क्रान्तिकारी समाजवाद ने किस प्रकार महामारियों पर क़ाबू पाया
सोवियत संघ और क्रान्तिकारी चीन के अनुभव

– आनन्द सिंह

पिछले डेढ़ वर्ष से जारी कोरोना वैश्विक महामारी ने न सिर्फ़ तमाम पूँजीवादी देशों की सरकारों के निकम्मेपन को उजागर किया है बल्कि पूँजीवादी चिकित्सा व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र को भी पूरी तरह से बेनक़ाब कर दिया है और पूँजीवाद के सीमान्तों को उभारकर सामने ला दिया है। मुनाफ़े की अन्तहीन सनक पर टिके पूँजीवाद की क्रूर सच्चाई अब सबके सामने है। विज्ञान व प्रौद्योगिकी की विलक्षण प्रगति का इस्तेमाल महामारी पर क़ाबू पाने की बजाय ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने के नये अवसर तलाशने के लिए किया जा रहा है। पूँजीवाद के इस मानवद्रोही चरित्र के उजागर होने के बाद यह सवाल बेहद प्रासंगिक हो जाता है कि समाजवाद में महामारियों पर किस प्रकार क़ाबू पाया जाता है। इस लेख में हम बीसवीं सदी की दो महान क्रान्तियों, रूसी क्रान्ति और चीनी क्रान्ति, के बाद महामारियों व बीमारियों पर नियंत्रण करने के लिए किये गये उपायों की चर्चा करेंगे।

अक्टूबर क्रान्ति के बाद रूस में महामारियों पर क़ाबू कैसे पाया गया?

