किसान आंदोलन : कारण और भविष्य की दिशा

मुकेश

गाँव की खेती से जुड़ी अधिकांश आबादी की जि़न्दगी में पिछले कुछ सालों से भयंकर संकट छाया हुआ है जिस पर इनका आक्रोश समय-समय पर विभिन्न रूप से प्रकट होता रहता है। पहले यह किसानों-खेत मज़दूरों की बढ़ती आत्महत्याओं के रूप में प्रकट हो रहा था। फिर यह विभिन्न राज्यों की तुलनात्मक रूप से सम्पन्न मानी जाने वाली किसान जातियों द्वारा आरक्षण की माँग के रूप में सामने आया। और अब यह महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, आदि राज्यों में किसान हड़ताल के रूप में सामने आया है। इन राज्यों में पहले तो बीजेपी-संघ ने इस आक्रोश को अपने किसान संगठन द्वारा नियन्त्रित ढंग से निर्देशित और हड़पने का प्रयास किया। आन्दोलन के बढ़ने पर इस संगठन से वार्ता और समझौते का नाटक कर आन्दोलन को वापस लेने की घोषणा भी करा ली गयी। लेकिन इससे किसान समुदाय का गुस्सा और भड़क उठा और आन्दोलन तीव्र हो गया। तब इसे पुलिस दमन से कुचलने का प्रयास किया गया, जिसमें पुलिस की गोली से मन्दसौर में 6 आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गयी। इसके बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज चौहान द्वारा उपवास के नाटक से लेकर मृतकों को मुआवजा, न्यूनतम समर्थन मूल्यों पर कृषि उत्पादों की ख़रीद, किसानों को क़र्ज़ पर ब्याज़ में छूट, आदि घोषणाओं से आक्रोश को शान्त करने की कोशिश जारी है।
किसान समुदायों में इस तीव्र असन्तोष-आक्रोश का तात्कालिक कारण नोटबन्दी और अच्छे मानसून से फ़सलों के रिकॉर्ड उत्पादन के संयुक्त असर से कृषि उत्पादों के किसानों को मिलने वाले बिक्री मूल्य में आयी तीव्र गिरावट है। नोटबन्दी से पैदा नक़दी के अभाव में भी किसानों ने किसी तरह उधार के सहारे जुताई, बीज, खाद की व्यवस्था कर फ़सल बुवाई की थी। लेकिन उस समय से ही सब्ज़ी, फल, फूल, आलू से लेकर जो भी फ़सलें बाज़ार में आयीं उनके बिक्री मूल्य में भारी कमी हुई। कुछ समय तक तो नक़दी की कमी के नाम पर मण्डियों में आढ़तियों ने फ़सल ख़रीदने से ही मना कर दिया और गरज़बेचवा किसानों की मज़बूरी में की गयी बिक्री पर मनमाने दाम दिये, जिसका भुगतान भी नोटों की कमी के नाम पर बहुत देर से किया गया या बैंक के चेक दिये गये जिन्हें खाते में जमा करने के बाद पैसा निकालने में किसानों को भारी तकलीफ़ हुई। इसके बाद बाज़ार में आयीं सरसों, तूर दाल, सोयाबीन, गेहूँ के दाम भी इसी तरह तेज़ी से गिरे। सरकार ने वादे के खि़लाफ़ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदारी की व्यवस्था नहीं की। उत्तर प्रदेश में बीजेपी सरकार ने 20 लाख टन गेहूँ ख़रीदने की घोषणा की थी लेकिन ख़रीदा गया सिर्फ़ 2 लाख टन। महाराष्ट्र में तूर दाल की ख़रीदारी ही सरकार ने कुछ दिन बाद ही पूरी तरह बन्द कर दी और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से 30-40% कम दामों पर आढ़तियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह भी आरोप लगा कि असल में सरकारी एजेंसियों ने किसानों से दाल ख़रीदी ही नहीं, बल्कि इन आढ़तियों ने ही किसानों से 3-4 हज़ार रुपये कुन्तल पर ख़रीदी गयी दाल को सरकारी एजेंसियों को 5050 रुपये कुन्तल के समर्थन मूल्य पर बेचकर तगड़ा मुनाफ़ा कमाया। इससे भी किसानों में तीव्र असन्तोष पैदा हुआ।
एक और तात्कालिक कारण है मवेशियों के व्यापार पर पिछले सालों में लगायी गयी सरकारी रुकावटें और किसानों-मवेशी व्यापारियों पर पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में शासक दल और संघ के गुण्डों के हमले और पिटाई-हत्याएँ। बड़ी संख्या में ग़रीब किसान और खेत मज़दूर अतिरिक्त आमदनी के लिए बिक्री के लिए पशु पालते हैं। साथ ही अनुत्पादक पशुओं की बिक्री भी किसानों के लिए ज़रूरत के समय सहायक होती है। लेकिन पिछले सालों की इन घटनाओं ने पशु व्यापार को अत्यन्त सीमित कर दिया है और क़ीमतें बहुत नीचे आ गयी हैं। इसने भी किसानों-खेत मज़दूरों के जीवन में मुसीबत-तकलीफ़ को बढ़ाया है।
लेकिन इन तात्कालिक कारणों ने जिस आग में घी का काम किया है उस आग के सुलगते चले आने के कारणों को समझने के लिए हमें वर्तमान उत्पादन सम्बन्धों में कृषि की स्थिति को और गहराई से समझने की आवश्यकता है। सबसे पहले तो हमें इस ग़लत समझ से छुटकारा पाना होगा कि किसान नाम का कोई एकरूप समरस वर्ग है, जिसमें सब किसानों के एक समान आर्थिक हित हैं। 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे तथा 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के कुल 18 करोड़ परिवारों में से 30% खेती, 14% सरकारी/निजी नौकरी व 1.6% ग़ैर कृषि कारोबार पर निर्भर हैं; जबकि बाक़ी 54% श्रमिक हैं। खेती आश्रित 30% (5.41 करोड़) का आगे विश्लेषण करें तो इनमें से 85% छोटे (1 से 2 हेक्टेयर) या सीमान्त (1 हेक्टेयर से कम) वाले किसान हैं। बाक़ी 15% बड़े-मध्यम किसानों के पास कुल ज़मीन का 56% हिस्सा है। ये 85% छोटे-सीमान्त किसान खेती के सहारे कभी भी पर्याप्त जीवन निर्वाह योग्य आमदनी नहीं प्राप्त कर सकते और अर्ध-श्रमिक बन चुके हैं। किसानों के सैम्पल सर्वे 2013 का आँकड़ा भी इसी की पुष्टि करता है कि सिर्फ़ 13% किसान (अर्थात बड़े-मध्यम) ही न्यूनतम समर्थन मूल्य से फ़ायदा उठा पाते हैं। मोदी सरकार के आने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद और भी कम हुई है तथा हाल की ख़बरों के अनुसार सिर्फ़ 6% किसान ही इसके दायरे में आ पाते हैं। सैम्पल सर्वे के ही आँकड़ों के अनुसार देश की लगभग 60% किसान आबादी क़र्ज़ से ग्रस्त है।
अभी सभी प्रचार माध्यम, अर्थशास्त्री, किसान संगठन और राजनीतिक दल पूरे किसान असन्तोष को सिर्फ़ एक बिन्दु अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्य के सवाल तक सीमित करने का प्रयास करने में जुटे हैं। बताया जा रहा है कि अगर स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के अनुसार उत्पादन लागत से 50% अधिक समर्थन मूल्य निर्धारित कर दिया जाये, तो कृषि किसानों के लिए लाभकारी हो जायेगी और उनका आर्थिक संकट दूर हो जायेगा। लेकिन हमने ऊपर किसानों में जो वर्ग भेद देखा था, क्या इन सबके लिए कृषि की उत्पादन लागत और लाभकारी मूल्य समान होना सम्भव है?
किसी भी कि़स्म के माल उत्पादन में दो घटक होते हैं – स्थिर पूँजी (मशीनरी, तकनीक, कच्चा माल) और परिवर्तनशील पूँजी (श्रम शक्ति)। कृषि के लिए हम अगर भूमि के किराये को सबके लिए समान भी मान लें तो भी अन्य घटक की लागत सभी किसानों के लिए समान नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए मशीनरी जैसे ट्रैक्टर, थ्रेशर, हार्वेस्टर, टिलर-कल्टीवेटर, आदि को ही लें तो इसकी लागत जितनी कम जोत वाला किसान हो उतनी ज़्यादा होती है, क्योंकि उसे प्रति एकड़ ज़मीन के लिए ज़्यादा पूँजी निवेश करना पड़ता है। अगर ख़रीदने की बजाय भाड़े पर भी प्रयोग हो तो भी लागत ज़्यादा आती है और समय पर उपलब्ध होने में दिक़्क़त से अवसर की लागत भी साथ में जुड़ जाती है। इसी तरह खाद, बीज, दवाएँ जैसे कच्चे माल की लागत भी ख़रीदने की कम मात्रा के साथ बढ़ती है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कम जोत वाले किसान द्वारा अनिवार्यतः पिछड़ी तकनीक के इस्तेमाल और परिमाण की मितव्ययता के अभाव में प्रति इकाई उत्पादन के लिए अधिक श्रम शक्ति का प्रयोग। कृषि विशेषज्ञों के अनुमान से छोटे किसान की प्रति इकाई उत्पादन लागत बड़े किसानों से 25% अधिक होती है।
बड़े और छोटे किसानों के बीच लागत मूल्य में यह अन्तर उनके लिए एक समान लाभकारी मूल्य के विचार को ही ख़ारिज कर देता है। जो बाज़ार या समर्थन मूल्य बड़े किसान के लिए लाभकारी है, वही छोटे किसान के लिए अलाभकारी होगा। इस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में अधिक पूँजी और उन्नत तकनीक के प्रयोग से कम उत्पादन लागत वाले पूँजीपति द्वारा कम पूँजी और पिछड़ी तकनीक द्वारा अधिक उत्पादन लागत पर उत्पादन करने वाले पूँजीपति को बाज़ार से बाहर कर देने का नियम कृषि उत्पादन में भी लागू होता है।
समर्थन मूल्य पर सरकारी एजेंसियों द्वारा ख़रीद की गारण्टी का अभाव इस स्थिति को ओर भी बदतर कर देता है। 2013 में उत्पादित गेहूँ का मात्र 25% ही सरकार ने ख़रीदा था; बाद के सालों में यह मात्रा और भी कम हुई है। छोटा किसान आमतौर पर क़र्ज़-उधार के सहारे उत्पादन करता है और फ़सल की कटाई के समय उसे बेचकर क़र्ज़ लौटाना उसके लिए आवश्यक होता है नहीं तो ब्याज़ बढ़ जाता है। अक्सर क़र्ज़ देने वाला ही ख़रीदार भी होता है। इस हालत में छोटा किसान गरज़बेचा होता है और ख़रीदार की मर्ज़ी के दामों पर बेचने को मजबूर। जबकि बड़ा किसान एक ओर तो प्रशासनिक पहुँच से न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ उठा पाने की स्थिति में भी होता है; दूसरे, वह बाज़ार क़ीमतों का फ़ायदा उठा पाने के लिए ठहरने की स्थिति में भी होता है, अक्सर ख़ुद ही छोटा व्यापारी भी होता है। वैसे भी सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीदारी की गारण्टी के अभाव में ख़राब फ़सल की स्थिति को छोड़कर यह असल में न्यूनतम नहीं बल्कि अधिकतम मूल्य की तरह कार्य करता है।
वैसे यह भी बता दें कि कृषि लागत और मूल्य आयोग के अनुसार अभी भी सरकार लागत पर मुनाफ़े के साथ ही समर्थन मूल्य निर्धारित करती है; जैसे गेहूँ का कच्चे माल, भूमि का किराया, मशीनरी और श्रम की लागत सहित प्रति कुन्तल उत्पादन लागत 797 रुपये है और इसका समर्थन मूल्य इससे 104% अधिक 1625 रुपये है। लेकिन इसमें विभिन्न फ़सलों के बीच काफ़ी अन्तर है, जैसे मूँग के लिए यह उत्पादन लागत से 28% ही अधिक है। लेकिन सरकार द्वारा निर्धारित यह लाभकारी समर्थन मूल्य अधिकांश किसानों के लिए अलाभकारी है, क्योंकि उनकी उत्पादन लागत, जैसा कि हम ऊपर दिखा चुके हैं, सामान्य से अधिक होती है।
