8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के अवसर पर कार्यक्रम

बिगुल संवाददाता

घरेलू कामगारों और स्त्री-मज़दूरों के बीच फि़ल्म-शो का आयोजन

 

दिल्ली के शाहबाद डेरी इलाक़े में दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन ने घरेलू कामगारों के जीवन एवं काम की परिस्थितियों पर बनी फि़ल्म ‘अनसुनी आवाज़ें’ का प्रदर्शन किया एवं 8 मार्च के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में बातचीत की गयी। ‘अनसुनी आवाज़ें’ फि़ल्म दिल्ली की शानदार और चमचमाती कोठियों में बसनेवालों की ज़िन्दगी आसान बनानेवालों की कहानी कहती है। फि़ल्म बताती है कि देश की एक बड़ी आबादी दिल्ली जैसे महानगरों में अपनी मेहनत को कौड़ियों के मोल बेचने को मजबूर है और गुमनामी में जी रही है। फि़ल्म यह भी बताती है कि घरेलू कामगारों की यह आबादी 10 घण्टे खटने के बाद भी मज़दूर का दर्जा पाने से वंचित है। ऐसा इसलिए है कि इनके लिए अभी तक कोई क़ानून नहीं है। फि़ल्म इस बात को भी रेखांकित करती है कि घरेलू कामगारों को अपने लिए क़ानून बनवाने के लिए सरकार को बाध्य करना पड़ेगा और यह काम बिना एकजुट हुए और बिना संघर्ष के नहीं हो सकता।

यूनियन की अदिति ने बात रखते हुए कहा कि 8 मार्च का यह ऐतिहासिक दिन हमें यह प्रेरणा देता है कि संघर्षों में रुकेंगे नहीं और अपना हक़ लेकर रहेंगे। उन्होंने 8 मार्च के इतिहास के बारे में बात रखते हुए बताया कि 8 मार्च 1857 को अमेरिका के न्यूयाॅर्क शहर के कपड़ा मिलों में काम करने वाली स्त्री मज़दूरों ने वेतन में बढ़ोत्तरी, काम के घण्टे 10 करने, काम की स्थितियों में बेहतरी करने और स्त्री-मज़दूरों के लिए समान अधिकारों की माँग रखते हुए विरोध प्रदर्शन किया। उस समय न्यूयाॅर्क के कपड़ा मिलों में महिलाओं से 15 से 16 घण्टे तक काम लिया जाता था। काम की स्थितियाँ बहुत बदतर थीं। इसी कड़ी में 8 मार्च 1908 को न्यूयाॅर्क में ही सिलाई करने वाली स्त्री मज़दूरों ने वोट देने के अधिकार और बाल मज़दूरी को ख़त्म करने की माँग करते हुए हड़ताल की। 1910 में कोपेनहेगेन में दुनिया भर की मज़दूर पार्टियों के अन्तरराष्ट्रीय मंच ने अन्तरराष्ट्रीय महिला सम्मलेन का आयोजन किया। इसी सम्मलेन में क्रान्तिकारी नेता क्लारा जेटकिन ने यह प्रस्ताव रखा कि 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाये। तब से पूरी दुनिया में 8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन महिला मज़दूरों के संघर्षों की याददिहानी और हमारे समय में नये संकल्प लेने और संघर्षों के लिए उठ खड़े होने की प्रेरणा देता है।

स्त्री मज़दूर संगठन की बीना ने कहा कि पूँजीवादी समाज में स्त्रियाँ दोहरे उत्पीड़न का शिकार होती हैं – एक तो पूँजी की ग़ुलामी और दूसरी तरफ़ पितृसत्तात्मक ग़ुलामी। हम अपने आसपास, फ़ैक्टरियों तथा जिन घरों में हम काम करते हैं वहाँ  लगातार इस सामाजिक मानसिकता के दंश को झेल रहे हैं। आज के समय में जब हमारे जीवन को पूँजी की लूट ने बद से बदतर बना दिया है तो ठीक इसी कारण आज हमें उठ खड़े होने की ज़रूरत भी सबसे ज़्यादा है। आज समाज के पोर-पोर में पैठी स्त्री दलित, अल्पसंख्यक और मज़दूर विरोधी मानसिकता और फासीवादी राजनीति के ख़िलाफ़ लगातार संगठित होने की ज़रूरत है।

