अमेरिका : बच्चों में बढ़ती ग़रीबी-दर

सिकंदर

भारत के नौजवानों को अमेरिका एक काल्पनिक स्वर्ग की तरह लुभाता है। मगर उनकी यह धारणा अवैज्ञानिक तथा अफ़वाहों से भरपूर जानकारी पर आधारित होती है। हाल ही में जारी हुए आँकड़े उनकी इन धारणाओं को ग़लत साबित करते हैं। यूनीसेफ द्वारा जारी की गयी एक ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार विकसित मुल्कों में से अमेरिका में बच्चों में ग़रीबी सबसे ज़्यादा है। दुनिया के सबसे अमीर इस मुल्क में 1.6 करोड़ बच्चे सरकार से मिलने वाले खैक्‍राती अनाज कूपनों पर निर्भर हैं। इसी रिपोर्ट के मुताबिक एक-तिहाई अमेरिकी बच्चे ऐसे परिवारों में रहते हैं जिनकी आमदनी 2008 की औसत आमदनी के मुकाबले अब 40% कम हो गयी है। 2008 की आर्थिक मंदी के बाद ग़रीबी में रह रहे बच्चों की संख्या में 2% की वृद्धि और हो गयी है। संपूर्ण तौर पर 2012 में 2 करोड़ 42 लाख अमेरिकी बच्चे ग़रीबी रेखा से नीचे जी रहे थे।

अमेरिका के 4 करोड़ 65 लाख बच्चे भोजन की अपनी ज़रूरतों के लिए अमेरिकी सरकार द्वारा चलाए जाने वाले अनाज सहायता योजना, स्नैप (सप्लीमेंट न्यूट्रिशन असिस्टेंस प्रोग्राम) पर निर्भर हैं। इस योजना का ख़र्च सरकार उठाती है, मगर आर्थिंक संकट के चलते अब अमेरिकी सरकार इन फंडों में लगातार कटौती करती जा रही है। 2016 में ही सरकार द्वारा इस राशि में की गयी कटौती से 10 लाख लोग प्रभावित हुए हैं। एक ओर तो अमेरिकी सरकार दुनिया भर में साम्राज्यवादी युद्धों के लिए हर साल 600 अरब डॉलर से अधिक रक़म अपनी फ़ौज, हथियारों आदि पर खर्च करती है, जबकि 2016 में ओबामा सरकार द्वारा स्नैप योजना के लिए सिर्फ़ 83 अरब डॉलर ही रखे गये थे, जबकि इस योजना पर 4.57 करोड़ अमेरिकी (अमेरिका की 15% जनसंख्या) निर्भर है। अमेरिका के कई राज्यों में तो हालात और भी ख़राब है, जैसे कि न्यू मैक्सिको राज्य में 10 में से 4 बच्चे ग़रीबी में जी रहे हैं, कैलीफ़ोर्निया में 27%, जबकि पड़ोसी राज्यों ऐरीज़ोना और नेवाडा में 22% बच्चे गरीबी में जीने के लिए मजबूर हैं।

इस तरह इन आँकड़ों से हम देखते हैं कि किस तरह यह मानवद्रोही पूँजीवादी ढाँचा हर जगह बच्चों को उनके बचपन के दौरान ही, असमानता की खाई में फेंक देता है। उनको बचपन में ही मूलभूत ज़रूरतों – रोटी, कपड़ा, शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ, मनोरंजन के साधन, आदि – से वंचित कर देता है। पूँजीवादी के भीतर विकास का यही नियम है, एक छोर पर अमीरी बढ़ेगी तो दूसरे छोर पर ग़रीबी बढ़नी ही है। पूँजीवादी ढाँचे के भीतर सभी बच्चों को रौशन भविष्य दे पाना महज़ कल्पना ही हो सकती है। ये सारे आँकडे़ हमारे सामने कुछ बेहद अहम और तात्कालिक सवाल खड़े करते हैं, कि क्या हमारी आने वाली पीढ़ि‍यों का बचपन इसी तरह ख़ाक छानता रहेगा या फिर क्या हम एक बेहतर, मनुष्य केन्द्रित ढाँचा निर्मित करने के लिए उठ खड़े होंगे?

मज़दूर बिगुल, जुलाई 2016


 

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