लोकसभा चुनाव 2024 – हमारी चुनौतियाँ, हमारे कार्यभार, हमारा कार्यक्रम

सम्पादकीय अग्रलेख

जब तक ‘मज़दूर बिगुल’ का यह अंक आपके हाथों में पहुँचेगा, तब तक लोकसभा चुनाव 2024 के लिए पहले दौर का मतदान हो चुका होगा। हालाँकि इस अंक को आप तक पहुँचाने में हुई देरी के लिए हम माफ़ी चाहते हैं।

इन चुनावों में देश की आम जनता के सामने, यानी मज़दूरों, अर्द्धसर्वहारा वर्ग, ग़रीब किसानों, और निम्न मध्यवर्ग के लोगों के सामने, क्या चुनौतियाँ हैं? उनके क्या कार्यभार हैं? उनका क्या कार्यक्रम होना चाहिए? इसके बारे में बात करना इस समय सर्वाधिक प्रासंगिक है।

देश की अट्ठारहवीं लोकसभा  के लिए चुनाव एक ऐसे समय में होने जा रहे हैं, जब हमारे देश में फ़ासीवादी उभार एक नये चरण में पहुँच चुका है। 2019 से 2024 के बीच ही राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण और समाज में फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का उभार गुणात्मक रूप से नये चरण में गया है। ग़ौरतलब है कि किसी देश में फ़ासीवादी सामाजिक आन्दोलन का उभार और राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण एक प्रक्रिया होती है, कोई घटना नहीं जो किसी निश्चित तिथि पर घटित होती है। इसलिए इसे समझा भी एक प्रक्रिया के तौर पर ही जा सकता है, जो कई चरणों और दौरों से गुज़रती है।

2019 से 2024 के बीच में नया क्या हुआ है? 2019 से 2024 के बीच फ़ासीवादी राजनीति और राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण की एक बेहद विशिष्ट चारित्रिक अभिलाक्षणिकता, एक सबसे अहम ख़ासियत, बेहद साफ़ तौर पर उभरकर सामने आयी है। वह क्या है? आइये समझते हैं।

मालिकों, ठेकेदारों, धनी व्यापारियों, पूँजीवादी कुलकों-फ़ार्मरों, बिचौलियों, सट्टेबाज़ों, प्रापर्टी डीलरों के समूचे वर्ग, यानी पूँजीपति वर्ग का हर प्रकार का शासन निश्चय ही मेहनतकश वर्गों की क्रान्तिकारी ताक़तों, यानी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन करता है। चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो, किसी तीसरे मोर्चे की सरकार रही हो, या फिर भाजपा की सरकार रही हो, मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी आन्दोलन व क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन सभी ने किया है। हम भूले नहीं हैं कि तमाम जनविरोधी क़ानूनों को लाने से लेकर ऑपरेशन ग्रीन हण्ट जैसा राजकीय दमन का अभियान चलाने का काम कांग्रेस की सरकार ने किया था। तो फिर एक फ़ासीवादी पार्टी के शासन और अन्य पूँजीवादी पार्टियों के शासन में अन्तर क्या है?

पहला फ़र्क़ यह है कि एक फ़ासीवादी शासन जनता के आन्दोलनों, जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों, जनता की माँगों का और भी ज़्यादा आक्रामक, बर्बर और तानाशाहाना तरीक़े से दमन करता है, सबसे नग्न और बेशर्म तरीक़े से पूँजीपति वर्ग और विशेष तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। यह हम 2014 के बाद से ही देखते आ रहे हैं। यह पहला फ़र्क़, अन्य कारकों से अलग, अपने आप में, एक मात्रात्मक अन्तर अधिक है। लेकिन दूसरा फ़र्क़ उससे भी ज़्यादा अहम है और यह गुणात्मक अन्तर है।

दूसरा फ़र्क़ यह है कि एक फ़ासीवादी पार्टी का शासन क्रान्तिकारी विरोध को तो कुचलता ही है, लेकिन वह हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को प्रत्यक्षत: या अप्रत्यक्षत: कुचलता है। इसमें तमाम प्रकार के पूँजीवादी राजनीतिक विरोध भी शामिल हैं, चाहे वे संसदीय दायरे में हों या ग़ैर-संसदीय दायरे में हों। दूसरे शब्दों में, यह उस सीमित जनवादी स्पेस और उन सीमित जनवादी अधिकारों को भी समाप्त करता है, जो एक पूँजीवादी लोकतन्त्र में हमें हासिल होते हैं। निश्चित तौर पर, यह दूसरा फ़र्क़ पहले फ़र्क़ को भी और ज़्यादा बढ़ा देता है, यानी जब यह स्पेस समाप्त होता है, तो फिर जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों का दमन भी पहले से कहीं ज़्यादा बर्बर और नग्न रूप अख़्तियार करता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये सीमित जनवादी अधिकार व स्पेस भी पूँजीपति वर्ग आम जनता को तोहफ़े में नहीं देता, बल्कि जनता लड़कर और क़ुर्बानियाँ देकर हासिल करती है। आज के समय में यह किस प्रकार हो रहा है, इस पर दो शब्द कहना यहाँ प्रासंगिक होगा।

आज के दौर में हिटलर या मुसोलिनी के दौर के विपरीत, फ़ासीवादी शक्तियाँ यह काम, यानी पूँजीवादी लोकतन्त्र द्वारा दिये गये सीमित जनवादी स्पेस व अधिकारों को समाप्त करने का काम, आम तौर पर, कोई आपवादिक तानाशाहाना क़ानून लाकर नहीं करती हैं, जिसके तहत चुनावों, संसद और विधानसभाओं को औपचारिक तौर पर भंग कर दिया जाता है, अन्य सभी पूँजीवादी दलों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया जाता है। मुसोलिनी की फ़ासिस्ट पार्टी ने इटली में और हिटलर की नात्सी पार्टी ने जर्मनी में यही किया था। लेकिन आज के दौर में फ़ासीवादी शक्तियाँ यह रणनीति नहीं अपनाती हैं। आज के दौर में, आम तौर पर, फ़ासीवादी शक्तियाँ यह काम पूँजीवादी जनवाद के खोल को बरक़रार रखते हुए और राज्यसत्ता पर भीतर से फ़ासीवादी क़ब्ज़ा करते हुए करती हैं। हमारे देश में फ़ासीवादी उभार का इतिहास फ़ासीवाद की इस नयी रणनीति और रणकौशल का जीता-जागता गवाह है। निश्चित तौर पर, इसमें फ़ासीवादी पार्टी, किन्हीं स्थितियों में चुनाव हारकर सरकार से बाहर अवश्य जा सकती है। लेकिन तब भी, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के फ़ासीवादी उभारों से उलट, राज्यसत्ता का फ़ासीवादीकरण और टुटपुँजिया वर्गों का प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन समाप्त नहीं होता या ढह नहीं जाता है, जैसा कि जर्मनी और इटली में हुआ था, यानी, फ़ासीवाद का द्रुत गति से हुआ उभार और फिर उतनी ही द्रुत गति से हुआ ध्वंस और ऐसा ध्वंस कि इन देशों में लम्बे समय तक खुले तौर पर नात्सी या फ़ासीवादी पहचान के साथ राजनीति कर पाना किसी धुर दक्षिणपन्थी पूँजीवादी शक्ति के लिए लगभग असम्भव था। यह अब जाकर नवउदारवाद के दौर में हो रहा है कि नये सिरे से ऐसी धुर दक्षिणपन्थी व प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी राजनीति इन देशों में भी पैदा हो पा रही है, जो घुमा-फिराकर और कुछ शर्म के साथ ही सही, पर फ़ासीवादी या नात्सी राजनीति की हिमायत कर रही हैं।

