने वाले सेनाध्‍यक्ष कटवाल को बर्खास्त कर दिया था जिन्हें राष्ट्रपति रामबरन यादव ने फिर बहाल कर दिया। एकीकृत नेकपा (मा) राष्ट्रपति को अपना असंवैधानिक फैसला बदलने, खेद प्रकट करने तथा संसद में उनके निर्णय पर बहस की माँग करती रही है, जिसके लिए प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल कत्तई तैयार नहीं है। वे हो भी नहीं सकते, क्योंकि कटवाल के मसले पर प्रचण्ड सरकार निहायत साजिशाने तरीके से गिरायी गयी। कटवाल की बर्खास्तगी के प्रश्न पर पहले एमाले, मधोशी फोरम, सद्भावना पार्टी आदि ने सहमति दे दी। लेकिन प्रधानमंत्री प्रचण्ड ने जब घोषणा कर दी तो ये सभी दल एकदम पैंतरापलट करके उसका विरोध करने लगे और कटवाल को फिर से बहाल करने के राष्ट्रपति के निर्णय के साथ खड़े हो गये।

अब यह बात दिन के उजाले की तरह साफ हो चुकी है कि इसके लिए नेपाली कांग्रेस, नेकपा (ए.माले) तथा अन्य बुर्जुआ एवं संशोधनवादी पार्टियों का अपना ख़ुद का हित प्रेरित खेल तो जिम्मेदार था ही, पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों, और उनसे भी अधिक, यह भारत के दबाव का भी परिणाम था। एकदम ग़ैरजरूरी तौर पर,नेपाल के इस ज्वलन्त मसले पर बयान देकर भारतीय राजदूत और भारतीय सेनाध्‍यक्ष ने अन्दर की सच्चाई को एकदम उजागर कर दिया है। भारतीय राजदूत ने तो नेपाल के अन्दरूनी मामलों में कई बार माओवादियों के प्रतिकूल बयान दिये ही, भारतीय सेनाध्‍यक्ष ने भी सेनाओं के एकीकरण के निर्णय का विरोध करके और कटवाल की फिर से बहाली के राष्ट्रपति के निर्णय को उचित ठहराकर आग में घी डालने का काम किया। और भारतीय बुर्जुआ मीडिया के तो कहने ही क्या! ज्यादातर बुर्जुआ अख़बार लगातार माओवादियों के ख़िलाफ तथ्यों से परे आधारहीन ख़बरें गढ़ने, तथ्यों को छुपाने और भ्रामक प्रचार करने का काम करते रहे हैं।

एकीकृत नेकपा (माओवादी) ने दो मुद्दों को लेकर जनमत तैयार करने और जुझारू जनान्दोलन खड़ा करने का काम शुरू किया, जो बिल्कुल सही था। कटवाल-प्रसंग को व्यापक परिप्रेक्ष्य देते हुए उन्होंने नागरिक सर्वोच्चता बनाम सैनिक सर्वोच्चता का सवाल खड़ा किया और नेपाली कांग्रेस, नेकपा (एमाले) और अन्य बुर्जुआ एवं संशोधनवादी पार्टियों के असली चरित्र एवं घटिया अवसरवाद को उजागर करने की कोशिश की। दूसरा उन्होंने ‘पड़ोसी देश’ (भारत) और बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप के मसले को देश की सम्प्रभुता का सवाल बनाकर उठाया और एक बार फिर 1816 की सुगौली सन्धिा से लेकर 1950 के समझौते तक भारत-नेपाल के बीच हुए सभी असमानतापूर्ण समझौतों की पुनर्समीक्षा करके, पूर्ण समानता के आधार पर नये समझौते की माँग की। ये दोनों ही मुद्दे जनता को अपील करने वाले थे। नेपाली कांग्रेस और एमाले की मौकापरस्ती जनता के सामने एकदम उजागर थी। मधोस पार्टियों के पालापलट के चलते तराई के इलाके में उनकी साख भी जनता के बीच काफी गिरी। जहाँ तक भारत की बात है, नेपालव्यापी भारत-विरोधी लहर को देखते हुए यहाँ की सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा और सेनाध्‍यक्ष तथा राजदूत के बयानों पर सफाई देकर लीपापोती करनी पड़ी। 16 जनवरी 2010 को भारत के विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने अपनी नेपाल-यात्रा के दौरान प्रचण्ड से भी मुलाकात की और कहा कि भारत 1950 के समझौते सहित सभी असमानतापूर्ण समझौतों पर पुनर्विचार के लिए तैयार है।

जनसमुदाय को अपील करने वाले मुद्दों और व्यापक जन समर्थन के बावज़ूद, यदि माओवादी अपनी बुनियादी माँग (नागरिक सर्वोच्चता का प्रश्न, राष्ट्रपति के प्रश्न पर संसद में बहस) मनवाने में सफल नहीं हो सके, तो इसका बुनियादी कारण उनके ढुलमुल रवैये, नेताओं के अन्तरविरोधी बयानों, जनान्दोलन के कार्यक्रम में लगातार बदलाव और आगे-पीछे दोलन करते रहने में निहित है। जनता के बीच लम्बे समय तक यह स्पष्ट ही नहीं हो पाया कि एकीकृत नेकपा (मा) जनसंघर्ष को आख़िर किस दिशा में और कहाँ ले जाना चाहती है।

