सागर में लाल झण्डा – ‘लेनिन कथा’ से एक अंश

गर्मियाँ ख़त्म होने को आ रही थीं। एक दिन जेनेवा में उल्यानोवों के घर की घण्टी बजी।
”वोलोद्या, तुमसे मिलने कोई आये हैं,” नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना ने एक अपरिचित नौजवान के लिए दरवाज़ा खोलते हुए कहा।
नौजवान का चेहरा गोल और किशोरों की तरह भोला था और काली भौंहों के नीचे भूरी, उजली आँखें उत्सुकता और ¯कचित आश्चर्य से देख रही थीं।
”आइये, आइये! आप से मिलकर हमें बहुत ख़ुशी हुई है,” नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना ने कहा और मन ही मन सोचने लगी : ”कितना प्यारा नौजवान है! चेहरा बताता है कि निश्छल और नेक है। ज़रूर रूस से आया होगा।”
रूस में मज़दूरों की हड़तालें, प्रदर्शन, वगै़रह अभी जारी थे। वतन से बोल्शेविक व्लादीमिर इल्यीच से सलाह लेने प्रायः आया करते थे।
नदेज़्दा कोन्स्तान्तिनोव्ना के पीछे-पीछे नौजवान ने लेनिन के कमरे में प्रवेश किया। मगर कमरे में पैर रखने से पहले दहलीज़ पर उसने सैनिकों की तरह हलके से अपनी छाती को तान लिया था।
”आप कहाँ से हैं?” व्लादीमिर इल्यीच ने मुस्कुराते हुए पूछा।
”मैं युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ का जहाज़ी अफानासी मात्यूशेन्को हूँ।”
आगन्तुक ने जवाब दिया।
व्लादीमिर इल्यीच ने तेज़ी से आगे बढ़कर बड़े उत्साह से उससे हाथ मिलाया।
”क्रान्तिकारी ‘पोत्योम्किन’ के जहाज़ियों के नेता! नाद्यूशा, देखो तो कितने युवा हैं!…”
आधे घण्टे बाद स्पिरिट के चूल्हे पर तामचीनी की केतली खौल रही थी। मेज़ पर स्वादिष्ट रोटी और ताज़ा, पीला मक्खन रखा था।
”हाँ, तो बताइये, आप क्या बताने जा रहे थे,” जब अतिथि चाय के साथ रोटी के कुछ टुकड़े खा चुका तो व्लादीमिर इल्यीच ने बेसब्री के साथ पूछा।
जहाज़ी अप़फानासी मात्यूशेन्को अपने युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ की कहानी सुनाने लगा।

यह हाल ही में निर्मित और अत्यन्त शक्तिशाली तोपों से लैस सबसे बड़ा जहाज़ था। उसमें सात सौ चालीस जहाज़ी काम करते थे। उस समय वह सेवास्तोपोल में लंगर डाले हुए था।
रूस में हर कहीं क्रान्ति का ज्वार आया हुआ था। गाँवों में किसान ज़मींदारों के खि़लाफ़ उठ खड़े हुए थे। रूसी-जापानी यु( अभी ख़त्म नहीं हुआ था। जापानी जीत रहे थे और रूसियों को एक के बाद एक करारी हार खानी पड़ रही थी। त्सूसीम्स्की खाड़ी में हमारे जहाज़ों की एक पूरी टुकड़ी नष्ट हो गयी थी। ज़ारशाही सरकार सड़ी हुई और संकटग्रस्त थी। जनता ज़ार निकोलाई द्वितीय से नफ़रत करती थी।
युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ का कमाण्डर बहुत ही क्रूर और निर्दयी आदमी था। उसे डर था कि कहीं क्रान्ति की आग जहाज़ पर भी न फैल जाये। इसलिए वह सामरिक अभ्यास के बहाने युद्धपोत को सेवास्तोपोल से, मज़दूर हड़तालों और प्रदर्शनों से दूर समुद्र में ले गया।
खुले समुद्र की बात है। एक दिन सुबह घण्टी बजने पर सभी जहाज़ी उठे। सबको उनका काम बाँट दिया गया। जहाज़ियों के एक बड़े दल को डेक धोने का काम सौंपा गया।
अचानक वे पाते हैं कि ऊपरी डेक से असह्य बू आ रही है। जहाज़ी ऊपर चढ़े, तो देखते हैं कि वहाँ खूँटियों पर गोश्त लटका हुआ है और उसमें मोटे-मोटे सफ़ेद कीड़े रेंग रहे हैं। कीड़े इतने अधिक थे कि लगता था कि गोश्त ख़ुद-ब-ख़ुद हरकत कर रहा है। यह दृश्य देखकर जहाज़ियों को उबकाई आने लगी।
”तो यह है हमें खिलाने के लिए!”
