लेनिन की कविता की कुछ पक्तियाँ
”पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे की दुनिया के स्वामी
रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है
”पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे की दुनिया के स्वामी
रोशनी की दुनिया का खौफ़ देख ख़ुश हैं
मगर उस फूल के फल ने पनाह ली है
“लेनिन-दिवस के अवसर पर हम सोवियत रूस में हो रहे महान अनुभव और साथी लेनिन की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए अपनी दिली मुबारक़बाद भेजते हैं। हम अपने को विश्व-क्रान्तिकारी आन्दोलन से जोड़ना चाहते हैं। मज़दूर-राज की जीत हो। सरमायादारी का नाश हो।
अख़बार की भूमिका मात्र विचारों का प्रचार करने, राजनीतिक शिक्षा देने, तथा राजनीतिक सहयोगी भरती करने के काम तक ही नहीं सीमित होती। अख़बार केवल सामूहिक प्रचारक और सामूहिक आन्दोलनकर्ता का ही नहीं बल्कि एक सामूहिक संगठनकर्ता का भी काम करता है। इस दृष्टि से उसकी तुलना किसी बनती हुई इमारत के चारों ओर खड़े किये गये बल्लियों के ढाँचे से की जा सकती है। इस ढाँचे से इमारत की रूपरेखा स्पष्ट हो जाती है और इमारत बनाने वालों को एक दूसरे के पास आने-जाने में सहायता मिलती है जिससे वे काम का बँटवारा कर सकते हैं और अपने संगठित श्रम के संयुक्त परिणामों पर विचार-विनिमय कर सकते हैं। अख़बार की मदद और उसके माध्यम से, स्वाभाविक रूप से, एक स्थायी संगठन खड़ा हो जायेगा जो न केवल स्थानीय गतिविधियों में, बल्कि नियमित आम कार्यों में भी हिस्सा लेगा, और अपने सदस्यों को इस बात की ट्रेनिंग देगा कि राजनीतिक घटनाओं का वे सावधानी से निरीक्षण करते रहें, उनके महत्व और आबादी के विभिन्न अंगों पर उनके प्रभाव का मूल्यांकन करें, और ऐसे कारगर उपाय निकालें जिनके द्वारा क्रान्तिकारी पार्टी उन घटनाओं को प्रभावित करे।
लेनिन का स्कूल, जो लोंजूमो की सड़क के दूसरे छोर पर था, एक निराले तरह का स्कूल था, देखने में भी वह और स्कूलों की तरह नहीं था। पहले यहाँ एक सराय हुआ करती थी। पेरिस जाते हुए डाकगाड़ियाँ यहाँ रुका करती थीं। गाड़ीवान आराम करते थे, घोड़ों को दाना-पानी देते थे। मगर यह बहुत पहले की बात थी…
व्लादीमिर इलिच को उस हर छोटी बात में दिलचस्पी थी, जो मज़दूरों की जि़न्दगी और उनके हालात की तस्वीर को उभारने में मदद कर सके और जिसके सहारे वे क्रान्तिकारी प्रचार कार्य के लिए मज़दूरों से सम्पर्क क़ायम कर सकें। उस ज़माने के अधिकांश बुद्धिजीवी मज़दूरों को अच्छी तरह नहीं जानते थे। वे किसी अध्ययन मण्डल में आते और मज़दूरों के सामने एक तरह का व्याख्यान पढ़ देते। एंगेल्स की पुस्तक ”परिवार व्यक्तिगत सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति” का हस्तलिखित अनुवाद बहुत दिनों तक गोष्ठियों में घूमता रहा। व्लादीमिर इलिच मज़दूरों को मार्क्स का ग्रन्थ पूँजी पढ़कर सुनाते और उसे समझाते। वे अपने पाठ का आधा समय मज़दूरों से उनके काम और मज़दूरी के हालात के विषय में पूछने पर लगाते। और इस प्रकार उन्हें दिखाते और बताते कि उनकी जि़न्दगी समाज के पूरे ढाँचे के लिए क्या महत्त्व रखती है तथा वर्तमान व्यवस्था को बदलने का उपाय क्या है? अध्ययन मण्डलों में सिद्धान्त को व्यवहार से इस प्रकार जोड़ना व्लादीमिर इलिच के कार्य की विशेषता थी। धीरे-धीरे हमारे अध्ययन मण्डलों के अन्य सदस्यों ने भी यह तरीक़ा अपना लिया।
जनता की ग़रीबी को दूर करने का एक ही रास्ता है – मौजूदा व्यवस्था को नीचे से ऊपर तक सारे देश में बदलकर उसके स्थान पर समाजवादी व्यवस्था क़ायम करना। दूसरे शब्दों में, बड़े ज़मींदारों से उनकी जागीरें, कारख़ानेदारों से उनकी मिलें और कारख़ाने और बैंकपतियों से उनकी पूँजी छीन ली जाये, उनके निजी स्वामित्व को ख़त्म कर दिया जाये और उसे देश-भर की समस्त श्रमजीवी जनता के हाथों में दे दिया जाये। ऐसा हो जाने पर धनी लोग, जो दूसरों के श्रम पर जीते हैं, मज़दूरों के श्रम का उपयोग नहीं कर पायेंगे, बल्कि उसका उपयोग स्वयं मज़दूर तथा उनके चुने हुए प्रतिनिधि करेंगे। ऐसा होने पर साझे श्रम की उपज तथा मशीनों और सभी सुधारों से प्राप्त होने वाले लाभ तमाम श्रमजीवियों, सभी मज़दूरों को प्राप्त होंगे। धन और भी जल्दी से बढ़ना शुरू होगा, क्योंकि जब मज़दूर पूँजीपति के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए काम करेंगे, तो वे काम को और अच्छे ढंग से करेंगे। काम के घण्टे कम होंगे। मज़दूरों का खाना-कपड़ा और रहन-सहन बेहतर होगा। उनकी गुज़र-बसर का ढंग बिल्कुल बदल जायेगा।
