बकलमे–खुद : कहानी – नये साल की छुट्टी / मानस कुमार

इस स्तम्भ के बारे में

इस स्तम्भ के अन्तर्गत हम जिन्दगी की जद्दोजहद में जूझ रहे मजदूरों और उनके बीच रहकर काम करने वाले मजदूर संगठनकर्ताओं– कार्यकर्ताओं की साहित्यिक रचनाएं प्रकाशित करते हैं-कविताएं, कहानियां, डायरी के पन्ने, गद्यगीत आदि–आदि।

इस स्तम्भ की शुरुआत की एक कहानी है। ‘बिगुल’ के सभी प्रतिनिधियों–संवाददाताओं के अनुभव से यह जुड़ी हुई है। हमने पाया कि जो कुछ पढ़े–लिखे और उन्नत चेतना के मजदूर हैं, वे गोर्की की ‘मां’, उनकी आत्मकथात्मक उपन्यास–त्रयी और अन्य रचनाओं को तो बेहद दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं, प्रेमचंद उन्हें बेहद पसन्द आते हैं, आस्त्रोव्स्की की ‘अग्निदीक्षा’ और पोलेवेई की ‘असली इंसान’ ही नहीं, कुछ तो बाल्जाक और चेर्निशेव्स्की को भी मगन होकर पढ़ते हैं। लेकिन जब हम हिन्दी के आज के सिरमौर वामपंथी कथाकारों की बहुचर्चित रचनाएं उन्हें पढ़ने को देते हैं तो वे बेमन से दो–चार पेज पलटकर धर देते हैं। पढ़कर सुनाते हैं तो उबासी या झपकी लेने लगते हैं। यदि उन सबकी राय को समेटकर थोड़े में कहा जाये, तो इसका कारण यह है कि ज्यादातर वामपंथी–प्रगतिशील लेखक आज अपनी रचनाओं में आम आदमी की जिन्दगी की, संघर्ष और आशा–निराशा की जो तस्वीर उपस्थित कर रहे हैं, वह आज की जिन्दगी की सच्चाइयों से कोसों दूर हैं। वह या तो ट्रेनों–बसों की खिड़कियों से देखे गये गांवों और मजदूर बस्तियों का चित्र है, या फिर अतीत की स्मृतियों के आधार पर रची गयी काल्पनिक तस्वीर। नयेपन के नाम पर जो कला का इन्द्रजाल रचा जा रहा है, वह भी आम जनता के लिए बेगाना है। कारण स्पष्ट है। दरअसल इन तथाकथित वामपंथियों का बड़ा हिस्सा ‘‘वामपंथी कुलीनों’’ का है। ये ‘‘कलाजगत के शरीफजादे’’ हैं जो प्राय: प्रोफेसर, अफसर या खाते–पीते मध्यवर्ग के ऐसे लोग हैं जो जनता की जिन्दगी को जानने–समझने के लिए हफ्ते–दस दिन की छुट्टियां भी उसके बीच जाकर बिताने का साहस नहीं रखते। ये अपने नेहनीड़ों के स्वामी सद्गृहस्थ लोग हैं। ये गरुड़ का स्वांग भरने वाली आंगन की मुर्गियां हैं। ये फर्जी वसीयतनामा पेश करके गोर्की, लू शुन, प्रेमचंद का वारिस होने का दम भरने वाले लोग हैं। समय आ रहा है जब क्रान्तिकारी लेखकों– कलाकारों की एकदम नई पीढ़ी जनता की जिन्दगी और संघर्षों के ट्रेनिंग–सेण्टरों से प्रशिक्षित होकर सामने आयेगी। इन कतारों में आम मजदूर भी होंगे। भारत का मजदूर वर्ग आज स्वयं अपना बुद्धिजीवी पैदा करने की स्थिति में आ चुका है। भारत का यह नया बुद्धिजीवी मजदूर या मजदूर बुद्धिजीवी सर्वहारा क्रान्ति की अगली–पिछली पांतों को नई मजबूती देगा। आज परिस्थितियां ऐसी हैं कि हम अपेक्षा करें कि भारतीय मजदूर वर्ग भी अपना इवान बाबुश्किन और मक्सिम गोर्की पैदा करेगा। ‘बिगुल’ की कोशिश होगी कि वह ऐसे नये मजदूर लेखकों का मंच बने और प्रशिक्षणशाला भी।

