भाण्डवलशाहों (पूँजीपतियों) की साज़ि‍श को पहचानो!
शासक वर्गों द्वारा मेहनतकशों की जातिगत गोलबन्दी का विरोध करो!
अपने असली दुश्मन को पहचानो!

अभिनव

कोपर्डी में एक मराठा लड़की के जघन्य बलात्कार व हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में शासक वर्गों ने मराठा मोर्चे निकाले। नासिक समेत कई स्थानों पर दलित आबादी पर हमले किये गये। मराठों के कुलीन वर्ग व राजनीतिज्ञों ने इस घटना का इस्तेमाल मेहनतकश जनता की जातिगत गोलबन्दी के लिए किया। महाराष्ट्र में बढ़ती बेरोज़गारी, कृषि संकट, ग़रीबी व महँगाई के विरुद्ध बढ़ते जनअसन्तोष को मेहनतकश आबादी की जातिगत गोलबन्दी का रूप दिया जा रहा है। इसके जवाब में अस्मितावादी राजनीति करने वाले दलित राजनीतिज्ञों ने जवाबी दलित मोर्चे निकालने शुरू किये हैं। इन दोनों ही कारकों के चलते आम मेहनतकश जनता का गुस्सा आपस में एक-दूसरे के ऊपर फूट रहा है, जबकि इसका असली कारण बढ़ती बेरोज़गारी और कृषि संकट है। इसके लिए ज़िम्मेदार पूँजीपति वर्ग और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था बच निकल रही है। शासक वर्गों की इस साज़िश को समझने के लिए महाराष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक हालात पर एक निगाह डालना आवश्यक है।

महाराष्ट्र में आम मेहनतकश आबादी की हालत

2013 में महाराष्ट्र में बेरोज़गारी की दर रोज़गार एक्सचेंज के अनुसार 4.5 प्रतिशत पहुँच चुकी थी। ग़ौरतलब है, ये आँकड़े अधूरी सच्चाई बताते हैं क्योंकि ये रोज़गार एक्सचेंज में पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या ही बताते हैं, जबकि अधिकांश बेरोज़गार इन कार्यालयों में पंजीकरण कराते ही नहीं हैं। 2008 में केवल 45.9 प्रतिशत लोगों के पास नियमित वेतन वाले रोज़गार थे। 2012 में काम करने योग्य हर 1000 लोगों में से 32 से ज़्यादा लोग बेरोज़गार थे। ये सभी आँकड़े दो वर्ष या उससे पहले के हैं, जबकि महाराष्ट्र में बेरोज़गारी मुख्य तौर पर पिछले 2 साल में तेज़ी से बढ़ी है। खेती का संकट पिछले दो दशकों में भयंकर रफ़्तार से बढ़ा है। सरकारों की नवउदारवादी नीतियों के चलते छोटे और मँझोले किसान तेज़ी से तबाह हुए हैं। भूमिहीन मज़दूरों की संख्या में, जिनमें क़रीब आधी आबादी दलितों की है, तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है। यह आबादी गाँवों में सबसे भयंकर हालात में जी रही है। कोऑपरेटिवों का भी तेज़ी से पतन हुआ है। दलित व आदिवासी आबादी समेत मराठों की भी ज़बरदस्त बहुसंख्या आज कृषि के संकट, बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई की बुरी तरह शिकार है।

मराठा आबादी की हालत : पाँच प्रमुख वर्ग और उनकी स्थिति

मराठा आबादी प्रदेश की 33 प्रतिशत है। इस मराठा आबादी में से 200 कुलीन और अति-धनाढ्य मराठा परिवारों का आज प्रदेश के लगभग सारे मुख्य आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों पर क़ब्ज़ा है। मराठा आबादी में सबसे ऊपर यह कुलीन वर्ग है जो सीधे सत्ता के केन्द्रों पर क़ब्ज़ा रखता है। इनमें नेता, मन्त्री (जो अक्सर स्वयं बड़े पूँजीपति भी होते हैं), विभिन्न आयोगों के अध्यक्ष, तमाम कोऑपरेटिव बैंकों के बोर्ड मेम्बर, शुगर कोऑपरेटिवों के बोर्ड मेम्बर, जि़ला परिषदों के सदस्य से लेकर ग्राम पंचायत के प्रधानों तक शामिल हैं। इनके ठीक नीचे मराठा आबादी का दूसरा वर्ग है – धनी किसान वर्ग या “बगायती” वर्ग जो नक़दी फ़सलें पैदा करता है और गाँवों का पूँजीपति वर्ग है। यह वर्ग यदि सत्ता के प्रतिष्ठानों पर सीधी पकड़ नहीं भी रखता तो यह महाराष्ट्र का एक प्रमुख राजनीतिक प्रेशर ग्रुप है, जिसका नीति-निर्माण पर असर है। इसके नीचे आने वाला मराठों का तीसरा वर्ग है, मँझोले किसानों का जो न तो पूरी तरह आबाद हैं और न ही पूरी तरह बरबाद। ये अनिश्चितता में जीते हैं और अपनी खेती में काफ़ी हद तक मौसम-बारिश जैसे प्राकृतिक कारकों और सरकारी नीतियों पर निर्भर होते हैं। ये धनी किसानों की जीवन शैली की नक़ल करते हैं और जब ऐसा करने में आर्थिक तौर पर नाकामयाब होते हैं, तो हताशा और रोष का शिकार होते हैं। ये सूदखोरों और बैंकों से छोटे क़र्ज़़ लेते हैं और उनकी वापसी न कर पाने और सूदखोरों या बैंकों द्वारा तंग किये जाने पर भी कई बार आत्महत्याएँ करते हैं। मँझोले किसानों के इस वर्ग का निचला हिस्सा तेज़ी से खेतिहर मज़दूरों की क़तार में भी शामिल हुआ है। इसके नीचे आने वाला चौथा वर्ग है ग़रीब मराठा किसान जो कि केवल खेती से जीविकोपार्जन नहीं कर पाते और उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा बड़े किसानों के खेतों पर मज़दूरी भी करता है। इसकी स्थिति काफ़ी हद तक खेतिहर मज़दूरों जैसी होती है। ये अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा नहीं दिला सकते। शहरी रोज़गारों के लिए शहर प्रवास के दरवाज़े इनके लिए बन्द ही होते हैं। इनमें शैक्षणिक और सांस्कृतिक पिछड़ापन बुरी तरह व्याप्त है। पाँचवाँ वर्ग सबसे ग़रीब मराठा आबादी का यानी खेतिहर मज़दूरों का है जो दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करने या फिर सरकार की रोज़गार गारण्टी योजनाओं पर निर्भर रहने काे बाध्य हैं। यह आबादी सबसे भयंकर ग़रीबी में जीवन-व्यापन कर रही है।

लुब्बेलुबाब यह कि मराठा आबादी का ऊपर 15 से 20 प्रतिशत आज प्रदेश के सभी आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक शक्ति पर एकाधिकार जमाये हुए है। मराठा आबादी का क़रीब 80 प्रतिशत हिस्सा मज़दूर वर्ग, निम्न मध्यवर्ग, ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों का है। इस 80 फ़ीसदी आबादी का जीवन कांग्रेस-एनसीपी सरकार और साथ ही भाजपा-शिवसेना सरकार के दौरान लगातार बद से बदतर होता गया है। कांग्रेस-एनसीपी सरकार के दौरान हताश इस मराठा आबादी के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से ने “अच्छे दिनों” की आस में भाजपा सरकार को वोट दिया था। लेकिन “अच्छे दिनों” का इन्तज़ार कभी ख़त्म न हुआ। उल्टे और भी ज़्यादा बुरे दिन आ गये। पिछले 2 वर्षों में देश भर में बेरोज़गारों की तादाद में 2 करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है। इसका एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा महाराष्ट्र में खेती के संकट के बढ़ने और बेरोज़गारी के बेलगाम होने के कारण बढ़ा है। संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रपट के अनुसार अब महाराष्ट्र में बेरोज़गारी दर गुजरात और उत्तर प्रदेश से भी ज़्यादा हो गयी है। जीवन के असुरक्षित और जीविकोपार्जन के अनिश्चित होते जाने के साथ 80 फ़ीसदी आम मेहनतकश मराठा आबादी में असन्तोष और रोष तेज़ी से बढ़ा है, जो कि आज प्रदेश के हुक्मरानों के लिए चिन्ता का विषय बन गया था।

बढ़ते वर्ग अन्तरविरोधों को दबाने के लिए जातिगत गोलबन्दी का सहारा

ऐसे में, मराठा शासक वर्ग ने मराठा ग़रीब आबादी के बढ़ते असन्तोष को ग़लत दिशा में मोड़ने का बार-बार प्रयास किया। चूँकि आम मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह और ब्राह्मणवादी विचारधारा का प्रभाव मौजूद रहा है, इसलिए उसके गु़स्से को जातिगत रंग देने की एक ज़मीन पहले से मौजूद रही है। इन जातिगत पूर्वाग्रहों और ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरुद्ध आज सतत संघर्ष की आवश्यकता है। लेकिन यह भी याद रखना ज़रूरी है कि यह संघर्ष हमें अस्मितावादी राजनीति की ज़मीन पर खड़े होकर नहीं बल्कि वर्गीय राजनीति की ज़मीन पर खड़े होकर करना होगा। सवर्णवादी पूँजीवादी राज्यसत्ता और ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी के बीच का अन्तरविरोध एक दुश्मनाना अन्तरविरोध है। लेकिन उसी प्रकार मेहनतकश जनता के बीच मौजूद जातिगत पूर्वाग्रहों को यदि दुश्मनाना अन्तरविरोध की तरह हल करने का प्रयास किया जायेगा तो यह अस्मिताओं के टकराव की ओर ले जायेगा जो कि दोनों ही अस्मिताओं को और ज़्यादा रूढ़ और कठोर बनायेगा। यह अन्ततः व्यापक मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनता को जातीय समीकरण बिठाकर राजनीति करने वाली ब्राह्मणवादी ताक़तों और साथ ही अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाली ताक़तों के हाथों का मोहरा बना देगा। इन ब्राह्मणवादी हुक्मरानों और रामदास आठवले जैसे अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले हुक्मरानों के बीच जो अन्तरविरोध हैं, वे दुश्मनाना नहीं है। मूलतः वे दोनों ही हुक्मरानों की जमात से ही आते हैं। यह ज़रूर है कि हमेशा की तरह हुक्मरानों की बीच भी राजनीतिक सत्ता और संसाधनों के बँटवारे को लेकर जूतम-पैजार होती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वे जनता के समक्ष बँटे होते हैं। जैसे ही जनता के बीच बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई आदि जैसी समस्याओं के कारण वर्गीय गोलबन्दी की सम्भावना-सम्पन्नता पैदा होती है, वैसे ही ये दोनों ही ताक़तें अस्मितावादी राजनीति का तुरूप का पत्ता फेंकती हैं और जनता को आपस में बाँट देती हैं। चूँकि शासक वर्ग की विचारधारा हर युग की शासक विचारधारा होती है, इसलिए जनता के बीच भी अस्मितावादी और ब्राह्मणवादी राजनीति का असर मौजूद होता है और जातिगत पूर्वाग्रह मौजूद रहते हैं और ये शासक वर्गों को मौक़ा देते हैं कि वे मेहनतकश जनता के बीच जातिवादी वैमनस्य पैदा कर उन्हें बाँट दें। मौजूदा मराठा मोर्चों के पीछे भी यही गतिकी काम कर रही है। ऐसे दौर में, यह तथ्य भी दर्ज किया जाना चाहिए नासिक में हुए दलित-विरोधी हमलों के दौरान कुछ मौक़ों पर आम मराठा आबादी ने भी दलित परिवारों को बचाने का प्रयास किया। ये थोड़े-से और बिखरे हुए उदाहरण इस सम्भावना की ओर इशारा करते हैं कि यदि क्रान्तिकारी शक्तियाँ व्यापक मेहनतकश आबादी में जातिगत पूर्वाग्रहों के विरुद्ध वर्गीय ज़मीन पर खड़े होकर दृढ़ता से, समझौताविहीन और दीर्घकालिक संघर्ष करे तो ब्राह्मणवादी विचारधारा की जकड़बन्दी पर चोट की जा सकती है, क्योंकि इसकी सुषुप्त सम्भावना-सम्पन्नता आम मेहनतकश आबादी में मौजूद है। यह ज़रूर है कि बिना सचेतन क्रान्तिकारी प्रचार के यह सम्भावना हमेशा सुषुप्त ही बनी रहेगी। यह स्वतःस्फूर्त तरीक़े से होना मुश्किल है।

कोपर्डी की घटना के बाद मराठा शासक वर्गों को वैमनस्य भड़काकर जातिगत गोलबन्दी करने का एक अवसर मिल गया। कोई भी कोपर्डी की घटना का विरोध करेगा और आरोपियों को उचित दण्ड देने की हिमायत करेगा। तमाम दलितों ने स्वयं इस घटना की निन्दा की और दोषियों को सज़ा दिलाने की माँग उठायी। लेकिन मराठा शासक वर्ग ने मराठा मेहनतकश आबादी के गु़स्से को इस घटना को आधार बनाकर दलित-विरोधी दिशा दे दी। यह मुद्दा उठा दिया गया कि दलित उत्पीड़न रोधी क़ानून को भंग किया जाये क्योंकि इसका दलितों द्वारा दुरुपयोग होता है और साथ ही मराठा आबादी को आरक्षण दिया जाये। इसके बाद इन माँगों को लेकर आम मेहनतकश मराठा आबादी में भी एक लहर पैदा की गयी और उसके बाद मूक मोर्चों का सिलसिला शुरू हुआ। कहने के लिए ये मूक मोर्चे पूर्णतः “ग़ैर-राजनीतिक” थे और इसमें मराठा क्रान्ति दल, सम्भाजी ब्रिगेड, मराठा स्वाभिमान सेना आदि जैसे संगठनों ने भूमिका निभायी, लेकिन सभी जानते हैं कि इसके पीछे काफ़ी हद तक एनसीपी, कांग्रेस, शिवसेना और भाजपा की मराठा लॉबी शामिल हैं। यही कारण है कि इनमें से कई पार्टियों पर जब इन मराठा मोर्चों को हवा देने का आरोप लगा तो उन्होंने इसका खण्डन तक नहीं किया।

वास्तव में, आज प्रदेश में ग़रीब मराठा आबादी के व्यवस्था-विरोधी गुस्से और मराठा शासक वर्ग से उसके अन्तरविरोधों को दबाने के लिए उनके बीच अस्मितावाद को बढ़ावा देकर मराठा आरक्षण देने व दलित उत्पीड़न रोधी क़ानून को ख़त्म करने की माँग उठायी जा रही है। इन माँगों में कोई दम नहीं है। कुनबी आबादी को पहले ही ओबीसी में शामिल करके आरक्षण दिया गया था। इसी के आधार पर मराठों के लिए आरक्षण को विस्तारित करने की माँग उठायी जा रही है। दलित आबादी का एक बेहद छोटा-सा हिस्सा आरक्षण के चलते कुछ लाभ पाकर शिक्षा व रोज़गार में कुछ स्थान पा सका है। लेकिन अब इसका कोई ख़ास लाभ दलित आबादी को भी नहीं मिल रहा है क्योंकि सरकारी नौकरियाँ ही पैदा नहीं हो रही हैं। नवउदारवादी नीतियों के तहत लगातार निजीकरण किया जा रहा है जिसके कारण बची-खुची सरकारी नौकरियाँ भी समाप्त हो रही हैं। ऐसे में, जब सरकारी नौकरियाँ ही नाम-मात्र की हैं, तो आरक्षण का कोई विशेष लाभ दलित व पिछड़ों की आबादी को भी नहीं मिल पा रहा है। यही कारण है कि दलितों में भी बेरोज़गारी दर उसी प्रकार भयंकर है। हाल ही में, महाराष्ट्र सार्वजनिक सेवा आयोग ने 5 पोर्टरों की भर्ती के लिए आवेदन निकाले जिनमें शैक्षणिक योग्यता चौथी कक्षा पास थी। इसके लिए 2500 आवेदन प्राप्त हुए जिनमें से 250 पोस्टग्रेजुएट थे और 1000 से भी ज़्यादा ग्रेजुएट थे! इससे बेरोज़गारी की एक तस्वीर मिलती है।

दलित उत्पीड़न रोधी क़ानून को हटाने की माँग भी आधारहीन है। महाराष्ट्र में दलित व आदिवासी आबादी का हिस्सा 19 प्रतिशत है। पिछले वर्ष दायर हुई कुल एफ़आईआर में से केवल 1 प्रतिशत दलितों या आदिवासियों द्वारा हुई थी। इस 1 प्रतिशत में से 40 प्रतिशत ही दलित उत्पीड़न रोधी क़ानून के तहत हुई थी। और इन 40 प्रतिशत एफ़आईआर में दण्ड मिलने की दर मात्र 7 प्रतिशत है। 87 प्रतिशत केसेज़ पेण्डिंग हैं। क्या इस दावे में कुछ दम है कि इस क़ानून का दुरुपयोग होता है? यदि कुछ अपवादस्वरूप मामलों में दुरुपयोग होता भी है, तो इस आधार पर भारतीय संविधान व दण्ड संहिता के हर क़ानून को रद्द कर देना चाहिए, क्योंकि उन सबका ही दुरुपयोग होता है। सच यह है कि मराठा आबादी का कुलीन तबक़ा 50 प्रतिशत शैक्षणिक संस्थानों, 70 प्रतिशत जि़ला सहकारी बैंकों और 90 प्रतिशत शुगर कारख़ानों का मालिक है। प्रदेश की राजनीति पर मराठा कुलीन वर्ग का क़ब्ज़ा रहा है। 1960 से 18 मुख्यमन्त्रियों में से 10 और क़रीब 50 प्रतिशत विधायक इस मराठा बुर्जुआ वर्ग से आते हैं। यह स्वयं ग़रीब मराठा आबादी का शोषक और उत्पीड़क है। अगर इस मराठा कुलीन तबक़े को मराठा अस्मिता और बेहतरी की इतनी ही चिन्ता है, तो जिस क्षेत्र में सबसे बड़ी ग़रीब मराठा आबादी रहती है, जैसे कि मराठवाड़ा, वहाँ ये मराठा शासक खेती के संकट को दूर करने के लिए सिंचाई व क़र्ज़़ माफ़ी की योजनाएँ लागू क्यों नहीं करते? ये रोज़गार गारण्टी क़ानून और बेरोज़गारी भत्ता को लागू क्यों नहीं करते? ये रोज़गार सृजन करने वाली वास्तविक विकास की नीतियों को लागू क्यों नहीं करते? ये पश्चिमी महाराष्ट्र की अपनी चीनी मिलों में न्यूनतम मज़दूरी क्यों नहीं लागू करते? कारण ये कि मराठों के बीच का यह छोटा-सा कुलीन पूँजीवादी तबक़ा अपने मुनाफ़े की हवस में अन्धा है और उसके लिए कुछ भी कर सकता है। मराठा मेहनतकश आबादी के साथ इसका जो वर्ग अन्तरविरोध है, उसे दबाने के लिए ही आज यह कुलीन मराठा शासक वर्ग दलित-विरोधी माहौल बना रहा है। यह व्यवस्था के विरुद्ध जनअसन्तोष को रोकने के लिए ग़रीबों को जाति के नाम पर एक-दूसरे के सामने खड़ा कर रहा है और ग़ैर-मुद्दों को मुद्दा बना रहा है।

हुक्मरानों की साज़िश में मत फँसो! मेहनतकशों की वर्ग एकजुटता स्थापित करो!

ये कोशिशें आज सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही नहीं हो रही हैं। हाल ही में गुजरात में पटिदारों का उभार भी इसलिए पैदा किया गया था क्योंकि पटिदारों-पटेलों के बीच भी एक छोटा सा पूँजीपति वर्ग है जो स्वयं ग़रीब पटिदारों-पटेलों को लूट और दबा रहा है। इस ग़रीब आबादी का गुस्सा अपनी ही जाति के कुलीनों के प्रति न फूट पड़े इसलिए उसे दलितों और आदिवासियों के विरुद्ध मोड़ा जा रहा है। क्या हमने हरियाणा में (जहाँ पर बेरोज़गारी दर देश में सबसे तेज़ी से बढ़ रही है) हाल ही में आरक्षण के लिए हुए जाट आन्दोलन में यही षड्यन्त्र होते नहीं देखा? वहाँ भी ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय जाट आबादी के गु़स्से को अन्य जातियों के विरुद्ध मोड़ दिया गया।

आज पूरे देश में ही पूँजीवादी व्यवस्था जनता को रोज़गार, रोटी, कपड़ा, मकान और सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा व न्याय नहीं दे सकती है। ऐसे में, आम मेहनतकश लोगों का गुस्सा व्यवस्था-विरोधी रुख़ न ले ले, इसके लिए लोगों को जाति और धर्म के नाम पर लड़वाया जा रहा है। महाराष्ट्र में आज जो मराठा उभार हो रहा है, उसके मूल कारण तो मराठा ग़रीब आबादी में बेरोज़गारी, महँगाई, ग़रीबी और असुरक्षा है; लेकिन मराठा शासक वर्गों ने इसे दलित-विरोधी रुख़ देने का प्रयास किया है। इस साज़िश को समझने की ज़रूरत है। इस साज़िश का जवाब अस्मितावादी राजनीति और जातिगत गोलबन्दी नहीं है। इसका जवाब वर्ग संघर्ष और वर्गीय गोलबन्दी है। इस साज़िश को बेनक़ाब करना होगा और सभी जातियों के बेरोज़गार, ग़रीब और मेहनतकश तबक़ों को गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसी प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद और जातिवाद पर भी प्रहार करना होगा। वास्तव में, जाति उन्मूलन और ब्राह्मणवाद के नाश का रास्ता इसी प्रकार की वर्गीय गोलबन्दी के ज़रिये सम्भव है। अस्मिताओं के टकराव में हर अस्मिता कठोर बनती जाती है और अन्ततः ग़ैर-मुद्दों पर आम मेहनतकश लोग ही कट मरते हैं। क्या दशकों से ऐसा ही नहीं होता आया है? क्या अब भी हम शासक वर्गों के इस ट्रैप में फँसेगे? क्या हम अब भी उनके हाथों मूर्ख बनते रहेंगे? नहीं! पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एकजुट होना और इसके लिए और इसी प्रक्रिया में ब्राह्मणवाद, जातिवाद और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध समझौताविहीन संघर्ष करना – मेहनतकश जनता के पास यही एकमात्र रास्ता है!

 

मज़दूर बिगुल, दिसम्‍बर 2016


 

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