रूस में 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति के बाद स्थापित समाजवादी सत्ता जहाँ एक ओर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए 14 साम्राज्यवादी देशों के हमलों, घेरेबन्दी और देश के भीतर जारी गृहयुद्ध व भीषण खाद्य संकट से जूझ रही थी वहीं दूसरी ओर उसे अनेक महामारियों का सामना भी करना पड़ा था। यह वही दौर था जब पूरी दुनिया में स्पैनिश फ़्लू नामक महामारी फैली हुई थी। रूस में स्पैनिश फ़्लू से भी ज़्यादा क़हर टाइफ़स नामक महामारी बरपा कर रही थी। 1918 से 1922 के बीच टाइफ़स ने तक़रीबन 25 लाख लोगों को अपना शिकार बना लिया था। इसके अलावा हैज़ा, चेचक और तपेदिक ने भी महामारी की शक्ल अख़्तियार कर ली थी। ग़ौरतलब है कि यह वही दौर था जब प्रथम विश्वयुद्ध भी जारी था जिसकी वजह से भी परजीवी कीटाणुओं के पनपने में मदद मिल रही थी और तमाम बीमारियाँ महामारियों का रूप ले रही थीं।
ग़ौरतलब है कि समाजवादी सत्ता के पास उस समय संसाधन बेहद सीमित थे और युद्ध व गृहयुद्ध की परिस्थिति में उसकी चुनौती और कठिन हो गयी थी। उस समय जीवविज्ञान व चिकित्सा विज्ञान भी आज के दौर से बहुत पीछे था। एण्टीबायोटिक जैसी दवाओं का आविष्कार अभी नहीं हुआ था। युद्धों की वजह से अस्पताल, चिकित्सीय उपकरणों, चिकित्सकों और चिकित्साकर्मियों का भी भीषण अभाव था।
इस विकट परिस्थिति में नवजात मज़दूर सत्ता ने महामारियों पर क़ाबू पाने के लिए जो उपाय किये उनसे आज भी प्रेरणा ली जा सकती है। सोवियत सत्ता ने क्रान्ति के फ़ौरन बाद स्वास्थ्य सेवाओं का राष्ट्रीकरण किया जिसकी बदौलत दवाओं व अन्य चिकित्सीय सुविधाओं का योजनाबद्ध ढंग से इस्तेमाल किया जा सका। कालाबाज़ारियों के ख़ि‍लाफ़ सख़्त कार्रवाई करके चिकित्सीय संसाधन जनता को नि:शुल्क उपलब्ध कराये गये। दवाओं और चिकित्सीय उपकरणों के उत्पादन के लिए नये कारख़ाने लगाये गये और हर शहर व क़स्बों में नये अस्पताल खोले गये। इन त्वरित क़दमों की बदौलत ही रूस में स्पैनिश फ़्लू पर पूँजीवादी देशों से पहले ही क़ाबू पा लिया गया था।
क्रान्ति के एक साल पूरा होने से पहले ही जुलाई 1918 में सार्वजनिक स्वास्थ्य की जन कमीसारियत (नारकोमज्द्राव) स्थापित की गयी जिसका लक्ष्य सोवियत संघ में चिकित्सा सम्बन्धी संस्थाओं, शोधों व अनुसन्धानों, महामारी की निगरानी करने वाली संस्थाओं, चिकित्सीय शिक्षण व प्रशिक्षण एवं चिकित्सा व स्वच्छता सम्बन्धी जागरूकता फैलाने वाली संस्थाओं के बीच तालमेल करके एक एकीकृत व सार्वभौमिक प्रणाली की स्थापना करना था। नारकोमज्द्राव की तमाम गतिविधियाँ दो वैचारिक स्तम्भों पर आधारित थीं: पहला, लोगों के स्वास्थ्य की स्थिति में सा‍माजिक कारकों की प्रधानता और दूसरा, रोग निवारक तरीक़ों की बजाय रोग निरोधी तरीक़ों की प्रधानता।
तत्कालीन रूसी समाज के पिछड़ेपन और अशिक्षा को देखते हुए सोवियत सत्ता ने लोगों के बीच स्वास्थ्य और स्वच्छता सम्बन्धी बुनियादी जानकारी को बड़े पैमाने पर प्रचारित करने का बीड़ा उठाया और स्वास्थ्य और स्वच्छता को एक जनान्दोलन का रूप दिया। आज की पूँजीवादी सत्ताएँ टेलीविज़न, इण्टरनेट और सोशल मीडिया के बावजूद स्वास्थ्य व स्वच्छता सम्बन्धी सही जानकारी लोगों तक नहीं पहुँचा पा रही हैं। लेकिन आज से एक सदी पहले समाजवादी सत्ता ने ये काम पोस्टरों के ज़रिये कारगर ढंग से पूरा करके दिखाया। शहरों, क़स्बों और गाँवों को स्वास्थ्य व स्वच्छता के प्रति जागरूकता फैलाने वाले पोस्टरों से पाट दिया गया था। विक्तोर देनी और दिमित्री मूर जैसे सोवियत जन कलाकारों ने ऐसे रचनात्मक पोस्टरों को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ये पोस्टर आसान भाषा में और ग्राफ़, चार्ट व तस्वीरों के साथ बनाये जाते थे ताकि कम पढ़े लिखे और निरक्षर लोग भी उन्हें समझ सकें।
महामारियों को फैलने से रोकने के लिए लोगों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए चलायी जा रही मुहिम को ‘स्वच्छता प्रबोधन’ का नाम दिया गया। इस मुहिम की ख़ासियत यह थी कि इसे शहरों, क़स्बों व गाँवों में मज़दूरों और किसानों की कमेटियों की सहभागिता से चलाया गया था। बड़े पैमाने पर पोस्टर लगाने के अलावा ये कमेटियाँ घरों व सार्वजनिक स्थानों का मुआयना करती थीं और लोगों के बीच स्वास्थ्य व स्वच्छता सम्बन्धी अहम जानकारियाँ देती थीं तथा नियमित नहाने और हाथ साफ़ करने के लिए साबुन का वितरण करती थीं। इसके अलावा देश के कोने-कोने तक स्वास्थ्य व स्वच्छता सम्बन्धी जानकारी पहुँचाने के लिए विशेष ट्रेनें चलायी गयी थीं जिनमें प्रदर्शनी के माध्यम से लोगों को जागरूक किया जाता था। कई ऐसी ट्रेनें भी चलायी गयीं जिनमें अस्पताल की सुविधाएँ मौजूद थीं। यही नहीं सार्वजनिक स्नानघर व शौचालय की व्यवस्था से लैस ट्रेनें भी चलायी गयीं।