लुब्बेलुआब यह कि आज के दौर में, यदि फ़ासीवादी पार्टी चुनाव हारकर सरकार से बाहर भी जाती है तो फ़ासीवादी पार्टी और फ़ासीवादी आन्दोलन समाज में मज़बूती के साथ मौजूद रहते हैं, राज्यसत्ता के समूचे उपकरण पर उनकी पकड़ मौजूद रहती है, सरकार से बाहर होकर भी वे मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के लिए पूँजीपति वर्ग की अनौपचारिक सत्ता शक्ति का काम करते रहते हैं और मौजूदा आर्थिक मन्दी और उससे पैदा होने वाली सामाजिकआर्थिक असुरक्षा और अनिश्चितता के माहौल में फ़ासीवादी पार्टी फिर से, और पहले से ज़्यादा आक्रामक ढंग से, चुनाव जीतकर सरकार में वापस आती है। यह मिर्गी के दौरों के समान होता है, जो लहरों में आता है और बढ़ता जाता है। हमारे देश का इतिहास पिछले लगभग 3 दशकों के दौरान इसी प्रक्रिया का साक्षी बना है। यह चक्र अब केवल मज़दूर क्रान्ति और समाजवादी सत्ता व्यवस्था की स्थापना के साथ ही रोका जा सकता है।

इसलिए आज के दौर में आम तौर पर दुनिया में कहीं भी फ़ासीवादी शक्तियाँ पूँजीवादी जनवाद के खोल का परित्याग नहीं करेंगी क्योंकि ऐसा करना उनके उभार को ज़्यादा क्षणभंगुर और कम वर्चस्वकारी बनाता है। आम तौर पर, वह इस खोल को बरक़रार रखते हुए, पूँजीवादी जनवाद की अन्तर्वस्तु को इतना निर्बल कर देंगी कि व्यवहारत: उसका केवल खोल या रूप ही बचा रह जायेगा। भारत जैसे सापेक्षिक रूप से पिछड़े, उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देश में और विशेष तौर पर साम्राज्यवादी नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर में, जहाँ पूँजीपति वर्ग में जनवादी सम्भावना-सम्पन्नता पहले से ही पश्चिमी यूरोप या अमेरिकी पूँजीवाद व पूँजीपति वर्ग की तुलना में बेहद कमज़ोर रही है, वहाँ फ़ासीवादी शक्तियों के लिए यह काम करना वैसे भी अपेक्षाकृत आसान था।

वापस मूल सवाल पर आते हैं। आज हमारे देश में फ़ासीवादी मोदी सरकार और समूचा संघ परिवार यही कर रहा है। वह पूँजीवादी जनवाद के खोल को बरक़रार रखते हुए उसकी समूची अन्तर्वस्तु को इतना निर्बल बना रहा है कि व्यवहारत: और वस्तुत: बस उसका खोल ही बचा रह जाये। जो चीज़ विशिष्ट तौर पर इस बात को दिखला रही है, वह है, न सिर्फ मज़दूर वर्ग व आम जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों व आन्दोलनों को पहले से कहीं ज़्यादा तानाशाहाना अन्दाज़ में कुचलना (जो कि मात्रात्मक अन्तर के साथ कोई भी पूँजीवादी शासक पार्टी करती), बल्कि ख़ास तौर पर हर प्रकार के संसदीय और ग़ैरसंसदीय पूँजीवादी राजनीतिक विपक्ष या विरोध को भी समाप्त कर देना। प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के खातों को सील कर देना, उन्हें सरकारी एजेंसियों द्वारा लगातार प्रताड़ित करना, आम आदमी पार्टी के समूचे शीर्ष नेतृत्व को उठाकर जेल में डाल देना, अन्य विपक्षी या विपक्षी बन सकने वाली पार्टियों को सरकारी एजेंसियों व धनबल के बूते तोड़ देना, या अपने में शामिल कर लेना या डरा-धमकाकर उन्हें चुप करा देना, इसी प्रक्रिया का अंग है। 2019 से 2024 के बीच फ़ासीवादी उभार की यह बेहद महत्वपूर्ण और उसकी पहचान करने वाली विशिष्टता साफ़ तौर पर सामने आयी है। 2019 से 2024 के बीच फ़ासीवादी उभार और राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण की प्रक्रिया गुणात्मक रूप से एक नये चरण में पहुँच गयी है।

कई लोग सवाल पूछते हैं : सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता पूँजीवादी जनवाद को बचाने के लिए भला क्यों चिन्ता और सरोकार रखे? ऐसे लोग, जो “वामपन्थी” भटकाव या हिरावलपन्थ के भटकाव का शिकार होते हैं, यह सवाल पूछते हैं, “सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता को पूँजीवादी जनवाद को बचाने के लिए प्रयास क्यों करना चाहिए? क्या सर्वहारा वर्ग का लक्ष्य पूँजीवादी जनवाद है? उसका लक्ष्य तो समाजवादी जनवाद यानी सर्वहारा अधिनायकत्व है!” ऐसे भटकाव की कुछ ख़ासियतें हैं, जिन्हें हम मज़दूरों-मेहनतकशों को समझना चाहिए।