इसी दिशा में, पहलकदमी जगाने वाली एक शुरुआती कोशिश के तौर पर इस स्तम्भ की शुरुआत की गयी है। मुमकिन है कि मजदूरों और मजदूरों के बीच काम करने वाले संगठनकर्ताओं की इन रचनाओं में कलात्मक अनगढ़ता और बचकानापन हो, पर इनमें जीवित यथार्थ की ताप और रोशनी के बारे में आश्वस्त हुआ जा सकता है। जिन्दगी की ये तस्वीरें सच्ची वामपंथी कहानी का कच्चा माल भी हो सकती हैं। और फिर यह भी एक सच है कि हर नयी शुरुआत अनगढ़–बचकानी ही होती है। लेकिन मंजे–मंजाये घिसे–पिटे लेखन से या काल्पनिक जीवन–चित्रण के उच्च कलात्मक रूप से भी ऐसा अनगढ़ लेखन बेहतर होता है जिसमें जीवन की वास्तविकता और ताजगी हो। हमारा यह अनुरोध है कि मजदूर साथी अपनी जिन्दगी की क्रूर–नंगी सच्चाइयों की तस्वीर पेश करने के लिए अब खुद कलम उठायें और ऐसी रचनाएं इस स्तम्भ के लिए भेजें। साथ ही प्रकाशित रचनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया भी भेजें।

इस अंक में हम एक मजदूर मानस कुमार की कहानी छाप रहे हैं।

सम्पादक मण्डल

नये साल की छुट्टी

मानस कुमार

आम तौर पर सूखे और उदास दिखने वाले मजदूरों के चेहरे उस दिन खिले हुए थे। नया साल जो आया था। हालांकि यह खुशी नया साल आने की उतनी नहीं थी, जितनी इस बात से थी कि साल के पहले दिन की तरह आज दूसरे दिन भी एक तरह से छुट्टी ही थी। हालांकि वे आज कम्पनी आये हुए थे, पर काम करने नहीं, बस मालिक का भाषण सुनने। भाषण के बाद छुट्टी हो जानी थी।

मजदूरों की यह खुशी उन कोल्हू के बैलों की खुशी थी जिन्हें किसी कारणवश एक दिन कोल्हू में न जोता गया हो। ऐसे शुभ दिन वे खुशी के मारे उछलकूद करते हैं, कुलांचे भरते हैं और रह–रह कर एक–दूसरे को चूमते–चाटते हैं।

नये साल के ऐसे ही शुभ अवसर पर कम्पनी में काम करने नहीं, बस मालिक का भाषण सुनने आये मजदूर एक–दूसरे को तरह–तरह से शुभकामनाएं दे रहे थे। कुछ हाथ मिलाकर तो कुछ गले मिलकर। इसके अलावा कुछ मजदूर आपस में हंसी–मजाक भी कर रहे थे। कुछ मजदूर एक जगह इकट्ठे होकर बारी–बारी से फिल्मी गाने गा रहे थे। एक टोली के मजदूर एक ऐसी मशीन को हाथ में उठाये हुए थे जिसकी आकृति माइक जैसी थी। उसके पीछे बिजली के तार से थोड़ी सी मोटी हवा फूंकने की पाइप जुड़ी हुई थी। बारी–बारी से मजदूर उसे मुंह के सामने लाते और कुछ चुटकुले या शेरो–शायरी सुना कर हंसते तथा तालियां बजाते। गीत गाने वाली टोली चुटकुले सुनाने वाली टोली से ज्यादा जोर से हंस और तालियाँ बजा रही थी। कुछ देर बाद चुटकुले व शेरो–शायरी कहने वाली टोली गीत गाने वाली टोली में मिल गयी। देखते–देखते कम्पनी के सारे मजदूर वहीं इकट्ठे हो गये। हर चेहरे पर हंसी–खुशी की वजह थी। आज उनके कंधे से दिन–रात मेहनत करने वाला जुआ उतरा जो हुआ था।

मजदूरों की यह खुशी कम्पनी का जी.एम. सहन नहीं कर पाया। थोड़ी देर बाद वह घूमता हुआ मजदूरों की गीत गाती हुई टोली के पास आया। पहले उसने गीत का आनन्द लिया, फिर टोली को तितर–बितर कर दिया। जी.एम. ने आदेश दिया कि सभी अपनी–अपनी काम की जगह पर चले जाओ। मजदूरों के चेहरे फिर से उदास हो गये और वे अपने–अपने काम पर चले गये।

