टेक्स्टाइल उद्योग में हड़ताल और बोल्शेविकों का काम (ज़ार की दूमा में बोल्शेविकों का काम-1)

मज़दूर बिगुलके अगले कुछ अंकों में हम एक प्रसिद्ध पुस्तकरूसी दूमा में बोल्शेविकों का कामसे कुछ हिस्से प्रस्तुत करेंगे। दूमा रूस की संसद को कहते थे। एक साधारण मज़दूर से दूमा में बोल्शेविक पार्टी के सदस्य बने ए. बादायेव द्वारा लिखी करीब 100 साल पहले लिखी इस किताब से आज भी बहुतसी चीज़ें सीखी जा सकती थीं। बोल्शेविकों ने अपनी बात लोगों तक पहुँचाने और पूँजीवादी लोकतंत्र की असलियत का भण्डाफोड़ करने के लिए संसद के मंच का किस तरह से इस्तेमाल किया इसे लेखक ने अपने अनुभवों के ज़रिए बख़ूबी दिखाया है। यहाँ हम जो अंश प्रस्तुत कर रहे हैं उनमें उस वक़्त रूस में जारी मज़दूर संघर्षों का दिलचस्प वर्णन होने के साथ ही श्रम विभाग तथा पूँजीवादी संसद की मालिकपरस्ती का पर्दाफ़ाश किया गया है जिससे यह साफ़ हो जाता है कि मज़दूरों को अपने हक़ पाने के लिए किसी क़ानूनी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि अपनी एकजुटता और संघर्ष पर ही भरोसा करना चाहिए। इसे पढ़ते हुए पाठकों को लगेगा कि मानो इसमें जिन स्थितियों का वर्णन किया गया है वे हज़ारों मील दूर रूस में नहीं बल्कि हमारे आसपास की ही हैं।मज़दूर बिगुलके लिए इस श्रृंखला को सत्यम ने तैयार किया है।

तालाबन्दी के आर्थिक कारण

मज़दूर वर्ग के संघर्ष के तेज़ होने के साथ कारख़ानेदारों और उद्योगपतियों की तमाम शक्तियाँ एकज़ट और सक्रिय हो गयीं। मज़दूर आन्दोलन की उठती लहर से पूँजीपति घबराये हुए थे। जुर्माने, अनुशासनहीनता के नाम पर सज़ा देना, मज़दूर नेताओं की गिरफ़्तारियाँ – ये सब हथकण्डे आज़माये जा चुके थे। अब एकजुट पूँजीपतियों ने एक ज़बर्दस्त लम्बी दूर तक मार करने वाला हथियार निकाला – बड़े पैमाने पर मज़दूरों को काम से निकालना। तालाबन्दी ने हज़ारों मज़दूरों को सड़कों पर धकेल दिया और उनके सामने भुखमरी और बेघरबार होने का संकट पैदा हो गया।

रूस का कपड़ा उद्योग उस समय एक आंशिक संकट से गुज़र रहा था और कारख़ानेदारों ने इस स्थिति का फ़ायदा उठाया। जनवरी 1913 से, सेण्ट पीटर्सबर्ग की कपड़ा फ़ैक्टरियों में एक के बाद एक तालाबन्दियाँ होने लगीं, ख़ासकर बड़ी कम्पनियों में।

रोसिस्काया मिल में हड़ताल

सबसे लम्बी तालाबन्दी रोसिस्काया मिल में हुई, जहाँ 1200 मज़दूर काम करते थे। ज़ाहिर था कि मैनेजमेंट ने जानबूझकर ऐसी हालत पैदा की थी क्योंकि वह सभी ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं को निकालना चाहता था। इतना ही नहीं, मालिक लोग बीस-तीस साल से कारख़ाने में काम कर रहे पुराने मज़दूरों को भी बाहर करके उनकी जगह कम उम्र वाले मज़दूरों को रखना चाहते थे।

