हमें एक दिनी हड़तालों की रस्म से आगे बढ़ना होगा
पूंजीवादी मुनाफे का चक्का जाम करने के लिए ऑटोमोबाइल मज़दूरों की सेक्टरगत यूनियन का निर्माण करना होगा!!

साथियो!
2 सितंबर को एक बार फिर 10 बड़ी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा एक दिवसीय हड़ताल का आयोजन किया जा रहा है। पिछले वर्षों की तरह इस वर्ष भी हड़ताल में मुख्य तौर पर बैंक, बीमा, रेलवे व अन्य पब्लिक सेक्टर के कर्मचारी शामिल होंगे। असंगठित क्षेत्र यानी ठेका, केजुअल, एप्रेंटिस मज़दूरों के बीच इस तरह की हड़ताल का कोई ख़ास असर नहीं रहता। निश्चित ही ऑटोमोबाइल सेक्टर से भी कुछ मज़दूर इस हड़ताल में शामिल होंगे क्योंकि मोदी सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियों के खिलाफ हममें भी असंतोष है। मगर सोचने की बात है यह है कि इस एकदिनी हड़ताल की रस्म से आखिर होगा क्या?

Karawalnagar strikeसाथियो! हम भी जानते हैं कि यह महज़ एक रस्मी कवायद है! पिछले साल भी इसी दिन इन यूनियनों ने मोदी सरकार द्वारा श्रम कानूनों में किये जा रहे मज़दूर-विरोधी संशोधनों के खिलाफ हड़ताल की थी। क्या इससे मोदी सरकार ने मज़दूर-विरोधी संशोधनों को वापस ले लिया? सच तो यह है कि इन संशोधनों को पुरे देश में धड़ल्ले से लागू किया जा रहा है। 1990 में नवउदारवाद और निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से करीब 17 बार पहले भी इसी तरह का ‘भारत बंद’, ‘आम हड़ताल’, ‘प्रतिरोध दिवस’ का आह्वान ये केंद्रीय ट्रेड यूनियनें कर चुकी हैं। मगर इन 26 वर्षों के दौरान ही मज़दूर-विरोधी नीतियों और मज़दूर संघर्षों के दमन में बेतहाशा बढ़ोतरी हुयी है। साफ़ है की एक दिन की हड़ताल का मकसद होता है मज़दूरों के भीतर पनप रहे गुस्से को थोड़ा-थोड़ा करके निकालना ताकि मज़दूरों का गुस्सा ज्वालामुखी के समान फट न पड़े।
असल में एकदिनी हड़तालें करना इन तमाम यूनियनों के अस्तित्व का प्रश्न है। ऐसा करने से उनके बारे में मज़दूरों का भ्रम भी थोड़ा बना रहता है और पूंजीपतियों की सेवा करने का काम भी ये यूनियनें आसानी से कर लेती हैं। यह एकदिनी हड़ताल कितनी कारगर है यह इसी बात से पता चलता है कि ऐसी हड़तालों के दिन आम तौर पर तमाम पूंजीपति और कईं बार कुछ सरकारी विभाग तक खुद ही छुट्टी घोषित कर देते हैं। ऐसी रस्म-नुमा हड़तालों से पूंजीपतियों के मुनाफे पर कोई असर नहीं पड़ता है। ये केंद्रीय ट्रेड यूनियनें यदि वास्तव में मज़दूरों के हितों और श्रम विरोधी नीतियों को लेकर चिंतित हैं तो तब तक के लिए ये अनिश्चितकालीन हड़ताल की घोषणा क्यों नहीं कर देतीं, जब तक कि श्रम के ठेकाकरण की प्रक्रिया समाप्त नहीं की जाती? ये यूनियनें तब तक के लिए काम ठप्प क्यों नहीं कर देती जब तक कि सभी ठेका-केजुअल-एप्रेंटिस-मज़दूरों को उनके अधिकार न मिल जाएँ? ऑटोमोबाइल सेक्टर में रीको, मारुती, हौंडा, श्रीराम पिस्टन, अस्ति, बेलसोनिका के मज़दूरों के संघर्षों में ये यूनियनें क्यों नहीं हड़ताल पर उतरीं और अपनी 5 करोड़ सदस्यता को काम बंद करने को क्यों नहीं कहा? ज़ाहिर है कि युनियनें दलाल हो चुकी हैं और मज़दूर वर्ग से गद्दारी कर चुकी हैं!