क्रान्ति के बाद चिकित्सकों, सह-चिकित्सकों, नर्सों, मिडवाइफ़ों, डेण्टिस्टों, फ़ा‍र्मासिस्टों व अन्य चिकित्सा कर्मियों की भारी क़िल्लत से निपटने के लिए विशेष शिक्षण व प्रशिक्षण अभियान चलाया गया। 1913 और 1926 के बीच में ऐसे चिकित्सा कर्मियों की संख्या में 60 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई।
‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ जैसी ऐतिहासिक पुस्तक के लेखक, प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार और क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी जॉन रीड उस दौर में रूस में ही थे। टाइफ़स का क़हर इतना ज़्यादा था कि रीड भी उसकी चपेट में आ गये। टाइफ़स के संक्रमण की वजह से 1920 में उनकी मृत्यु हो गयी। अपनी मृत्यु से कुछ दिनों पहले ही उन्होंने सोवियत रूस में महामारी की विकट परिस्थिति और समाजवादी सत्ता द्वारा उससे निपटने के लिए किये जा रहे उपायों का विशद वर्णन ‘लिबरेटर’ पत्रिका के एक लेख में किया था। इस लेख में रीड लिखते हैं :
“टाइफ़स, रुक-रुक कर आने वाला बुख़ार, इन्फ़्लुएंज़ा मज़दूरों में बहुत तेज़ी से फैल रहे थे; गाँवों में जहाँ पेलाग्रा (एक बीमारी) का क़हर था, वहाँ किसानों को नमक तक नहीं मिल पा रहा था। दो साल से ज़्यादा समय से अर्द्ध-भुखमरी की स्थिति में रहने वाले लोगों के शरीर बीमारियों से जूझ नहीं पा रहे थे। मित्र देशों द्वारा रूस में दवाएँ तक भेजने में पाबन्दी की सचेत नीति की वजह से हज़ारों मौतें हुईं। इन सबके बावजूद सार्वजनिक स्वास्थ्य की जन कमीसारियत ने एक विशालकाय स्वच्छता सेवा तंत्र का निर्माण किया जो पूरे रूस में स्थानीय सोवियतों के नियंत्रण वाले चिकित्सीय अनुभागों का एक नेटवर्क था। इसकी पहुँच उन इलाक़ों तक भी थी जहाँ पहले कभी कोई डॉक्टर नहीं पहुँचा था। हर टाउनशिप में अब कम से कम एक और कई बार तो दो या तीन नये अस्पताल बनाये गये थे। इस सेवा तंत्र में डॉक्टरों को लामबन्द किया जाता था और अभी भी किया जा रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह सेवा तंत्र पूरी तरह से नि:शुल्क है। लाखों चटक रंग के पोस्टर हर जगह लगाये गये हैं जिनमें चित्रों के माध्यम से लोगों को बताया गया है कि बीमारी से कैसे बचें और उनसे घरों, गाँवों और ख़ुद की सफ़ाई करने के लिए आग्रह किया गया है। रूस में एक अखिल रूसी मातृत्व प्रदर्शनी की शुरुआत की गयी जिसका उद्देश्य बच्चों को जन्म देने और उनके पालन-पोषण के बारे में महिलाओं को जागरूक करना है। इस प्रदर्शनी को रूस के सबसे दूर-दराज़ के गाँवों समेत देश के कोने-कोने तक ले जाया गया। हर क़स्बे और शहर में कामगार महिलाओं के लिए नि:शुल्क मातृत्व अस्पताल हैं जहाँ वे बच्चा पैदा होने के आठ सप्ताह पहले और बाद का समय बिताती हैं जहाँ उन्हें बच्चे की देखरेख करना सिखाया जाता है। इस दौरान उन्हें पूरा वेतन मिलता है। यही नहीं हर क़स्बे में नि:शुल्क दवाख़ानों, जिनकी संख्या ज़ारकालीन दौर से दस गुना ज़्यादा है, के अलावा दुधमुँहे बच्चों की माँओं के लिए विशेष परामर्श केन्द्र भी हैं। यहाँ बच्चों के लिए सबकुछ किया जाता है। अर्द्धभुखमरी झेल रहे जर्मनी में बच्चे बेहद कमज़ोर पैदा हो रहे हैं और बड़े होकर उनमें शरीर में तमाम विकृतियाँ आ रही हैं; जबकि अर्द्धभुखमरी झेल रहे रूस में बच्चे बादशाह हैं।”
रूसी क्रान्ति के बाद अस्तित्व में आयी मज़दूर सत्ता के इन भगीरथ प्रयासों का ही नतीजा था कि 1923 तक न सिर्फ़ उसने साम्राज्यवादी हमलों, गृहयुद्ध और भुखमरी को मात दे दी बल्कि महामारियों पर भी काफ़ी हद तक क़ाबू पा लिया। क्रान्ति के इन शुरुआती आपातकालीन वर्षों में महामारी पर क़ाबू पाने के लिए किये गये प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए समाजवादी निर्माण के दौर में सोवियत संघ में स्वास्थ्य और स्वच्छता पर विशेष ज़ोर दिया और मेहनतकशों के काम की तथा उनके जीवन की परिस्थितियाँ अधिक स्वस्थकर बनाने की दिशा में अभूतपूर्व उपलब्धियाँ हासिल कीं।

