मार्क्स की ‘पूँजी’ को जानिये : चित्रांकनों के साथ (पाँचवी किस्त)

अनुवाद: आनन्द सिंह

अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य एवं प्रसिद्ध राजनीतिक चित्रकार ह्यूगो गेलर्ट ने 1934 में मार्क्स की ‘पूँजी’ के आधार पर एक पुस्तक  ‘कार्ल मार्क्सेज़ कैपिटल इन लिथोग्राफ़्स’ लिखी थी जिसमें ‘पूँजी’  में दी गयी प्रमुख अवधारणाओं को चित्रों के ज़रिये समझाया गया था। गेलर्ट के ही शब्दों में इस पुस्तक में ‘‘…मूल पाठ के सबसे महत्वपूर्ण अंश ही दिये गये हैं। लेकिन मार्क्सवाद की बुनियादी समझ के लिए आवश्यक सामग्री चित्रांकनों की मदद से डाली गयी है।’’ ‘मज़दूर बिगुल’ के पाठकों के लिए इस शानदार कृति के चुनिन्दा अंशों को एक श्रृंखला के रूप में दिया जा रहा है। — सम्पादक 

marx-punji-5-5अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन

…ज़ाहिर है कि श्रम की प्रक्रिया की सामान्य प्रकृति किसी भी रूप में इससे प्रभावित नहीं होती कि मज़दूर ने उसमें अपनी ओर से भाग लेने बजाय पूँजीपति की ओर से भाग लिया था।…चूँकि श्रम पूँजी के मातहत होता है, इसलिए उत्पादन की पद्धति में आये परिवर्तन बाद की मंजिल में ही जाकर उभरते हैं, और उन पर अभी विचार नहीं किया जा सकता है।

श्रम की प्रक्रिया, जिसे एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में जाना जाता है जिसके ज़रिये पूँजीपति श्रमशक्ति का उपयोग करता है, की दो उल्लेखनीय अभिलाक्षणिकताएँ होती हैं।

सबसे पहले तो मज़दूर अपना काम उस पूँजीपति के नियंत्रण में करता है जो उसके श्रम का मालिक होता है। पूँजीपति इसका पूरा ध्यान रखता है कि काम ठीक ढंग से किया जाए, और उत्पादन के साधनों का उचित उपयोग हो सके। वह इसका ध्यान रखता है कि कोई भी कच्चा माल बेकार न जाए, और श्रम के किसी औजार में कोई ख़राबी न आए। इनमें से बाद वालों का इस्तेमाल उसी हद तक करना होता है जिस हद तक वे श्रम की प्रक्रिया में आवश्यक होते हैं।

दूसरे, उत्पाद पूँजीपति की सम्पत्ति होता है, न कि उस मज़दूर की जो प्रत्यक्ष उत्पादक का काम करता है। मान लेते हैं कि पूँजीपति एक दिन के श्रम का उसके मूल्य के मुताबिक भुगतान कर देता है। उस दिन के लिए उपयोग पर उसका स्वामित्व होता है। वह व्यक्ति जिसने कोई माल ख़रीदा होता है, उसके पास उस माल का उपयोग करने का अधिकार होता है, और श्रमशक्ति के स्वामी ने वास्तव में अपने श्रम को देकर जिस चीज़ को बेचा है, उसका केवल उपयोग-मूल्य ही वह दे सकता है।…श्रम की प्रक्रिया एक ऐसी प्रक्रिया है जो उन चीज़ों के बीच क्रियान्वित होती है जिन्हें पूँजीपति द्वारा लाया गया होता है, यानी उन चीज़ों के बीच जो उसकी सम्पत्ति बन चुके होते हैं। इस प्रकार इस प्रक्रिया के परिणाम, यानी उत्पाद, का स्वामित्व उसी के पास होता है, ठीक उसी तरह से जैसे कि उसके मधुकोष में सम्पन्न हुई किण्वन (फर्मेंटेशन) की प्रक्रिया से उत्पन्न शराब पर उसका अधिकार होता है।