जैसा कि सरकार में रहते समय हो रहा था, उसी प्रकार मई से जारी आन्दोलन के बाद भी अलग-अलग नेता अलग-अलग बयान देते रहे। कभी कोई नेता इस आशय का बयान देता कि अब पार्टी को आम बग़ावत के द्वारा राज्यसत्ता-धवंस की तैयारी करनी होगी, तो दूसरा नेता यह बयान दे देता कि जल्दी ही माओवादियों के नेतृत्व में नयी सरकार बन जायेगी, तीसरा कोई नेता संविधान-निर्माण में अड़चन न डालने का आश्वासन देते हुए निर्धारित समय सीमा (28 मई2010) में संविधान तैयार हो जाने की उम्मीद जाहिर करने लगता। 1 नवम्बर 2009 से जब ‘जनान्दोलन -तीन’ की शुरुआत हुई, उसके बाद भी शीर्ष नेताओं की अन्तरविरोधी अवस्थितियों को दर्शाने वाले वक्तव्यों, साक्षात्कारों आदि का सिलसिला जारी रहा। कुछ ने इसे क्रान्तिकारी जनविद्रोह के द्वारा राज्यसत्ता कब्जा करने की निर्णायक लड़ाई की शुरुआत मानी, कुछ ने इसे केवल नागरिक सर्वोच्चता बहाल करने के मुद्दे पर केन्द्रित बताया, कुछ ने एक लोक संविधान निर्माण के आसन्न प्रश्न पर बल दिया तो कुछ ने इसका लक्ष्य माओवादी नेतृत्व में नयी सरकार का गठन बताया। बाबूराम भट्टराई ने पहले एक साक्षात्कार में बताया कि अनुभव ने सिखाया है कि बुर्जुआ राज्यसत्ता का धवंस ही करना होगा (मानो यह बताने के लिए अब तक के विश्व ऐतिहासिक अनुभव और मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी सिध्दान्त काफी नहीं थे!) फिर कुछ ही दिनों बाद एक वक्तव्य में आश्वासन दिया कि माओवादी आगे फिर कभी हथियार नहीं उठायेंगे। ‘जनान्दोलन-तीन’ की शुरुआत के बाद पार्टी ने स्थानीय सरकारों के गठन की घोषणा की। फिर तेरह स्वायत्तशासी राज्यों की घोषणा की। लोगों को लगा कि माओवादी समान्तर सत्ता की तैयारी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन फिर पार्टी ने घोषणा कर दी कि यह प्रतिरोध का एक प्रतीकात्मक कदम है और यह कि माओवादी शान्ति-प्रक्रिया के सुचारू अमल और संविधान-निर्माण के प्रति प्रतिब) हैं। 16 दिसम्बर को सरकार, संयुक्त राष्ट्रसंघ और माओवादियों के बीच जनमुक्ति सेना के अवयस्क सैनिकों को डिस्चार्ज करने की कार्ययोजना पर सहमति बनी और जनवरी में इस पर कार्रवाई भी शुरू हो गयी, जबकि माओवादी सहज ही इस बात को शर्त बना सकते थे कि नागरिक सर्वोच्चता का मसला हल होने तक कोई वार्ता नहीं होगी और शान्ति-प्रक्रिया रुकी रहेगी। इस दौरान एमाले, नेपाली कांग्रेस और मधोसी जनाधिकार फोरम के नेताओं से पर्दे के पीछे की बातचीत का सिलसिला लगातार जारी रहा। प्रचण्ड इस दौरान कभी जल्दी ही माओवादी नेतृत्व वाली सरकार बनने का तो कभी राष्ट्रीय सरकार के गठन की घोषणा करते रहे।

25 दिसम्बर को बिना किसी स्पष्ट महत्वपूर्ण उपलब्धि के, पार्टी ने सहसा यह घोषणा कर दी कि नागरिक सर्वोच्चता कायम करने और सभी असमान संधियों को समाप्त करने के लिए (ग़ौरतलब है कि ये लक्ष्य भी बुर्जुआ संवैधानिक दायरे के सीमित और तात्कालिक लक्ष्य हैं और ये भी अभी पूरे नहीं हुए हैं और यह भी प्रश्न उठता है कि यदि इतना ही उद्देश्य था तो ‘जनान्दोलन-तीन’ की शुरुआत के समय लम्बी-चौड़ी घोषणाएँ और दावे क्यों किये गये थे?) जारी ‘जनान्दोलन-तीन’ अपने लक्ष्य में सफल रहा है। अब जनता और पार्टी-कतारों के बीच यह स्पष्ट संकेत जा चुका था कि जनान्दोलनों का एकमात्र लक्ष्य माओवादी नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए दबाव बनाना मात्र है और अब एकीकृत नेकपा (मा) संसदीय चौहद्दी के भीतर ही सारा खेल खेलने के लिए प्रतिबद्ध हो चुकी है। नये साल की घटनाओं ने इस धारणा को और अधिक पुष्ट करने का काम किया। 5 जनवरी ‘2010 को तीन बड़ी पार्टियों (माओवादी, एमाले और ने.का.) ने संविधान-निर्माण, शान्ति प्रक्रिया और सेनाओं के विलय सहित छ: मुद्दों पर आम सहमति की घोषणा की। 7 जनवरी को सरकार और माओवादियों के बीच यह सहमति बनी कि सेनाओं के विलय का काम 112 दिनों में पूरा कर लिया जायेगा। दूसरी ओर, ठीक इसी दिन प्रधानमंत्री माधव कुमार नेपाल ने बयान दिया कि नये संविधान की घोषणा से पहले माओवादियों को हथियार त्याग देने होंगे। 8 जनवरी को शान्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने और विवादास्पद मुद्दों को हल करने के लिए प्रचण्ड, गिरिजा प्रसाद कोइराला और एमाले अध्‍यक्ष झालानाथ खनाल को लेकर एक ‘हाई लेवल पोलिटिकल मेकेनिज्म’ (एच.एल.पी.एम.) के गठन की घोषणा की गयी। एक ओर महीनों लम्बी राजनीतिक अनिश्चितता समाप्त होने के दावे किये जा रहे थे, दूसरी ओर न केवल मधोस पार्टियाँ और अन्य दल इसका विरोध कर रहे थे, बल्कि वरिष्ठ एमाले नेता के.पी. शर्मा ओली ने अन्तरिम संविधान में प्रावधान नहीं होने का तर्क देते हुए एच.एल.पी.एम. के गठन को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया। फिर पेंच फँसा प्रधानमंत्री नेपाल के इस निकाय में शामिल होने को लेकर। प्रचण्ड ने पहले इसका विरोध किया फिर ‘विशेष आमंत्रित सदस्य’के रूप में उनकी भागीदारी के लिए हामी भी भर दी।

