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हिन्‍दी में लेनिन के चुनिन्‍दा लेखों का संकलन

लेनिन – फ़ैक्ट्री-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास

जो कोई काम पर लगता है, वह अपने मालिक से अक्सर असन्तुष्ट होता है, उसकी शिक़ायत अदालत में या सरकारी अधिकारी के पास करता है। अधिकारी तथा अदालत दोनों विवाद आमतौर पर मालिक के पक्ष में निपटाते हैं उसका समर्थन करते हैं। परन्तु मालिक का यह हित साधन किसी आम विनियम या किसी क़ानून पर नहीं, वरन पृथक-पृथक अधिकारियों की ताबेदारी पर आधारित होता है, जो भिन्न-भिन्न अवसरों पर कम या अधिक मात्रा में उसकी रक्षा करते हैं और जो मामले को अनुचित रूप से, मालिक के पक्ष में इसलिए तय करते हैं कि वे या तो मालिक के परिचित होते हैं, या फिर इसलिए कि वे कामकाज के हालात के बारे में अपरिचित होते हैं तथा मज़दूर को समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे अन्याय का प्रत्येक पृथक मामला मज़दूर तथा मालिक के बीच प्रत्येक पृथक टक्कर पर, प्रत्येक पृथक अधिकारी पर निर्भर करता है। लेकिन फैक्ट्री मज़दूरों का इतना बड़ा समूह जमा कर लेती है, उत्पीड़न को ऐसी सीमा पर पहुँचा देती है कि प्रत्येक पृथक मामले की जाँच करना असम्भव हो जाता है। आम विनियम तैयार किये जाते हैं, मज़दूरों तथा मालिकों के बीच सम्बन्धों के बारे में एक क़ानून बनाया जाता है, ऐसा क़ानून, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। इस क़ानून में मालिकों के लिए हित साधन को राज्य की सत्ता का सहारा दिया जाता है। पृथक अधिकारी द्वारा अन्याय का स्थान क़ानून द्वारा अन्याय ले लेता है। उदाहरण के लिए, इस प्रकार के विनियम प्रकट होते हैं — यदि मज़दूर काम से ग़ैर-हाज़िर है, तो वह मज़दूरी से ही हाथ नहीं धोता, वरन उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ता है, जबकि मालिक यदि काम के न होने पर मज़दूरों को घर वापस भेज देता है, तो उसे कुछ नहीं देना पड़ता; मालिक मज़दूर को कठोर भाषा का उपयोग करने पर बरखास्त कर सकता है, जबकि मालिक का इस प्रकार का बर्ताव होने पर मज़दूर काम नहीं छोड़ सकता; मालिक को अपनी ही सत्ता के आधार पर ज़ुर्माना करने, मज़दूरी में कटौतियाँ करने, उससे ओवरटाइम काम करने की माँग करने का अधिकार होता है, आदि।

लेनिन – मार्क्‍सवाद और सुधारवाद

सुधारवादियों का मजदूरों पर प्रभाव जितना अधिक सशक्त होता है, मजदूर उतने ही निर्बल होते हैं, बुर्जुआ वर्ग पर उनकी निर्भरता उतनी ही ज्यादा होती है, तरह-तरह के दाँव-पेंचों से इन सुधारों को शून्य में परिणत कर देना बुर्जुआ वर्ग के लिए उतना आसान होता है। मजदूर आन्दोलन जितना अधिक स्वावलम्बी तथा गहन होता है,उसके ध्‍येय जितने अधिक विस्तृत होते हैं, सुधारवादी संकीर्णता से वह जितना अधिक मुक्त होता है, मजदूरों के लिए अलग-अलग सुधारों को सुदृढ़ बनाना तथा उनका उपयोग करना उतना ही आसान होता है।

लेनिन – बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा

बुर्जुआ जनवाद, जो सर्वहारा वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने और उसे संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते मूल्यवान है, सदैव संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा होता है, वह सदा अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा होता है।

लेनिन – हड़तालों के विषय में

हड़ताल मजदूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मजदूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मजदूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मजदूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मजदूरी में मामूली वृध्दि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मजदूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मजदूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मजदूर वर्ग का दुश्मन है और मजदूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मजदूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मजदूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मजदूरों को यह दिखाकर कि उनका ”उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।

लेनिन – जनवादी जनतन्त्र: पूँजीवाद के लिए सबसे अच्छा राजनीतिक खोल

“धन-दौलत” की सार्विक सत्ता जनवादी जनतन्त्र में ज़्यादा यक़ीनी इसलिए भी होती है कि वह राजनीतिक मशीनरी की अलग-अलग कमियों, पूँजीवाद के निकम्मे राजनीतिक खोल पर निर्भर नहीं होती। जनवादी जनतन्त्र पूँजीवाद के लिए श्रेष्ठतर सम्भव राजनीतिक खोल है और इसलिए (पालचीन्स्की, चेर्नोव, त्सेरेतेली और मण्डली की मदद से) इस श्रेष्ठतम खोल पर अधिकार करके पूँजी अपनी सत्ता को इतने विश्वसनीय ढंग से, इतने यक़ीनी तौर से जमा लेती है कि बुर्जुआ-जनवादी जनतन्त्र में व्यक्तियों, संस्थाओं या पार्टियों की कोई भी अदला-बदली उस सत्ता को नहीं हिल सकती।