21 जनवरी को, कार्डिंग विभाग के तीस मज़दूरों को बिना कोई नोटिस दिये यह कह दिया गया कि आज से उनकी मज़दूरी 10 कोपेक प्रतिदिन कम कर दी गयी है। अगली सुबह इस विभाग के मज़दूरों ने मज़दूरी की पुरानी दर बहाल करने के लिए हड़ताल की घोषणा कर दी। मैनेजमेंट यही तो चाहता था। उस रात जब नयी शिफ़्ट के लोग काम पर आये, तो भाप की मशीनें रोक दी गयीं, बत्तियाँ बुझा दी गयीं, और आने वाले मज़दूरों से कह दिया गया कि फ़ैक्ट्री में अनिश्चित काल तक काम बन्द रहेगा और सभी मज़दूरों का हिसाब कर दिया जायेगा। ज़ाहिर था कि मालिकान भड़कावे की कार्रवाई कर रहे हैं। तीस मज़दूरों की माँगें पूरी करने में उन्हें सिर्फ़ 3 रूबल प्रतिदिन ख़र्च करना पड़ता, लेकिन इसकी वजह से 1200 मज़दूर, जो हड़ताल में शामिल भी नहीं थे, बेरोज़गारी और भुखमरी की ओर धकेले जा रहे थे।

उकसावे में आये बिना, मज़दूर कई दिनों तक रोज़ सही समय पर फ़ैक्ट्री गेट पर हाज़िर होते रहे, लेकिनउन्हें भीतर नहीं जाने दिया गया। दो दिन बाद, गेट पर एक नोटिस लगा दी गयी कि सभी मज़दूर दफ़्तर में आकर अपना हिसाब ले जायें। शुरू में मज़दूरों ने इससे इंकार कर दिया, और बेवजह बर्खास्तगी के मुआवज़े के तौर पर दो हफ़्ते की पगार की माँग की। लेकिन मालिकों के पक्ष में दूसरी ताक़तें आ खड़ी हुईं। इलाक़े के मकान-मालिकों और व्यापारियों ने ऐलान कर दिया कि जब तक मज़दूर पुराना बकाया नहीं चुकायेंगे तब तक उन्हें न तो कमरा मिलेगा और न ही कोई सामान मिलेगा। हाल में बीते क्रिस्मस के त्यौहार के कारण मज़दूरों पर बकाये का बोझ भी ज़्यादा था। इस दबाव में, मज़दूरों को अपना हिसाब लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। हर मज़दूर को करीब बीस रूबल मिलने थे; जोकि पूरा का पूरा स्थानीय व्यापारियों को चुकाना पड़ जाता, लेकिन इसके बदले में उन्हें कुछ और उधार मिल सकता था और वे आधा पेट खाकर कुछ दिन और गुज़ार सकते थे।

तालाबन्दी वाले दिन सुबह से ही, मिल के आसपास के इलाक़े में घबराहट और तनाव का माहौल बना हुआ था। चायख़ाने और भटियारख़ाने, उन दिनों के ‘’मज़दूर क्लब’’, जहाँ मज़दूर मिलकर बातचीत किया करते थे, घबराये हुए लोगों से भरे हुए थे – उन्हें चिन्ता सता रही थी कि अपने परिवार सहित उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ेगा।

टेक्सटाइल मज़दूरों को इतनी कम मज़दूरी मिलती थी कि रोज़गार में होने पर भी वे मुश्किल से अपना गुज़ारा कर तापे थे, और बेरोज़गारी का पहला ही दिन उनके लिए भूख की सौगात लेकर आता था।

ज़्यादा वर्ग-सचेत मज़दूरों, यानी सामाजिक-जनवादी और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं ने मज़दूरों के बिखराव को दूर करने और संगठित कार्रवाई करने की कोशिशें शुरू कर दीं। ‘प्राव्दा’ अख़बार की कई सौ प्रतियाँ वहाँ बाँटने के लिए भेजी गयीं जिसमें मज़दूरों से हार नहीं मानने की अपील की गयी थी। मिल में हुई घटनाओं पर चर्चा करने के लिए मीटिंग करने की कोशिश की गयी लेकिन थोड़े से लोगों के भी इकट्ठा होते ही पुलिस उन्हें तितर-बितर कर देती थी।