अब आगे घटनाक्रम-विकास इसी दिशा में जारी है। ‘जनान्दोलन-तीन’ का संवेग क्षीण हो चुका है। कतारों के बीच और जनता में यह प्रभाव अब स्थापित हो चुका है कि माओवादी नेतृत्व दबाव बनाने और विरोधी दलों की कमजोरी एवं अन्तरविरोधों का लाभ उठाकर संविधान सभा में अनुकूल स्थिति बनाने से आगे की बात ही नहीं सोचता। और वास्तविकता भी यही है। एकीकृत नेकपा (मा) के दक्षिणपंथी अवसरवाद या संशोधनवाद की दिशा में विपथगमन की प्रक्रिया तेज हो चुकी है। पार्टी में यदि क्रान्तिकारी जनदिशा की सोच मौजूद भी है तो वह काफी कमजोर है और मौजूदा ढाँचे के भीतर उसका निर्णायक वर्चस्व कायम हो पाना मुश्किल है। जो सारसंग्रहवादी (एक्लेक्टिक) और व्यवहारवादी (प्रैग्मेटिक) धड़े हैं, जो कभी गरम तो कभी नरम रुख अपनाते रहते हैं, वे भी सारत: दक्षिणपंथी अवसरवादी ही हैं। मध्‍यमार्गियों (सेण्ट्रिस्ट) के धड़े के बारे में भी यही बात लागू होती है। पार्टी के भीतर अधिकांश अन्तरविरोध तो अलग-अलग संशोधनवादी प्रवृत्तियों-रूझानों के बीच ही होता दीख रहा है। बेहतर होगा कि हम यहाँ कुछ प्रतिनिधि अवस्थितियों पर थोड़ी चर्चा कर लें।