दिल्ली घरेलू कामगार यूनियन की कार्यकारिणी सदस्य मरजीना ने कहा कि हमें अपनी यूनियन को और भी अधिक मजबूत करने की ज़रूरत है। इस दुनिया की आधी आबादी औरतों की है और बिना औरतों के लड़े दुनिया के हालात नहीं बदलने वाले।

इस कार्यक्रम में घरेलू कामगारों के साथ-साथ स्त्री मज़दूरों ने हिस्सा लिया। नौजवान भारत सभा के युवा सदस्यों ने कार्यक्रम के प्रबन्धन और संचालन में उत्साहपूर्वक भागीदारी की। कार्यक्रम के अन्त में झूठी और युद्धोन्माद की राजनीति फैलानेवाली गोदी मीडिया के बहिष्कार का संकल्प लिया गया।

 

देहरादून में फ़ि‍ल्म शो और बातचीत

‘स्त्री मुक्ति लीग’ और ‘उत्तराखण्ड महिला मंच’ द्वारा अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एमकेपी कॉलेज, देहरादून में बहुचर्चित ईरानी फ़िल्म की स्क्रीनिंग और उस पर बातचीत की गयी। इस अवसर पर स्त्री मुक्ति लीग द्वारा ‘मुक्ति के स्वर’ पोस्टर प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसमें स्त्रियों की ग़ुलामी के इतिहास को दिखाया गया।

स्त्री मुक्ति लीग की संयोजिका कविता कृष्णपल्लवी ने कहा कि निजी सम्पत्ति और वर्गों के उद्भव के साथ स्त्री दासता पैदा हुई और उनकी समाप्ति के साथ ही स्त्री मुक्ति का भविष्य जुड़ा हुआ है। इक्कीसवीं सदी में भी स्त्रियाँ दोहरी ग़ुलामी की जं़जीरों में जकड़ी हुई हैं। एक तरफ़ पुरुष सत्तात्मक समाज की पुरुष वर्चस्ववादी घरेलू सामाजिक ग़ुलामी है, वहीं दूसरी ओर पुरुष पर आर्थिक परावलम्बिता । बेशक, स्त्रियों को आर्थिक स्वावलम्बिता और निजी आज़ादी की साहसिक लड़ाई लड़नी ज़रूरी है, पर व्यापक सामाजिक मुक्ति से इसे जोड़े बग़ैर निजी ज़िन्दगी में भी कोई ताज़गी और ऊर्जस्विता नहीं बची रह पायेगी। स्त्रियों को अपनी सामाजिक-आर्थिक ग़ुलामी की बेडि़यों को तोड़ने के लिए व्यापक एकजुटता क़ायम करनी होगी। उनकी लड़ाई पुरुषों से नहीं पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक आर्थिक तानेबाने से है।

उत्तराखण्ड महिला मंच की कमला पन्त ने कहा कि अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस स्त्रियों के स्वाभिमान, आज़ादी और संघर्ष का प्रतीक दिन है। यह दिन पूरी दुनिया की औरतों के एकजुट होने और अपनी सामाजिक-आर्थिक ग़ुलामी को तोड़ने के संकल्प का दिन है। स्त्री मुक्ति का सवाल सिर्फ़ पढ़ने, नौकरी कर लेने और अपने विचार रख लेने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आधी आबादी की अस्मिता, स्वाभिमान और उस चीज़़ में बराबरी के अधिकार की लड़ाई है जो पुरुष-सत्तात्मक समाज ने स्त्रियों को सिर्फ़ “स्त्री” होने के नाते उससे वंचित कर दिया है।