क्रान्तिकारी चीन ने महामारियों पर कैसे क़ाबू पाया?

1949 की नवजनवादी क्रान्ति के बाद सत्ता में आयी चीन की कम्‍युनिस्ट पार्टी ने शुरू से ही लोगों के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दी। क्रान्ति के एक साल के भीतर ही 1950 में पहली राष्ट्रीय स्वास्थ्य कांग्रेस आयोजित की गयी जिसमें ग्रामीण स्वास्थ्य पर ज़ोर देने, अभियानों के ज़रिये रोगों की रोकथाम करने, आधुनिक और पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों के मिश्रण और स्वास्थ्य को जनान्दोलन बनाने का संकल्प लिया गया। क्रान्तिकारी चीन में शुरुआत से ही स्वास्थ्य, स्वच्छता और टीकाकरण की मुहिम छेड़ी गयी। 1950 से 1952 तक लगभग 60 करोड़ लोगों को चेचक का टीका लगाया गया जिसके बाद से चेचक के केसों की संख्या बहुत कम हो गयी। टाइफ़स के मामलों में 95 प्रतिशत की गिरावट देखने में आयी। 1957 तक चीन के दो-तिहाई से भी अधिक हिस्सों में मलेरिया, प्लेग, शिस्टोसोमियासिस, लीश्मैनियासिस, ब्रूसेलोसिस जैसी बीमारियों पर क़ाबू पाने के लिए महामारी नियंत्रण केन्द्र खोले जा चुके थे।
इसी दौर में “देशभक्तिपूर्ण स्वास्थ्य मुहिम” भी शुरू की गयी जिसका उद्देश्य लोगों में स्वच्छ वातावरण, सुरक्षित पेयजल, शौचालय निर्माण और अपशिष्ट निष्पादन के प्रति जागरूकता बढ़ाना था। सोवियत संघ की ही भाँति चीन में भी लोगों के बीच जागरूकता फैलाने के लिए बड़े पैमाने पर पोस्टरों का उपयोग किया गया। 1950 के दशक के अन्त में चार कीटों (मक्खियाँ, मच्छर, चूहे और गौरैया – बाद में गौरैया की जगह खटमल को शामिल किया गया) के ख़ि‍लाफ़ गोलबन्द किया गया। इस प्रकार लोगों की पुरानी आदतें और रीति-रिवाज़ बदल दिये गये, और स्वच्छता को सम्मान मानने का नज़रिया लोगों के भीतर अपनी जगह बनाने लगा।
1965 में सांस्कृतिक क्रान्ति शुरू होने के बाद स्वास्थ्य सुविधाओं को चुस्त–दुरुस्त करने के लक्ष्य पर और अधिक ज़ोर दिया गया। स्वास्थ्य मंत्रालय और चीनी मेडिकल एसोसिएशन को “संघर्ष, आलोचना और बदलाव” का संघर्ष-केन्द्र बनाया गया। इस दौरान मेडिकल कॉलेजों में कोई नयी कक्षा शुरू नहीं की गयी और पहले से पढ़ रहे मेडिकल छात्रों को व्यावहारिक प्रशिक्षण देकर गाँवों में भेज दिया गया।
इस दौरान गाँव-गाँव व दूरदराज़ के इलाक़ों तक स्वास्थ्य सुविधाओं को ले जाने वाले स्वास्थ्यकर्मियों की एक पूरी फ़ौज खड़ी की गयी थी जिसमें बड़ी संख्या में छात्रों-युवाओं और विशेष रूप से लड़कियों को शामिल किया गया था। ‘बेयरफ़ुट डॉक्टर’ (नंगे पाँव वाले डॉक्टर) कहे जाने वाले इन स्वास्थ्यकर्मियों को तीन से छह महीने का बुनियादी मेडिकल और पैरामेडिकल प्रशिक्षण दिया जाता था। ये स्वास्थ्यकर्मी उपचार से ज़्यादा रोकथाम पर ज़ोर देते थे। वे टीके लगाने, इम्युनाइजे़शन करने, शिशु का जन्म कराने व अन्य प्राथमिक उपचार करने में प्रशिक्षित थे। आधुनिक चिकित्सा प्रणाली व औषधियों के साथ ही साथ वे एक्युपंक्चर व मॉक्सीबशन जैसी चीन की पारम्परिक चिकित्सा प्रणाली व औषधियों का प्रयोग करते थे। गम्भीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों को वे काउण्टी के अस्पताल में भेजते थे। 1970 के दशक में चीन के स्वास्थ्य कार्यक्रम को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी स्वीकार किया था और दुनिया के अन्य हिस्सों में इस तरह के स्वास्थ्य कार्यक्रम को बढ़ावा देने का अनुमोदन किया था।
सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में शहरी स्वास्थ्यकर्मियों को या तो निश्चित स्थानों – जैसे काउण्टी अस्पताल और कम्यून अस्पताल या फिर “सचल मेडिकल टीमों” में तैनात किया गया। किसी भी समय हर शहरी अस्पताल का कम से कम एक तिहाई स्टाफ़ गाँवों में होता था। वे छह महीने से लेकर एक साल तक का समय वहाँ बिताते थे और साल में दो बार अपने परिजनों से मिलने जा सकते थे। अगर वे और भी ज़्यादा समय वहाँ बिताना चाहते थे तो अपने परिवार को भी साथ रख सकते थे। कुछ शहरी डॉक्टर तो स्थायी रूप से गाँवों में बस भी गये थे।
गाँवों में भेजने का एक और कारण यह था कि शहरी डॉक्टर, मेडिकल स्कूलों के टीचर और शोधकर्ता कठिन परिश्रम और किसानों के सम्पर्क के माध्यम से “पुनर्शिक्षित” किये जायें। जो लोग गाँवों में रहे थे, वे बताते थे कि कैसे उन्हें किसानों की कठिन ज़िन्दगी का अन्दाज़ा नहीं था और कैसे किसानों की ज़रूरतों को समझने की वजह से अब उनमें मेडिकल सेवा के प्रति प्रतिबद्धता और बढ़ गयी है। हालाँकि 1965 से पहले भी “सहायकों” के विकास के प्रयास हुए थे, लेकिन ‘सांस्कृतिक क्रान्ति’ के दौरान एक नये तरह के स्वास्थ्यकर्मियों का निर्माण हुआ, जोकि “नियमित” डॉक्टरों और अन्य दूसरे स्वास्थ्यकर्मियों से बहुत अलग थे। इन नये स्वास्थ्यकर्मियों को आँकड़ों में मेडिकलकर्मी नहीं माना जाता था। उनकी गिनती कृषि श्रमिक (बेयरफ़ुट डॉक्टर), उत्पादन श्रमिक (श्रमिक डॉक्टर) या गृहिणी और सेवानिवृत्त लोगों (रेड मेडिकल वर्कर) के तौर पर होती थी और वे भी ख़ुद को यही मानते थे।
इसके अलावा स्वास्थ्य सेवाओं के संगठन में बड़े बदलाव किये गये। इस सम्बन्ध में सबसे बड़ा मुद्दा 1949 के बाद से एक कुलीन मैनेजर और बुद्धिजीवी तबक़े का विकास होना था, जिसे माओ और उनके साथी प्रतिक्रान्तिकारी प्रवृत्ति मानते थे। 1971 में और संगठनों की तरह ही स्वास्थ्य संगठनों का नेतृत्व भी ‘क्रान्तिकारी कमेटियाँ’ के हाथों में आ चुका था। इन कमेटियों में ‘जन मुक्ति सेना’ के प्रतिनिधि, काडर सदस्य और स्वास्थ्यकर्मियों के प्रतिनिधि ‘थ्री-इन-वन’ के अनुपात में होते थे।
इन प्रयासों की बदौलत क्रान्तिकारी चीन ने न सिर्फ़ महामारियों का सफलतापूर्वक मुक़ाबला किया बल्कि वहाँ के लोगों की जीवन प्रत्याशा और जीवन स्तर में ज़बर्दस्त सुधार भी हुआ। इसका अन्दाज़ा इस आँकड़े से ही लगाया जा सकता है कि क्रान्ति से पहले वहाँ चीन में नवजात मृत्यु दर 1000 में 300 तक पहुँच चुकी थी, वहीं 1970 के दशक तक आते-आते 40 से नीचे हो गयी जो अमेरिका जैसे विकसित देशों के समतुल्य थी।

मज़दूर बिगुल, मई 2021


 

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