मोहन बैद्य (किरण), राम बहादुर थापा (बादल), सी.पी. गजुरेल, नेत्र बिक्रम चन्द आदि का धड़ा पार्टी में दक्षिणपंथी विचलन का विरोध करता रहा है और संविधान सभा/संसद एवं सरकार के बाहर जनसंघर्षों पर, क्रान्तिकारी जन-विद्रोह की तैयारी पर अधिक बल देता रहा है। लेकिन विचारधारात्मक अपरिपक्वता के कारण उनमें एक वैकल्पिक-व्यावहारिक, सुसंगत कार्ययोजना का लगातार अभाव दीखता रहा है। वर्तमान जटिल राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों में नेपाल में वर्ग-संघर्ष को आगे बढ़ाने का कोई सुसंगत कार्यक्रम वे नहीं दे सके हैं। इसका कारण यह है कि उनका रैडिकलिज्म वस्तुत: अनुभवसंगत है, उसका विचारधारात्मक आधार काफी कमजोर है। स्मरणीय है कि किरण स्वयं ”प्रचण्ड पथ” के सूत्रीकरण के अग्रणी समर्थक रहे हैं। रूसी और चीनी क्रान्ति के अनुभवों को अपने अनुभवों से बदलते हुए नेकपा (मा) ने जब सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धात्मक संसदीय जनतान्त्रिक व्यवस्था कायम करने का”महान सैध्दान्तिक अवदान” दिया (जो वस्तुत: घोर संशोधनवादी स्थापना है) तो किरण आदि भी इस स्थापना से सहमत थे। बुर्जुआ राज्य के धवंस की जगह”पुनर्गठन” जैसे ग़ैरमार्क्‍सवादी जुमले का इस्तेमाल किरण आदि भी करते रहे हैं। संविधान सभा और अन्तरिम सरकार में भागीदारी का सवाल विशुद्ध रणकौशलात्मक प्रश्न है और इसे रणनीति कत्तई नहीं बनाई जानी चाहिए – इस प्रश्न पर इस धड़े की भी समझ स्पष्ट नहीं रही है। इसीलिए, अतीत में सभी अहम प्रश्नों पर दो लाइनों के संघर्ष में यह धड़ा अन्तत: राजनीति के बजाय संगठन को कमान में रखकर पार्टी एकता को बनाये रखने के लिए समझौता-फार्मूले की तलाश करता रहा है। जैसे लोक जनवादी गणराज्य बनाम संघात्मक जनवादी गणराज्य के प्रश्न पर चली बहस में समझौता फार्मूला निकला – लोक जनवादी संघात्मक गणराज्य। इस नये फार्मूले की व्याख्या किरण आदि लोग गणराज्य के रूप में करते रहे, जबकि दूसरा धड़ा बुर्जुआ जनवादी गणराज्य के चरण से गुजरकर लोक गणराज्य कायम करने की बातें करता रहा। हम सभी जानते हैं कि मार्क्‍सवादी अवस्थिति और संशोधनवादी अवस्थिति में जब मेल-मिलाप कराया जाता है तो नतीजा संशोधनवाद के रूप में ही सामने आता है। और बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, पार्टी के कई ग़लत फैसलों और कदमों की संशोधनवादी सारवस्तु को किरण आदि समझने में और उन्हें मुद्दा बनाकर संघर्ष चलाने में विफल रहे। केवल कुछ उदाहरण काफी होंगे। सरकार में शामिल होने के बाद जब आधार इलाकों की कमेटियाँ भंग की गयीं (जिन्हें वैकल्पिक लोकसत्ता की ग्रासरूट यूनिटों के रूप में कायम रखा जाना चाहिए था और जिनका विकास किया जाना चाहिए था) तो इस फैसले पर कोई विरोध नहीं हुआ। यदि संविधान सभा और प्रॉविजनल सरकार में भागीदारी एक ‘टैक्टिकल मूव’ था तो किसी भी सूरत में पूरी पार्टी को खुला नहीं किया जाना चाहिए था। पर न केवल पूरी पार्टी खुली कर दी गयी बल्कि पेशेवर क्रान्तिकारी साथियों को घर भेजने जैसे निर्णय भी लिये गये। इस मुद्दे पर भी दो लाइनों का संघर्ष चला हो, ऐसी कोई जानकारी नहीं है। पार्टी नेतृत्व ने, जब तक प्रचण्ड की सरकार थी, तब तक पुराने आधार इलाकों में समान्तर लोकसत्ता को मजबूत बनाने (वस्तुत: उन्हें कमजोर एवं निर्जीव बना दिया गया) और नये इलाकों (जिनमें शहरी इलाके प्रमुख हैं) में वैकल्पिक लोकसत्ता के नये रूप विकसित करने के बजाय, तथा बुर्जुआ संसदीय प्रणाली का ‘एक्सपोजर’ करने के बजाय, अपना सारा ध्‍यान सरकार चलाने पर और”लोककल्याणकारी” कार्यों पर केन्द्रित किया। बार-बार हथियार न उठाने और नया संविधान बनाकर लोक जनवादी गणराज्य स्थापित करने जैसी बातें कहकर जनता की वर्ग चेतना को कुन्द किया जाता रहा। इन प्रत्यक्ष संशोधनवादी भटकावों को पार्टी के रैडिकल धड़े ने कभी भी मुद्दा नहीं बनाया। सेना एकीकरण (जिस पर पूर्व के लेखों में हम अपनी आपत्ति रख चुके हैं) का मुद्दा पार्टी में आम सहमति से लिया गया था और आज भी इस पर कोई बुनियादी मतभेद नहीं है। वर्ष2009 के प्रारम्भ में (देखें ‘रेड स्टार’, वॉल्यूम -2, नं. – 4, फरवरी 2009) प्रचण्ड ने जन मुक्ति सेना को स्पष्ट सन्देश दिया था कि वह अब पार्टी के मातहत नहीं, बल्कि ‘आर्मी इण्टिग्रेशन स्पेशल कमेटी’ के मातहत है। सेना के एकीकरण तक यह कहना, पार्टी को उसके सशस्त्र बल से काट देना है। इस शर्त को मानना एक ख़तरनाक समझौता था। पूरे संक्रमण काल के दौरान पी.एल.ए. पर पार्टी का नेतृत्व ही होना चाहिए था। यह मसला भी पार्टी की आम सहमति का मसला था। ऐसे दर्जनों और उदाहरण हैं जो बताते हैं कि पार्टी में प्रचण्ड और भट्टराई के दक्षिणपंथी रुझानों का विरोध करने वाला रैडिकल धड़ा सभी मसलों पर सुसंगति और निरन्तरता के साथ संशोधनवादी भटकाव का विरोध नहीं करता रहा है। वैचारिक अपरिपक्वता के चलते वह कभी भी वैकल्पिक दिशा एवं कार्य योजना प्रस्तुत नहीं कर सका है (केवल रैडिकल नारे देता रहा है) और राजनीति के बजाय संगठन को कमान में रखकर संशोधनवादी लाइन के साथ मेल-मिलाप और सुलह-सफाई का रवैया अपनाता रहा है।

बाबूराम भट्टराई की शुरू से ही एक सुसंगत दक्षिणपंथी अवस्थिति रही है। माओवादी अब फिर कभी हथियार नहीं उठायेंगे, यह घोषणा वह सबसे अधिक करते रहे हैं। उन्होंने कई बार इस बात पर बल दिया कि नेपाल में अभी बुर्जुआ जनवाद ही कायम हो सकता है, पूँजीवाद या उत्पादक शक्तियों के कुछ विकास के बाद ही लोक जनवाद कायम होने की परिस्थिति बन सकती है। यह सारत: देघ सियाओ पिघ प्रवर्तित ‘उत्पादक शक्तियों के विकास’ के सिध्दान्त का ही नया रूप है जो कहता था कि चीन में पूरा पूँजीवादी विकास कर लेने के बाद ही समाजवाद में संक्रमण सम्भव हो सकता है। वित्त मंत्री रहते हुए भट्टराई ”लोक कल्याणकारी”कार्यों और भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन पर सर्वाधिक बल देते रहे और यह अपेक्षा करते रहे कि इससे माओवादियों का आधार मजबूत होगा। लेकिन प्रकारान्तर से यह बुर्जुआ जनवाद विषयक विभ्रमों को मजबूत करना था।