इस अवसर पर ईरानी फ़िल्मकार मर्जिएह मेश्कि़नी की विश्व प्रसिद्ध फ़िल्म ‘THE DAY I BECAME A WOMAN’ (वह दिन जब मैं औरत बन गयी) दिखायी गयी। और उसपर दिलचस्प बातचीत भी हुई। यह फ़िल्म तीन अलग-अलग पीढ़ियों की स्त्रियों की सामाजिक ग़ुलामी और उससे निकलने की जद्दोजहद को बहुत ही ख़ूबसूरत ढंग से दर्शाती है। फ़िल्म के कई दृश्यों को ऐसे मोड़ पर ख़त्म किया गया है जो एक स्त्री ज़िन्दगी के कई पहलुओं पर सोचने को मजबूर कर देते हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़ि‍लों में कार्यक्रम

स्त्री मुक्ति लीग, दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से । इलाहाबाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बातचीत और क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति तथा महिला छात्रावास परिसर में क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति, पोस्टर एवं पुस्तक प्रदर्शनी, पर्चा वितरण और कविता पाठ का आयोजन किया गया। गोरखपुर में बिस्मिल तिराहे पर पोस्टर प्रदर्शनी के ज़रिए लोगों को अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की क्रान्तिकारी विरासत से परिचित कराया गया। अम्बेडकर नगर के सिंघलपट्टी स्थित शहीद भगतसिंह पुस्तकालय पर नौजवान भारत सभा और स्त्री मुक्ति लीग की ओर से परिचर्चा का आयोजन किया गया। चित्रकूट के रामनगर में नौजवान भारत सभा के कार्यकर्ताओं ने अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस की विरासत पर पर्चे वितरित किये। कार्यकर्ताओं ने कहा कि आज स्त्री मुक्ति आन्दोलन को एनजीओपन्थी, सुधारवादी भ्रमजालों से मुक्त करके एक क्रान्तिकारी राजनीति की दिशा में मोड़ना होगा।

लखनऊ में रैली और सभा

लखनऊ के डालीगंज के इलाके में स्त्री मुक्ति लीग और नौजवान भारत सभा की तरफ से एक रैली निकाली गई

रैली के बाद हुई सभा में स्त्री मुक्ति लीग की शिप्रा ने कहा कि एक लड़की को बचपन से ही कदम-कदम पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। उसे हर जगह यह एहसास दिलाया जाता है कि वो लड़कों से कमतर है।   पढ़ाई, नौकरी से लेकर शादी तक के फैसलें लेने के अधिकार लड़कियों को नहीं मिलते हैं। उनके सपनों को कुचल दिया जाता है।

मीनांक्षी ने कहा कि समाज में पुरुष स्वामित्ववादी सोच इस कदर हावी है कि लड़कियाँ अपना जीवन साथी तक नहीं चुन सकतीं। कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय पुरुष लेते हैं। स्त्रि‍यों को सिर्फ चूल्हे-चौखट और बच्चे पालने तक सीमित कर दिया जाता है।

सभा का संचालन कर रही रूपा ने कहा कि हमारी असली लड़ाई पुरूषवादी सोच से है। इसके लिए हमें संगठित होकर संघर्ष करना होगा हर स्त्री विरोधी अपराध के खिलाफ आवाज़ उठाना होगा क्योंकि हमारी चुप्पी पितृसत्तात्मक सोच को और बढ़ावा देगी। महिलाएं घर और बाहर दोहरी गुलामी झेल रहीं हैं। इस स्थति को बदलने के लिए महिलाओं को अपनी मुक्ति की लड़ाई के साथ-साथ छात्रों, मजदूरों के चल रहे संघर्षों का भी साथ देना होगा। क्योंकि केवल अपनी लड़ाई लड़ने से स्त्री-मुक्ति सम्भव नहीं, स्त्री की मुक्ति पूरी मानवता के मुक्ति के साथ ही हो सकती है।

मज़दूर बिगुल, मार्च 2019


 

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