फैक्टरी की छत पर मालिक के भाषण का इंतजाम किया जा रहा था। लाइनों में कुर्सियां बिछाईं गईं। इन पर कम्पनी के स्टाफ को बैठना था। दूसरी तरफ टाट व दरी बिछाई गई, जिन पर मजदूरों को बैठना था। सामने गद्दे वाली कुर्सियां, मेज तथा मेज पर फूलों का गुलदस्ता रखा गया। पास में एक छोटी मेज पर दिया जलाने वाला स्टैण्ड रख दिया गया। उसके तीन तरफ कांच की दीवार खड़ी कर दी गयी ताकि जब दीयों को जलाया जाये तो हवा लग कर बुझ न जाये। गद्देवाली कुर्सियों पर उन रेंगते हुए, पिलपिले, तोंदियल, परजीवी कीड़ों (फैक्टरी मालिकों) को बैठना था।

दोपहर बाद मजदूर ऊपर आकर बिछाये गये टाट–दरी पर बैठकर मालिक का इंतजार करने लगे। बड़े आफिसर मैनेजर मालिक के स्वागत के लिए भाग–दौड़ करने लगे। सीढ़ियों से लेकर कुर्सियों तक कालीन बिछाई गई ताकि उन परजीवियों के पैरों में पक्के फर्श पर चलने से कोई तकलीफ न हो जाये। रास्ते में दोनों तरफ बड़े–बड़े फूलों के गुलदस्ते रखे गये। जब मालिकों की गाड़ियां फैक्टरी के अन्दर पहुंची तो मैनेजमेंट में और ज्यादा खलबली मच गई। हर छोटी से छोटी चीज को सही ढंग से व्यवस्थित करने लगे। बड़े ओहदे के मैनेजर दौड़कर मालिकों की गाड़ियों के पास एक दूसरे के पीछे दौड़ते हुए पहुंचे। उनके बीच इस बात की होड़ लगी थी कि दूसरा मैनेजर मेरे से पहले मालिकों को सलाम ठोंक दे। गाड़ियों से कुछ आदमी उतरे। दो फैक्टरी मालिक, दो उनके लड़के और दो उनके चीफ। इन मालिकों की कुल 7, 8 फैक्टरियां हैं। ये दोनों चीफ सभी फैक्टरियों के मैनेजरों के ऊपर हैं और उनकी देखरेख करते हैं।

सलाम ठोंकने के लिए मची भगदड़ को मालिकान ने निर्विकार भाव से देखा। आखिरकार सभी मैनेजरों ने आगे–पीछे सलाम ठोंकी। फिर वे मालिकान के पीछे–पीछे चलने लगे। सभी छत पर पहुंचे। सबसे आगे मालिक, उनके पीछे उनके लड़के, तीसरे नम्बर पर चीफ, सबसे पीछे मैनेजर तथा आफिसर थे। वे सभी दुलहन सी नपी-तुली चाल में लेकिन थोड़ी अकड़ के साथ चलते हुए आये। फोटोग्राफर कभी सामने से, कभी दायें तथा कभी बायें से फोटो खींचता हुआ चल रहा था। साहब लोगों के सभा में पहुंचते ही कुर्सियों पर बैठा फैक्टरी का अन्य स्टाफ व सभी मजदूर स्वागत के लिए उठ खड़े हुए। पहले कुर्सियों पर मालिक बैठे फिर उन्होंने मजदूरों की तरफ बैठने का इशारा किया। सभी लोग अपने–अपने स्थान पर बैठ गये। इतने में एक सुअर जैसा चर्बीला तोंदियल आदमी (एक आफिसर) अलग से माइक लेकर और कुछ कागज हाथ में लिये हुए आगे आया। वही कागज पढ़कर बोलने लगा। ‘‘मैं एम.डी. साहब से प्रार्थना करता हूं कि बारी–बारी से आयें और दीपक जलाकर नये वर्ष की शुभकामनाएं दें।’’ सबसे पहले बड़ा मालिक फिर दोनों लड़के तथा दोनों चीफ सभी ने दो–दो दीपक जलाये और मजदूरों ने तालियां बजायीं। सभी अपने–अपने स्थान पर बैठ गये। इसके बाद तोंदियल आफिसर ने दो महिला मजदूरों व चार पुरुष मजदूरों को आगे बुलाया और मालिकों को फूलों का गुलदस्ता भेंट करने का आदेश दिया। महिला मजदूरों ने दोनों मालिकों और पुरुष मजदूरों ने दोनों लड़कों और चीफों को गुलदस्ते दिये। इसके बाद मोटे आफिसर ने फिर से बोलना शुरू किया।