तालाबन्दी के कारण पैदा हुई दहशत और हताशा का पहला झटका कुछ कम होने के साथ ही मज़दूरों की सोच बदलने लगी। अब वे लम्बी लड़ाई की तैयारी करने लगे, और पुलिस के रोकने के बावजूद तालाबन्दी के शिकार लोगों की मीटिंग बुलायी गयी। यह फ़ैसला किया गया कि निकाले गये सभी मज़दूर एक-दूसरे से सम्पर्क में रहेंगे, सेंट पीटर्सबर्ग के सभी मज़दूरों के नाम अपील जारी की जायेगी, तालाबन्दी के दौरान शराब पीने के विरुद्ध सब मिलकर संघर्ष करेंगे, और मज़दूर शिक्षा मण्डलों से नि:शुल्क कक्षाएँ लेने के लिए अनुरोध किया जायगा। कोई भी स्त्री या पुरुष मज़दूर फ़ैक्ट्री गेट पर जाकर अपने लिए, या दूसरे मज़दूरों के लिए दया की भीख नहीं माँगेगा। जब फ़ैक्ट्री फिर से खुलेगी, तो जब तक सारे मज़दूरों को वापस नहीं लिया जायेगा तब तक कोई मज़दूर काम पर नहीं जायेगा।

फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टरों का रवैया

मालिकों ने सरकारी नियमों का उल्लंघन करके अचानक तालाबन्दी की थी, इसलिए मज़दूरों ने फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर के पास आवेदन किया, जो कम से कम कहने के लिए मज़दूरों के हितों की रक्षा के लिए वहाँ मौजूद था। सेंट पीटर्सबर्ग के सीनियर फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर के दफ़्तर में हुई बातचीत बहुत साफ़ तौर पर ये दिखा देती है कि वह वास्तव में किसके हितों की ‘’रक्षा’’ कर रहा था।

अपने मामले को लेकर इंस्पेक्टर के पास गये टेक्सटाइल यूनियन के प्रतिनिधियों से उसने कहा: ‘’मैं किसी ट्रेड यूनियन संगठन के साथ कोई बातचीत नहीं कर सकता। क़ानून के मुताबिक, मैं सिर्फ़ उस कारख़ाने के मज़दूरों के साथ ही मामले पर चर्चा कर सकता हूँ जहाँ पर विवाद हुआ है।’’

प्रतिनिधिमण्डल ने कहा, ‘’लेकिन हम भी क़ानून का पालन कर रहे हैं। क़ानूनी अधिकारियों ने हमारी नियमावली को मंजूरी दी है जिसके अनुसार यूनियन को अपने सदस्यों के हितों के लिए निजी व्यक्तियों तथा सरकार के अफ़सरों, दोनों के साथ वार्ता करने का अधिकार है।’’

इन दो परस्पर-विरोधी ‘’क़ानूनी अधिकारों’’ के बीच टकराव आख़िरकार इस संयोग के चलते हल हो गया कि निकाला गया एक मज़दूर यूनियन का प्रतिनिधि भी था। इसके बाद फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर बातचीत के लिए राज़ी हो गया। बातचीत करीब दो घण्टे चली जिसमें इंस्पेक्टर अपनी हत्थेदार कुर्सी पर आराम से पसरा हुआ था, जबकि यूनियन के प्रतिनिधि, हाथ में अपनी टोपियाँ  लिये हुए, मज़दूर हितों के उस ‘’रक्षक’’ के सामने खड़े रहे।

इंस्पेक्टर बोला, ‘’जहाँ तक मज़दूरों के साथ पुलिस की ज़ोर-ज़बर्दस्ती और फ़ैक्ट्री गेट पर जाने वालों की पिटाई का सवाल है, इसके बारे में आपको पुलिस कप्तान से शिकायत करनी चाहिए। इससे मेरा कोई लेना-देना नहीं है और मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता।’’