पहली ख़ासियत यह है कि यह भटकाव ऐतिहासिक मूल्यांकन दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य और वर्तमान राजनीतिक वर्ग स्थिति के मूल्यांकन और तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम में अन्तर नहीं कर पाता है। ऐतिहासिक तौर पर, पूँजीवादी जनवाद जनता को कुछ नया नहीं दे सकता। वह जो दे सकता था, वह दे चुका है। सर्वहारा वर्ग का दूरगामी राजनीतिक कार्यक्रम निश्चित ही समाजवादी क्रान्ति है। लेकिन तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम मौजूदा राजनीतिक हालात के अध्ययन के आधार पर ही बन सकता है। लेनिन ने बताया था कि सर्वहारा वर्ग एक राजनीतिक वर्ग, यानी अपनी सत्ता स्थापित करने के राजनीतिक प्रोजेक्ट से लैस वर्ग, केवल तभी बन सकता है, जब वह केवल अपने और पूँजीपति वर्ग के बीच के रिश्तों को ही नहीं समझता है, बल्कि पूँजीवादी समाज में मौजूद सभी वर्गों के बीच के आपसी रिश्तों को समझता है। केवल तभी वह अपने तात्कालिक विशिष्ट आर्थिक हितों से आगे जाकर अपने दूरगामी सामान्य राजनीतिक हितों के बारे में सोच सकता है और व्यापक आम मेहनतकश जनता को अपनी हिरावल पार्टी की अगुवाई में क्रान्तिकारी नेतृत्व दे सकता है। अब सवाल यह बनता है कि आज की राजनीतिक वर्ग स्थिति में, राजनीतिक तौर पर, क्या यह आम मेहनतकश जनता के हित में है कि पूँजीवादी जनवाद (चाहे वह हमें कितने भी सीमित जनवादी अधिकार देता हो!) समाप्त हो जाये और उसकी जगह कोई फ़ासीवादी सत्ता, कोई सैन्य तानाशाही या कोई बोनापार्तवादी तानाशाही की सरकार जाये या फिर हम वापस राजतन्त्र के युग में चले जायें? नहीं। इसका अर्थ होगा उस ज़मीन और जगह को खोना जहाँ पर सर्वहारा वर्ग के लिए आम मेहनतकश जनता के वर्ग संघर्षों को सबसे बेहतर ढंग से विकसित किया जा सकता है।

इसलिए ऐतिहासिक तौर पर निश्चय ही सर्वहारा वर्ग का मूल्यांकन यही है कि पूँजीवादी जनवाद अब जनता को कुछ नया नहीं दे सकता और उसका दूरगामी राजनीतिक कार्यक्रम यही है कि पूँजीवादी जनवाद पर रुकना नहीं है और उसका ऐतिहासिक प्रोजेक्ट और लक्ष्य ही है इससे आगे जाना, यानी समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये सर्वहारा जनवाद (या सर्वहारा अधिनायकत्व) तक जाना जो सच्चे मायने में बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी के लिए सच्चा जनवाद होगा। लेकिन वहाँ जाने के लिए जो राजनीतिक वर्ग संघर्ष विकसित करना सर्वहारा वर्ग के लिए अनिवार्य है, उसके लिए सबसे उपयुक्त सन्दर्भ पूँजीवादी जनवाद मुहैया कराता है, चाहे वह कितने ही सीमित अधिकार स्पेस क्यों दे।

पूँजीवादी लोकतन्त्र में, ये जनवादी अधिकार और स्पेस एक ओर जनता के जुझारू संघर्षों से हासिल होते हैं, वहीं विभिन्न पूँजीवादी दलों की आपसी राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के कारण भी यह स्पेस सीमित तौर पर पैदा होता है। यदि पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर कोई विपक्ष मौजूद न रहे, या विपक्ष बस औपचारिक तौर पर मौजूद रहे और फ़ासीवादी शासन द्वारा उसे दन्त-नखविहीन बना दिया गया हो, छिन्न-भिन्न कर दिया गया हो, पूर्णत: विकलांग बना दिया गया हो, तो पूँजीवादी दलों की आपसी प्रतिस्पर्द्धा से पैदा होने वाला जो स्पेस होता है वह भी समाप्त हो जाता है। बाक़ी अधिकारों व स्पेस को तो फ़ासीवादी शासन तरह-तरह के तानाशाहाना क़ानूनों और आम मेहनतकश जनता के दमन के ज़रिये समाप्त करता ही है। यही वजह है कि फ़ासीवादी उभार की यह विशिष्ट विशिष्टता है कि वह हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को समाप्त करता है, चाहे वह पूँजीवादी दायरे में हो या हो। ऐसे में, पूँजीवादी जनवाद द्वारा मिलने वाले सीमित जनवादी अधिकार स्पेस भी समाप्त होते हैं। यह एक अलग राजनीतिक वर्ग स्थिति का निर्माण करता है, जिसके आधार पर कोई भी वैज्ञानिक व ‘ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण’ करने वाली क्रान्तिकारी शक्ति अपना तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम तय करती है। इस पर हम थोड़ा आगे और विस्तार से बात करेंगे कि आज के दौर में यह तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम क्या हो सकता है।