‘‘मैं चीफ साहब गर्ग जी से गुजारिश करता हूं कि मंच पर आकर अपने विचार रखें।’’ स्टेज संचालक मोटा आफिसर अपने स्थान पर पहुंच गया। चीफ खड़ा होकर बोलने लगा। ‘‘सबसे पहले मैं अपनी तरफ से तथा डायरेक्टर खन्ना साहब की तरफ से फैक्टरी के सभी मजदूरों को नये वर्ष की शुभ कामनाएं देता हूं। आने वाला वर्ष सबके लिए मंगलमय हो।’’ फिर वह अपने हाथ में लिए हुए कागज को पढ़ने लगा। ‘‘साथियो, आप सभी ने अबकी बार बहुत मेहनत और लगन से काम किया है। कम्पनी ने पहले से बहुत ज्यादा प्रगति करी है। अक्टूबर माह में 6 करोड़ का फायदा हुआ।’’ यह सुनते ही मजदूरों ने जोर–जोर से तालियां बजाई। ‘‘नवम्बर माह में 7 करोड़ का फायदा हुआ। इतना फायदा पहले कभी नहीं हुआ, अबकी बार तो रिकार्ड कायम किया है।’’ मजदूर और भी जोर से तालियां बजाने लगे। खुशी के मारे चेहरे लाल हो रहे थे। उनकी मेहनत जो थी। परन्तु सबसे ज्यादा खुशी इस बात की थी कि सभी मजदूर यह सोच रहे थे कि अबकी बार तो हमें भी कुछ मिलेगा। हमारी तनख्वाह बढ़ाई जायेगी। इस महंगाई में कुछ गुजारा तो चल सकेगा। चीफ ने अपना कागज मोड़कर जेब में डाला तथा बोलने लगा। ‘‘आप लोगों ने मेहनत तो की है परन्तु इसमें ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। हमने इसी में संतोष नहीं रखना है। हमने तो काफी आगे बढ़ना है बहुत ऊंची छलांग लगानी है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि सीधे ही आसमान पर पहुंच जाओ! नहीं, रास्ते में मजबूत सीढ़ियों की जरूरत है और वे सीढ़ियां हैं आपकी मेहनत, लगन, स्वच्छता–मतलब काम में सफाई। मैं पिछले दिनों ऋषि खन्ना जी के साथ कोरिया गया था। मैंने देखा वहां के मजदूरों के काम में सफाई तुम से ज्यादा, लगन तुम से ज्यादा, मेहनत और ईमानदारी भी तुमसे ज्यादा। जबकि उनकी तनख्वाह तुम्हारे से ज्यादा नहीं, केवल तुम्हारे जितनी ही थी। इसलिए आप लोगों को और भी मेहनत तथा लगन से काम करने की जरूरत है। बस अब मैं अपनी बात खत्म करता हूं।’’

मजदूर उसकी बात सुनकर सन्न रह गये और एक–दूसरे का चेहरा देखने लगे। इसके बाद मंच संचालक ने फिर मंच संभाला। फैक्टरी मालिक को मंच पर आकर अपने विचार रखने के लिए आमंत्रित किया। वह लम्बी–चैड़ी कद–काठी का आदमी था जिसका दयनीय और लाल चेहरा था। वह खड़ा होकर माइक के पास आया। माइक उसके मुंह से कुछ नीचे था। माइक आपरेटर ने उसे कुछ ऊपर किया, ठीक उसके मुंह के पास। अब वह बोलने लगा। ‘‘तुम लोगों ने मेहनत और लगन से जो काम किया है मैं उसका धन्यवाद करता हूं। गर्ग जी ने अभी और मेहनत से, लगन से, सफाई तथा श्रेष्ठता से काम करने की जो बात कही है वह सही है। यह भी सही है कि अभी हमने संतोष नहीं रखना है, हमें तो काफी आगे बढ़ना है। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बहुत ज्यादा मेहनत की जरूरत है। नहीं, बस थोड़ी सी और ज्यादा मेहनत की जरूरत है। आप तो जानते ही हैं कि विदेशी कम्पनियां यहां बहुत सी आ गई हैं। कम्पनियों में आगे बढ़ने की आपस में होड़ लगी हुई है। ऐसे समय में छोटी कम्पनी बड़ी के सामने टिक नहीं पा रही है। भले ही आप और हम किसी से कमजोर नहीं हैं, हमारा सारा माल विदेशों में जाता है। और मांग भी बनी रहती है, अच्छी पोजीशन है हमारी। परन्तु हमने यह नहीं समझकर बैठ जाना है कि हम ताकतवर हैं बल्कि हमने अपने को कमजोर समझकर काम करना है, मेहनत करनी है। हमारा केवल मुकाबले में डटे रहने का ही मकसद नहीं है। बल्कि दो कदम आगे बढ़ना है। हम आगे कैसे बढ़ सकते हैं? मेहनत, लगन, स्वच्छता, श्रेष्ठता से, ईमानदारी से।