लेकिन जल्दी ही यह साफ़ हो गया कि वह कारख़ाना मैनेजमेंट की कार्रवाइयों में भी कोई हस्तक्षेप नहीं करने वाला था। उसका सोचना था कि सबकुछ बिल्कुल ठीकठाक था। मज़दूरों को तालाबन्दी से पहले एक पखवाड़े की मज़दूरी एडवांस पाने का कोई अधिकार नहीं था। तालाबन्दी का फ़ैसला फ़ैक्ट्री मालिकों ने ख़ुद लिया था और उसके विभाग को इसे रोकने का अधिकार नहीं था। अन्त में उसने कहा, ‘’तुम लोगों का केस कमज़ोर है।’’

फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टर से मुलाकात ने एक बार फिर यह दिखा दिया कि रूस के क़ानून किसके द्वारा और किसके लिए बनाये गये थे। मज़दूर केवल अपने आप पर और सेंट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा वर्ग की बिरादराना सहायता पर भरोसा कर सकते थे। और उन्होंने यह मदद हासिल की। तालाबन्दी के शिकार हुए स्त्री और पुरुषों – ठीक उसी समय पर एक और बड़ी कॉटन मिल से भी 2000 मज़दूर इसी तरह से निकाले गये थे – की मदद के लिए शहर के मज़दूर जिस तरह से सामने आये, उसने दिखा दिया कि मज़दूर वर्ग के बीच एकजुटता की भावना काफ़ी मज़बूत है। मज़दूरों ने अव्छी तरह समझ लिया था कि एक फ़ैक्ट्री में होने वाला संघर्ष वास्तव में पूरे मज़दूर वर्ग का संघर्ष है।

सेंट पीटर्सबर्ग के मज़दूरों से
मिली मदद

टेक्स्टाइल कारख़ानों में होने वाली तालाबन्दी से सेंट पीटर्सबर्ग के सारे मज़दूरों में आक्रोश फैल गया था। कुछ जगहों पर आन्दोलन की अगुवाई अराजकतावादी तत्व कर रहे थे जिन्होंने मशीनें तोड़ने, आगज़नी और दूसरे आतंककारी तरीकों के ज़रिए इसका जवाब देने के लिए मज़दूरों का आह्वान किया। सामाजिक-जनवादियों ने ऐसे तौर-तरीकों का हमेशा विरोध किया था और इन्हें मज़दूर आन्दोलन के लिए बेकार और नुकसानदेह मानते थे। अच्छी बात यह थी कि थोड़े ही लोग अराजकतावादियों का समर्थन करते थे और हमने जल्दी ही इन प्रवृत्तियों को दूर कर दिया।

टेक्सटाइल मज़दूरों को सेंट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा वर्ग की ओर से मिलने वाली सहायता एक और रूप में भी सामने आयी। जल्दी ही सभी कारख़ानों और वर्कशॉपों में बर्खास्त मज़दूरों की मदद के लिए चन्दा जुटाना शुरू हो गया। इकट्ठा हुए पैसे को दूमा में सामाजिक-जनवादी धड़े के पास भेज दिया गया, जिसने इसे सही ढंग से बाँटने का इन्तज़ाम करवाया।

तालाबन्दी के बारे में संसद
में प्रस्ताव

तालाबन्दी के शुरुआती दिनों में, टेक्स्टाइल मज़दूरों ने सामाजिक-जनवादी धड़े से यह माँग की थी कि मालिकों द्वारा हज़ारों मज़दूरों के साथ किये गये अमानवीय व्यवहार के बारे में सरकार से हस्तक्षेप करने के लिए दूमा में आवाज़ उठायी जाये। दूमा धड़े की आपात बैठक में तत्काल इस प्रस्ताव को तैयार करके पहला अवसर पाते ही संसद में रखने का फ़ैसला किया गया। प्रस्ताव तैयार करके फरवरी के शुरू में ही पेश कर दिया गया, लेकिन 1 मार्च तक उस पर चर्चा नहीं करायी गयी, यानी तालाबन्दी शुरू होने के छह हफ़्ते बाद तक। दूमा के बहुमत ने इस सवाल पर चर्चा को जानबूझकर टाले रखा ताकि मज़दूरों का उत्साह ठण्डा पड़ जाये।

