कर्नाटक चुनाव और इक्कीसवीं सदी के फासीवाद की अश्लील राजनीति के मुज़ाहरे

इस समय हम भारत की पूँजीवादी राजनीति में जो कुछ देख रहे हैं वह इक्कीसवीं सदी में फासीवाद के हमारे विश्लेषण को सही साबित कर रहा है। फासीवाद के नये अवतार को बुर्जुआ संसदीय जनतन्त्र के खोल को उतार फेंकने की कोई ज़रूरत नहीं है। ख़ासकर एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के सापेक्षिक रूप से पिछड़े, उत्तर-औपनिवेशिक देशों में बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था इस क़दर सड़ी हुई और निरर्थक हो चुकी है कि यह जनता का प्रतिनिधित्व करने का अपना बचा-खुचा दावा भी खो चुकी है, हालाँकि मेहनतकश वर्गों का तो यह वास्तव में कभी भी प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था के भीतर, विपक्ष अपनी विश्वसनीयता पूरी तरह खो चुका है, जो साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीपति वर्ग के चरित्र को ही बताता है। यह अठारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध या उन्नीसवीं सदी के मध्य के यूरोपीय बुर्जुआ वर्ग जैसा नहीं है, जिसका एक प्रगतिशील धड़ा भी था और जो पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर कुछ प्रगतिशील सुधारों के लिए भी आवाज़ उठाता था। आज पूँजीवाद अपनी समस्त प्रगतिशील सम्भावनाएँ खो चुका है और बुर्जुआ वर्ग के किसी धड़े की प्रगतिशील सम्भावनाएँ भी समाप्त हो चुकी हैं। जर्मनी और इटली में फासिस्ट उभार के पहले दौर के समय भी वहाँ बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा था, छोटा ही सही, जिसने इस उभार का विरोध किया था, हालाँकि वह नपुंसक किस्म का विरोध था। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। इसीलिए, इक्कीसवीं सदी में, साम्राज्यवाद के युग के अंतिम चरण, यानी भूमण्डलीकरण के दौर में, फासीवाद को बुर्जुआ जनतन्त्र के खोल को उतार फेंकने की ज़रूरत नहीं रह गयी है। इसका कारण यह है कि बुर्जुआ  जनतन्त्र की तमाम संस्थाएँ – संसद, न्यायपालिका, चुनाव आयोग आदि निरर्थक हो चुकी हैं और महज़ फासिस्टों के हाथों के प्यादे बन चुकी हैं। क्या यह भारत में वर्तमान बुर्जुआ राजनीति के वर्तमान परिदृश्य की सच्चाई नहीं है? क्या भारत के चुनाव आयोग की स्वायत्ता नष्ट नहीं की जा चुकी है? क्या न्यायपालिका की प्रसिद्ध और बहुचर्चित निष्पक्षता की नींव दरक नहीं चुकी है? बस इनके आवरण बचे रह गये हैं।

सबसे पहले, भारतीय न्यायपालिका के हाल के व्यवहार का विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि यह बुर्जुआ जनवाद की सबसे वर्चस्वशाली संस्थाओं में से एक है और इसके इर्द-गिर्द एक आभामण्डल बना रहा है। आम लोग, ख़ासकर मध्यवर्ग इससे अभिभूत रहा है। न्यायपालिका जो कुछ भी कहती है उसे बहुत मान दिया जाता है और काफ़ी लोगों में यह चीज़ों को ज्यों का त्यों मान लेने की भावना जगाता है। लेकिन न्यायपालिका के हाल के फ़ैसलों, वक्तव्यों और आम तौर पर उसके व्यवहार ने इस छवि को काफ़ी कमज़ोर किया है। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के विरुद्ध एक आदेश देने वाले जज लोया की कथित हत्या का मामला हो, भारत के प्रधान न्यायाधीश के स्वेच्छाचारी और तानाशाहाना व्यवहार का मसला हो, जिसके विरुद्ध उच्चतम न्यायलय के चार अन्य जजों ने खुला विरोध ज़ाहिर किया था, या फिर प्रधान जज के विरुद्ध भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के मामले में याचिका की सुनवाई करने वाली बेंच की अध्यक्षता खुद प्रधान जज द्वारा करने से लेकर प्रधान जज के विरुद्ध महाभियोग को खारिज करना हो; इन सभी घटनाओं ने बिला शक़ यह दिखा दिया है कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता अब अतीत की बात हो चुकी है। फासिस्टों के सत्ता में आने पर ऐसी स्वतन्त्रता कुन्दन शाह की ‘जाने भी दो यारो’ या कोस्ता गावरास की ‘ज़ेड’ जैसी फ़िल्मों का मसाला बन कर रह जाती है। यह स्थिति फ़ासीवाद द्वारा खुद को बदलने की कार्रवाई के हमारे विश्लेषण की भी पुष्टि करती है। जैसाकि हमने पत्रिका के पहले अंक में फासीवाद पर अपने आलेख में कहा था, प्रलयंकारी उभार और प्रलयंकारी गिरावट इक्कीसवीं सदी के फासीवाद की अभिलाक्षणिकताएँ नहीं हैं, बल्कि एक लम्बी गर्भाधान अवधि और बार-बार होने वाली अचानक उग्र ढंग से फूट पड़ने वाली कार्रवाई इसकी विशेषताएँ हैं। इसकी वजह से भारत में फासिस्टों को सेना, पुलिस, नौकरशाही और न्यायपालिका सहित राज्य के तन्त्र में घुसपैठ करने और इसके अणुओं तक में घुस जाने में कामयाब रहे हैं। भारत में फासीवाद का वर्तमान उग्र उभार यह दिखाता है कि हिन्दुत्व फासीवादियों ने कितने प्रभावी ढंग से बुर्जुआ राज्य और बुर्जुआ जनतन्त्र की तमाम संस्थाओं में घुसपैठ कर ली है। यह महज़ अमित शाह जैसे लोगों की धूर्तता के कारण नहीं है, जिसकी तुलना ब्रेष्ट के उपन्यास ‘तीन टके का उपन्यास’ से करना बिल्कुल सही होगा। कई राजनीतिक टिप्पणीकार भाजपा की सफलता का श्रेय अमित शाह के ‘मास्टर-माइंड’ को देते हैं; लेकिन वास्तव में आरएसएस द्वारा राज्य के तन्त्र में लम्बे समय के दौरान की गयी घुसपैठ और ‘’संघ परिवार’’ के संगठनों के ज़मीनी काम के ज़रिए बड़े धीरज के साथ एक साम्प्रदायिक आम सहमति बनाने और समाज के अणुओं तक में घुस जाने की कार्रवाइयों ने अमित शाह जैसे व्यक्ति को इतना सक्षम बना दिया है कि वह बुर्जुआ जनतन्त्र की संस्थाओं का खुला माख़ौल बना रहा है।

भारत के संसदीय बुर्जुआ जनतन्त्र की एक और बदनाम हो चुकी संस्था है निर्वाचन आयोग। अब यह कोई रहस्य नहीं रह गया है कि भाजपा ने व्यवस्थित ढंग से इस संस्था को कमज़ोर किया है। इसमें नीचे से ऊपर तक संघ के लोग भर गये हैं और चुनाव प्रक्रिया की देखरेख करने वाले एक निष्पक्ष निकाय के बजाय, इसे फासिस्टों के हाथ में एक औज़ार में बदल दिया गया है। जिस तरह से चुनाव आयोग ने भाजपा को फ़ायदा पहुँचाने के लिए गुजरात विधानसभा के चुनाव की तिथियाँ घोषित करने में लगातार देर की उसे सब जानते हैं।

इस पूरे प्रकरण में राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों की बहुचर्चित ‘’गरिमा’’ भी मज़ाक बन चुकी है। ख़ासकर गोआ, मणिपुर और अभी कर्नाटक के चुनावों के बाद। राष्ट्रपति के तो हावभाव से भी यह सच्चाई ज़ाहिर हो जाती है, जब भी वह मोदी, शाह या योगी जैसों के आसपास होते हैं।

वास्तव में कर्नाटक के चुनाव से न सिर्फ़ आज के दौर में फासीवाद के उभार की सच्चाई सामने आयी है, बल्कि यह भी ज़ाहिर हो गया है कि आम तौर पर बुर्जुआ चुनावों में क्या होता है। कई रिपोर्टों में बताया गया है कि भाजपा ने वोट ख़रीदने के लिए किस क़दर बेशुमार पैसे बहाये; भाजपा के 40 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक रिकॉर्ड वाले थे जबकि कांग्रेस के 30 प्रतिशत। जिस तरह से येदियुरप्पा को भाजपा ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार चुना और रेड्डी बंधुओं को टिकट दिये गये उससे हिन्दुत्ववादी फासिस्टों का ‘चाल-चेहरा-चरित्र’ बिल्कुल उजागर हो गया। और जब ये सब करने के बावजूद वे साधारण बहुमत तक भी नहीं पहुँच सके, तो भगवा राजनीति के वफ़ादार सेवक राज्यपाल वजुभाई वाला हाज़िर थे। वाला ने भाजपा को अकेली सबसे बड़ी पार्टी के नाते सरकार बनाने का न्यौता दे दिया और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दे दिया। हालाँकि भाजपा की सरकार बनाने के लिए गोआ और मणिपुर में राज्यपाल ठीक इसका उल्टा कर चुके थे और बिहार में भी अब ऐसा करने से इंकार रहे हैं! वाला के इस क़दम के विरोध में कांग्रेस द्वारा सुप्रीम कोर्ट जाने पर, सुप्रीम कोर्ट ने थोड़ी लाज बचाये रखने के लिए येदियुरप्पा सरकार को 24 घंटे में बहुमत साबित करने को कहा। भाजपा फिर भी आश्वस्त थी कि उसके पास अमित शाह के रूप में मैकहीथ का असली अवतार मौजूद है। एक टीवी शो में भाजपा नेता राम माधव से पूछा गया कि वे बहुमत कैसे जुटायेंगे तो उसने बेशर्मी से जवाब दिया कि हमारे पास अमित शाह है। शाह की ख़रीद-फ़रोख़्त से अपने विधायकों को बचाने के लिए कांग्रेस और जनता दल (एस) अपने विधायकों को बसों में भरकर हैदराबाद के एक रिज़ॉर्ट में ले गये। यह अपने आप में भारत में दूसरे बुर्जुआ दलों के चरित्र को दिखाता है। हालत ये है कि ‘सिद्धान्त’, ‘आदर्श’ या ‘किसी राजनीति के प्रति प्रतिबद्धता’ आदि की बात करने भर से ठहाके लगने लगेंगे। कर्नाटक का पूरा चुनाव और उसके बाद की घटनाएँ दिखाती हैं कि भारत की बुर्जुआ राजनीति अश्लील और हास्यास्पद फूहड़ता की किन गहराइयों में डूब चुकी है।

ये पूरा घटनाक्रम इक्कीसवीं सदी में फासीवादी उभार की चारित्रिक विशेषता है। उन्हें कोई असाधारण क़ानून बनाने और संसदीय जनतन्त्र के खोल को ही उठाकर फेंक देने की कोई ज़रूरत नहीं है। वे नाज़ियों की तमाम हरकतों को (नये ढंग से) इस खोल को छोड़े बिना ही कर सकते हैं। ऊपरी आवरण बना हुआ है लेकिन उसकी अन्तर्वस्तु बदल गयी है। भारत में हिन्दुत्व फासीवाद ऐसा ही रहा है, और यूरोप के कुछ देशों में फासीवाद की अन्य धाराएँ भी इसी तरह से एक लम्बी प्रक्रिया में ‘’नीचे से तूफ़ान’’ लाने में जुटी हुई हैं जिससे उन्हें समाज के पोर-पोर में जगह बनाने, राज्य तन्त्र में गहरी घुसपैठ करने और इस तरह बुर्जुआ संसदीय जनतन्त्र के ढाँचे को छोड़े बिना फासीवादी उभार लाने का मौका मिल रहा है।

इक्कीसवीं सदी के फासीवाद की यह विशेषता उस रूप से जुड़ी है जिसे रूप में 1970 के दशक से जारी आर्थिक संकट प्रकट हो रहा है। अचानक और प्रलयंकारी ढंग से फूट पड़ने वाली घटना के बजाय संकट ने एक दीर्घकालिक और स्थायी दिखने वाला रूप ले लिया है। इसने निम्न-मध्य वर्ग के तमाम तबकों में एक बहुत गहरी, लम्बी और ढाँचागत प्रतिक्रिया को जन्म दिया है जिनका ‘रूमानी उभार’ या ‘रहस्यवादी उथल-पुथल’ ही फासीवाद है। अभूतपूर्व एकाधिकारीकरण, वित्तीयकरण और विश्व स्तर पर सट्टेबाज़ वित्तीय पूँजी के बढ़ते वर्चस्व ने पहले से कहीं अधिक प्रतिक्रियावादी एकाधिकारी वित्तीय पूँजीपति वर्ग को जन्म दिया है जो अपनी बर्बर तानाशाही को सुरक्षित रखने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। एक राजनीतिक आन्दोलन के रूप में फासीवाद बड़ी एकाधिकारी पूँजी के हितों और खतरे में पड़े या ऊपर उठ रहे मध्य वर्ग की अन्धी प्रतिक्रिया को आपस में जोड़ देता है। भारत में हिन्दुत्व फासीवादियों ने भी ऐसा ही किया है। फासिस्ट उभार की पूरी प्रक्रिया और इसके रूप बीसवीं सदी की शुरुआत की तुलना में बहुत बदल चुके हैं। हालाँकि इस धुर प्रतिक्रियावादी, मज़दूर वर्ग विरोधी और जन-विरोधी राजनीतिक व सामाजिक आन्दोलन की वर्गीय सारवस्तु अब भी वही है। लेकिन, चूँकि फासिस्टों के काम करने के तरीके बदल चुके हैं, इसलिए उनके प्रतिरोध और उन्हें पीछे धकेलने की रणनीतियों में भी बदलाव लाना होगा।

भाकपा, माकपा और भाकपा-माले (लिबरेशन) जैसी सामाजिक-जनवादी और संशोधनवादी पार्टियों ने फासीवाद के उभार के साथ ही अपना असली रंग दिखा दिया है। एक पार्टी के रूप में भाकपा तेज़ी से अप्रासंगिक होती जा रही है और उसका ढाँचा यूरोप की सामाजिक-जनवादी पार्टियों से भी ज़्यादा ढीला-पोला होता जा रहा है। अगल-अलग इलाक़ों में भाकपा में आपको कुछ भी और कोई भी मिल सकता है। यह अलग-अलग तरह के सहिष्णु सामाजिक-जनवादियों, भलेमानस सुधारवादियों के साथ ही तरह-तरह के अवसरवादियों के भानमती के कुनबे जैसी हो गयी है। दूसरी ओर, दो-तीन राज्यों में सरकार चलाने के अनुभव वाली माकपा इनसे कहीं अधिक अनुशासित पार्टी है, लेकिन इस समय देशभर में बुरी तरह पराजय का सामना कर रही है, बस केरल में उसका आख़िरी गढ़ बचाहुआ है। बंगाल में हाल में हुए पंचायत चुनाव में वहाँ साढ़े तीन दशक तक राज करने वाली माकपा तीसरे स्थान पर खिसक गयी, जबकि तृणमूल कांग्रेस पहले और भाजपा दूसरे स्थान पर रहीं। केरल में भी लगता है कि देर-सबेर इनका गढ़ टूटेगा। इनमें सबसे अधिक अवसरवादी, भाकपा-माले (लिबरेशन) ‘’लोकतन्त्र बचाओ, संविधान बचाओ’’ जैसे अभियान चलाने में लगी हुई है। ज़रा सोचिये, भारत को अब भी ‘’अर्द्ध-सामन्ती अर्द्ध औपनिवेशिक’’ मानने वाली कोई पार्टी लोकतन्त्र बचाओ का नारा क्यों देगी जबकि वह नहीं मानती कि भारत बुर्जुआ जनवाद वाला एक राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र देश है? दूसरे, कोई कम्युनिस्ट ‘’संविधान बचाने’’ की गुहार क्यों लगायेगा? उल्लेखनीय है कि संविधान बनाने की पूरी प्रक्रिया अलोकतांत्रिक थी और जनता को जो भी जनवादी और नागरिक अधिकार मिले हुए हैं, उन्हें भी स्थगित करने के प्रावधान, पद्धतियाँ और साधन हमारे संविधान में ही मौजूद हैं। कारण यह है कि यह संशोधनवादी पार्टी घनघोर अवसरवादी लोकरंजकतावाद की लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हो चुकी है। इस पार्टी द्वारा प्रस्तुत विचारधारात्मक अवस्थितियाँ इसके घृणित अवसरवाद को दर्शाती हैं।

संक्षेप में, पूरा संसदीय वाम को फासीवादी उभार के सामने इस समय लकवा मार गया है। दूसरे, फासीवाद के उभार के लिए वे भी कुछ हद तक ज़िम्मेदार हैं, ठीक वैसे ही जैसे यूरोप की सामाजिक-जनवादी और सोशलिस्ट पार्टियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद, सुधारवाद के दायरे में जकड़कर फासीवाद के उभार में मदद पहुँचायी थी। समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना, मज़दूर वर्ग के पास जो भी क़ानूनी या आर्थिक अधिकार हैं उन्हीं से चिपके रहकर ‘पूँजीवाद की सीमाओं के भीतर ही लोकतन्त्र के समाजीकरण’ का युटोपिया संशोधनवादियों और सामाजिक-जनवादियों की ख़ास निशानी है। यह रणनीति, जो ठीकठाक आर्थिक सेहत के दौर में काम करती हुई दिख रही थी, संकट आने के साथ बुरी तरह नाकाम हो गयी। 2007-08 के संकट के समय से यही हो रहा है। बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी, महँगाई, गिरते मुनाफ़े, उद्योग, खेती और व्यापार में छोटी पूँजी की तबाही और विशालकाय घोटालों के बीच होने वाले फासिस्ट उभार के आगे संशोधनवादियों और उनकी रणनीति के पास कोई जवाब नहीं था। इन घोटालों ने बस यही साबित किया था कि शासक वर्गों के विभिन्न धड़ों के बीच की एकता कमज़ोर हो चुकी है और संगठित वर्ग हित के बजाय अलग-अलग हिस्सों के हित हावी हो रहे हैं। आम तौर पर, हर फासिस्ट उीाार के पहले ऐसा होता है। ऐसी स्थितियाँ फासिस्टों के उभार को गति देती हैं। आर्थिक संकट सामाजिक संकट और शासक वर्ग तथा पूँजीवादी राज्य के राजनीतिक संकट के रूप में सामने आता है और बड़ी एकाधिकारी पूँजी अपने हितों की रक्षा के लिए फासिस्ट पार्टी के पीछे खड़ी हो जाती है। 2014 के चुनाव में भी यही हुआ था। आज एक आम आदमी भी जानता है कि कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये, तो बुर्जुआ चुनावों में हार-जीत का फ़ैसला अन्तत: पूँजी की ताक़त से होता है। इसी तरह से मोदी और हिन्दुत्व फासिस्ट सत्ता में आये थे और इसी तरह से वे अपनी राजनीतिक बढ़त बनाये हुए हैं। इस पूरी प्रक्रिया में संसदीय वाम की भूमिका को साफ़ देखा जा सकता है। इसीलिए, फासीवाद के प्रतिरोध की एक कारगर रणनीति के लिए मज़दूर आन्दोलन में अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद और सुधारवाद के भण्डाफोड़ का कार्यक्रम भी आवश्यक है क्योंकि ये विजातीय प्रवृत्तियाँ मज़दूर वर्ग को निहत्था करके उसे मेहनतकश अवाम का अगुवा बनने से रोक देती हैं और फासीवाद को यह मौक़ा देती हैं कि असंतुष्ट निम्न-मध्य वर्ग को अपने पाले में खींच लाये और उसे मज़दूर आन्दोलन के विरोध में खड़ा कर दे।

आज हमें स्पष्ट चुनाव करने होंगे: या तो हम मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से आगे जाने की तैयारी करें या फिर यह परजीवी, सड़ता हुआ, संकटों से घिरा पूँजीवाद फासीवाद या धुर दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया के दूसरे रूपों को पैदा करता ही रहेगा। कोई तीसरा रास्ता नहीं है। 2019 में होने वाले अगले चुनाव में ऊँट किसी भी करवट बैठ सकता है। लेकिन यह सोचना राजनीतिक बचकानापन होगा कि अगर भाजपा हार गयी तो फासीवाद का ख़तरा टल जायेगा। ऐसे ही उन्मत्त जश्न 2004 और 2009 में भाजपा की हार पर भी मनाये गये थे, जब कुछ वाम टिप्पणीकार दलील दे रहे थे कि यह भाजपा की अन्तिम हार है और इससे यह उबर नहीं सकेगी। 2014 के चुनाव से उन्हें गहरा सदमा लगा। कारण यही है कि पूँजीवाद के भीतर, इस सड़ते हुए, मरते हुए पूँजीवाद के भीतर एकमात्र विकल्प धुर दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया ही है, जो अक्सर फासीवाद के रूप में सामने आयेगी। इसलिए, अगर या तो हमें पूँजीवाद से आगे जाने के लिए तैयारी करनी होगी या फिर फासीवाद का दण्ड भुगतने के लिए तैयार हो जाना होगा।

(अंग्रेज़ी पत्रिका ‘एन्विल’ से साभार, अनुवाद: मज़दूर बिगुल)

 

 

मज़दूर बिगुल, मई 2018


 

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