क्या आपको श्रेष्ठता का मूल मंत्र याद है, जो हमने आपके काम करने की जगहों पर बैनर बनवाकर लगवा रखे हैं। मैं उसे तुम्हारे सामने फिर दोहरा देता हूं। ‘‘श्रेष्ठता क्या है : हर काम में एकात्मता, हर काम में लगन।

श्रेष्ठता क्यों : श्रेष्ठता में सम्मान, श्रेष्ठता में सफलता। श्रेष्ठता में सम्पत्ति।

श्रेष्ठता कैसे : हर काम में लगन, हर काम में ईमानदारी, व्यवहार में मधुरता, वाणी में माधुर्य। (श्रेष्ठता लाओ, खुशहाली पाओ)

कार्य को हर समय, हर वक्त करते रहने की आदत डालनी चाहिए।

‘‘यह है श्रेष्ठता का मूलमंत्र। हमारा काम है समझाना।

‘‘और तुम्हारा काम है समझना तथा उसे अपने पर लागू करना। आज नये साल का दूसरा दिन है। कल एक तारीख की छुट्टी थी और आज भी तुम घर जल्दी चले जाओगे। हमें पता है, तुम हर रोज देर रात घर जाते हो और सुबह होते ही कम्पनी आ जाते हो। तुम्हें जरा सा भी कुछ सोचने–समझने का टाइम नहीं मिलता, मुझे अच्छी तरह पता है। तुम खाना भी बड़ी मुश्किल से खा पाते होगे, थककर बिस्तर पर लेट जाते होगे। मुझे पता है। परन्तु आज तो तुम्हारे पास समय है। शाम को बैठकर मेरी बात पर विचार करने का, मेरी बात पर अमल करने का। मेरी तुम सभी से प्रार्थना है कि मेरे कहने से तुम आज बैठकर सोचना कि हमारी कम्पनी आगे कैसे बढ़ सकती है? माल ज्यादा तैयार कैसे हो सकता है? काम में सफाई कैसे आ सकती है। हमारी समस्या तुम सभी की समस्या है, कम्पनी की समस्या है, स्टेट की समस्या है और देश की समस्या है, देश का नुकसान है। अगर फायदा है तो कम्पनी का फायदा है, स्टेट का फायदा है, देश का फायदा है। इसलिए आप मेरे कहने पर सोने से पहले जरूर सोचना कि समस्या का हल क्या हो? बस फिर क्या है, हम आगे बढ़ते जायेंगे, कम्पनी आगे बढ़ेगी, स्टेट आगे बढ़ेगी, देश आगे बढ़ेगा, देश का नाम होगा। मैं तुम्हें एक उदहारण दे रहा हूं। बात सच है, हो सकता है कि मेरी बात से तुम्हारे दिमाग पर अच्छा प्रभाव पड़े और मेरी बात मान लो। ‘‘पिछले दिनों मैं इजरायल गया था। वह यहूदियों का छोटा सा देश है। उसकी कुल जनसंख्या दिल्ली की जनसंख्या के बराबर है। वहां न तो पानी है न कोई खेती करने का अच्छा साधन। धरती भी इतनी उपजाऊ नहीं। वे लोग लकड़ी बेचकर अपना गुजारा करते थे। वहां विज्ञान ने भी इतनी तरक्की नहीं करी। परन्तु आज वही दुनिया का पहला ऐसा देश है जो विदेशों में रंग–बिरंगे फूलों का निर्यात करता है। वह अब दुनिया के लिए एक तोहफा है। उसके पास क्या था–सिर्फ आत्मविश्वास, मेहनत और लगन। देश को आगे बढ़ाने की भूख थी। तुम्हें अन्दर भी उसी तरह की भूख की जरूरत है।