प्रचण्ड एक दक्ष और ‘प्रैग्मेटिक’ कूटनीतिज्ञ के भाँति दाँये-बाँये दोलन करते हुए, अपनी दक्षिणपंथी अवसरवादी अवस्थितियों पर पर्दा डालते रहे हैं। ऐसा करके वे रैडिकल वामपंथी कतारों को दिग्भ्रमित करके अपने साथ लेने की कोशिश करते रहे हैं। कतारों की राजनीतिक शिक्षा की कमी (राजनीति विहीन, सैन्यवादी जुझारूपन) के चलते और सांगठनिक जोड़तोड़ के चलते वे इसमें सफल भी होते रहे हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में उनका अवसरवाद ज्यादा से ज्यादा उजागर होता रहा है। उनका राजनीतिक व्यवहार सर्वथा अप्रत्याशित और अननुमेय होता है। बयान देना और फिर सफाई देना उनकी आम प्रवृत्ति है। चीन-यात्रा से लौटने के बाद उन्होंने ‘स्टेट टु स्टेट रिलेशनशिप’ के साथ ही ‘पार्टी टु पार्टी रिलेशनशिप’ की भी बात कही थी। इसमें अन्तर्निहीत है कि वे अब चीन की पार्टी को संशोधनवादी नहीं मानते। हम पहले के लेखों में यह चर्चा कर चुके हैं कि माओवादी मुखपत्रों में अब विचारधारात्मक प्रश्नों पर कम से कम लेखन होता है,देघपंथियों की और ”बाजार समाजवाद” की आलोचना नहीं होती और पार्टी की संशोधनवादी अंतर्वस्तु की चर्चा किये बग़ैर किम इल सुघ की जुछे विचारधारा और क्यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए लेख छपते हैं। पार्टी के भीतर के कुछ विश्वस्त सूत्रों के अनुसार, अपनी चीन यात्रा से लौटकर प्रचण्ड वहाँ की भौतिक प्रगति से अत्यधिक प्रभावित थे। वहाँ पूँजीवाद जनित भीषण सामाजिक विषमता, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी आदि पर उनका धयान ही नहीं था। यह बताता है कि ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ और देघ सियाओ पिघ के बाजार समाजवाद की विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु को उन्होंने किस हद तक समझा है! अभी पिछले दिनों प्रचण्ड ने यह भी बयान दे डाला कि न वे नास्तिक हैं, न ही उनकी पार्टी नास्तिक है! यह सर्वहारा वर्ग की पार्टी की विचारधारात्मक अवस्थिति के बारे में लेनिनवादी समझ के उलट घोर सामाजिक जनवादी अवस्थिति है। प्रचण्ड एक दिन बयान देते हैं कि माधव नेपाल की सरकार भारतीय कठपुतली है, और अगले दिन वे सबकी भागीदारी वाले ”राष्ट्रीय सरकार” की बात करने लगते हैं। आज वे नेपाली कांग्रेस को सामन्तों व दलाल पूँजीपतियों की पार्टी बताते हैं, फिर अचानक सिंगापुर में या काठमाण्डू से कोइराला से बातचीत के बाद उनका टोन बदल जाता है। यह विशुद्ध बुर्जुआ कूटनीति है। इसके चलते जनता में काफी विभ्रम पैदा होता रहा है। ‘रेड स्टार’ में छपने वाले रोशन किस्सून जैसे उत्तर आधुनिक मार्क्‍सवादी के लेख और लक्ष्मण पंत के लेख के उदाहरण के जरिए पार्टी के संशोधनवादी भटकाव के अनेकों उदाहरण पहले के लेखों में दिये जा चुके हैं। इन दक्षिणपंथी विचलनों की मुख्य जिम्मेदारी पार्टी चेयरमैन प्रचण्ड की ही है।