उत्पाद, जो पूँजीपति की सम्पत्ति होता है, उपयोग-मूल्य होता है, जैसे कि सूत, जूते और अन्य तमाम चीज़ें। लेकिन, हालाँकि एक तरह से जूते सामाजिक प्र‍गति की आधारशिला होते हैं, और हालाँकि हमारा पूँजीपति प्रगति का पुरज़ोर समर्थक है, फिर भी वह जूते अपने लिए नहीं बनाता है। निश्चित रूप से, मालों का उत्पादन करने वाला उनके उपयोग-मूल्यों के प्रति लगाव  की वजह से ऐसा नहीं करता।…वह महज़ उपयोग-मूल्य पैदा नहीं करना चाहता है, बल्कि वह तो माल का उत्पादन करना चाहता है; न सिर्फ़ उपयोग-मूल्य का उत्पादन बल्कि मूल्य का भी उत्पादन; न सिर्फ़ मूल्य, बल्कि उसके अलावा अतिरिक्त मूल्य भी।…

कपास, जो सूत का कच्चा माल होता है, के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल सूत के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल का हिस्सा होता है, और इसलिए वह सूत में निहित होता है। यही बात तकली के उस हिस्से के उत्पादन के लिए आवश्यक श्रमकाल पर भी लागू होती होती है जिसकी घिसाई या उपभोग कपास की कताई की प्रक्रिया का अभिन्न अंग है।

…उत्पाद की निश्चित मात्राएँ (ऐसी मात्राएँ जो अनुभव द्वारा निर्धारित होती हैं) श्रम की निश्चित मात्राओं, संचित श्रमकाल के निश्चित ढेरों, को ही प्रदर्शित करती हैं। वे सामाजिक श्रम के एक घंटे, दो घंटे, एक दिन आदि की मूर्त रूप ही होती हैं।

हमारे उदाहरण में श्रम सूत कातने वाले का है, कच्चा माल कपास है, और उत्पाद सूत है; लेकिन ये तथ्य हमारे लिए उतना ही महत्व रखते हैं जितना कि यह कि श्रम की विषयवस्तु स्वयं ही एक उत्पाद है और इसलिए वह कच्चा माल है।…

… हम मान लेते हैं कि … एक दिन का (श्रमशक्ति का) मूल्य … 3 शिलिंग (है) और मज़दूर के लिए प्रतिदिन आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों की औसत मात्रा का उत्पादन करने के लिए 6 घंटे के श्रम की आवश्यकता होती है। अब अगर हमारा सूत कातने वाला एक घंटे में काम करके 1 2/3 पौंड कपास को 1 2/3 पौंड सूत में बदल सकता है तो 6 घंटे में 10 पौंड कपास 10 पौंड सूत में बदल जायेगा। इस प्रकार कताई की प्रक्रिया में 10 पौंड कपास 6 घंटे के श्रम को अवशोषित करेगा। श्रमकाल की उतनी ही मात्रा एक सोने के टुकड़े द्वारा प्रदर्शित होती है जिसका मूल्य 3 शिलिंग है। इस प्रकार सूत कातने से 3 शिलिंग का मूल्य कपास में जुड़ गया है।

अब उत्पाद के कुल मूल्य, यानी 10 पौंड के सूत पर ग़ौर करते हैं। सूत की इस मात्रा में 2 ½ कार्यदिवस मूर्त रूप में हैं, 2 ½ दिन कच्चा कपास और तकली में और ½ दिन उसे सूत कताई की प्रक्रिया में कपास द्वारा अवशोषित किया गया। 15 शिलिंग के सोने का मूल्य श्रमकाल की इस मात्रा में निहित है। इस प्रकार 10 पौंड के सूत की उचित क़ीमत 15 शिलिंग होगी और प्रति पौंड सूत की क़ीमत 1 शिलिंग 6 पेंस होगी।

हमारे पूँजीपति को कोई फ़ायदा नहीं हुआ। उत्पाद का मूल्य ठीक वही है जितने मूल्य की पूँजी उसने लगायी थी। उसने जितनी पूँजी लगायी थी उसमें कोई वृद्धि नहीं हुई; किसी अतिरिक्त मूल्य का सृजन नहीं हुआ; मुद्रा का पूँजी में कोई रूपांतरण नहीं हुआ….