”हम कीड़े नहीं खायेंगे, ख़ुद अफ़सर लोग खायें इन्हें!”
”कौन? अफ़सर? अरे, उनके लिए तो अलग राशन है!”
दिन के खाने की घण्टी बजी। जहाज़ी खाने के हॉल में इकट्ठा हुए। रसोइये ने सूप परोसा, तो उसमें भी कीड़े तैर रहे थे।
”हम नहीं खायेंगे!”
सारे हॉल में एक भयावह-सी ख़ामोशी छा गयी। रसोइये ने डरकर अफ़सर को बुलाया। वह आते ही गालियाँ देने लगा, पर ज्यों ही जहाज़ियों के सफ़ेद, कठोर चेहरों पर नज़र पड़ी, तो एकाएक चुप हो कमाण्डर को बताने चल दिया। शीघ्र ही नगाड़े की आवाज़ सुनायी दी। यह जनरल लाइन-अप का संकेत था। जहाज़ी हड़बड़ाते हुए ऊपरी डेक की ओर दौड़े और लाइन बाँधकर खड़े हो गये। चारों तरफ़ नीला समुद्र था और ऊपर खुला, शुभ्र आसमान। समुद्र में छोटी-छोटी लहरें उठ रही थीं। उनमें डोलफि‍नों के झुण्ड खेल रहे थे।
”तुम लोग बग़ावत करते हो!” कमाण्डर चिल्लाया। ”मैं तुम्हें दिखाता हूँ कि सैनिक पोत पर बग़ावत कैसे की जाती है! किसने उकसाया है?”
जहाज़ी चुप, बुत की तरह खड़े रहे। सामने बन्दूक़ें ताने सन्तरियों की क़तार थी।
”तिरपाल लाओ!” कमाण्डर ने आदेश दिया।
क्या मतलब था इसका? इसका मतलब था कि कमाण्डर ने बग़ावत उकसाने वालों को प्राणदण्ड देने का निश्चय कर लिया है। वह उँगली दिखाकर कहेगा : ”तुमने उकसाया था” और बस।
तिरपाल लाकर डेक पर खोल दी गयी। अभी उससे जहाज़ियों को ढँक देंगे। उसके नीचे होने का मतलब था प्राणदण्ड। बिना किसी सुनवाई के प्राणदण्ड!
सभी सकते में आ गये। मौत अब आयी, तब आयी…बचाव कोई नहीं था। चारों तरफ़ नीला समुद्र था, गर्म धूप से आलोकित आसमान था, निर्बाध हवा थी।
सहसा क़तार से एक जहाज़ी आगे उछला :
”भाइयो! कब तक सहेंगे? हथियार उठाओ, भाइयो!”
और सबसे आगे-आगे शस्त्रागार की तरफ़ लपक पड़ा। यह अफानासी मात्यूशेन्को था। साथी उसे वैसे भी बहुत अशान्त स्वभाव कहा करते थे।
”जल्लाद कमाण्डर मुर्दाबाद!” मात्यूशेन्को चिल्लाया। ”ज़ार मुर्दाबाद! आज़ादी ज़िन्दाबाद, साथियो!”