सरकार के सामने इस तरह के प्रस्ताव तभी लाये जा सकते थे जब किसी क़ानून का उल्लंघन होने की बात हुई हो। तालाबन्दी इस तरह का उल्लंघन नहीं था क्योंकि रूसी साम्राज्य का क़ानून मज़दूरों को एकमुश्त काम से निकाले जाने पर रोक नहीं लगाता था। इसलिए, प्रस्ताव को क़ानूनी हिसाब से तैयार करने के लिए हमें इसमें फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टरों द्वारा अपना कर्तव्य पूरा नहीं करने का मुद्दा उठाना पड़ा। इस औपचारिक आधार के पीछे असली बात उठायी जानी थी – और वह थी मज़दूर वर्ग और उसके ट्रेड यूनियन संगठनों के ख़िलाफ़ पूँजीपतियों के संगठित अभियान का भण्डाफोड़ करना।

प्रस्ताव की शुरुआत में मिल-मालिकों द्वारा घोषित तालाबन्दी से पैदा हुए हालात का वर्णन किया गया था। अन्त में, यह कहा गया था कि संसद को श्रम एवं व्यापार के मंत्री से पूछना चाहिए कि क्या उन्हें फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टरों की ग़ैर-क़ानूनी कार्रवाइयों की जानकारी है और वे क्या क़दम उठाने वाले हैं जिससे उनके विभाग के ये अधिकारी अपनी क़ानूनी ड्यूटी निभाने के लिए बाध्य हों।

हालाँकि संसद ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया लेकिन इसकी स्थिति भी हमारे धड़े की ओर से पेश किये गये दूसरे प्रस्तावों से बेहतर नहीं रही। प्रस्ताव मिलने के बाद, सम्बन्धित मंत्रालय लाल फ़ीताशाही की पूरी मशीनरी को सक्रिय कर देते थे – ‘’मामले की जाँच की जा रही है’’, ‘’रिपोर्ट की प्रतीक्षा है’’ आदि-आदि। इस तरह प्रस्ताव फ़ाइलों में पड़े-पड़े धूल खाता रहता था जबकि असल मामला ठण्डा पड़ जाता था, और उसके बाद ही मंत्री महोदय अपना औपचारिक दायित्व निभाते थे और संसद में अपना ‘’जवाब’’ पेश करते थे।

करीब छह हफ़्ते की देर के बाद, श्रम एवं व्यापार मंत्रालय के एक अफ़सर, लितविनोव-फ़ेलिंस्की ने प्रस्ताव का उत्तर दिया। यह अफ़सर ज़ारशाही सरकार की पूरी श्रम नीति के पीछे के असली दिमाग़ और उसे लागू करने वाले के रूप में जाना जाता था। उसके जवाब ने उससे पहले ज़ार के मंत्रियों की कही गयी हर बात को भी झूठा साबित कर दिया। लितविनोव ने सीधे कह दिया कि प्रस्ताव में जिस स्थिति की चर्चा की गयी है वैसा कुछ हुआ ही नहीं है; कि कॉटन मिल के कार्डिंग विभाग में मज़दूरी में कोई कटौती नहीं की गयी, कि कोई तालाबन्दी हुई ही नहीं और फ़ैक्ट्री इंस्पेक्टरों ने कोई ग़ैर-क़ानूनी काम नहीं किया। यह जवाब उस समय के हालात को देखते हुए भी बेहद वाहियात था। धुर दक्षिणपंथी मारकोव, पुरिशकेविच और उनके दूसरे साथियों ने ख़ुश होकर तालियाँ बजायीं और ‘’वामपंथियों के झूठों’’ का मज़ाक उड़ाया।