जहाँ तक नेकपा (मा) में शामिल हुए प्रकाश (नारायण काजी श्रेष्ठ) के नेतृत्व वाले नेकपा. (एकता केन्द्र) की बात है, यह धड़ा दुविधा और अनिर्णय की स्थिति में है। अतीत में उसने दक्षिण और वाम के विचलनों के खिलाफ शानदार संघर्ष किये थे, लेकिन अब वह विरोधी धड़ों के बीच सन्तुलन स्थापित करते हुए पार्टी एकता को बनाये रखने की कोशिश में स्वयं अपनी विचारधारात्मक स्थिति को कमजोर करता नजर आ रहा है। पहले एकता केन्द्र का आकलन था कि एकता कायम होने के बाद माओवादी पार्टी के भीतर के दक्षिणपंथी विचलनों से संघर्ष सुगम होगा। लेकिन अब पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि मुख्य विचारधारात्मक प्रश्नों को हल किये बग़ैर सांगठनिक एकता का निर्णय संगठन को कमान में रखकर निर्णय लेने के ग़लत अप्रोच की देन था। नतीजतन, कतारों के स्तर तक दोनों संगठनों में व्यावहारिक-सांस्कृतिक एकता आज तक नहीं बन पाई है और पूर्व नेकपा (एकता केन्द्र) की कतारों में पस्तहिम्मती और किंकर्तव्यविमूढ़ता का आलम है। एकीकृत नेकपा (मा) के भीतर सुख-सुविधा की बुर्जुआ जीवन शैली, (सत्तासीन पार्टी में होने के नाते) भ्रष्टाचार और एमाले की प्रसिद्ध ‘पजेरो संस्कृति’ के जो नये रूप पैदा हुए, उनसे पार्टी के भीतर सांस्कृतिक क्रान्ति पर बल देने वाले एकताकेन्द्र के लोग भी अछूते नहीं रहे हैं। हाल के दिनों में, ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकाश की अवस्थिति ज्यादातर मामलों में प्रचण्ड के साथ रही है, जबकि एकता केन्द्र धड़े के कई अग्रणी नेताओं की अवस्थिति किरण धड़े के साथ रही है। यानी बुर्जुआ विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रश्नों पर एकता बनाये बग़ैर सांगठनिक एकता बनाने का एकता केन्द्र को गम्भीर नुकसान उठाना पड़ा है। नेकपा (मा) के बड़े हिस्से को अपनी विचारधारा और राजनीतिक संस्कृति से प्रभावित करने के बजाय वह वस्तुत: उसी में घुल-मिल गया है। उसके नेताओं की स्थिति ‘बैकबेंचर्स’ की और सन्तुलन बनाने वालों की हो गयी है और कार्यकर्ता विभ्रम, निराशा और अनिर्णय के शिकार हो रहे हैं। पार्टी के भीतर दो लाइनों के संघर्ष के लिए अल्पमत में होना कोई मायने नहीं रखता, बशर्ते कि सही लाइन की समझ स्पष्ट हो। नेकपा (एकता केन्द्र) स्वयं सही लाइन को नेतृत्व देते हुए एकीकृत संगठन में उस हद तक भी संघर्ष नहीं चला सका, जितना कि वह बाहर रहकर चला रहा था। इसके कारणों का विश्लेषण जरूरी है। यदि पीछे मुड़कर देखें तो पाते हैं कि अपने पूरे इतिहास में माओवादियों के ”वाम” और दक्षिण के भटकावों की आलोचना करने के बावज़ूद, एकता केन्द्र एक वैकल्पिक लाइन को आगे बढ़ा पाने में, मूलत: और मुख्यत: विफल रहा। सही समय पर निर्णय ले पाने की क्षमता में कमी कई मायनों में दीखती रही है। माओवादियों द्वारा लोकयुद्ध की घोषणा के बाद (अब जिस निर्णय के समय के औचित्य पर ही पुनर्विचार की जरूरत है) सशस्त्र संघर्ष का दबाव उनके उफपर भी था क्योंकि अपनी कतारों को वे सही-सटीक वैकल्पिक कार्यक्रम नहीं दे सके। एकता केन्द्र माओवादियों के बुर्जुआ संवैधानिक विभ्रमों की आलोचना करते हुए प्रॉविजनल सरकार में भागीदारी को एक ‘टैक्टिकल’ कदम मानता था और कहता था कि हम निर्माणाधीन संविधान को ज्यादा से ज्यादा जनोन्मुख बनाने (यानी बुर्जुआ जनवाद की चौहद्दी को थोड़ा फैलाने) के अतिरिक्त ज्यादा कुछ नहीं कर सकते। लेकिन एकता केन्द्र ने भी इस संक्रमण अवधि के दौरान बुर्जुआ जनवाद के ‘एक्सपोजर’ का और वैकल्पिक, समान्तर क्रान्तिकारी लोकसत्ता के रूपों एवं संस्थाओं को विकसित करने का, कोई ठोस कार्यक्रम नहीं रखा। पूरी पार्टी के तन्त्र के बड़े हिस्से को संवैधानिक राजनीति से अलग वर्ग-संघर्ष की तैयारी के कामों में लगाने की कोई ठोस योजना उनके पास भी नहीं थी। सेनाओं के विलय के प्रश्न पर उनकी भी सहमति थी। आधार इलाकों की कमेटियों को भंग करने, पेशेवर क्रान्तिकारियों को घर भेजने और पूरी पार्टी को खुली करने के निर्णयों का उन्होंने भी कोई विरोध नहीं किया। नेकपा (मा) से पहले ही वे कोइराला के नेतृत्व वाले अन्तरिम सरकार में शामिल थे और उसी दौरान उनके सामने पार्टी के नेतृत्व के कुछ हलकों और कतारों में सत्ताा-संस्कृति (सत्ता की सुविधाओं से लाभ उठाने और भ्रष्टाचार की संस्कृति) के ख़तरे आये थे। जो पार्टी अपने भीतर सांस्कृतिक क्रान्ति पर बल देती हो, उसके भीतर यदि यह समस्या सत्ता में शामिल होते ही गम्भीर होकर सामने आयी तो यह मानने के पर्याप्त आधार मौजूद हैं कि पार्टी के भीतर निम्न बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ पहले से मजबूत रूप में मौजूद रहीे हैं और उनके विरुद्ध प्रभावी संघर्ष नहीं चलाया जा सका है। बहरहाल, एकता केन्द्र धड़े की वर्तमान स्थिति के कारणों पर हम निर्णायक ढंग से कुछ नहीं कह सकते, लेकिन इतना जरूर कह सकते हैं कि अतीत में ”वाम” और दक्षिण के भटकावों के विरुद्ध मूलत: और मुख्यत: सही अवस्थिति अपनाने के बावज़ूद उनकी विचारधारात्मक समझ की जमीन कमजोर रही है। इसी के नाते अतीत में भी पहलकदमी उनके हाथों से निकलकर नेकपा (मा) के हाथों में आ गयी थी। इसी के नाते अन्तरिम सरकार में ‘टैक्टिकल’ भागीदारी के दौर के कामों के बारे में वे स्वयं भी कोई ठोस वैकल्पिक रूपरेखा नहीं प्रस्तुत कर सके। इसी के नाते संगठन को कमान में रखते हुए उन्होंने एकता का निर्णय लिया और इसी के नाते एकता के बाद वे पार्टी के भीतर दक्षिणपंथी अवसरवाद के विरुद्ध सुसंगत एवं निर्णायक ढंग से दो लाइनों का संघर्ष चला पाने में विफल रहे। नतीजतन, स्वयं उनकी विचारधारात्मक अवस्थिति विसंगतियों और विघटन का शिकार हो गयी और काफी हद तक वे स्वयं दक्षिणपंथी विचलन का शिकार हो गये। यह विचलन आज ज्यादातर व्यवहारवाद (प्रैग्मेटिज्म) और पराजयवाद के रूप में नजर आ रहा है।