क़तारें टूट गयीं। जहाज़ियों ने बन्दूक़ें उठा लीं।
सीनियर अफ़सर ने बुर्जी के पीछे छिपकर पिस्तौल दाग़ी। गोली जहाज़ियों के नेता, बोल्शेविक, अटल और साहसी साथी वाकूलिन्चूक को लगी। वह गिर गया।
”अच्छा, तो यह बात है! लो, तुम भी लो!” पागल की तरह चिल्लाते हुए मात्यूशेन्को ने अफ़सर को भी मौत के घाट उतार दिया।
सभी जहाज़ी गुस्‍से से बौखला उठे थे। उन्होंने कुछ और अफ़सरों को भी, ख़ास तौर से जिनसे उन्हें बहुत नफ़रत थी, गोली से उड़ा दिया और समुद्र में पफेंक दिया। जल्लाद कमाण्डर जान बचाने के लिए छिप गया। किन्तु जहाज़ियों ने उसे भी खोजकर समुद्रार्पण कर दिया।
युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ आज़ाद था। पर आगे क्या हो? जहाज़ का कमाण्डर कौन बने? जहाज़ आगे कहाँ जाये?
अफानासी मात्यूशेन्को के नेतृत्व में एक कमीशन नियुक्त किया गया और यह फैसला हुआ कि ओदेस्सा की ओर बढ़ा जाये। मस्तूल पर अब ज़ारशाही के झण्डे की जगह अपना, क्रान्तिकारी झण्डा फहरा रहा था। यह 14 जून, 1905 की घटना है।
लाल झण्डा पफहराये हुए युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ पूरी रफ्ऱतार से ओदेस्सा की ओर बढ़ने लगा। लाल झण्डा हवा में लहरा रहा था, प्रकाशस्तम्भ की तरह चमक रहा था, स्वाधीनता संघर्ष के लिए जहाज़ियों का आह्नान और मार्गदर्शन कर रहा था।
जहाज़ ने जब ओदेस्सा में लंगर डाला, तो रात हो चुकी थी। उसकी सर्चलाइटों ने अँधेरे को टटोला। चकाचौंध करने वाले उजाले ने काले सागर और नगर की नीरव सड़कों का चक्कर लगाया। तोपें ओदेस्सा की ओर तनी हुई थीं। वहाँ मज़दूरों की हड़तालें जारी थीं। ऐसे में काश ‘पोत्योम्किन’ भी तुरन्त मज़दूरों की सहायता में गोलाबारी शुरू कर दे! अभिजात लोगों और ऊँचे अधिकारियों के महलों को मिट्टी में मिला दे! लेकिन जहाज़ियों का नेता, बोल्शेविक वाकूलिन्चूक तो अफ़सर की गोली से घायल होकर मर गया था। और शेष सभी इतने जवान और अनुभवहीन थे!
इस बीच पीटर्सबर्ग से ज़ार ने सेवास्तोपोल आदेश भेज दिये थे :
”बग़ावत तुरन्त दबा दी जाये!”
सेवास्तोपोल के सभी जहाज़ युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ की बग़ावत को दबाने के लिए ओदेस्सा की ओर चल पड़े।
चौथे दिन सुबह ‘पोत्योम्किन’ के सन्तरियों को क्षितिज पर मस्तूल और चिमनियाँ दिखायी दीं। ये ‘पोत्योम्किन’ को घेरे में लेने के लिए आ रहे तेरह जहाज़ थे।
एक के मुव़फाबले में तेरह!