साथ ही, अपने आप को ‘इंकलाबी’ केंद्र घोषित करने वाले और मज़दूरों के लिए कानूनी सहायता केंद्र चलने वाले अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भी बेहद अवसरवादी तरीके से इन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की एक दिनी हड़ताल के सुर में सुर मिला रहे हैं! मज़दूरों को ऐसी ‘बेगाने की शादी में अब्दुल्ला दीवाना’टाइप “चना जोर गरम क्रांतिकारियों”से सावधान रहना चाहिए और अपने आपको अर्थवाद की छूट से बचाना चाहिए। आज मज़दूर वर्ग के आंदोलन की जो स्थिति है उसके लिए सीटू, एटक, एक्टू , उटूक, बीएमस, एचएमएस, इंटक आदि जैसी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अलावा ये अराजकतावादी, अर्थवादी लोग भी कम ज़िम्मेदार नहीं हैं। एकदिनी हड़ताल करने वाली इन केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से पूछा जाना चाहिए कि जब इनकी आका पार्टियां संसद-विधानसभा में मज़दूर-विरोधी क़ानून पारित करती हैं, तो उस समय ये चुप्पी मारकर क्यों बैठी रहती हैं? सीपीआई और सीपीएम जब सत्ता में रहती हैं तो खुद ही मज़दूरों के विरूद्ध नीतियां बनाती हैं, तो फिर इनसे जुडी ट्रेड यूनियनें मज़दूरों के हकों के लिए कैसे लड़ सकती हैं? पश्चिम बंगाल में टाटा का कारखाना लगाने के लिए गरीब मेहनतकशों को कत्लेआम हुया तो सीपीआई व सीपीएम से जुडी ट्रेड यूनियनों ने इसके खिलाफ कोई आवाज़ क्यों नहीं उठायी? जब कांग्रेस और भाजपा की सरकारें मज़दूरो के हकों को छीनती हैं तो भारतीय मज़दूर संघ और इंटक जैसी यूनियनें चुप्पी क्यों साधे रहती हैं? यही कारण है कि चुनावी पार्टियों से जुडी ट्रेड यूनियनें ज़्यादा से ज़्यादा इस तरह की रस्मी हड़तालें ही कर सकती हैं और वह भी इसलिए कि मज़दूरों के बीच और वह भी संगठित क्षेत्र के 7-8 प्रतिशत मज़दूरों के बीच उनकी कुछ ज़मीन बची रहे। देश के 50 करोड़ असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बीच न तो इनकी पहुँच है और न ही उनके बारे में ये यूनियनें चिंतित है। असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों यानी ठेका, केजुअल, एप्रेंटिस मज़दूरों की मांग इनके मांगपत्रके में निचले पायदान पर जगह पाती है और इस क्षेत्र के मज़दूरों का इस्तेमाल महज भीड़ जुटाने के लिए किया जाता है।
हमारा मनना है कि हड़ताल मज़दूर वर्ग का एक बहुत ताकतवर हथियार है जिसका इस्तेमाल बहुत तैयारी और सूझबूझ के साथ किया जाना चाहिए। हड़ताल का मतलब होता है पूंजीवादी उत्पादन का चक्का जाम करना। लेकिन ऐसी एकदिनी रस्मों से पूँजीवाद की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उलटे इस रस्म को भारतीय पूँजीवाद ने सहयोजित कर लिया है। मज़दूरों को आज अपने हकों की हिफाज़त के लिए जुझारू संघर्ष की लंबी तैयारी करनी होगी। आज के समय में नए क्रांतिकारी ट्रेड यूनियन आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए मज़दूरों को अपनी सेक्टरगत और इलाकाई यूनियन का निर्माण करना होगा जो किसी भी चुनावी पार्टी से सम्बन्ध न रखती हो!
यह बात ऑटोमोबाइल सेक्टर भी लागू होती। आज ऑटोमोबाइल सेक्टरकी एक स्वतन्त्र क्रांतिकारी सेक्टरगत यूनियन बनाना समय की मांग है। ऐसी यूनियन सभी ठेका, केजुअल, एप्रेंटिस मज़दूरों का प्रतिनिधित्व करेगी (साथ ही स्थायी मज़दूर भी इसके सदस्य होंगे) और उनके हकों के लिए लड़ेगी। आज हमें एकदिनी हड़तालों की नौटंकी की नहीं बल्कि सरकार की मज़दूर-विरोधी नीतियों के खिलाफ अनिश्चितकालीन आम हड़ताल की ज़रूरत है। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स यूनियन इसी बात को लेकर आपके बीच आयी है कि नये सिरे से अपने संघर्ष को जुझारू तरीके से संगठित करने के लिए उठ खड़े हों और यूनियन से जुड़ें; इसके सदस्य बनें!
बिन हवा न पत्ता हिलता है! बिन लड़े न कुछ भी मिलता है!
ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री कॉन्ट्रेक्ट वर्कर्स यूनियन
अनंत 8860792320 शिवानी 9711736435


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments