भूमण्डलीकरण को ‘मानवीय’ बनाने में जुटे संसदीय वामपंथियों का असली अमानवीय चेहरा

बिगुल संवाददाता

साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर का असली अमानवीय चेहरा छुपाया नहीं जा सकता चाहे यह अपने चेहरे को ‘‘मानवीय’’ बनाने की लाख कोशिशें कर ले। साथ ही भूमण्डलीकरण के चेहरे को मानवीय बनाने में जुटे संसदमार्गी वामपंथियों का असली चरित्र भी लोगों के सामने बिल्कुल साफ हो चुका है। पिछले एक साल में पश्चिम बंगाल के 14 चायबागानों में भुखमरी से 320 श्रमिकों की मौत से एक बार फिर यही साबित हुआ है कि अपने को आम लोगों की असली पार्टी बताने वाले संसदीय वाम के नंबरदार किस तरह इस पूंजीवादी व्यवस्था को ‘‘मानवीय’’ बनाते–बनाते खुद अमानवीय हो गये हैं। अमानवीयता की हद यह है कि राज्य की वाम मोर्चा सरकार ने भूख से मर रहे चाय बागान श्रमिकों की दुर्दशा को देखने लायक भी नहीं समझा। वहां स्थिति यह है कि अपना खून–पसीना एक करने वाले मजदूरों को रोटी–कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी चीजें भी नहीं मिल रही हैं, बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधायें तो सपना ही हैं।

प. बंगाल सरकार की यह उदासीनता स्पष्ट कर देती है कि वह अब पूंजीवादी दलों की जमात में अब पूरी नंगई के साथ आ खड़ी हुई है, भले ही चोला लाल ही क्यों न हो।

दूसरी ओर केंद्र सरकार ने इस तथ्य को तो माना है कि चाय बागान बंद हो रहे हैं पर वह भी भूख से हुई इन मौतों को मानने को तैयार नहीं। सच भी है, मौतें भुखमरी से तो हुई नहीं, डायरिया से हुई हैं! अब कोई मजदूर दस–बारह दिन भूखा रहने के बाद घास–पत्ता और नाले का पानी खा–पी ले और डायरिया से मर ही जाये तो इसमें सरकार का क्या दोष? क्या उन मजदूरों को खान–पान में स्वच्छता रखने के निदेर्शों वाले केंद्र सरकार के पोस्टर नहीं दिखें थे? नहीं ही दिखे तो मरें ससुरे अपनी मौत, सरकार के पास और तमाम काम हैं!

सरकार के बड़बोले वाणिज्य मंत्री अरुण जेटली, जो हमेशा ही विदेशी कंपनियों को सबकुछ बेचने के लिये हड़बड़ाये रहते हैं, कहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में चाय की घटती कीमतों और निरंतर बढ़ते लागत व्यय की वजह से चाय उद्योग की हालत खस्ता है। कहने का मतलब यह कि अंतर्राष्ट्रीय मंदी की वजह से मजदूरों की दुर्दशा लाजिमी है; लेकिन उनका ध्यान इस तथ्य पर क्यों नही जाता कि इस मंदी के लिये अपना खून–पसीना एक करने वाले मजदूर तो जिम्मेदार नहीं हैं, फिर क्यों उनके बच्चों को भूख से तड़पने के लिये छोड़ दिया गया है?

दूसरे, अगर यह दुर्दशा चाय उद्योग की होती तो मजदूरों के साथ इन चाय बागानों के मालिकान भी भूख से मरते। पर ऐसा नहीं है, क्योंकि यह समस्या सिर्फ और सिर्फ मजदूरों की है। मालिक तो पहले से ही मजदूरों का खून चूस–चूसकर मोटे हो चुके थे, अब सरकार भी मजदूरों को राहत पहुंचाने की बजाय चाय उद्योग के पुनरुद्धार पैकेज के नाम पर पूंजीपतियों को ही सहायता और ऋण के रूप में ब्याज सब्सिडी दे रही है। इसका सीधा मतलब यह कि सरकार मानती है कि चाय उद्योग के फिर से चल निकलने पर इन मजदूरों की हालत में सुधार आयेगा। पर क्या हमारी जनकल्याणकारी (!), राष्ट्रवादी(?) सरकारों को यह नहीं सूझता कि जब ये चाय बागान चल रहे थे तब भी इनकी हालत ऐसी ही क्यों थी? बरसों–बरस इन बागानों में खटने के बाद भी मजदूरों को खाद्य सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास जैसी बुनियादी एवं न्यूनतम गारंटियां क्यों नहीं मिल सकीं? क्या गारंटी है कि जिस भूमण्डलीकरण और आर्थिक मंदी की दुहाई देकर मजदूरों की बदहाली और भुखमरी को लाजिमी करार दिया जा रहा है, वह आगे नहीं जारी रहेगी। और क्या इससे यह चमत्कार हो जायेगा कि बरसों से मजदूरों का खून चूसने वाले पूंजीपतियों का हृदय परिवर्तन हो जायेगा।

जाहिर है कि ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा। यह पूंजीवादी व्यवस्था खुले तौर पर मानवद्रोही हो चुकी है और शोषित–उत्पीड़ित, मेहनतकश जनता को अब इससे किसी भी प्रकार की राहत की उम्मीद छोड़ ही देनी चाहिये। हमें यह बात निश्चित रूप से माननी पड़ेगी कि इस मानवद्रोही व्यवस्था में सुधारों के इस फर्जीवाड़े से अंतत: हमारा कुछ भी भला नहीं होने वाला, बल्कि ये तो पूंजीपतियों के मुनाफे को बढ़ाकर उनकी चर्बी मुटाने के प्रयास मात्र हैं।

बिगुल, फरवरी 2004


 

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