सिलिकॉसिस से मरते मज़दूर

श्‍वेता

अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में खनन, निर्माण और अन्य अलग-अलग उद्योगों में लगे करीब 1 करोड़ मज़दूर सिलिकॉसिस की चपेट में आ सकते हैं। इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आई.सी.एम.आर.) की एक रिपोर्ट के अनुसार खनन एवं ख़दानों के 17 लाख, काँच एवं अभ्रक़ उद्योग के 6.3 लाख, धातु उद्योग के 6.7 लाख और निर्माण में लगे 53 लाख मज़दूरों पर सिलिकॉसिस का ख़तरा मँडरा रहा है।  एक अध्ययन के अनुसार स्लेट पेंसिल बनाने में लगे मज़दूरों में सिलिकॉसिस मौजूद होने की दर 54.6 प्रतिशत व पत्थर कटाई में लगे मज़दूरों में यह दर 35.2 प्रतिशत है। इस स्लेट पेंसिल उद्योग में अधिकतर बाल मज़दूर काम करते हैं।

सिलिका से जुड़े उद्योगों का काम मुख्‍यत: राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली, हैदराबाद और झारखंड आदि राज्यों में होता है। राजस्थान के 19 जि़लों में हज़ारों खदानें हैं जिनमें करीब 20 लाख मज़दूर काम करते हैं। क़रीब 10 से 12 लाख मज़दूर सिलीकॉसिस रोग के अलग-अलग चरणों में हैं। गुजरात में गोधरा स्थित क्‍वार्टज़ और पत्थर तुड़ाई उद्योग में 2000-05 के बीच सिलिकॉसिस के कारण हुई 238 मज़दूरों की मौत का मामला पिछले दिनों कुछेक अंग्रेज़ी अखबारों में छाया रहा। एक सर्वेक्षण के अनुसार पश्चिमी मध्यप्रदेश में इस वर्ष की शुरुआत तक 571 लोगों की मौत सिलिकॉसिस से हुई जबकि 14 ब्लॉकों के 102 गाँव में करीब 1700 लोग सिलिकॉसिस से पीडि़त है।  दिल्ली का लाल कुआँ इलाका जो एक समय पत्थर की गिट्टियों के उत्पादन और आपूर्ति के लिए मशहूर था आज केवल उन भूतपूर्व ख़दान मज़दूरों का बसेरा बनकर रह गया है जो सिलिकॉसिस से पीडि़त हैं। पिछले 14 सालों में यहाँ करीब 4000 लोगों की मौत सिलिकॉसिस एवं टी बी से हुई है।

बहरहाल आँकड़ों की यह फे़हरिस्त काफ़ी लम्बी हो सकती है। जो बात हम इन आँकड़ों के ज़रिये बताना चाहते हैं वह यह कि कार्य परिस्थितयों से पैदा होने वाली यह बीमारी कितने बड़े पैमाने पर मज़दूरों की असमय मृत्यु का कारण है। ग़ौर करने लायक तथ्य यह भी है कि काम छोड़ने पर सिलिका धूल से संपर्क खत्म होने के बाद भी सिलिकॉसिस अंदर ही अंदर बढ़ता रहता है। हम पहले ही बता चुके हैं कि इस बीमारी का कोई इलाज संभव नहीं है हालाँकि इस रोग को पूरी तरह से रोकना अवश्य संभव है बशर्ते मज़दूरों का स्वास्थ्य और सुरक्षा पर ध्यान दिया जाये। पत्थर की खदानों का काम मुख्यत: असंगठित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। मज़दूर ठेकेदारों द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और ज़्यादातर समय वे अपने असली नियोक्ता को जानते तक नहीं। नियोक्ता के रजिस्टर पर उनका नाम तक दर्ज नहीं होता। काम के दौरान न तो मज़दूरों को मास्क मिलता है, न प्राथमिक उपचार की कोई सुविधा दी जाती है। चूँकि प्रमुख नियोक्ता दृश्यपटल से गायब रहता है इसलिए वह हर तरह की जि़म्मेदारी से बरी हो जाता है। यूँ तो कहने के लिए खानों-खदानों के मज़दूरों के लिए माइन्स एक्ट, 1952 कानून बना हुआ है जिसमें कार्यस्थल पर पीने के साफ़ पानी की व्यवस्था, प्राथमिक उपचार, मुफ्त हेल्थ चेक-अप, आराम के लिए शेड, साप्ताहिक छुट्टी आदि के प्रावधान मौजूद हैं पर यह तमाम प्रावधान केवल काग़ज़ों की शोभा बढ़ाने से आगे नहीं जाते। यही नहीं, सिलिकॉसिस माइन्स ऐक्ट, 1952 और फैक्ट्री ऐक्ट, 1948 के अंतर्गत एक पेशागत बीमारी के रूप में दर्ज है जो सिलिकॉसिस से पीडि़त मज़दूर को वर्कर्स कंपेनसेशन ऐक्ट के तहत मुआवजे़ का हक़दार बनाता है, हालाँकि मज़दूर इस मुआवजे़ को पाने में कभी सफल नहीं हो पाते क्योंकि उनके पास न तो प्रमाण-पत्र, न ई एस आई कार्ड न ही अन्य कोई दस्तावेज़ मौजूद होते हैं जिससे वे साबित कर सके कि वे किस नियोक्ता के लिए काम कर रहे थे। सरकारें और खदानों के मालिक भी अकसर इसी कुतर्क का सहारा लेकर अपनी जि़म्मेदारी से पूरी तरह मुँह मोड़ लेते हैं। यही नहीं इन खदानों में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूर प्रवासी होते है और सरकार इस बात का पूरा फ़ायदा उठाकर अपनी जि़म्मेदारी से पल्ला झाड़ लेती है। इस पूरे मामले में श्रम विभाग का नज़रिया इसी बात से समझ में आता है कि फैक्ट्री इंसपेक्टर कार्यस्थलों का निरीक्षण करने के लिए कभी फटकता तक नहीं है।

वैध-अवैध खानों-खदानों का व्यापार किस तरह राजनीतिक दलों के नेताओं, जि़ले के आला अधिकारियों और श्रम विभाग के संरक्षण में चलता है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि पूँजीवाद की सेवा में लगे इन्हीं नुमाइंदों से मज़दूर अपनी जीवन की बेहतरी की उम्मीद लगाये रहते हैं।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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