 

marx-punji-5-4अतिरिक्त मूल्य का उत्पादन

सच तो यह है कि इस नतीजे में कुछ भी बहुत अजीब नहीं है। 1 पौंड सूत का मूल्य 1 शिलिंग 6 पेंस है और इसलिए माल बाज़ार में हमारे पूँजीपति को 10 पौंड के लिए 15 शिलिंग का भुगतान करना पड़ा। ….

आइये इस मामले को और क़रीब से देखें। एक दिन की श्रमशक्ति का मूल्य 3 शिलिंग था क्योंकि इसमें आधे दिन का श्रम मूर्त रूप में था, यानी श्रमशक्ति के उत्पादन के लिए प्रतिदिन आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों की क़ीमत आधा कार्यदिवस है। लेकिन अतीत का श्रम जो कि श्रमशक्ति में छिपा है, और जीवित श्रम जोकि वह श्रमशक्ति प्रदान कर सकती है, दो एकदम अलग चीज़ें हैं।

श्रमशक्ति के भरण-पोषण की रोज़ाना लागत और श्रमशक्ति की प्रतिदिन का उत्पादन, दो बिल्कुल अलग चीज़ें हैं। इनमें से पहला वाला विनिमय-मूल्य निर्धारित करता है, और बाद वाला उसका उपयोग-मूल्य।

हालाँकि यह सच है कि दिन के पूरे चौबीस घंटे तक मज़दूर के भरण-पोषण के लिए केवल आधे दिन के श्रम की आवश्यकता होती है फिर भी ये उसे 12 दिन के पूरे कार्यदिवस में काम करने से नहीं रोकता। इसलिए श्रमशक्ति का मूल्य और श्रमशक्ति श्रम की प्रक्रिया में जो मूल्य पैदा करती है, ये दोनों अलग-अलग परिमाणों के हैं। मूल्यों में यह अन्तर ही वह चीज़ है जो पूँजीपति के दिमाग़ में थी जब उसने श्रमशक्ति को ख़रीदा था।

निश्चित रूप से यह आवश्यक था कि श्रमशक्ति के पास उपयोगी गुण हो, वह सूत बना सके, या जूते, या अन्य चीज़ें, क्योंकि यदि श्रम को मूल्य उत्पन्न करना है, जो उसे किसी उपयोगी रूप में लगाना होगा। परन्तु वास्तव में निर्णायक बिन्दु यह था कि श्रमशक्ति के इस माल का विशिष्ट उपयोग-मूल्य यह होता है कि वह मूल्य का स्रेात होता है, यानी वह अपने मूल्य से अधिक मूल्य पैदा कर सकता है। यह वह विशिष्ट सेवा है जिसकी पूँजीपति श्रमशक्ति से अपेक्षा करता है।

श्रमशक्ति के साथ अपने बर्ताव में वह मालों के विनिमय के शाश्वत नियमों के अनुसार ही पेश आता है। वास्तव में, किसी अन्य माल के विक्रेता की ही भाँति श्रमशक्ति का विक्रेता भी विनिमय-मूल्य हासिल करता है और उसके उपयोग-मूल्य को पृथक कर देता है। वह बाद वाले को मुकम्मल किये बगैर पहले वाला प्राप्त नहीं कर सकता।

श्रमशक्ति का उपयोग-मूल्य यानी स्वयं श्रम, श्रमशक्ति के विक्रेता का नहीं रह जाता, ठीक उसी तरह से जिस तरह से बिके हुए तेल का उपयोग-मूल्य तेल निर्माता का नहीं रह जाता। मुद्रा के स्वामी ने एक दिन की श्रमशक्ति के लिए भुगतान किया है, और इसलिए उस पूरे दिन के लिए श्रम के उपयोग-मूल्य पर उसका अधिकार होता है।

यह सच है कि कि श्रमशक्ति के रोज़ाना भरण-पोषण की लागत के आधे दिन के श्रम के बराबर होती है, और यह कि श्रमशक्ति फिर भी पूरे दिन तक काम कर सकती है, जिसका नतीजा यह होता है कि एक कार्यदिवस में उसके उपयोग ने जो मूल्य पैदा किया वह ए‍क दिन की श्रमशक्ति को दोगुना हुआ। यह ख़रीदार के लिए तो अच्‍छी बात है लेकिन विक्रेता के साथ अन्याय है।