नेपाली क्रान्ति विगत लगभग दो दशकों के दौरान के सर्वाधिक संकटपूर्ण दौर से गुजर रही है। बेशक विश्व-ऐतिहासिक और राष्ट्रीय वस्तुगत परिस्थितियाँ भी बेहद प्रतिकूल हैं। संक्रमणकालीन स्थितियों की तरलता भी जटिलता को बढ़ा रही है। ऐसे में, बाहर से बने-बनाये फार्मूले सुझाने का काम तो कत्तााई नहीं किया जा सकता। हाँ, डेढ़ सौ वर्षों के सर्वहारा संघर्षों के इतिहास और उनसके नि:सृत क्रान्ति के विज्ञान के आधार पर इतनी बातें दृढ़तापूर्वक जरूर की जा सकती हैं कि क्रान्ति को सफल अंजाम तक वही पार्टी पहुँचा सकती है, जो विचारधारा के प्रश्न पर और रणनीति एवं आम रणकौशलों (स्ट्रैटेजी ऐण्ड जनरल टैक्टिस) के प्रश्नों पर एकजुट हो। पार्टी में दो लाइनों की मौजूदगी का मतलब यह कदापि नहीं होता कि उसमें संघर्ष के बजाय लाइनों के सहअस्तित्व और सहमेल की स्थिति हो और पार्टी का ढाँचा बुर्जुआ संघात्मक किस्म का हो। ऐसी पार्टी कत्तई निर्णायक नहीं होती और वर्ग युद्ध हरावल दस्ते से निर्णायक होने की माँग करता है। विजातीय विचार पार्टी में लगातार आते रहते हैं और उनके विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष भी एक सतत् प्रक्रिया है। जब कोई विजातीय लाइन स्पष्ट रंग-रूप एवं निरन्तरता के साथ सामने आ जाये, तो उसके विरुद्ध अविलम्ब आर-पार की लड़ाई लड़ी जानी चाहिए और इसके लिए सांगठनिक एकता की भी परवाह नहीं की जानी चाहिए। हो सकता है कि इससे तुरत नुकसान होता दीखे, लेकिन अन्ततोगत्वा क्रान्ति के लिए यही हितकर सिद्ध होगा। एक पार्टी में यदि दक्षिणपंथी अवसरवाद और सही क्रान्तिकारी वामपंथी लाइन के साथ-साथ मध्‍यमार्गी (सेण्ट्रिस्ट) ओर सारसंग्रहवादी (एक्लेक्टिक) लाइनें भी मौजूद हों, तो यह खिचड़ी अन्तत: दक्षिणपंथी ही बनती है। मध्‍यमार्गी और सारसंग्रहवादी लाइनें भी सारत: दक्षिणपंथी ही होती हैं और जो सही वामपंथी धारा ग़लत लाइनों के साथ सहअस्तित्व कायम करती है, वह भी कालान्तर में निष्प्रभावी और विघटित हो जाती है।

न केवल एकीकृत नेकपा (मा) में बल्कि पूरे नेपाल के क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन में इस समय दक्षिणपंथी अवसरवाद का भटकाव हावी है (बेशक संकीर्णतावाद और हरावलपंथ के रूप में ”वामपंथी” अवसरवाद की धारा भी मौजूद है, पर वह बेहद कमजोर है), और इस भटकाव के विरुद्ध लड़कर ही नये सिरे से सर्वहारा क्रान्ति के हरावल दस्ते का पुनर्गठन किया जा सकता है और नेपाली क्रान्ति को उसके सुदीर्घ, जटिल एवं दुश्कर पथ पर आगे बढ़ाया जा सकता है। वैज्ञानिक मिथ्या आशाओं में नहीं जीता और वास्तविकता को स्वीकार करके आगे कदम बढ़ाता है। जन समुदाय को भी वह यही सिखाता है।