किन्तु इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि दो हेक्टेयर तक की खेती कर रहे किसान के पास बाज़ार में बेचने वाला अधिशेष उत्पाद इतना होता ही नहीं कि लाभकारी मूल्य मिल जाने पर भी उसे जीवननिर्वाह योग्य आमदनी हो सके। इसके विपरीत उसे बाज़ार से उद्योग ही नहीं कृषि के भी बहुत सारे उत्पाद भोजन के लिए ख़रीदने होते हैं जिनकी बढ़ती क़ीमत उसे और संकट में डाल देती है। इसलिए कृषि उत्पादों सहित बाज़ार में किसी भी प्रकार के उत्पादों और सेवाओं की क़ीमतें बढ़ाने की बात इन छोटे और सीमान्त किसानों का आर्थिक संकट कम करने के बजाय उसे बढ़ाती है। साथ ही इन्हें अपने ही जैसे मेहनतकश खेत मज़दूरों और शहरी मज़दूरों और निम्न मध्य वर्ग के भी खि़लाफ़ खड़ा करती है जो महँगाई के इस हमले के सबसे बड़े शिकार होते हैं।
पिछली यूपीए सरकार के समय, जब समर्थन मूल्यों में तुलनात्मक रूप से तेज़ी से वृद्धि हुई थी, कृषि सहित तमाम उत्पादों-सेवाओं के मूल्यों में भारी महँगाई का अधिकांश किसानों के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है? क्या उससे किसानों के जीवन स्तर में कोई सुधार हुआ? उलटे हम पाते हैं कि इस दौरान किसानों पर क़र्ज़ में भारी इज़ाफ़ा हुआ। 2003-2013 के दस वर्षों में किसानों पर क़र्ज़ 24% बढ़ा जबकि कृषि उत्पादन मात्र 13%। यही स्थिति 2014-16 की है जब क़र्ज़ 17% बढ़ गया जबकि कृषि उत्पादन सूखे की वजह से मुश्किल से 3% ही बढ़ा। नतीजा यह हुआ कि सैम्पल सर्वे के अनुसार 60% से अधिक किसान क़र्ज़ में हैं और इसकी मात्रा (बैंकों और साहूकारों दोनों से) बढ़ी है। अर्थात न्यूनतम समर्थन मूल्यों के बढ़ने से किसानों का लाभ बढ़कर क़र्ज़ कम होने के बजाय बढ़ता चला गया। निष्कर्ष यह कि लाभकारी मूल्यों के दौर में भी अधिकांश किसान घाटे में थे और उनकी आमदनी कम हो रही थी जो बढ़ते क़र्ज़ (किसान क्रेडिट कार्ड आदि इसी समय शुरू किये गये थे जिनमें उदारता से लिमिट बढ़ाई गयी!) के पीछे कुछ समय तक छिपी हुई थी। लेकिन यह क़र्ज़ कभी तो वापस करना ही था जिसमें किसान अब अपने आप को असमर्थ पा रहे हैं और भयंकर निराशा-हताशा के शिकार हैं।
एक ओर तरह से देखें तो औद्योगीकरण के बाद सम्पूर्ण उत्पादन में खेती का हिस्सा लगातार घटा है, भारत में भी अब यह घटकर सिर्फ़ 14% रह गया है। हालाँकि खेती में उत्पादकता बढ़ने की सम्भावनाएँ अभी भी हैं लेकिन उद्योग/सेवा क्षेत्रों में उसके मुक़ाबले बहुत ज़्यादा विस्तार होना ही है, इसलिए कृषि का हिस्सा और भी घटने ही वाला है। अब कुल उत्पादन के इस छोटे, घटते हिस्से पर जनसंख्या के इतने बड़े हिस्से की निर्भरता रहेगी तो उनका ग़रीबी-कंगाली में रहना निश्चित ही है। उनमें भी जो 85% छोटे-सीमान्त किसान हैं (2 हेक्टेयर से कम वाले), आज की पूँजी आधारित खेती में कम उत्पादकता, अधिक श्रम, कम मात्रा में ख़रीदारी से बीज/खाद आदि की अधिक लागत, कम जोत में ट्रैक्टर आदि यन्त्र ख़रीदने या किराये पर लेने में पड़ने वाली ज़्यादा लागत, साहूकारों-आढ़तियों से सूद पर ली गयी पूँजी, सरकारी तन्त्र का धनी किसानों के साथ खड़े होने आदि के बहुत सारे कारणों से इनके लिए खेती घाटे का सौदा है, आगे और भी ज़्यादा होने वाला है।