मैक्सवेल फ़ैक्ट्री में हुई दूसरी तालाबन्दी

कॉटन मिल का संघर्ष अभी ख़त्म ही हुआ था कि टेक्सटाइल उद्योग में एक और तालाबन्दी हो गयी। इस बार मैक्सवेल के कारख़ानों के मज़दूर निकाले गये, जहाँ दिसम्बर 1912 में एक तीखा विवाद हो चुका था। यहाँ पर मालिकों ने और भी नंगई के साथ हमला किया। जैसाकि पिछले विवाद में भी हुआ था, मज़दूरों को सीधे काम से निकाल दिया गया क्योंकि उन्होंने एक राजनीतिक हड़ताल में भागदारी की थी। यह हड़ताल लेना नाम की जगह पर मज़दूरों के ऊपर हुए गोलीकाण्ड की बरसी पर आयोजित की गयी थी।

इसके बाीद हुई मीटिंग में मज़दूरों ने तय किया कि अपना हिसाब लेकर बर्खास्तगी को स्वीकार नहीं करेंगे बल्कि इसका जवाब हड़ताल से देंगे और फ़ैक्ट्री में काम कर रहे सभी मज़दूरों को वापस लेने की माँग करेंगे। काम के हालात के बारे में कुछ और माँगें भी इसमें जोड़ दी गयीं। अभावों के बावजूद, मज़दूर पूरे जोश के साथ लड़े और पहले की तरह इस बार भी उन्हें सेंट पीटर्सबर्ग के सर्वहारा वर्ग का समर्थन मिला।

हड़ताली मज़दूरों ने मुझसे सहायता कोष इकट्ठा करने के काम को संगठित करने के लिए कहा। हड़ताल के शुरुआती दिनों में मैंने सारे मज़दूरों के नाम एक अपील ‘प्राव्दा’ में प्रकाशित की। इसका तुरन्त और सन्तोषजनक जवाब मिला – सभी कारख़ानों में चन्दे जुटाये गये। शाम को पैसा मेरे पास लाया गया और मैंने उसे हड़तालियों के प्रतिनिधियों को सौंप दिया। पहले दिन 700 रूबल इकट्ठा हुए, दूसरे दिन 500 से ज़्यादा और ये सिलसिला चलता रहा।

तालाबन्दी और हड़ताल एक महीने से ज़्यादा चली। जब 2 मई को फ़ैक्ट्री फिर खुली, तो सभी मज़दूरों को वापस नहीं लिया गया, लेकिन मैनेजमेंट अपनी योजना पूरी तरह लागू नहीं कर पाया। तालाबन्दी घोषित करते समय उसने मज़दूरी में कटौती और काम के घण्टे बढ़ाने की बात कही थी, लेकिन उसे पुरानी दरें बरकरार रखनी पड़ीं। यह मज़दूरों के लिए एक जीत थी जिन्होंने बड़े संगठित तरीके से लम्बा संधर्ष चलाया था।

1913 के बसन्त में, टेक्सटाइल उद्योग की कई मिलों में फिर तालाबन्दी कर दी गयी। जब तक बाज़ार के हालात मालिकों के लिए अनुकूल नहीं थे, तब तक वे बार-बार तालाबन्दी करते रहे। गर्मियों में, जब कुछ समय बाद होने वाले निज्नी-नोवगोरोद के विशाल मेले के मद्देनज़र कपड़ा बाज़ार की हालत धीरे-धीरे सुधरने लगी, तब तालाबन्दी करने में मालिकों का फ़ायदा नहीं रहा। इसके बाद मज़दूरों ने आर्थिक माँगों को लेकर कई हड़तालें कीं और अपने काम की स्थितियों और मज़दूरी में सुधार करवाने में सफल रहे।

1912-13 की तालाबन्दियों के दौरान, सेंट पीटर्सबर्ग के टेक्सटाइल मज़दूरों ने बहुत कठिनाइयाँ सहीं, लेकिन कई हारों का सामना करने के बावजूद बहुत से लाभ भी उन्हें मिले। रूसी सर्वहारा वर्ग के सबसे पिछड़े हिस्से, टेक्सटाइल मज़दूरों ने  संगठन और एकजुटता के महत्व को समझ लिया। उनकी तकलीफ़ें बेकार नहीं गयीं। इसने मज़दूरों को तैयार करने और आगे आनी वाली लड़ाइयों के लिए मज़बूत बनाने का काम किया।

 

मज़दूर बिगुल, सितम्‍बर-अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2018


 

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