सुब्बोत्निक पर लेनिन

सुब्बोतनिक नाम उस अवैतनिक काम को दिया गया था जो सोवियत संघ के मेहनतकश छुट्टी के दिनों में अथवा अपने काम के घण्टों के बाद स्वेच्छा से देश के लिए करते थे। पहले सुब्बोतनिक (अवैतनिक काम) की व्यवस्था 10 मई, 1919 को, एक शनिवार के दिन मास्को-कज़ान रेल के सोरटीरोवोश्नाया डिपो के मज़दूरों की पहलक़दमी पर की गयी थी (रूसी भाषा में शनिवार को सुबोता कहते हैं, इसलिए इस आन्दोलन का नाम सुब्बोतनिक पड़ा था)। सोवियत सत्ता के प्रारम्भिक वर्षों में तथा महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध के दौरान सुबोतनिकों के इस आन्दोलन ने काफ़ी व्यापक रूप ग्रहण कर लिया था। लेनिन सहित सभी कम्युनिस्ट नेता खुद इन सुब्बोतनिकों में भाग लेते थे और मेहनतकशों को प्रेरित करते थे कि वे अपने राज को मज़बूत करने के लिए स्वेच्छा से काम करें। यह इस बात का भी प्रतीक था कि जब मज़दूर वर्ग शोषक मालिकों के लिए नहीं बल्कि खुद अपने लिए काम करता है तो श्रम करना बोझ नहीं रह जाता बल्कि उत्साह और आनन्द का स्रोत बन जाता है।

लेनिन – जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राज्यसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि “मज़दूरों के बीच जाओ” – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव “अर्थवाद” की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्‍तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।

लेनिन : टेलर प्रणाली – मशीन द्वारा आदमी को दास बनाया जाना

श्रम की उत्पादनशीलता में कैसी प्रकाण्ड उपलब्धि है! लेकिन मज़दूर का वेतन चौगुना नहीं, बल्कि अधिक से अधिक डेढ़ गुना ही बढ़ाया जाता है और वह भी सिर्फ थोड़े समय के लिए । ज्योंही मज़दूर नई प्रणाली के आदी हो जाते हैं, त्योंही उनका वेतन घटाकर पहले के स्तर पर पहुँचा दिया जाता है । पूँजीपति प्रकाण्ड मुनाफ़ा हासिल करता है, लेकिन मज़दूर पहले की अपेक्षा चौगुनी अधिक मशक्कत करते हैं और पहले की अपेक्षा चौगुनी तेज़ी से अपने स्नायु–तन्तुओं तथा मांसपेशियों का क्षय करते हैं । नए नियुक्त हुए मज़दूरों को कारख़ाने के सिनेमा में ले जाया जाता है, जहाँ उसे काम की “आदर्श” पूर्ति प्रदर्शित की जाती है और उसे उस आदर्श के “स्तर तक पहुँचने” को विवश किया जाता है । एक हफ्ते बाद उसे सिनेमा में खुद उसका काम दिखाया जाता है और “आदर्श” के साथ उसकी तुलना की जाती है ।

लेनिन – किसानों के बारे में कम्युनिस्ट दृष्टिकोण : कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू

हम आज़ादी और ज़मीन के साथ ही समाजवाद के लिए युद्ध छेड़ रहे हैं। समाजवाद के लिए संघर्ष पूँजी के शासन के विरुद्ध संघर्ष है। यह सर्वप्रथम और सबसे मुख्य रूप से उजरती मज़दूर द्वारा चलाया जाता है जो प्रत्यक्षतः और पूर्णतः पूँजीवाद पर निर्भर होता है। जहाँ तक छोटे मालिक किसानों का प्रश्न है, उनमें से कुछ के पास ख़ुद की ही पूँजी है, और प्रायः वे ख़ुद ही मज़दूरों का शोषण करते हैं। इसलिए सभी छोटे मालिक किसान समाजवाद के लिए लड़ने वालों की क़तार में शामिल नहीं होंगे, केवल वही ऐसा करेंगे जो कृतसंकल्प होकर सचेतन तौर पर पूँजी के विरुद्ध मज़दूरों का पक्ष लेंगे, निजी सम्पत्ति के विरुद्ध सार्वजनिक सम्पत्ति का पक्ष लेंगे।

समाजवादी क्रान्ति का भूमि-सम्बन्ध विषयक कार्यक्रम और वर्ग-संश्रय : लेनिन की और कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की अवस्थिति

आर्थिक दृष्टि से, “मँझोले किसानों” का मतलब वे किसान होने चाहिए जो, (1) मालिक या आसामी के रूप में ज़मीन के ऐसे टुकड़े जोतते हैं जो छोटे तो हैं लेकिन, पूँजीवाद के तहत, न केवल गृहस्थी और खेती-बाड़ी की न्यूनतम ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं, बल्कि कुछ बेशी पैदावार भी करते हैं जिसे, कम से कम अच्छे वर्षों में, पूँजी में बदला जा सकता है; (2) जो अक्सर (उदाहरण के लिए, दो या तीन में से एक किसान) बाहरी श्रम-शक्ति को उजरत पर रखते हैं। किसी उन्नत पूँजीवादी देश में मँझोले किसानों की एक ठोस मिसाल जर्मनी में पाँच से दस हेक्टेयर तक के फ़ार्मों वाला एक समूह है, जिसमें 1907 की जनगणना के अनुसार, उजरती मज़दूरों से काम कराने वाले किसानों की संख्या इस समूह के कुल किसानों की संख्या की क़रीब एक तिहाई है।[1] फ़्रांस में, जहाँ विशेष फसलों – उदाहरण के लिए, अंगूर की खेती जिसमें बहुत बड़ी मात्र में श्रम की ज़रूरत होती है – की खेती बहुत विकसित है, यह समूह सम्भवतः कुछ अधिक पैमाने पर बाहर से श्रम भाड़े पर लेता है।