‘पोत्योम्किन’ पर अलार्म बज गया। जहाज़ी अपनी-अपनी जगह पर लड़ाई के लिए तैयार हो गये।
युद्धपोत चुपचाप बेड़े की ओर बढ़ने लगा। मात्यूशेन्को के आदेश पर सिगनलमैन ने सन्देश भेजा : फ्‘पोत्योम्किन’ की कमाण्ड सभी जहाज़ों के तोपचियों से गोलियाँ न चलाने का अनुरोध करती है!य्
और अचानक समुद्र ‘पोत्योम्किन’ को घेरने के लिए भेजे गये सभी तेरह जहाज़ों के जहाज़ियों के फ्हुर्रा!य् के उद्घोष से गूँज उठा। एक जहाज़ से सन्देश भेजा गया : ”हम तुम्हारे साथ हैं!” और वह चिड़िया की-सी सहजता से ‘पोत्योम्किन’ की ओर बढ़ चला।
समुद्र का विस्तार एक बार फिर फ्हुर्रा!य् की आवाज़ों से गूँज गया।
टुकड़ी का कमाण्डर डर गया कि कहीं सबके सब बग़ावत न कर बैठें। उसने तत्काल टुकड़ी को सेवास्तोपोल वापस लौटने का आदेश दिया।
अब लाल झण्डा फहराते हुए दो बाग़ी जहाज़ अशान्त ओदेस्सा के तटवर्ती समुद्र में खड़े थे। खड़े थे…मगर ओदेस्सा पर व़फब्ज़ा नहीं कर रहे थे। उन्हें किसी चीज़ का इन्तज़ार था। वे ख़ुद नहीं तय कर पा रहे थे कि क्या करें।
तब तक ‘पोत्योम्किन’ पर ईंधन और मीठे पानी का भण्डार ख़त्म होने को आ गया था। शीघ्र ही इंजन रुक जायेगा। जहाज़ी उत्तेजित थे। वे जानते थे कि कुछ न कुछ करना चाहिए। पर कैसे?
दूसरे जहाज़ का हौसला अल्पकालीन सिद्ध हुआ। उसके मस्तूल का लाल झण्डा धीरे-धीरे नीचे उतरने लगा।
‘पोत्योम्किन’ ने लंगर उठाया और खुले समुद्र में निकल पड़ा।
इस बीच जेनेवा से लेनिन का दूत ‘पोत्योम्किन’ के जहाज़ियों की सहायतार्थ रूस के लिए रवाना हो चुका था। लेनिन ने जहाज़ियों को दृढ़तापूर्वक और तेज़ी से काम करने और नगर को अपने व़फब्ज़े में लेने की सलाह दी थी।
लेनिन का दूत ओदेस्सा पहुँचा, तो उसे लाल झण्डा कहीं नहीं दिखायी दिया। लाल झण्डा दूर समुद्र में चला गया था।
युद्धपोत पर मीठा पानी बहुत कम रह गया था। तुरन्त कोई उपाय करना ज़रूरी था। ‘पोत्योम्किन’ ने प़फेओदोसिया में पानी लेने की कोशिश की, मगर स्थानीय अधिकारियों ने इन्कार कर दिया :
”हम बाग़ियों को पानी नहीं देंगे!”
अजेय और बेघर लाल झण्डा फिर समुद्र में निकल पड़ा। जहाज़ी चिन्तित थे, उनका आत्मविश्वास जवाब दे रहा था। क्या किया जाये?
ग्यारहवें दिन युद्धपोत ‘पोत्योम्किन’ ने एक रूमानियाई बन्दरगाह में लंगर डाला। यहाँ सबकुछ पराया था – तट, घर, बत्तियाँ, सबकुछ…
‘पोत्योम्किन’ के जहाज़ियों में और ताक़त नहीं रह गयी थी। उनके पास न पानी था, न कोयला और न रोटी।
रूमानिया की सरकार ने कहा :
”युद्धपोत हमें दे दो, हम तुम्हें शरण देते हैं और निश्चिन्त रहो कि ज़ार के हाथ वापस नहीं सौंपेंगे।”
‘पोत्योम्किन’ पर जहाज़ियों की यह आखि़री रात थी। अलविदा, स्वतन्त्र ‘पोत्योम्किन’! ग्यारह दिन तक तुम्हारे कारण जनरल और अफ़सर, ज़ार और सभी सेठ थर्राते रहे। तुमने क्रान्ति का झण्डा बुलन्द किया। तुम्हारी कीर्ति अमर रहे!


 

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