हमारा पूँजीपति यह जानता था और इसीलिए वह इतना उत्साहित था। कारखाने में मज़दूर को आवश्यक उत्पादन के साधन मिलते हैं, न सिर्फ़ 6 घंटे की श्रम प्रक्रिया के लिए, बल्कि 12 घंटे की श्रम प्रक्रिया के लिए। यदि 10 पौंड का कपास श्रम के 6 घंटे लेता है, और 20 पौंड सूत में रूपांतरित हो जाता है तो 20 पौंड का कपास श्रम के 12 घंटे लेगा और 20 पौंड के सूत में रूपांतरित हो जाएगा।

आइये इस लंबी खिंची श्रम प्रक्रिया की पड़ताल करें। सूत के 20 पौंड में 5 कार्यदिवस मूर्त रूप ग्रहण कर चुके हैं 4 घंटे उपयोग किए गए कपास और तकली के अंश में और 1 घंटा सूत कातने की प्रक्रिया में कपास द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। और 5 कार्यदिवसों का सोने में मूल्य 30 शिलिंग या 110 पोंड है। इसलिए यह सूत के 20 पौंड की क़ीमत हुई।

पहले की ही तरह अब 1 पौंड सूत की क़ीमत 1 शिलिंग 6 पेंस है। परन्तु उत्पादन की प्रक्रिया में लगा कुल मूल्य 27 शिलिंग है, जबकि सूत की क़ीमत 30 शिलिंग है। उत्पाद का मूल्य उसके उत्पादन में लगाए गए मूल्यों से 1-9वां हिस्सा अधिक है। नतीजतन 27 शिलिंग का रूपांतरण 30 शिलिंग में हो गया है, 3 शिलिंग का अतिरिक्त मूल्य जोड़ा गया है। अन्तत: चाल क़ामयाब रही, मुद्रा का पूँजी में रूपान्तरण हो गया है।…

यदि अब हम मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया और अतिरिक्त मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया की तुलना करते हैं तो हम पाते हैं कि अतिरिक्त मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया महज़ एक निश्चित बिन्दु के आगे मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया ही है। यदि मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया केवल उसी बिन्दु तक जारी रहे जब तक कि पूँजीपति द्वारा भुगतान की गई श्रमशक्ति एक नये समतुल्य के द्वारा प्रतिस्थापित हो तो यह महज़ मूल्य पैदा करने की साधारण प्रक्रिया ही रहेगी। लेकिन जैसे ही मूल्य पैदा करने की प्रक्रिया उस बिन्दु से आगे बढ़ती है, यह अतिरिक्त मूल्य पैदा होने की प्रक्रिया बन जाती है।…

marx-punji-5-3स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी

श्रम की प्रक्रिया के विभिन्नं कारक उत्पापद के मूल्या के निर्माण में अलग-अलग मात्राओं में अपना योगदान देते हैं।

मज़दूर अपने श्रम की विषयवस्तु। में नया मूल्या उसपर एक निश्चित मात्रा में अतिरिक्त श्रम लगाकर जोड़ता है, भले ही उसके श्रम का विशिष्ट् चरित्र, उद्देश्य और तकनीकी गुणवत्ता कुछ भी हो। वहीं दूसरी ओर श्रम की प्रक्रिया में लगने वाले उत्पादन के साधनों के मूल्य उत्पाद के मूल्य के हिस्से के रूप में पुन: प्रकट होते हैं; जैसे कि सूत के मूल्य में कच्चे कपास और तकली के मूल्य  पुन: प्रकट होते हैं।

इस प्रकार उत्पादन के साधनों का मूल्य उत्पाद में उसके स्थानांतरित होने की वजह से बरकरार रहता है। यह स्थानांतरण उत्पादन के साधनों के उत्पाद मे रूपांतरित होने के दौरान होता है; यह श्रम की प्रक्रिया के दौरान होता है।

…उत्पादन का कोई औजार कभी भी किसी उत्पाद में उस मूल्य‍ से अधिक मूल्य नहीं स्थानांतरित कर सकता जो वह अपने उपयोग-मूल्य के क्षरण द्वारा श्रम की प्रक्रिया में स्वयं गँवाता है। यदि उसके पास गँवाने को कोई मूल्य ही नहीं था, यदि वह स्वयं मानव श्रम का उत्पा‍द नहीं था, तो वह उत्पाद को कोई मूल्य  स्थानांतरित ही नहीं कर सकता था। उस स्थि‍ति में वह कोई विनिमय मूल्य  पैदा किये बिना उपयोग-मूल्य पैदा करने में मदद करेगा। प्रकृति द्वारा मनुष्य की मदद के बिना प्रदान किये गए सभी उत्पादन के साधन इसी तरह के होते हैं; पृथ्वी, हवा, पानी, न निकाला गया लोहे का अयस्क, आदिम जंगल की लकड़ी आदि-आदि।

…मान लेते हैं कि किसी मशीन की क़ीमत 1,000 पौंड है और वह 1000 दिनों में पूरी तरह से घिस जाती है। इस तरह प्रतिदिन उस मशीन का एक हजारवाँ हिस्सा उसके प्रतिदिन के उत्पाद में स्थानांतरित हो जाता है। हालाँकि प्रतिदिन की ह्रासमान जीवन्तता के बावजूद श्रम की प्रक्रिया में समूची मशीन भाग लेती रहती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम की प्रक्रिया का एक कारक, कोई निश्चित उत्पादन का साधन, उस प्रक्रिया में समूचे रूप में भाग लेता है, जबकि वह मूल्य, के निर्माण की प्रक्रिया में आंशिक रूप से ही भाग लेता है। श्रम की प्रक्रिया और एवं मूल्य निर्माण की प्रक्रिया के बीच का अन्तर यहाँ उनके भौतिक कारकों के रूप में प्रकट होता है क्यों कि जहाँ एक ओर उत्पादन की एक ही प्रक्रिया में उत्पादन के वही साधन श्रम की प्रक्रिया के अंग के रूप में समूचे रूप में उपयोग में आते हैं, वहीं दूसरी ओर मूल्य के निर्माण में वे केवल आंशिक रूप से ही उपयोग में आते हैं।

परन्तु उत्पादन का कोई औजार मूल्य के निर्माण में समूचे रूप में भाग ले सकता है जबकि वह श्रम की प्रक्रिया में टुकड़ों-टुकड़ों में ही भाग लेता है। मान लेते हैं कि कपास की कताई के दौरान काते गए प्रत्येक 115 पौंड के कपास में से 15 पौंड किसी काम का नहीं है, जिससे सूत नहीं बल्कि रद्दी बनती है। अब हालाँकि यह 15 प्रतिशत रद्दी कपास की कताई की औसत परिस्थितियों में सामान्य बात है, फिर भी 100 पौंड सूत बनाने के लिए 15 पौंड के कच्चे  कपास के मूल्य को व्य‍र्थ जाना होता है। अत: कपास की इस मात्रा का नष्ट  होना सूत के उत्पादन की आवश्यक शर्त है। इसी वजह से वह अपना मूल्क सूत को स्थानांतरित करता है।….

…पूँजी का वह हिस्सा जो उत्पादन के साधनों में, यानी कि कच्चे माल, सहायक सामग्री और श्रम के औजार में रूपांतरित होता है,उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान मूल्य के परिमाण में किसी परिवर्तन से नहीं गुजरता है। इस वजह से मैं इसे पूँजी का स्थिर हिस्सा या संक्षेप में स्थिर पूँजी कहता हूँ। (इसके विपरीत) पूँजी का वह हिस्सा जो श्रमशक्ति में रूपांतरित होता है, उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान मूल्य में परिवर्तन से गुजरता है। यह अपने लिए एक समतुल्य का पुनरुत्पादन करता है और उसके ऊपर वह अतिरिक्तं मूल्य पैदा करता है जो परिमाण में परिवर्तनशील होता है और बड़ा या छोटा हो सकता है। पूँजी का यह हिस्सा स्थिर पर‍िमाण से लगातार परिवर्तनशील परिमाण में बदलता रहता है। इसलिए मैं पूँजी के इस हिस्से  को पूँजी का परिवर्तनशील हिस्सा, या संक्षेप में परिवर्तनशील पूँजी कहता हूँ।

पूँजी के वही संघटक जो श्रम की प्रक्रिया के दृष्टिकोण से क्रमश: वस्तुगत और मनोगत कारकों के रूप में विभेदित किये जाते हैं — एक ओर उत्पादन के साधन और दूसरी ओर श्रमशक्ति —अत‍िरिक्त  मूल्य के उत्पादन की प्रक्रिया के दृष्टिकोण से स्थिर पूँजी और परिवर्तनशील पूँजी के रूप में विभेदित किये जाते हैं।

marx-punji-5-2अतिरिक्त मूल्य की दर : श्रमशक्ति के शोषण की मात्रा

…हम देख चुके हैं कि श्रम की प्रक्रिया के एक हिस्से के दौरान मज़दूर अपनी श्रमशक्ति के मूल्य, यानी उसके जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक साधनों के मूल्य, के अलावा और कुछ नहीं पैदा करता है। चूँकि बतौर उत्पादक उसका काम एक ऐसे समाज में किया जाता है जहाँ सामाजिक श्रम विभाजन मौजूद होता होता है, इसलिए वह अपने जीवन की आवश्यकताओं को प्रत्यक्ष रूप से पैदा नहीं करता है, बल्कि किसी माल विशेष, जैसे सूत, के रूप में पैदा करता है, यानी ऐसा मूल्य् जो उसकी जीवन-निर्वाह के साधनों के मूल्य, के बराबर या उस मुद्रा के मूल्य के बराबर होता है जिससे वह उन्हें ख़रीद सकता है।

इस रूप में बिताया गया काम के दिन का यह हिस्सा बड़ा होगा या छोटा, यह इस पर निर्भर करता है कि उसके द्वारा आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधनों की औसत मात्रा का मूल्य बड़ा है या छोटा, यानी उनके उत्पादन के लिए आवश्यक औसत दैनिक श्रमकाल बड़ा है या छोटा। यदि उसके दैनिक जीवन-निर्वाह के साधनों का औसत मूल्य छह काम के घंटों का मूर्त रूप है, तो मज़दूर को यह मूल्य पैदा करने के लिए औसतन छह घंटे काम करना पड़ेगा। यदि वह किसी पूँजीपति के लिए काम करने की बजाय खुद स्वतंत्र तौर पर काम कर रहा होता तो अपने श्रमकाल के मूल्यक के उत्पादन के लिए, अन्य  चीज़ों के स्थिर रहने पर दिन के उसी हिस्से  के बराबर काम करना पड़ता और इस प्रकार वह अपने रखरखाव या सतत पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करता।

चूँकि कार्यदिवस के उस हिस्से में जिसमें वह श्रमकाल का दैनिक मूल्य पैदा करता है, वह पूँजीपति द्वारा उसको भुगतान किए गए श्रमकाल के मूल्य के समतुल्य से अधिक पैदा नहीं करता। चूँकि उसने जो नया मूल्य पैदा किया वह दी गयी परिवर्तित पूँजी के मूल्यद को प्रतिस्थापित करने से अधिक कुछ भी नहीं करता, इसलिए मूल्य का यह उत्पाादन पुनरुत्पादन से अधिक और किसी रूप में प्रकट नहीं होता है।

इसलिए मैं कार्यदिवस के उस हिस्से को जिसमें ऐसा पुनरुत्पादन होता है, आवश्यक श्रमकाल का नाम देता हूँ; और इस अवधि में किये गए श्रम को आवश्यक श्रम का नाम देता हूँ। आवश्यक श्रम मज़दूर के लिए आवश्यक होता है क्योंकि यह उसके श्रम के सामाजिक स्वरूप से स्वतंत्र होता है। यह पूँजी के लिए, और पूँजी की दुनिया के लिए, आवश्यक होता है क्योंकि मज़दूर का सतत रूप में अस्तित्व  उनकी बुनियाद होती है।

श्रम की प्रक्रिया की दूसरी अवधि, जिसमें मज़दूर ने आवश्यक श्रमकाल की सीमा को पार किया होता है, जिसमें उसको श्रम करना पड़ता है, श्रमशक्ति ख़र्च करनी पड़ती है, परन्तु वह उसके लिए कोई मूल्य  पैदा नहीं करता है। यह श्रम अतिरिक्त मूल्यत पैदा करता है जो पूँजीपति को निर्वात से पैदा हुई किसी चीज़ की तरह आकर्षित करता है। कार्यदिवस के इस हिस्से को मैं अतिरिक्त श्रमकाल का नाम देता हूँ, और इस दौरान ख़र्च पूरे श्रम को मैं अतिरिक्त श्रम का नाम देता हूँ।

यदि हमें सामान्य तौर पर मूल्य को समझना है तो यह अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि हम उसे महज़ श्रमकाल की जमावट के रूप में, श्रम के मूर्त रूप में समझें; और अतिरिक्त मूल्य को समझने के लिए यह उतना ही महत्वपूर्ण है कि हम उसे महज़ अतिरिक्त श्रमकाल की जमावट के रूप में, अतिरिक्त‍ श्रम के मूर्त रूप में समझें। समाज की विभिन्नि आर्थिक किस्मों  के बीच जो चीज़ भेद करती है (उदाहरण के लिए दास प्रथा पर आधारित समाज का उजरती श्रम पर आधारित समाज से भेद) वह यही है कि वास्ताविक उत्पादक यानी मज़दूर से किस प्रकार अतिरिक्त श्रम छीना जाता है।

चूँकि परिवर्तनशील पूँजी का मूल्य इस परिवर्तनशील पूँजी द्वारा ख़रीदे गए श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर होता है, और चूँकि इस श्रमशक्ति का मूल्यर कार्यदिवस के आवश्यक हिस्से की लंबाई को निर्धारित करता है, जबकि अतिरिक्त मूल्य कार्यदिवस के अतिरिक्त  हिस्से की लंबाई को निर्धारित करता है, इसलिए इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अतिरिक्त मूल्य और परिवर्तनशील पूँजी के बीच का अनुपात अतिरिक्त श्रम और आवश्यक श्रम के बीच के अनुपात के बराबर होता है।….

इसलिए अतिरिक्त मूल्य  की दर पूँजी द्वारा श्रम के शोषण, अथवा पूँजीपति द्वारा मज़दूर के शोषण की मात्रा की सटीक अभिव्यक्ति है।…

उत्पाद के उस हिस्से को मैं अतिरिक्त उत्पाद का नाम देता हूँ जो अतिरिक्त  मूल्य को व्यक्त  करता है। जिस प्रकार अतिरिक्त मूल्य की दर कुल लगायी गयी पूँजी से नहीं बल्कि पूँजी के परिवर्तनशील हिस्से द्वारा निर्धारित होती है, उसी प्रकार अतिरिक्त उत्पाद का सापेक्ष परिमाण कुल उत्पाद से उसके अनुपात पर नहीं बल्कि उत्पाद के उस हिस्से से उसके अनुपात द्वारा निर्धारित होता है जो आवश्यक श्रम का प्रतिनिधित्व करता है। चूँकि अतिरिक्त  मूल्य का उत्पाादन पूँजीवादी उत्पादन का उद्देश्य  और लक्ष्य होता है, संपदा अतिरिक्त उत्पाद की सापेक्ष मात्रा द्वारा मापी जानी चाहिए, न कि उत्पाद के निरपेक्ष मूल्य द्वारा।

आवश्यक श्रम और अतिरिक्त श्रम का योग, वह समयावधि जिसमें मज़दूर वह मूल्य जो उसकी श्रमशक्ति को प्रतिस्थािपत करने वाले मूल्य और अतिरिक्त मूल्य इन दोनों का उत्पादन करता है, उस वास्त‍विक समय को निर्धारित करता है जिस दौरान वह काम करता है — यानी उसके कार्यदिवस को।

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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मज़दूरों के महान नेता लेनिन

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