‘‘वहां पर हमारी 200 आदमियों की एक मीटिंग हुई जिसमें अलग–अलग देशों के लोग थे। वहां एक बात चल पड़ी। मीटिंग में बैठे हुए आदमियों से पूछा गया कि आप लोगों को किस देश के पदार्थ (माल) ज्यादा पसन्द हैं और कितने लोगों को पसन्द है। अमेरिका का नाम लिया गया। 60 आदमियों के हाथ ऊपर उठे। चीन का नाम लेने पर 150 लोगों के हाथ ऊपर रहे। जापान की बारी आयी, पूरे 200 के 200 आदमियों के हाथ ऊपर खड़े हुए। पर जब भारत का नाम लिया गया तो एक भी आदमी का हाथ नहीं उठा। जानते हो क्यों? क्योंकि यहां और देशों जैसी तरक्की नहीं है। यहां के लोग पढ़–लिखकर वैज्ञानिक बनकर विदेशों में चले जाते हैं। उनको विदेशियों ने खरीद लिया है। भारत के लोग वहां जाकर नई-नई खोज करते हैं। नाम विदेशों का होता है। अरे, भारत तो वह देश है जो औरों को सिखाता है। क्यों नहीं भारत के लोग भारत में ही रहकर काम करें। नई-नई खोज यहां पर ही करें। जैसे हमारी कम्पनी के एक मजदूर ने, क्या नाम है उसका बताना जरा!’’ मजदूरों ने बताया ‘समेलाल’। ‘‘हां, हमने यहां एक ऐसा माल तैयार किया है जो उन लोगों (दूसरे देशों) के पास भी नहीं है, और अगर है भी तो बहुत महंगा पड़ता है।’’

मालिक की यह बात सुनकर एक मजदूर ने जिसका नाम कालू था अपने आगे बैठे मजदूर साथी को पीछे खींचा और उसके कान में धीरे से कहने लगा। ‘‘जानते हो यासीन 19–20 साल की नौकरी के बाद भी समेलाल को कितने पैसे मिलते हैं? नई खोज करने के बाद भी, केवल 3500 रु.। और उसके तीन बच्चे हैं। कम्पनी को इतनी ऊंचाई पर पहुंचाने पर भी यह साला उसका नाम तक नहीं जानता। रही इस देश में तरक्की की बात तो सुई से लेकर हवाई जहाज, राकेट, एक से बढ़कर एक खतरनाक हथियार, अनाज, कपड़ा, मोटरगाड़ी, कम्प्यूटर सभी कुछ तो है यहां, फिर कौन–सी तरक्की की कमी रह गई? हां एक तरक्की की कमी रह गई है यहां। वह है हमारी हड्डियां भी बेच खाने की तरक्की। देखो यह हमें कैसे उल्लू बना रहा है।’’

मालिक बोलता जा रहा था। ‘‘जब वहां मीटिंग में यह सवाल पूछा गया कि किस देश के आदमी सबसे ज्यादा पसन्द है। अमेरिका के लोग कितने लोगों को पसन्द है? कुल 60 हाथ ऊपर उठे। चीन का नाम लिया गया तो लोगों के हाथ ऊपर उठे। जापान का नाम लेने पर 70 हाथ ऊपर उठे। और जब भारत का नाम लिया गया तो पूरे 200 लोगों के हाथ ऊपर थे। जब यह पूछा गया कि भारत के लोग क्यों पसन्द हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि भारत के लोग अपनी पुरानी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। अपने बड़ों का आदर करते हैं। अपने सीनियरों के सामने आवाज नहीं उठाते। अपने पुराने संस्कारों को नहीं छोड़ते। इसलिए पसन्द है भारत के लोग। तुम लोगों को भी अपने से ऊपर वाले बॉस का आदर–सम्मान करना चाहिए। इनका कहना तुरन्त करना चाहिए। ‘‘और हां ‘काम करो, फल की चिन्ता मत करो’। यह तो हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी गीता के उपदेश में आता है।’’