“वामपन्थी” और हिरावलपन्थियों की दूसरी ख़ासियत यह होती है कि वे ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण नहीं करते और अमूर्त चिन्तन करते हैं। वे जनता को इसलिए नेतृत्व नहीं दे सकते क्योंकि वे उस काम को आज ही कर देना चाहते हैं, जिसे जनता की और साथ ही हिरावल की लम्बी तैयारी के बाद और वस्तुगत अन्तरविरोधों के सन्धिबिन्दु के निर्माण के बाद कल या परसों ही किया जा सकता है। वे जनता के बीच क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू कर सही राजनीतिक लाइन निकालने के बजाय, अमूर्त चिन्तन के आधार पर अपनी राजनीतिक लाइन निकालते हैं। वे ऐतिहासिक मूल्यांकन और तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम के बीच फ़र्क़ नहीं करते हैं। नतीजतन, आज भी कुछ ऐसे “वामपन्थी” और हिरावलपन्थी कम्युनिस्ट हैं, जो या तो चुनावों के बहिष्कार का नारा दे रहे हैं, जो राजनीतिक वर्ग चेतना की मौजूदा स्थिति और वस्तुगत राजनीतिक वर्ग संघर्ष की मौजूदा स्थिति में कोई सुनता नहीं है! या फिर कुछ ऐसे लोग हैं जो क्रान्ति कर डालने की कुछ ज़्यादा ही जल्दी में हैं और जनता पर भरोसा करने के बजाय कुछ बहादुर हथियारबन्द लोगों के दस्तों के बूते तत्काल सशस्त्र संघर्ष के ज़रिये “क्रान्ति” कर डालना चाहते हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इसके विपरीत भटकाव के शिकार हैं। उसे हम ऐसा संशोधनवादी, सुधारवादी और समझौतापरस्ती का भटकाव कह सकते हैं जिससे पीड़ित लोग फ़ासीवादी शक्तियों को सरकार से बाहर करने के संघर्ष को (जिसे वे ग़लती से फ़ासीवाद को निर्णायक रूप से पराजित करना समझ बैठते हैं!) आगे ले जाने के नाम पर सकारात्मक तौर पर किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी या पूँजीवादी पार्टियों के गठबन्धन को वोट देने का नारा जनता के बीच प्रचारित करते हैं। यह सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक स्वतन्त्रता का आत्मसमर्पण है। क्यों? क्योंकि जब कोई सर्वहारा पार्टी फ़ासीवाद को हराने के लिए किसी निश्चित बुर्जुआ दल या बुर्जुआ दलों के गठबन्धन को सकारात्मक तौर पर वोट देने और समर्थन करने की अपील करते हैं, तो यह उनके तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम का सीधा समर्थन होता है, चाहे वह रणकौशलात्मक क़दम के नाम पर किया जाय तो भी। रणकौशलात्मक क़दम रणनीति की कीमत पर नहीं उठाये जाते बल्कि उसके मातहत होते हैं, जैसा कि स्तालिन ने स्पष्ट किया था। यह लेनिनवाद की एक बुनियादी शिक्षा है। अगर ऐसा न हो तो अवसरवाद और रणकौशल में कोई फ़र्क़ नहीं रह जायेगा और अक्सर संशोधनवादी यही फ़र्क़ मिटा देते हैं और रणकौशल के नाम पर सुधारवादी व संशोधनवादी अवसरवाद करते हुए सीधे किसी पूँजीवादी दल या पूँजीवादी दलों के गठबन्धन की गोद में जा बैठते हैं। जब कोई सर्वहारा पार्टी ऐसा करती है, तो वह अपनी राजनीतिक अवस्थिति की स्वतन्त्रता का परित्याग करती है और भविष्य में भी सर्वहारा वर्ग के स्वतन्त्र पक्ष का निर्माण करने पर अपने दावे को छोड़ देती है।

ऐसे में, जबकि देश में फ़ासीवादी उभार गुणात्मक रूप से एक नये चरण में प्रवेश कर चुका है, एक सर्वहारा पार्टी की सही रणनीति, आम रणकौशल और आज के समय का विशिष्ट रणकौशल क्या होना चाहिए? यह एक ज़रूरी बहस का मुद्दा है क्योंकि आज जो कुछ हो रहा है, वह कई मायनों में बुनियादी तौर पर नया है और ऐसा कुछ पहले नहीं हुआ है। आज हो रहे परिवर्तनों में नये का पहलू प्रधान है। इसकी वजह फ़ासीवादी उभार की प्रकृति और चरित्र में आये वे परिवर्तन हैं, जिनका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। इन परिवर्तनों के आधार पर सर्वहारा नज़रिये से नयी रणनीति, नये आम रणकौशल और आज की विशिष्ट राजनीतिक परिस्थिति में नये विशिष्ट रणकौशलों को चिह्नित करना ज़रूरी है।

पहली बात तो यह है कि हमें फ़ासीवाद की सम्भावित चुनावी हार के बारे में यथार्थवादी होने की आवश्यकता है। एक तो इसकी सम्भावना फिलहाल कम नज़र आ रही है, हालाँकि निश्चित तौर पर पिछले चार-पाँच महीनों के दौरान यह सम्भावना बढ़ती नज़र आयी है। दूसरा, अगर यह सम्भावना वास्तविकता में बदल भी जाये, तो फ़ासीवाद की इस चुनावी हार को फ़ासीवाद की आम हार या निर्णायक हार के रूप में व्याख्यायित करने के वही नतीजे होंगे, जो 2004 और 2009 में फ़ासीवाद की चुनावी हार पर जश्न मनाने के हुए थे। उसकी सज़ा लोगों को 2014 और 2019 में भुगतनी पड़ी थी।

दूसरी बात, अगर मोदी सरकार 2024 में लोकसभा चुनाव हारती है तो इससे ज़्यादा से ज़्यादा फ़ासीवादी उभार को एक तात्कालिक नुकसान व झटका पहुँचेगा। राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण की परियोजना पहले ही एक निर्णायक स्तर पर पहुँच चुकी है। निश्चित ही वह अभी भी जारी है और वह जारी ही रहेगी, क्योंकि हम जिस राजनीतिक क्षेत्र, यानी राज्यसत्ता, की बात कर रहे हैं, वह अन्तरविरोधों की जगह है। पूँजीवादी जनवाद का खोल बचाये रखना फ़ासीवाद को दीर्घजीवी बनाये रखने के लिए आवश्यक है, यह बात आज दुनियाभर की फ़ासीवादी ताक़तें समझ चुकी हैं। लेकिन इसके साथ ही इस खोल को बरक़रार रखने के साथ कुछ अन्तरविरोध भी आते हैं। इसलिए भी फ़ासीवाद द्वारा राज्यसत्ता के आन्तरिक टेकओवर की परियोजना आज के युग में कभी पूर्ण नहीं होगी, बल्कि सतत् जारी ही रहेगी। चुनावी हार से इस परियोजना के आगे बढ़ने की गति को झटका लग सकता है, वह बाधित हो सकती है, लेकिन वह समाप्त नहीं होगी। औपचारिक तौर पर और आंशिक तौर पर तात्कालिक कार्यकारी निकाय यानी सरकार फ़ासीवादी पार्टी के हाथ से जाने के कुछ तात्कालिक नुकसान फ़ासीवादी शक्तियों को ज़रूर होंगे। लेकिन चुनावी हार से इससे ज़्यादा उम्मीद लगाने वाले नादान लोगों को आने वाले समय में फिर वैसा ही झटका लगेगा जैसा कि 2014 और फिर 2019 में लग चुका है।

तीसरी बात, इस तात्कालिक झटके के कारण फ़ासीवादी शक्तियों द्वारा राज्यसत्ता के अबाध और व्यवस्थित टेकओवर की प्रक्रिया की गति और आक्रामकता में जो अस्थायी कमी आयेगी, वह केवल जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों को कुछ मोहलत दे सकती है कि वे अपनी शक्तियों को संचित कर सकें, उनका विस्तार कर सकें, जनता के बीच फ़ासीवाद-विरोधी राजनीतिक माहौल को सुदृढ़ कर सकें, अपनी लड़ाकू शक्ति को संगठित कर सकें।

कोई पूछ सकता है कि अब तक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तों ने ऐसा क्यों नहीं किया? तो निश्चित ही इस पर क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताक़तें अपनी आत्मालोचना ही कर सकती हैं! कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर लम्बे समय से हावी ग़लत विचारधारात्मक लाइन, ग़लत राजनीतिक लाइन और ग़लत कार्यक्रम के कारण एक शक्तिशाली क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन और एक क्रान्तिकारी जनान्दोलन नहीं खड़ा हो सका। आज इस ठहराव को तोड़ने की अर्थपूर्ण कोशिश हो रही है। लेकिन यह अलग चर्चा का विषय है जिसके विस्तार में हम नहीं जा सकते। आज की वस्तुस्थिति यही है कि जनता की शक्तियाँ कमज़ोर हैं और बिखरी हुई हैं और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्ति को नये सिरे से और देश के पैमाने पर निर्मित करने, जनता के जुझारू जनान्दोलनों को खड़ा करने और उसकी शक्ति को संचित और संगठित करने के लिए एक समय, एक मोहलत और एक मौक़े की ज़रूरत है और ठीक इसीलिए बचेखुचे जनवादी स्पेस सीमित जनवादी अधिकारों की रक्षा करने और उन्हें विस्तारित करने की ज़रूरत है। इसके लिए तात्कालिक राजनीतिक कार्यभार यह है कि 2024 के चुनावों में फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार को हराया जाये। फ़ासीवादी शक्तियों का 5 साल के लिए भी सरकार से बाहर जाना क्रान्तिकारी शक्तियों को वह मोहलत, वह मौक़ा दे सकता है, जिसकी इस समय उन्हें ज़रूरत है।

इस तात्कालिक राजनीतिक कार्यभार को पूरा करने के लिए आने वाले लोकसभा चुनावों में तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम क्या हो सकता है? इस कार्यक्रम के दो हिस्से हैं:

पहला, मार्क्सवादी-लेनिनवादी उसूलों के अनुसार, जहाँ कहीं मज़दूर पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े कर सकती है, उसे ज़रूर खड़े करने चाहिए। हम याद दिलाना चाहेंगे कि पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी की कम्युनिस्ट लाइन के दो बुनियादी मक़सद होते हैं : पहला, समाजावादी कार्यक्रम का प्रचार और उसे आम मेहनतकश जनता में उनके जीवन की ठोस समस्याओं और उनके ठोस समाधान से जोड़ते हुए लोकप्रिय बनाना। पूँजीवादी संकट के दौर में आम मेहनतकश जनता के जीवन की बढ़ती बरबादी और असुरक्षा में यह काम अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान होता जाता है। दूसरा, जनता के बीच चुनावों के क्षेत्र में एक स्वतन्त्र सर्वहारा पक्ष का निर्माण करना। निश्चित तौर पर, जहाँ कहीं भी एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करती है, वहाँ उन्हें जिताने के लिए भी भरपूर प्रयास करती है। लेकिन जीत ही उनकी चुनावी भागीदारी का अन्तिम और बुनियादी मक़सद नहीं होता। याद रखना चाहिए कि रूस में मज़दूर इंक़लाब से ठीक पहले भी बोल्शेविक पार्टी रूसी संसद यानी दूमा में बेहद कम ही सीटें जीतती थी। एक पूँजीवादी चुनावी व्यवस्था बनी ही इस प्रकार से होती है कि उसमें पूँजीपति वर्ग के नुमाइन्दे विशेष तौर पर फ़ायदेमन्द स्थिति में होते हैं और आम तौर पर इसकी गुंजाइश कम होती है कि किसी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के अधिकांश उम्मीदवार जीतें, या पूँजीवादी विधायिका में बहुमत में आ जायें। आने वाले चुनावों में भी क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को अपने उम्मीदवार जहाँ कहीं सम्भव हो, ज़रूर खड़े करने चाहिए। यदि वह सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने की स्थिति में होती, तो तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम के दो हिस्से नहीं होते, जिसमें से दूसरे पर हम आगे आयेंगे। उस सूरत में मज़दूर पार्टी एक ही नारा देती: मज़दूर पार्टी के उम्मीदवार को वोट दें, उसे विजयी बनायें। अपने इस नारे के साथ वह व्यापक मेहनतकश जनता के बीच अपने दूरगामी व तात्कालिक कार्यक्रम का पुरज़ोर प्रचार करती। लेकिन हम सभी जानते हैं कि आज ऐसी स्थिति नहीं है। अधिकांश सीटों पर जनता के सामने भाजपा, इण्डिया गठबन्धन; माकपा, भाकपा (माले) व भाकपा जैसी संशोधनवादी पार्टियों व अन्य क्षेत्रीय पार्टियों के ही उम्मीदवार होंगे, क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का कोई उम्मीदवार नहीं होगा। ऐसे में, मौजूदा राजनीतिक वर्ग स्थिति में, क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी उन सीटों पर क्या जनता को कोई नारा नहीं देगी? नहीं! यह स्थानीयतावाद होगा जो ऐसी पार्टी को कभी जनता के सामने एक विकल्प बनकर उभरने नहीं देगा। निश्चित तौर पर, वह समूची जनता के सामने एक कार्रवाई का कार्यक्रम पेश करेगी, चाहे वह जनता उन निर्वाचन क्षेत्रों की ही क्यों न हो, जहाँ मज़दूर पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करने की स्थिति में फिलहाल नहीं है। यही प्रश्न हमें इस तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम के दूसरे हिस्से पर लाता है।

आज की राजनीतिक स्थिति में एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम का दूसरा हिस्सा है अन्य सभी सीटों पर फ़ासीवादी मोदी सरकार व भाजपा को हराने का नकारात्मक नारा देना। अब यहीं से “वामपन्थी” भटकाव के शिकार लोगों और दक्षिणपन्थी अवसरवादियों, दोनों के ही दिमाग़ों में अलग-अलग तरीक़े से भयंकर भ्रम की शुरुआत होती है।

“वामपन्थी” भटकावग्रस्त लोग क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी से शिक़ायत करते हैं कि यह तो ‘इण्डिया’ ब्लॉक को समर्थन देना होगा! हम कहते हैं कि आप दो चीज़ों में फ़र्क़ नहीं कर रहे। सकारात्मक नारा और नकारात्मक नारा। निश्चित तौर पर बाक़ी निर्वाचन मण्डलों में अगर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी फिलहाल अपने उम्मीदवार नहीं खड़े कर सकती (जिस कमज़ोरी के लिए उसकी आलोचना या उसके द्वारा स्वयं अपनी आत्मालोचना एक दीगर मसला है), तो यही वह “मजबूरी का विकल्प” है, जिसे अपनाया जा सकता है। लेकिन इस विकल्प को चुनने के दो रास्ते हो सकते हैं: पहला, सीधे ‘इण्डिया’ ब्लॉक या किसी अन्य पूँजीवादी दल का समर्थन कर उसे वोट देने का नारा जनता के बीच दिया जाये। यह भयंकर समझौतापरस्ती और अवसरवाद होगा जो सर्वहारा अवस्थिति की स्वतन्त्रता को नष्ट कर देगा। भविष्य में भी मज़दूर पार्टी अपने आपको जनता के समक्ष एक स्वतन्त्र पक्ष और एक व्यावहारिक विकल्प के तौर पर खड़ा करने की क्षमता खो बैठेगी। वजह हम ऊपर स्पष्ट कर चुके हैं : यह सर्वहारा वर्ग की स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति का सरेण्डर या आत्मसमर्पण होगा, यह सकारात्मक तौर पर किसी पूँजीवादी दल के राजनीतिक कार्यक्रम का समर्थन होगा और जनता को सीधे व सकारात्मक तौर पर उसका पिछलग्गू बनाना होगा। ठीक इसीलिए किसी निश्चित पूँजीवादी दल या पूँजीवादी दलों के गठबन्धन को वोट करने का नारा देना राजनीतिक तौर पर ग़लत है।

दूसरा तरीक़ा है, जो दी गयी ठोस राजनीतिक वर्ग स्थिति में सही सर्वहारा तरीक़ा है। यह तरीक़ा है एक नकारात्मक नारा देने का। मज़दूर पार्टी को केवल यह आह्वान करना चाहिए कि क्या नहीं चुनना है। उसे केवल यह बताना चाहिए कि सभी पूँजीवादी दल मज़दूर-विरोधी हैं, मेहनतकश-विरोधी हैं और आम तौर पर जनविरोधी हैं; लेकिन फिर भी उनमें और फ़ासीवादी पूँजीवादी दल में अन्तर करना राजनीतिक तौर पर महत्वपूर्ण है। यह समझना आवश्यक है कि राजनीतिक जनवाद (चाहे वह कितना भी सीमित हो) सर्वहारा वर्ग के लिए ज़रूरी है और सर्वहारा वर्ग उसके लिए संघर्ष करता है। लेकिन उसके लिए संघर्ष वह इस या उस पूँजीवादी दल की गोद में बैठकर, राजनीतिक तौर पर उसे समर्थन देकर और उसका पिछलग्गू बनकर नहीं करता है। क्योंकि यह उसकी राजनीतिक स्वतन्त्रता के उसूल के ख़िलाफ़ है और उसे भविष्य में भारी नुकसान पहुँचाता है। ऐसा वह अपनी स्वतन्त्र सर्वहारा अवस्थिति से करता है। अब यहाँ फिर से एक को दो में बाँटते हैं। स्वतन्त्र सर्वहारा अवस्थिति से विरोध करने के दो ही सम्भव रास्ते हैं : एक, सभी या अधिकांश सीटों पर सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी अपने उम्मीदवार खड़े करती है और जनता के बीच चुनावों के मंच का इस्तेमाल करते हुए फ़ासीवाद-विरोधी प्रचार भी सबसे प्रभावी तरीक़े से चलाती है और साथ ही आम तौर पर समाजवादी कार्यक्रम का प्रचार और उसे ठोस और व्यावहारिक रूप में लोकप्रिय बनाने का काम भी सबसे प्रभावी तरीक़े से करती है। दो, अगर ऐसी स्थिति नहीं है, तो वह उन सीटों को छोड़कर, जहाँ वह अपने उम्मीदवार खड़े कर रही है, अन्य सभी सीटों पर फ़ासीवादी पार्टी को जनता के सबसे ख़तरनाक दुश्मन के तौर पर हराने का नारा देती है। यह नारा वह नकारात्मक रूप में देती है। यानी, किसी निश्चित पूँजीवादी दल या पूँजीवादी दलों के गठबन्धन को वोट देने का नारा देकर वह अपनी स्वतन्त्र सर्वहारा अवस्थिति का आत्मसमर्पण नहीं करती। वह स्पष्ट तौर पर बताती है कि अन्य सभी पूँजीवादी दल भी सरकार बनाने पर, सम्भवत: कुछ कम रफ़्तार से, कुछ कम ग़ैर-जनवादी तरीक़े से और कुछ अलग रूप में उन्हीं जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों को लागू करेंगे जो कि भाजपा की फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार कर रही थी। लेकिन ऐसी नीतियों का विरोध करने, उनके ख़िलाफ़ आन्दोलन खड़े करने और उनके ख़िलाफ़ व्यापक मेहनतकश जनता को एकजुट करने के लिए भी जो जनवादी स्पेस और जनवादी अधिकार (चाहे वे कितने ही सीमित क्यों हों) चाहिए और जिन्हें विस्तारित करने के लिए संघर्ष करने की ज़रूरत है, उसके लिए सबसे पहले फ़ासीवादी पार्टी को चुनावों में हराया जाना चाहिए। यह सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी का काम नहीं है कि वह यह सकारात्मक तौर पर जनता को बताये कि वह ‘इण्डिया’ गठबन्धन को वोट दे, या बीजू जनता दल को वोट दे, या जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआरसीपी को वोट दे, या केसीआर की भारत राष्ट्र समिति को वोट दे। ऐसा कोई क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी क्यों करेगी और इसकी आवश्यकता ही क्यों है? यह जनता स्वयं तय कर सकती है और करती भी रही है। इस नकारात्मक नारे के ज़रिये एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी अब तक की नाकामयाबी का आत्मस्वीकार और आत्मालोचना भी करती है कि अब तक वह देशव्यापी विकल्प बनकर क्यों नहीं उभर सकी? ऐसा करके वह इस वस्तुगत स्थिति के बारे में एक वस्तुगत मूल्यांकन भी जनता के बीच पेश करती है जिसके अनुसार जनता की क्रान्तिकारी नेतृत्वकारी शक्तियों को अपने आपको संगठित करने और जनता की शक्तियों को संचित करने के लिए वक़्त, मौके और मोहलत की ज़रूरत है। यही ठोस परिस्थिति है और इस ठोस परिस्थिति के ठोस विश्लेषण के आधार पर यही ठोस नतीजा निकलता है।