कुछ वर्षों पूर्व नेपाल में क्रान्तिकारी वाम की जो एकता-प्रक्रिया तेजी से आगे डग भर रही थी, वह एकीकृत नेकपा (माओवादी) के भीतर दक्षिणपंथी भटकावों की मौजूदगी तथा संघर्षों और नाना प्रकार के समझौता फार्मूलों पर अमल की भ्रमपूर्ण स्थिति के कारण रुक गयी है। न केवल रुक गयी है, बल्कि उल्टी प्रक्रिया भी जोर पकड़ रही है। पिछले वर्ष जुलाई में एकीकृत नेकपा (मा) से टूटकर 22 नेता और सैकड़ों कार्यकर्ता मातृका यादव के नेतृत्व वाली नेकपा (माओवादी) में शामिल हो गये। उन्होंने पार्टी नेतृत्व पर भ्रष्टाचार और वित्तीय अनियमितता के भी आरोप लगाये। पूर्व में एकता केन्द्र से सम्ब) जनमोर्चा के एक हिस्से ने,अभी भी अपना अलग अस्तित्व बनाये रखा है। 2008 के अन्त तक स्थिति यह थी कि संशोधनवादी पार्टियों के रैडिकल कार्यकर्ता भी एकीकृत माओवादी पार्टी में आने को तैयार थे, लेकिन पार्टी की अन्दरूनी स्थिति के कारण यह प्रक्रिया रुक गयी।

यही नहीं, यदि पार्टी विचारधारात्मक और रणनीतिक प्रश्नों पर एकजुट और दृढ़ होती तो एमाले और नेपाली कांग्रेस के भीतर मौजूद ऐसे रैडिकल राष्ट्रीय तत्वों को भी (जैसे एमाले में वामदेव गौतम और ने.कां. में प्रदीप गिरि तथा बड़ी तादाद में मौजूद युवा कार्यकर्ता) साथ लेकर एक राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चा गठित किया जा सकता था, जो माधव नेपाल ऐण्ड कं. और कोइराला-देउबा ऐण्ड कं. की घटिया मौकापरस्ती और भारतोन्मुख नीतियों से बेहद नाराज थे। पर एकीकृत माओवादी पार्टी के भीतर एकता के अभाव के चलते ऐसा नहीं हो सका।

वर्तमान विश्व-परिस्थितियों में नेपाल जैसे पिछड़े, भूआवेष्ठित देश में सर्वहारा क्रान्ति की राह बहुत कठिन है, पर इनसे घबराकर यदि कोई पार्टी समझौते का मार्ग चुनती है या बुर्जुआ चौहद्दियों में रहकर सत्ता का भागीदार बनकर बुर्जुआ जनवादी सुधार करते हुए अनुकूल स्थिति के इन्तजार का रास्ता चुनती है तो इसका अर्थ यह है कि उस पार्टी का विचारधारात्मक आधार बेहद कमजोर है। इतिहास ने हमें बताया है कि यदि विचारधारा भटक जाती है तो ”राकेट आसमान में उड़ता है और लाल झण्डा धूल में गिर जाता है” (ख्रुश्चेवी संशोधनवादी शासन के दौर के बारे में चीनी पार्टी की प्रसिद्ध टिप्पणी)। इसलिए बुनियादी सवाल वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व के प्रश्न पर अडिग रहने का है। बुनियादी सवाल इस मसले पर स्पष्टता का है कि अन्तरिम सरकार में और संविधान-निर्माण में भागीदारी महज एक ‘टैक्टिकल’ कदम ही हो सकता है। बहुमत पाकर सरकार बनाकर और संविधान बनाकर लोक जनवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। पुरानी राज्यसत्ता का पुनर्गठन नहीं बल्कि धवंस करके ही लोक जनवादी अधिनायकत्व की अन्तर्वस्तु वाली नयी राज्यसत्ता कायम की जा सकती है। सरकार और राज्यसत्ता के भेद को भी स्पष्ट समझना चाहिए। नेपाल में ”नयी चीजों” और नयी खोजों के नाम पर राज्य और क्रान्ति विषयक बुनियादी लेनिनवादी शिक्षाओं को ”पुराना” घोषित करने वाले लोग स्पष्टत: ख्रुश्‍चेव और देघ के पदचिन्‍हों पर चल रहे हैं। उन्हें इतिहास की कचरापेटी के हवाले करके ही नेपाली क्रान्ति आगे डग भर सकती है।

नेपाल में कम्युनिस्ट आन्दोलन के साठ वर्षों के इतिहास ने, विशेषकर विगत दो दशकों ने वहाँ की कम्युनिस्ट कतारों को काफी कुछ सिखाया है। आज भले ही स्थितियाँ प्रतिकूल लग रही हैं, पर ऐसा कत्तई नहीं हो सकता कि वहाँ के पूरे क्रान्तिकारी वाम आन्दोलन को दक्षिणपंथी अवसरवाद अपने आगोश में ले ले। इतिहास से शिक्षा लेकर, वहाँ कतारों के बीच से आगे आने वाले नये नेतृत्व, और अतीत का समाहार करके सही रास्ते पर आने वाले नेतृत्व की पुरानी पीढ़ी के कुछ लोगों की रहनुमाई में, देर-सबेर सही क्रान्तिकारी लाइन एक बार फिर नयी उफर्जस्विता के साथ अवश्य उठ खड़ी होगी और दृढ़तापूर्वक आगे कदम बढ़ायेगी।

 

बिगुल, जनवरी-फरवरी 2010

 


 

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