ख़ुद अधिकांश किसान इस बात को सचेत सैद्धान्तिक रूप में तो नहीं लेकिन व्यवहार में अच्छी तरह समझ चुके हैं और खेती में अपने लिए कोई भविष्य नहीं देखते। दूसरा कोई भी विकल्प हासिल होने पर खेती को तुरन्त छोड़ने के लिए तैयार हैं, छोटी-मोटी नौकरी के लिए रिश्वत देने के लिए खेत तक बेचने को तैयार हैं। जो किसान जातियाँ एक समय नौकरी-चाकरी करने को ही बेइज़्ज़ती का काम मानती थीं, उनके लिए भी आरक्षण इसीलिए जीवन-मरण का प्रश्न बन गया है, हालाँकि उस रास्ते इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। खेत मज़दूरों के लिए तो पहले ही पूरे साल रोज़गार मौजूद नहीं है, दूसरे पिछले कुछ साल से महँगाई के मुक़ाबले कृषि में मज़दूरी की दर लगातार घट रही है। अतः किसानों और खेत मज़दूरों दोनों के लिए पहले ही मुख्य सवाल वैकल्पिक रोज़गार और जीवन निर्वाह योग्य मज़दूरी बन चुका है। उनके लिए असली सवाल समर्थन मूल्य का नहीं, बल्कि जीवन निर्वाह योग्य रोज़गार प्राप्त करना है। इसलिए लाभकारी मूल्य की यह सारी लड़ाई मुख्यतः बादल, पवार, शिवराज चौहान, रमन सिंह, सिन्धिया, वाड्रा, जाखड़, जैसे फ़ार्मरों की लड़ाई है। यहाँ स्पष्ट करना है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि किसानों-खेत मज़दूरों की तात्कालिक माँगों के लिए कोई संघर्ष नहीं हो सकता। हो सकता है, ऐसी माँगों के साथ जो किसानों-खेत मज़दूरों की एकता को मजबूत करें और साथ में उन्हें शहरी मज़दूरों-निम्न मध्य वर्ग के खि़लाफ़ खड़ा न करें। किन्तु इन माँगों की चर्चा अलग से। यहाँ लाभकारी मूल्य का सवाल हमारी चर्चा का मुख्य विषय है।
लेकिन यह वैकल्पिक रोज़गार मिले कहाँ? इज़ारेदार पूँजीवाद अब उद्योगों-सेवाओं को और विस्तार देने में सक्षम नहीं रहा, अति-उत्पादन की समस्या से जूझ रहा है, बाज़ार में ख़रीदारों की कमी से पहले ही लगे उद्योगों को 70% से अधिक क्षमता पर नहीं चला पा रहा, नया निवेश लगातार घट रहा है, तो और व्यापक औद्योगीकरण कैसे करे? वह तो पहले ही इतने ही उद्योगों में आधुनिक तकनीक के प्रयोग और ऑटोमेशन से श्रमिकों की संख्या कम कर मुनाफ़ा बढ़ाने के तरी़क़े ढूँढ़ रहा है। इसलिए अभी भी बहुत सारे लोगों को इस अलाभकारी/अनुत्पादक छोटी खेती में उलझाकर रखे हुए है, ताकि बेरोज़गारी की समस्या अपने असली विकराल रूप में सामने न आये। लेकिन इस अति-उत्पादन का कारण यह नहीं कि समाज की ज़रूरतें पूरी हो गयी हैं। पूँजी मालिकों के मुनाफ़े के बजाय अगर सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन मक़सद हो तो इसको बहुत गुना बढ़ाने की ज़रूरत होगी जिससे बेरोज़गारों की इस बड़ी फ़ौज को रोज़गार मिल सकता है। लेकिन उसके लिए पहले निजी मालिकाने पर आधारित पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़कर सामूहिक मालिकाने पर आधारित समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करनी पड़ेगी।
दूसरा कोई विकल्प नहीं है, इस लड़ाई में जुटने के बिना किसानों के दुःख-दर्द के लिए सारी हमदर्दी-आँसू झूठे हैं!

 

मज़दूर बिगुल, जून 2017


 

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