इसलिए एक सकारात्मक नारे और नकारात्मक नारे के बीच अन्तर समझना यहाँ बेहद ज़रूरी है। कोई कह सकता है कि इस नकारात्मक नारे का वस्तुगत तौर पर फ़ायदा तो हर क्षेत्र में ग़ैर-भाजपा पूँजीवादी दलों को ही पहुँचेगा और आज की स्थिति में अधिकांश मामलों में ‘इण्डिया’ गठबन्धन को पहुँचेगा। बिल्कुल सही बात है। वस्तुगत तौर पर इस नारे का नतीजा यही होगा। लेकिन एक नकारात्मक नारे के वस्तुगत परिणाम और एक सकारात्मक नारे के राजनीतिक नतीजे एक सर्वहारा संगठन के लिए अलग-अलग होते हैं। मिसाल के तौर पर, पूरी दुनिया में ही जहाँ पहले भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों ने धुर दक्षिणपन्थी, फ़ासीवादी, धार्मिक कट्टरपन्थी सरकारों के विरुद्ध, जो उनके लिए तात्कालिक तौर पर घातक शत्रु बन चुकी थीं, अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखते हुए अभियान चलाये, वहाँ वस्तुगत तौर पर उसका तात्कालिक फ़ायदा किसी सेण्ट्रिस्ट या उदारपन्थी या सेण्टर-राइट पूँजीवादी दल को ही पहुँचा। और उनकी सरकारें बनने की स्थिति में क्रान्तिकारी ताक़तों को अपने आपको पुनर्गठित व पुनर्संगठित करने में और जनता की शक्तियों को संचित करने के लिए एक मोहलत मिली। यही तो इरादा है, यही तो पूरा विचार है। फ़र्क़ बस यह है कि सकारात्मक नारा (हमें क्या चाहिए) एक क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की राजनीतिक स्वतन्त्रता की कीमत पर ही दिया जा सकता है, जबकि नकारात्मक नारा (हमें क्या नहीं चाहिए) अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखते हुए दिया जा सकता है। इनमें से पहला फ़ासीवाद के विरुद्ध चुनावी रणकौशल का संशोधनवादी, सुधारवादी, बुर्जुआ उदारवादी संस्करण है, जबकि दूसरा मौजूदा राजनीतिक स्थिति में सर्वहारा रास्ता है।

अब कोई यह कह सकता है कि यही नारा 2019 में क्यों नहीं दिया जाना चाहिए था? पाठकों को याद होगा कि तब ‘मज़दूर बिगुल’ की तरफ़ से हमने यह राजनीतिक लाइन प्रस्तावित की थी कि जिन सीटों पर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के, यानी सर्वहारा उम्मीदवार, हैं वहाँ उन्हें वोट देने का नारा दिया जाना चाहिए और बाक़ी सभी सीटों पर ‘नोटा’ का बटन दबाने का नारा दिया जाना चाहिए। तो फिर 2024 में ये बदलाव क्यों? इसका जवाब हम इस लेख की शुरुआत में दे चुके हैं। फ़ासीवादी उभार और राज्यसत्ता का आन्तरिक टेकओवर फ़ासीवादीकरण कोई घटना नहीं है, बल्कि प्रक्रिया है, जो गुणात्मक रूप से भिन्न कई चरणों से गुज़रती है। यह बात आज के दौर के फ़ासीवाद के ऊपर और भी ज़्यादा लागू होती है जिसकी पहचान ही तेज़ी से हुए उभार, आपवादिक तानाशाहाना क़ानूनों, पूँजीवादी जनवाद के औपचारिक खा़त्मे और उतने ही द्रुत गति से पतन से नहीं होती, बल्कि लम्बे अवस्थितिबद्ध युद्ध के ज़रिये समाज और राज्यसत्ता में पकड़ और घुसपैठ बनाने, पूँजीवादी जनवाद के खोल को बनाये रखने, राज्यसत्ता के लम्बे आन्तरिक टेकओवर को अंजाम देने और लहरों में सत्ता पर आरोहण से होती है। 2014 से 2019 के दौर में मोदी सरकार द्वारा राज्यसत्ता के फ़ासीवादीकरण और फ़ासीवादी राजनीति के प्रभुत्व को स्थापित करने की प्रक्रिया जिस मंज़िल में थी और 2019 से 2024 के बीच वह जिस मंज़िल में प्रवेश कर चुकी है, उसमें एक महत्वपूर्ण गुणात्मक अन्तर है। इस अन्तर की हमने ऊपर चर्चा की है। फ़ासीवादी राजनीति और उसके द्वारा समूची राजनीतिक व्यवस्था पर अपने प्रभुत्व को स्थापित करने की प्रक्रिया की एक निर्णायक पहचान यह होती है कि वह सिर्फ जनता की शक्तियों और उसके आन्दोलनों का पहले से ज़्यादा नग्न तरीक़े से दमन करती है, बल्कि वह पूँजीवादी दायरे के भीतर मौजूद विपक्ष का भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दमन करती है और ठीक इसी के ज़रिये जनता की क्रान्तिकारी शक्तियों के दमन और उत्पीड़न को भी नये स्तर पर ले जाती है। हिटलर व मुसोलिनी के दौर में यह प्रक्रिया नात्सी व फ़ासीवादी पार्टी के शासन द्वारा सीधे अन्य सभी पार्टियों पर खुले प्रतिबन्ध के रूप में और उन्हें ग़ैर-क़ानूनी बना दिये जाने के रूप में सामने आयी थी। लेकिन आज के दौर में फ़ासीवादी शक्तियाँ आम तौर पर ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि आज के दौर के फ़ासीवादी उभार की चारित्रिक अभिलाक्षणिकता ही यह है कि वह आम तौर पर बुर्जुआ जनवाद के खोल को बरक़रार रखता है। ऐसे में न तो चुनाव भंग किये जायेंगे, न पूँजीवादी जनवाद को औपचारिक तौर पर भंग किया जायेगा, और न ही अन्य पूँजीवादी दलों पर औपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध लगाया जायेगा या उन्हें ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया जायेगा। लेकिन राज्यसत्ता के आन्तरिक टेकओवर का निहितार्थ ही यही है कि सरकार में होने पर भाजपा अन्य पूँजीवादी दलों को वित्तीय, संस्थागत और राजनीतिक तौर पर पंगु बना देगी। क्या हम ठीक यही चीज़ अपनी आँखों के सामने घटित होते हुए नहीं देख रहे हैं?

2019 और 2024 में इस गुणात्मक अन्तर को समझना ज़रूरी है। कुछ लोग फिर भी पूछ सकते हैं कि 2019 में ही आपको नहीं पता था कि अन्तत: 5 वर्षों में स्थिति यहाँ तक पहुँच जायेगी? आपने तभी फ़ासीवादी पार्टी को चुनावों में हराने का नकारात्मक नारा क्यों नहीं दिया? जवाब यह है कि चुनावों जैसी राजनीतिक प्रक्रिया के लिए तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम भविष्य की तमाम सम्भावनाओं के बारे में किये जाने वाले पूर्वानुमान या आपकी भविष्यवाणियों के आधार पर नहीं बनाये जाते हैं। वैसे भी भविष्य हमेशा ही एकल सम्भावना को नहीं बल्कि कई सम्भावनाओं के अपने भीतर छिपाये होता है। 2019 में ऐसा कोई भी तात्कालिक कार्यक्रम उस समय की आम राजनीतिक वर्ग स्थिति के आधार पर ही बन सकता था और आज यानी 2024 में भी आज का तात्कालिक राजनीतिक कार्यक्रम आज की आम राजनीतिक वर्ग स्थिति के आधार पर ही बन सकता है और इन दोनों राजनीतिक स्थितियों में एक महत्वपूर्ण गुणात्मक अन्तर है। उस समय की राजनीतिक परिस्थिति के अनुसार नोटा का नारा बिल्कुल सही था क्योंकि वह उस सिचुएशन के अनुसार, जिसमें अन्य पूँजीवादी दलों के समक्ष कम-से-कम राजनीतिक अर्थों में बराबरी का अवसर था, जनता को उन सीटों को छोड़कर अन्य सभी सीटों पर अपना अविश्वास प्रकट करने का अवसर देता था, जहाँ सर्वहारा उम्मीदवार नहीं थे। आज के समय में बुर्जुआ जनवाद की यह विशिष्ट विशिष्टता भी अन्तर्वस्तु के धरातल पर लुप्तप्राय है, जिसमें अन्य पूँजीवादी दलों के पास प्रतिस्पर्द्धा में होने के कम-से-कम बराबर राजनीतिक अवसर होते हैं। आज के समय में पूँजीवादी जनवाद की एक अन्तरकारी विशेषता मूलत: और मुख्यत: समाप्त होने की प्रक्रिया में है। ऐसे में, सही क़दम स्वतन्त्र सर्वहारा राजनीतिक अवस्थिति को खोये बग़ैर यह नकारात्मक नारा देना है कि फ़ासीवादी मोदीशाह सरकार को हराया जाये।

अब आखिरी सम्भावित प्रश्न पर आते हैं। कुछ लोग यह पूछ सकते हैं कि अगर (वैसे तो इसकी सम्भावना नगण्य है) क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को जितने वोट मिलते हैं, उतने ही अन्तर से कोई ग़ैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी गठबन्धन फ़ासीवादी भाजपा से उन सीटों पर हार जाता है, जिन पर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी ने अपने उम्मीदवार खड़े किये हैं, तो? अगर इतनी ही सीटों के अन्तर से कोई ग़ैर-फ़ासीवादी गठबन्धन देश की संसद में बहुमत हासिल नहीं कर पाता है, तो?

वैसे तो यह बहुत अविवेचित किस्म की सम्भावनाओं पर आधारित सवाल है, लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर ऐसी सम्भावनाओं पर आधारित सवालों के जवाब देना ज़रूरी है। पहली बात, सर्वहारा वर्ग के लिए सबसे प्राथमिक और प्रधान कार्य होता है अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखना। जिन सीटों पर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का काम है, वहाँ सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच उसका आधार है, वहाँ फासीवाद को सरकार में आने रोकने के लिए दिये जाने वाले किसी नकारात्मक नारे के आधार पर भी अपने उम्मीदवार न खड़े करना, सीधे-सीधे स्वतन्त्र सर्वहारा अवस्थिति का परित्याग करना होगा। इस जोखिम को उठाते हुए भी कि ठीक इसी भागीदारी के कारण उक्त सीटों पर गैर-फ़ासीवादी पूँजीवादी दल या उनका गठबन्धन हार जाता है और ठीक इन्हीं सीटों पर हार के कारण वह केन्द्र में सरकार नहीं बना पाता और फिर से फ़ासीवादी पार्टी की सरकार बन जाती है, सर्वहारा वर्ग इन सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े न करने की ग़लती नहीं कर सकता। सवाल प्राथमिकताओं और प्रधान अन्तरविरोध का है। जैसा कि अंग्रेज़ी की उक्ति है, अपने दूरगामी राजनीतिक हितों के लिए, ‘यह एक ऐसा जोखिम है, जो हम उठाने के लिए तैयार हैं।’ इसीलिए अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बचाये रखते हुए सर्वहारा वर्ग को हर वह विकल्प अपनाना चाहिए जो फ़ासीवादी उभार को नुकसान पहुँचा सकता है, उसे तात्कालिक ही सही, लेकिन पीछे की ओर धक्के दे सकता है क्योंकि राजनीतिक जनवाद के अभाव में समाजवादी क्रान्ति के लिए संघर्ष और आम तौर पर जनता के संघर्षों को भी नुकसान पहुँचता है।

लेकिन ये सारी स्थितियाँ बहुत ही अन्य प्रकार की फ़न्तासियों पर आधारित हैं। जीवित लोग जीवित प्रश्नों पर सोचते हैं। जब हम ठोस परिस्थितियों के बारे में ठोस रूप में सोचते हुए एक ठोस कार्यक्रम को सूत्रबद्ध करते हैं, तो मौजूदा चुनावों में आम मेहनतकश जनता और सर्वहारा वर्ग का कार्यक्रम स्पष्ट है : जिन सीटों पर क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का उम्मीदवार है, वहाँ उसे वोट दें और सभी पूँजीवादी दलों की हार को सुनिश्चित करें और अन्य सीटों पर फ़ासीवादी भाजपा की हार को सुनिश्चित करें। पहला सर्वहारा वर्ग की किसी क्रान्तिकारी पार्टी के पूँजीवादी चुनावों में रणकौशलात्मक भागीदारी के आधार पर दिया गया सकारात्मक नारा है और दूसरा, उन सीटों के लिए फ़ासीवादी उभार व राज्यसत्ता के फ़ासीवादी टेकओवर के गुणात्मक रूप से नये चरण के लिए दिया गया नकारात्मक नारा है, जो मेहनतकश वर्गों की क्रान्तिकारी शक्ति को वह वक़्त, मौका और मोहलत दे सके कि वह अपनी शक्तियों को संचित कर सके।

 

मज़दूर बिगुल, अप्रैल 2024


 

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