हमारा पूरा प्रयास रहेगा कि प्रत्येक रूसी कॉमरेड हमारे प्रकाशन को अपना ही माने, जिससे सारे ही समूह आन्दोलन से सम्बन्धित हर तरह की सूचनाएँ साझा कर सकें, जिसमें वे अपने अनुभव दूसरों से बाँट सकें, अपने विचार व्यक्त कर सकें, राजनीतिक साहित्य की अपनी आवश्यकताएँ बता सकें, और सामाजिक-जनवादी संस्करणों के बारे में अपनी राय व्यक्त कर सकें, संक्षेप में कहें तो, आन्दोलन के लिए उनका जो भी योगदान हो और आन्दोलन से उन्होंने जो कुछ भी ग्रहण किया हो, वे उस प्रकाशन के माध्यम से साझा कर सकें। सिर्फ़ इसी तरीक़़े से एक अखिल रूसी सामाजिक-जनवादी मुखपत्र की नींव डालना सम्भव हो सकेगा। सिर्फ़ ऐसा प्रकाशन ही आन्दोलन को राजनीतिक संघर्ष के असली रास्ते पर ले जा सकेगा। “अपनी सीमाओं का विस्तार करो और अपनी प्रचारात्मक, आन्दोलनात्मक, और संगठनात्मक गतिविधियों की अन्तर्वस्तु को और भी व्यापक बनाओ” – पी.बी. एक्सेलरोद के इन शब्दों को रूसी सामाजिक-जनवादियों की निकट भविष्य की कार्यवाहियों को परिभाषित करते नारे की भूमिका अदा करनी चाहिए, और यही नारा हम अपने प्रकाशन के कार्यक्रम के लिए भी अपना रहे हैं।
व्लादीमिर इल्यीच ने अख़बार का नाम ‘ईस्क्रा’ (चिनगारी) ही रखने का फ़ैसला किया। शूशेन्स्कोये में रहते हुए ही उन्होंने उसकी पूरी योजना तैयार कर ली थी। अब उसे कार्यरूप देना था। साइबेरिया से लौटकर व्लादीमिर इल्यीच प्स्कोव में रहने लगे। अकेले ही। नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना (लेनिन की जीवनसाथी) की निर्वासन अवधि अभी ख़त्म नहीं हुई थी, इसलिए वह बाक़ी समय के लिए उफ़ा में ही रुक गयीं। व्लादीमिर इल्यीच को प्स्कोव में रहने की इजाज़त थी। वहाँ उन्होंने ‘ईस्क्रा’ निकालने के लिए तैयारियाँ शुरू कीं। वह विभिन्न शहरों की यात्रा करते। ‘ईस्क्रा’ में काम करने के लिए साथियों को ढूँढ़ते। अख़बार के लिए लेख लिखने वालों को ढूँढ़ना था। फिर ऐसे आदमियों की तलाश भी ज़रूरी थी, जो अख़बार का गुप्त रूप से वितरण करते। ‘ईस्क्रा’ को आम तरीक़े से दूकानों और स्टॉलों पर बेचा नहीं जा सकता था। और अगर कोई ऐसा करता, तो उसे तुरन्त जेल हो सकती थी। अख़बार निकालने के लिए पैसों की भी ज़रूरत थी।
चीखते-चिल्लाते महत्वोन्मादियों, गुण्डों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों की यह फ़ौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूँजीवाद के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत ही शान्त भाव, सा़फ़ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फ़ौज का संचालन करते हैं और इनका ख़र्चा उठाते हैं।
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मुख्यतः सामाजिक हैं। आज धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटतः पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज़ और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं–जैसे युद्धों, भूचालों, आदि–से उत्पन्न कष्टों से हज़ारों गुना अधिक कठोर हैं। “भ्य ने देवताओं को जन्म दिया।” पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय–अन्धी इसलिए कि उन्हें सर्वसाधारण अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता–एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों की ज़िन्दगी में हर क़दम पर “अचानक”, “अप्रत्याशित”, “आकस्मिक”, तबाही, बरबादी, गरीबी, वेश्यावृत्ति, भूख से मृत्यु का ख़तरा ही नहीं उत्पन्न करती, बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक धर्म का मूल जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रम द्वारा दबी-पिसी रहती है और जो पूँजीवाद की अन्धी– विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के ख़िलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती।