पूँजीवादी किसान, पूँजीवादी ज़मींदार, आढ़तिये, व्यापारी और बिचौलिये किस तरह गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं?

– अभिनव

हमारे देश में क़रीब 25 करोड़ लोग खेती में लगे हैं। इसमें से क़रीब 14.5 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं और 10.5 करोड़ किसान हैं। लेकिन किसान कोई एक वर्ग नहीं होता है। धनी किसान होते हैं, उच्च मध्यम किसान, मध्य मध्यम किसान, निम्न मध्यम किसान होते हैं और ग़रीब व सीमान्त किसान होते हैं।
आम तौर पर, धनी व उच्च मध्यम किसान पूँजीवादी किसान होते हैं। पूँजीवादी किसान कौन है? पूँजीवादी किसान वे होते हैं जो मज़दूरी पर मज़दूर रखकर खेती करवाते हैं। ये खेतिहर मज़दूरों के उजरती श्रम का शोषण करते हैं और उनके श्रम से पैदा खेती उत्पाद को बेचकर मुनाफ़ा कमाते हैं। अपनी ज़मीन पर खेती करने के साथ पूँजीवादी खेती की ज़रूरतों के मुताबिक़ ये कई बार ज़मीन किराये पर भी लेते हैं और कभी फ़ायदेमन्द होने पर ज़मीन किराये पर देते भी हैं और पूँजीवादी ज़मींदार के समान लगानख़ोरी भी करते हैं। कुछ पूँजीवादी काश्तकार किसान भी होते हैं, जिनके पास पर्याप्त पूँजी होती है और वह ज़मीन किराये पर लेकर पूँजीवादी खेती करते हैं। ये स्वयं ज़मीन के मालिक नहीं होते हैं, बल्कि पूँजीवादी ज़मींदार से ज़मीन किराये पर लेते हैं, पूँजी निवेश करते हैं, मज़दूरों को भाड़े पर रखकर बाज़ार के लिए पूँजीवादी माल उत्पादन करते हैं। यानी पूँजीवादी किसानों के दो हिस्से हैं : पूँजीवादी मालिक किसान और पूँजीवादी काश्तकार किसान।
मध्य मध्यम किसानों में किसानों का वह हिस्सा आता है जो नियमित तौर पर मज़दूर नहीं रखता है, अपने और अपने पारिवारिक श्रम से खेती करता है। वह सामान्य माल उत्पादक है, जो कि बाज़ार के लिए पैदा करता है, लेकिन वह नियमित तौर पर मज़दूरों का शोषण नहीं कर पाता है। उसकी आकांक्षाएँ धनी या उच्च मध्यम पूँजीवादी किसान बनने की होती हैं, लेकिन उसका बहुत छोटा हिस्सा ही पूँजीवादी किसान बन पाता है और बड़ा हिस्सा तबाह होकर मज़दूरों की जमात में शामिल होता जाता है।
ग़रीब और सीमान्त किसान वे हैं जो उजरती श्रम का शोषण नहीं करते हैं और मुख्य तौर पर ख़ुद ही मज़दूर बन चुके होते हैं। यानी, अब उनकी आमदनी का बड़ा हिस्सा खेती से नहीं आता है बल्कि मज़दूरी से आता है। उसके पास छोटी जोत होती है। वह जो उगाता है उसका बड़ा हिस्सा बाज़ार में ही बेचता है। लेकिन उससे होने वाली आय से उसके परिवार का ख़र्च नहीं चलता है। नतीजतन, उसे दूसरे के खेतों पर भी काम करना पड़ता है, उसके घर से कुछ सदस्य बाहर जाकर भी मज़दूरी करते हैं। कई बार ये किसान भी थोड़ी-मोड़ी ज़मीन किराये पर लेते हैं, लेकिन तब भी वे अपने परिवार और अपने श्रम के आधार पर ही खेती करते हैं और लगान के रूप में अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा पूँजीवादी भूस्वामी के हवाले कर देते हैं। उस सूरत में ये “अपना शोषण स्वयं ही करते हैं” क्योंकि अपनी न्यूनतम आवश्यकता के अलावा वे अपनी पूरी कमाई ही पूँजीवादी ज़मींदार के हवाले करने को मजबूर होते हैं। नतीजतन, उनकी हालत अक्सर मज़दूरों से भी बुरी हो जाती है।
इसके अलावा कुछ पूँजीवादी भूस्वामी होते हैं, जो स्वयं खेती करवाने की पूरी प्रक्रिया और उजरती श्रम के सीधे शोषण की प्रक्रिया से जुड़े नहीं होते हैं। वे केवल ज़मीन किराये पर देते हैं और उसका किराया/लगान खाते हैं। जिनके पास बेहतर ज़मीनें होती हैं, उन्हें ज़्यादा लगान मिलता है। लेकिन जिनके पास सबसे ख़राब ज़मीनें होती हैं, वे भी अपनी ज़मीन मुफ़्त में किराये पर नहीं देते हैं। देंगे भी क्यों? ज़ाहिर है, उन्हें ज़्यादा उपजाऊ और बेहतर जगहों पर मौजूद ज़मीनों के मालिकों जितना लगान नहीं मिलता है। लेकिन उन्हें भी लगान प्राप्त होता है। इस लगान की वजह से खेती का उत्पाद महँगा होता है। इसे निरपेक्ष लगान कहा जाता है। बेहतर ज़मीन के पूँजीवादी ज़मींदारों को उस ज़मीन पर अधिक लगान मिलता है क्योंकि इन ज़मीनों पर खेती की लागत कम होती है और पूँजीवादी काश्तकार किसान को अतिरिक्त मुनाफ़ा प्राप्त होता है, जो उसे पूँजीवादी ज़मींदार को सौंपना पड़ता है। इसे विभेदक लगान कहते हैं। इसकी वजह से खेती उत्पाद की क़ीमत नहीं बढ़ती है, क्योंकि यह ज़मीन के ज़्यादा उपजाऊ होने व उसकी अनुकूल जगह के चलते उत्पादन की कम लागत के कारण होने वाले अतिरिक्त मुनाफ़े से पैदा होता है। जबकि निरपेक्ष लगान क़ीमतों को बढ़ाता है और इस रूप में वह उस अतिरिक्त मुनाफ़े को पैदा करता है, जो कि निरपेक्ष लगान के रूप में ज़मींदार को प्राप्त होता है। यानी कि सबसे ख़राब ज़मीन के पूँजीवादी ज़मींदार को केवल निरपेक्ष लगान हासिल होता है जबकि उससे बेहतर ज़मीन वालों को ज़मीन के उपजाऊपन और उसके स्थान के अनुसार अलग-अलग मात्रा में विभेदक लगान प्राप्त होता है। पूँजीवादी ज़मींदार लगानजीवी होता है।
वास्तव में, अगर आप समाज में देखेंगे तो पूँजीवादी मालिक किसानों और पूँजीवादी ज़मींदारों के वर्ग में थोड़ी ओवरलैपिंग होती है। यानी कुछ पूँजीवादी मालिक किसान ऐसे भी मिलेंगे जो अपनी कुछ ज़मीन किराये पर भी चढ़ाते हैं और उसका लगान खाते हैं। जिस हद तक वे लगानख़ोर होते हैं, उस हद तक वे पूँजीवादी ज़मींदार के समान बर्ताव करते हैं और जिस हद तक वे स्वयं उजरती मज़दूरों को रखकर उनका शोषण करते हैं और मुनाफ़ा खाते हैं, उस हद तक वे एक उद्यमी पूँजीपति के रूप में बर्ताव करते हैं। ये सभी श्रेणियाँ हैं जो आपको समाज में हमेशा हूबहू इसी रूप में नहीं मिलेंगी। समाज में जिस ठोस रूप में यथार्थ मौजूद होता है, उसमें ये विश्लेषणात्मक श्रेणियाँ अक्सर मिले-जुले रूप में मौजूद होती हैं।
पूँजीवादी किसान यदि काश्तकार है, तो वह औसत मुनाफ़ा कमाता है और खेती उत्पादों की निरपेक्ष लगान की वजह से ऊँची हुई क़ीमतों से उसे जो बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है, उसे वह पूँजीवादी ज़मींदार के हवाले कर देता है। पूँजीवादी किसान अगर ख़ुद मालिक है, तो यह बेशी मुनाफ़ा भी उसकी जेब में जाता है।
हम मज़दूरों को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि चाहे पूँजीवादी किसान का मुनाफ़ा हो या पूँजीवादी ज़मींदार का लगान, यह मज़दूरों के श्रम के शोषण से ही पैदा होता है। मज़दूर की मेहनत से पैदा होने वाले नये मूल्य का ही एक हिस्सा बेशी मूल्य होता है। उपज के कुल मूल्य में से मज़दूर की मज़दूरी देने के बाद जो बचता है, वह बेशी मूल्य कहलाता है। यह बेशी मूल्य ही पूँजीवादी किसान के मुनाफ़े और पूँजीवादी ज़मींदार के लगान का स्रोत होता है। यही सूदख़ोर के सूद का स्रोत भी होता है और यही व्यापारी पूँजीपति के वाणिज्यिक मुनाफ़े का स्रोत भी होता है। मज़दूर वर्ग के श्रम से पैदा हुआ यही बेशी मूल्य समाज के सभी परजीवी वर्गों की आय का स्रोत है, चाहे वह औद्योगिक या खेतिहर पूँजीपति हो, पूँजीवादी भूस्वामी हो, वित्तीय पूँजीपति या सूदख़ोर हो, या फिर व्यापारी पूँजीपति हो। यह बेशी मूल्य पूँजीपति वर्ग के इन अलग-अलग हिस्सों में विभाजित होता है।
बहरहाल, हमारे देश में कुल किसान क़रीब 10.5 करोड़ हैं। इनमें से 92 प्रतिशत के पास 5 एकड़ से कम ज़मीन है। 86 प्रतिशत के पास 3 एकड़ से कम ज़मीन है। यानी 9 से सवा 9 करोड़ ग़रीब और सीमान्त किसान तथा मध्यम व निम्न मध्यम किसान हैं, जिनमें से अधिकांश का घर-ख़र्च पूरी तरह से खेती से नहीं चल पाता है। इनकी मासिक आमदनी का 50 से 70 प्रतिशत हिस्सा मज़दूरी से आता है। ये मध्यम व निम्न मध्यम तथा ग़रीब और सीमान्त किसान मूलत: अर्द्धसर्वहारा या अर्द्धमज़दूर हैं और गाँवों के सबसे शोषित तबकों में से एक हैं।
इसके अलावा क़रीब एक से सवा करोड़ उच्च मध्यम और धनी पूँजीवादी किसान हैं जो कि उजरती श्रम के नियमित तौर पर शोषक हैं। इसी में पूँजीवादी भूस्वामियों की एक आबादी भी शामिल है, हालाँकि पूरी आबादी नहीं। वजह यह कि कुछ पूँजीवादी मालिक किसान ज़मीन लगान पर भी देते हैं। ये अधिकांश चार हेक्टेयर (दस एकड़) से ऊपर वाले किसान हैं, हालाँकि अलग-अलग राज्यों में जोत की आकार के अनुसार आमदनी के आँकड़े अलग-अलग हैं। जिन राज्यों में उपजाऊ ज़मीन, सिंचाई की सुविधा और पूँजी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, वहाँ तीन हेक्टेयर (7.5 एकड़) की जोत भी पूँजीवादी खेती के लिए उपयुक्त है, तो कुछ अन्य राज्यों में जहाँ ये तीनों ही चीज़ें कम हैं, वहाँ पाँच हेक्टेयर की ज़मीन का मालिक किसान भी मँझोला किसान ही कहलायेगा। लेकिन देश के औसत से देखें तो आम तौर पर चार हेक्टेयर से अधिक की खेती करने वाले किसानों को उच्च मध्यम या धनी पूँजीवादी किसानों की श्रेणी में रखा जा सकता है।
इस वर्ग की औसत आय कितनी है? कुछ आँकड़ों पर निगाह दौड़ा लेते हैं।
पटियाला विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पवनदीप कौर, गियान सिंह व सर्बजीत सिंह के नमूना सर्वेक्षण के अनुसार पंजाब के 10 हेक्टेयर से अधिक ज़मीन वाले किसानों की सालाना आय है, रुपये 12,02,780.38 रुपये प्रति वर्ष, यानी क़रीब रुपये 1,00,231 प्रति माह। उनका सालाना उपभोग रुपये 11,36,247.03 सालाना है, यानी प्रति माह वे रुपये 94,688 अपने उपभोग पर ख़र्च करते हैं। यानी हर वर्ष इनको 66,533.35 रुपये की शुद्ध बचत होती है। ये वे बड़े किसान हैं जो कि अपने खेतों में स्वयं काम नहीं करते, बल्कि उजरती श्रमिकों का शोषण करके मुनाफ़ा कमाते हैं। इनकी आय सीमान्त किसानों से 6 गुना और खेतिहर मज़दूरों से 12 गुना ज़्यादा है। अगर ये धनी किसान नहीं हैं, तो क्या हैं?
चार हेक्टेयर से अधिक ज़मीन रखने वालों की घोषित आमदनी लगभग 5,66,408 रुपये सालाना है, यानी लगभग 47,201 रुपये प्रति माह। यह भी देश की कुल वर्ग संरचना के मुताबिक उच्च मध्य व मध्यम वर्ग में ही आयेगा।
लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह घोषित आय धनी और उच्च मध्यम किसानों की कुल आय का केवल एक हिस्सा है। उनकी वास्तविक आय इससे कहीं ज़्यादा है। आइये देखते हैं कैसे।
इनकी वास्तविक आय (घोषित व अघोषित) का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा सूद और लगान से भी आता है। (यह रिपोर्ट पढ़ें : https://www.firstpost.com/business/money-lending-by-punjabs-rich-farmers-is-widening-the-wealth-gap-in-states-countryside-4437131.html)
इस रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब के धनी व उच्च मध्यम किसान अपनी आय का केवल एक हिस्सा घोषित करते हैं और केवल यह घोषित हिस्सा ही बैंकों में जमा करते हैं। हमारे पास जो आँकड़े हैं, वे केवल इसी घोषित आय के हैं। लेकिन पंजाब के अधिकांश धनी व उच्च मध्यम किसान स्वयं सूदख़ोर भी हैं। वे आम तौर पर 22 प्रतिशत से लेकर 30 प्रतिशत तक की ब्याज दर पर ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों को क़र्ज़ देते हैं। यह सारा लेन-देन नक़द में होता है और इसे कहीं भी घोषित नहीं किया जाता है। इन धनी किसानों को स्वयं वाणिज्यिक बैंकों से कहीं कम दर पर ऋण मिलता है। मिसाल के लिए, ट्रैक्टर ख़रीदने के लिए ऋण की ब्याज दर वाणिज्यिक बैंकों में अधिक से अधिक 12 प्रतिशत है। और ये धनी किसान स्वयं ग़रीब व निम्न मँझोले किसानों से 24 से 30 प्रतिशत तक की ब्याज दर पर वसूली करते हैं।
लुधियाना के गिल गाँव के 3 एकड़ की ज़मीन के छोटे किसान सौदागर सिंह का कहना है, “अपनी ज़मीन को ठेके पर देने के बाद, जिससे कि इनको 24 लाख से 5 करोड़ के बीच की सालाना आमदनी होती है, धनी किसान आम तौर पर सम्पत्ति ख़रीदने और अपने धन्धे को वैविध्यपूर्ण बनाने पर पैसा ख़र्च करते हैं। जो पैसा उनके पास बचता है उसे बेहद ऊँची ब्याज दरों पर क़र्ज़ के रूप में ग़रीब किसानों को देते हैं।” स्वयं सौदागर सिंह ने लुधियाना में बस चुके एक पूँजीवादी भूस्वामी से ट्रैक्टर ख़रीदने के लिए 4 लाख रुपये का क़र्ज़ 24 प्रतिशत ब्याज दर पर लिया है।
उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार, ये लेन-देन बिरले ही कहीं दर्ज होते हैं और ये ग़रीब किसानों को क़र्ज़ के ऐसे जाल में फँसा देते हैं कि वे उससे कभी निकल ही नहीं पाते हैं। पंजाब में आत्महत्या करने वाले अधिकांश किसान ये ही ग़रीब किसान हैं। पंजाब की कृषि पर अपने शोध-कार्य के लिए प्रसिद्ध प्रो. सरदारा सिंह जोहल के अनुसार, “हमारे राज्य में बड़े किसान छोटे किसानों को बेहद ऊँची ब्याज दरों पर क़र्ज़ देते हैं। लेकिन, इसके सही आँकड़े का आकलन कर पाना मुश्किल है।” वजह यह है कि यह लेन-देन कहीं दर्ज नहीं होता है और यह धनी किसानों व उच्च मध्यम किसानों की अघोषित आय होती है।
पंजाब के धनी किसान हरकीरत बाजवा जो कि 32 एकड़ के मालिक हैं, स्वयं बताते हैं कि सूद पर पैसा चलाना तो पीढ़ियों से चली आ रही परम्परा है और पंजाब के धनी किसान इस पर अमल करते ही हैं। बाजवा यह भी बताते हैं (मानो ऊँची ब्याज दर पर क़र्ज़ देकर धनी किसान ग़रीब किसानों पर कोई अहसान करते हों!) कि बैंक से ऋण लेना ग़रीब किसान के लिए बहुत मुश्किल और टेढ़ा होता है, जबकि बस अपने ज़मीन के कागज़ात गिरवी रखकर ग़रीब किसान धनी किसान से क़र्ज़ ले सकता है! एक धनी किसान ऐसी भाषा बोल रहा है, इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है, लेकिन तमाम नरोदवादी, संशोधनवादी और सुधारवादी भी यही बातें बोल रहे हैं, यह बताता है कि ये इन्हीं धनी किसानों-कुलकों के वर्ग हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं!
ग़रीब किसान इन्हीं क़र्ज़ों तले दबकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं और अपनी ज़मीनों से हाथ भी धो रहे हैं। संगरूर ज़िले के एक छोटे किसान गुरदेव सिंह सन्धू बताते हैं कि उन्होंने पिछले वर्ष नवम्बर में बेटी की शादी के लिए एक धनी किसान से 3 लाख रुपये का क़र्ज़ लिया था और अपनी ज़मीन के कागज़ गिरवी रखे थे। अगले नवम्बर तक उन्हें 3.60 लाख रुपये वापस करने हैं और तभी उन्हें उनकी ज़मीन के कागज़ वापस मिलेंगे।
ये धनी और उच्च मध्यम किसान सूदख़ोरी से जो अघोषित आय कमाते हैं, उसी के बूते ये अपने अन्य व्यवसायों को भी फैलाते हैं, जिनमें प्रमुख है प्रापर्टी डीलिंग, बैंक्वेट व मैरिज हॉल, पोल्ट्री, कार-वॉश सेण्टर, आदि। ज़रा सोचिये, अकेले लुधियाना में धनी किसानों के 25 मैरिज हॉल हैं! ये धनी किसान नहीं हैं, तो और क्या हैं? मोगा ज़िले में 40 एकड़ के मालिक रमनीक सिंह ने पूँजीवादी खेती के मुनाफ़े और साथ ही सूदख़ोरी के जमा धन के बूते मुल्लांपुर ज़िले में पोल्ट्री का व्यवसाय खोला है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब और हरियाणा में 4 हेक्टेयर से अधिक की खेती वाले और गेहूँ व चावल उगाने वाले किसानों की प्रति हेक्टेयर आय 1.25 लाख रुपये प्रति वर्ष है। पंजाब के किसानों के लिए प्रति हेक्टेयर खेती की लागत भी बाक़ी भारत से बहुत कम है, जिसकी वजह है राज्य द्वारा धनी किसानों को पंजाब में दिया गया संरक्षण। गेहूँ के लिए पंजाब में खेती की लागत बाक़ी भारत की औसत लागत का मात्र 75 प्रतिशत है जबकि चावल के लिए यह मात्र 59 प्रतिशत है। पंजाब और हरियाणा में सबसे बड़े 3.7 प्रतिशत किसानों का कुल ज़मीन के 36.3 प्रतिशत पर कब्ज़ा है।
ऊपर से इन धनी किसानों पर कोई टैक्स नहीं लगता। पंजाब और हरियाणा के 1,97,000 सबसे धनी किसानों की जोत का औसत आकार है 6.3 हेक्टेयर। जिसका अर्थ है प्रति वर्ष 7.9 लाख रुपये की करमुक्त आमदनी। 10 हेक्टेयर से ज़्यादा ज़मीन रखने वाले पंजाब और हरियाणा के 20,000 सबसे धनी किसानों की जोत का औसत आकार है 12.6 हेक्टेयर, यानी 1.25 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर के हिसाब से 15.75 लाख रुपये की करमुक्त आय। भारत की औसत आय के अनुसार, ये 20,000 सबसे धनी किसान कुल आबादी के 2 प्रतिशत सबसे धनी लोगों में आते हैं। निश्चित तौर पर, मँझोले और ग़रीब किसानों पर कोई भी टैक्स लगाने का विचार ग़लत है, लेकिन क्या इन सबसे धनी 2 लाख किसानों पर समृद्धि कर नहीं लगाया जाना चाहिए? अब आप से जब कोई कहे कि भारत में कोई धनी किसान नहीं है, तो उसकी टोपी हवा में उछाल दीजिये!
उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि किसान कोई एक वर्ग नहीं हैं और धनी किसानों-कुलकों के जीवन के हालात, उनके वर्ग हित और उनकी राजनीति का सीमान्त, छोटे और निम्न-मँझोले किसानों के जीवन और हितों से कोई लेना-देना नहीं है। यह वर्ग गाँवों का पूँजीपति वर्ग है और इसमें पूँजीवादी मालिक किसान, पूँजीवादी काश्तकार किसान, सूदख़ोर, व्यापारी और पूँजीवादी ज़मींदार शामिल हैं, जो उद्यमी मुनाफ़े, सूद, लगान और व्यापारिक मुनाफ़े के ज़रिए गाँव के ग़रीबों को लूटते हैं। उद्यमी पूँजीपति, सूदख़ोर, व्यापारी और भूस्वामी तीनों ही ग्रामीण पूँजीपति वर्ग का अंग हैं। अक्सर, एक ही व्यक्ति यह चारों भी हो सकता है या ये चारों अलग-अलग व्यक्ति भी हो सकते हैं। ये मज़दूरों व अर्द्धसर्वहारा वर्ग के श्रम से पैदा होने वाले बेशी मूल्य को आपस में बाँटते हैं। उद्यमी पूँजीपति को उद्यमी मुनाफ़ा मिलता है, सूदख़ोर को ब्याज मिलता है, व्यापारी को व्यापारिक मुनाफ़ा मिलता है और ज़मींदार को पूँजीवादी लगान मिलता है। यही गाँव का पूँजीपति वर्ग है, गाँवों में पूँजीवादी राज्यसत्ता का सामाजिक खम्भा और आधार है और गाँवों के खेतिहर मज़दूरों, ग़ैर-खेतिहर मज़दूरों, ग़रीब, सीमान्त और निम्न मँझोले किसानों का सबसे बड़ा शोषक और उत्पीड़क है।
हमारे देश में लाभकारी मूल्य की व्यवस्था है। इसमें सरकार इस ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के फ़ायदे के लिए 22 खेती उत्पादों की बेहद ऊँची क़ीमत रखती है। चूँकि इस क़ीमत को निर्धारित करने पर सरकार का एकाधिकार है, इसलिए इसे एकाधिकारी क़ीमत कह सकते हैं। जब भी कोई पूँजीपति किसी उत्पादन की शाखा में अपने एकाधिकार के कारण पूरी अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफ़े से अधिक बेशी मुनाफ़ा देने वाली कोई क़ीमत रखता है या सरकार अपनी राजनीतिक शक्ति के आधार पर बेशी मुनाफ़ा देने वाली क़ीमत रखती है, तो उसे एकाधिकारी क़ीमत कहा जाता है। इस एकाधिकारी क़ीमत के कारण जो बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है, उसे एकाधिकारी लगान कहा जाता है। हमारे देश में सभी पूँजीवादी किसानों को यह बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है। यदि पूँजीवादी किसान काश्तकार है, तो वह इस बेशी मुनाफ़े से ही एक हिस्सा भूमि लगान के तौर पर पूँजीवादी भूस्वामी को देता है जो कि खेती के क्षेत्र के कुल उत्पाद के कुल मूल्य से निर्धारित होता है। खेती ज़्यादा श्रमसघन होती है इसलिए उसमें पूँजी की प्रति इकाई अधिक बेशी मूल्य होता है, जो कि पूरी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के औसत मुनाफ़े की दर से ऊँची मुनाफ़े की दर देता है। यह बेशी मुनाफ़ा जो कि खेती के क्षेत्र में पैदा होने वाले मूल्य से निर्धारित होता है, वही भूमि लगान में तब्दील