मालिक की बात सुनकर मजदूर कालू सिंह का चेहरा लाल हो गया। उसने फिर यासीन अली को कंधे पर हाथ रखकर पीछे खींचा और धीरे से परन्तु क्रोधित होकर कहने लगा। ‘‘देख रे, ये साला हमें कैसे चक्र में फंसा रहा है। ये चाहता है कि हम पुराने जमाने में जिएं। जबकि जमाना आगे बढ़ रहा है। ये हमें पीछे धकेल रहा है। वहीं जाति–धर्म के चक्र में फंसे रहें, एक–दूसरे को मारते–काटते रहें। और क्या बात कही है इस जहरीले नाग ने? ‘कर्म करो, फल की चिन्ता मत करो’। मतलब हम सुबह से शाम तक काम करते रहें। जब शाम को भूख लगे तब ईंट और पत्थर खाकर भूख शांत करें, क्यों? भूख लगे तो रोटी की चिन्ता ही न करें सिर्फ इसके लिए कमाते रहें। चलो साथी इसके मुंह पर थूकेंगे।’’ लखबीर ने उसे रोक दिया ‘‘ठहरो यार अभी इसकी सारी बात ध्यान से सुनो। यह क्या कह रहा है। वे दोनों चुप हो गये। मालिक बोलता ही जा रहा था।

‘‘जब मैं पिछले दिनों चीन गया था तो वहां के मजदूरों का काम देखा। वाह, क्या काम करते हैं वहां के मजूदर! और तुम लोगों से ज्यादा पैसे भी नहीं लेते। लेकिन तुम से ज्यादा मेहनत, सफाई। आठ घण्टे में तुमसे ज्यादा माल तैयार करते हैं। वहां के कानून को तो देखो, क्या कमाल है। जो जवान मजदूर हैं उन्हें 4–5 साल तक तो घर ही नहीं जाना है। शादी के दो साल बाद तक भी नहीं। दो साल तक अपनी पत्नी को भी नहीं मिलना।’’ यह बात सुनकर बीच में बैठा एक मजदूर हंसने लगा। मालिक उसे घुड़कते हुए बोला, अबे हंस मत, बात हंसने की नहीं है, ध्यान में रखने की है और अपने पर लागू करने की है। ध्यान से सुन। वहां के मजदूरों को 24 घण्टे कम्पनी में ही रहना है। वहीं उनको रहने के लिए कमरे मिले हुए हैं। रात को 10–11 बजने पर खाना खाते हैं। तब जाकर सोते हैं। फिर सुबह उठकर, नहा–धोकर, नाश्ता करके ड्यूटी पर पहुंच जाते हैं। अगर वह इन 4–5 सालों में घर जायेगा तो नौकरी छोड़नी पड़ेगी, दूसरी जगह मिलेगी भी नहीं। ‘‘वहां कोई हड़ताल भी नहीं कर सकता। जो कानून तोड़ता है उसे गोली मार दी जाती है। और तुम, तुम तो घर भी जाते हो, यहां से निकालोगे तो दूसरी जगह नौकरी भी मिल जायेगी। अपना रोजगार भी कर सकते हो। परन्तु वहां ऐसा नहीं है। हां तुम तो कानून भी तोड़ लेते हो, तुम्हें कोई डंडा भी नहीं मारता। हड़ताल भी कर लेते हो, नेता बनकर भी आगे आते हो! जैसे यहां पिछले दिनों कुछ गलत तरीके के आदमी नेता बनकर आये थे। बहका लिया था तुम लोगों को। तुम्हें गलत लीडरशिप मिली थी। लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? उन्हें बाहर कर दिया गया। उनका साथ देने वालों को भी।’’

उसके चेहरे पर अहंकार था। दृढ़ता से कहने लगा, ‘‘अब की बार फिर कोई नेता बनकर आया तो वह भी बाहर मिलेगा हूं–हूं–हूं–हूं–हूं।’’ वह व्यंग्य करके हंसा और जोर का झटका धीरे से मार गया। अपनी खतरनाक बात को धीरे से समझा गया।

‘‘और हां, तुम्हें अब अच्छे नेता मिले हैं, तुम्हारे नये नेता चीफ साहब, जी एम साहब तुम्हारे अच्छे लीडर हैं। तुमसे सही ढंग से काम करवाते हैं। तुम्हें भी खुद अपने आप मेहनत करनी चाहिए।’’ बस मुझे यही कहना था!

फैक्ट्री मालिक की बातें सुनकर कालू सिंह को गुस्से के मारे चैन से बैठा नहीं जा रहा था। उसने लखबीर सिंह को फिर खींचा और बोला ‘‘चल ओए, वह साला हमें कमजोर समझता है। उसको दो हाथ दिखा ही दें। उसे अभी छत से नीचे फेंकेंगे।’’ वह उठने की कोशिश करने लगा। परन्तु यासीन अली ने उसे रोक लिया। ‘‘नहीं कालू उसे पीटने से या मारने से क्या होगा? हमारी गुलामी थोड़े ही खत्म हो जायेगी और फिर यह समस्या हम दोनों की ही नहीं है। सभी मजदूरों की है। यासीन कुछ जागरूक मजदूर लग रहा था। ‘‘अरे, हम सभी को इसके बारे में सोचना होगा। फिर से संगठित होना होगा।’’ कालू बोलने लगा। ‘‘लेकिन संगठित होगा कौन? सब तो अलग–थलग पड़ गये हैं। पिछली हार के कारण।’’ नहीं साथी वह हमारी हार नहीं हुई है। बल्कि कुछ समय के लिए बीमार हुए हैं। हार तो होती रहती है। हार होकर ही जीत होती है। जानते हो महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रमण किया था। 17 बार हारकर 18वीं बार जीता था। इसलिए हमें भी इस बात से सबक लेना होगा। अबकी बार बड़ी सावधानी बरतनी पड़ेगी। सभी मजदूरों को फिर से इकट्ठा होना ही पड़ेगा।’’ वे दोनों फिर चुप होकर सुनने लगे। मालिक अभी बोलता ही जा रहा था

‘‘अब कुछ मजदूरों को हमने इनाम देने हैं।’’ यह सुनते ही मोटा स्टेज संचालक अफसर आगे आया। बारी–बारी से मजदूरों के नाम बोलने लगा। ऊपर के स्टाफ की एक औरत पहले से इनाम के पैकेट लिए तैयार खड़ी थी। उसने एक–एक करके मालिक को इनाम के पैकेट दिये और मालिक मजदूरों के हाथ में देता गया। जिन मजदूरों की 20 साल की नौकरी हो गई थी, उनको केवल 4000 रु., 15 साल वाले को 3000 रु. और 10 साल वाले को 2000 रु. दिये गये। इसके बाद जो मजदूर स्टार चुने गये थे उन्हें 500 रुपये जिसकी पूरे साल की हाजिरी सबसे अधिक थी उसे भी 5000 रु. दिये गये।

इनाम बांटते समय मजदूरों को तालियां बजाने का इशारा किया गयां मजदूरों ने दो–चार बार धीरे–धीरे तालियां बजाईं। फिर बंद कर दीं। अब केवल मालिक के एक लड़के की ताली बजती सुनाई दे रही थी।

‘‘आज का प्रोग्राम अच्छा रहा’’ मालिक ने बोलना शुरू किया। ‘‘अब सभी मेरे साथ बोलेंगे, (राधे–राधे, राधे–राधे, राधे–राधे)! मुझे पता है, अब तुम्हें चाय का बहुत इंतजार हो रहा है। जाओ अब बैठे क्यों हो, कहीं चाय ठण्डी न हो जाये।’’

मालिक ने जाते–जाते मजदूरों पर एक तमाचा और जड़ दिया। जैसे मजदूरों ने कभी चाय देखी ही न हो।

बिगुल, फरवरी 2004


 

‘मज़दूर बिगुल’ की सदस्‍यता लें!

 

वार्षिक सदस्यता - 125 रुपये

पाँच वर्ष की सदस्यता - 625 रुपये

आजीवन सदस्यता - 3000 रुपये

   
ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीऑर्डर के लिए पताः मज़दूर बिगुल, द्वारा जनचेतना, डी-68, निरालानगर, लखनऊ-226020 बैंक खाते का विवरणः Mazdoor Bigul खाता संख्याः 0762002109003787, IFSC: PUNB0185400 पंजाब नेशनल बैंक, निशातगंज शाखा, लखनऊ

आर्थिक सहयोग भी करें!

 
प्रिय पाठको, आपको बताने की ज़रूरत नहीं है कि ‘मज़दूर बिगुल’ लगातार आर्थिक समस्या के बीच ही निकालना होता है और इसे जारी रखने के लिए हमें आपके सहयोग की ज़रूरत है। अगर आपको इस अख़बार का प्रकाशन ज़रूरी लगता है तो हम आपसे अपील करेंगे कि आप नीचे दिये गए बटन पर क्लिक करके सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग भी करें।
   
 

Lenin 1बुर्जुआ अख़बार पूँजी की विशाल राशियों के दम पर चलते हैं। मज़दूरों के अख़बार ख़ुद मज़दूरों द्वारा इकट्ठा किये गये पैसे से चलते हैं।

मज़दूरों के महान नेता लेनिन

Related Images:

Comments

comments