होता है और उसे ही पूँजीवादी काश्तकार किसान पूँजीवादी ज़मींदार के हवाले करता है। लेकिन लाभकारी मूल्य से जो बेशी मुनाफ़ा प्राप्त होता है, वह एकाधिकारी क़ीमत से पैदा होने वाला एकाधिकारी लगान होता है। यह कभी निरपेक्ष भूमि लगान से ज़्यादा भी हो सकता है। उस सूरत में निरपेक्ष भूमि लगान देने का पास पूँजीवादी काश्तकार के पास जो बेशी मुनाफ़ा बचता है, वह उसकी जेब में जाता है।
लाभकारी मूल्य की व्यवस्था के कारण खेती की उपज की कीमतें ज़्यादा रहती हैं। इससे केवल गाँव के पूँजीवादी फ़ार्मरों और कुलकों को फ़ायदा होता है, जबकि समाज को नुक़सान। इसमें भी सबसे ज़्यादा नुक़सान आम मेहनतकश आबादी को होता है। इस प्रकार भारत में पूँजीवादी कुलक और फ़ार्मर न केवल उद्यमी मुनाफ़े, व्यापारिक मुनाफ़े, सूद, भूमि लगान के ज़रिए देश के मेहनतकश अवाम को लूट रहे हैं, बल्कि वे लाभकारी मूल्य के ज़रिए मिलने वाले बेशी मुनाफ़े के ज़रिए भी लूट रहे हैं, जो कि एकाधिकारी क़ीमत के ज़रिए मिलने वाला एकाधिकारी लगान है।
जब भी खेती उत्पाद की कीमतें बढ़ती हैं, तो मज़दूर वर्ग के लिए भोजन महँगा होता है। पूँजीपति वर्ग भी चाहता है कि भोजन सस्ता रहे, ताकि मज़दूर की श्रमशक्ति का मूल्य कम से कम रहे। क्योंकि जब मज़दूर को अपने उपभोग की वस्तुएँ सस्ती मिलेंगी, तो उसकी मज़दूरी को भी पूँजीपति घटाता है। जब मज़दूरी पर उसका ख़र्च कम होता है, जबकि श्रम की मात्रा उतनी ही होती है, तो मुनाफ़ा बढ़ता है और मुनाफ़े की दर में वृद्धि होती है। क्यों? मान लीजिए कि मज़दूर 8 घण्टे काम करता है। इसमें से वह एक हिस्सा (मान लें 2 घण्टे) अपने लिए काम करता है। यानी इन 2 घण्टों में वह उतना मूल्य पैदा करता है, जो कि उसकी श्रमशक्ति के मूल्य के बराबर है। यानी, जितने में वह उन वस्तुओं को ख़रीद सकता है, जो उसके जीविकोपार्जन के लिए न्यूनतम रूप से आवश्यक हैं। बाक़ी 6 घण्टे वह पूँजीपति के लिए काम करता है और उस 6 घण्टे में पैदा होने वाला मूल्य, बेशी मूल्य होता है। मान लीजिए कि मज़दूर को अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जो वस्तुएँ चाहिए, वे सस्ती हो जाती हैं, तो फिर श्रमशक्ति का मूल्य भी कम हो जायेगा। मान लीजिए कि मज़दूर के उपभोग की वस्तुओं की क़ीमत 50 प्रतिशत घट जाती है, तो मज़दूर 1.5 घण्टे में ही अपने लिए आवश्यक श्रम कर लेगा और 6.5 घण्टे वह पूँजीपति को बेशी श्रम मुफ़्त में देता है। काम के घण्टे 8 ही रहे, लेकिन अब मज़दूर के शोषण की दर बढ़ गयी, बेशी मूल्य की दर बढ़ गयी और पूँजीपति का मुनाफ़ा बढ़ गया। मुनाफ़े की दर फिर भी गिर सकती है, यदि पूँजीपति द्वारा मशीनों व कच्चे माल पर लगायी गयी पूँजी मज़दूर पर लगायी गयी पूँजी के मुक़ाबले तेज़ गति से बढ़ती है। लेकिन वह अलग मसला है। जो भी हो, मुनाफ़ा बढ़ता है और यदि अन्य चीज़ें समान रहें, तो मुनाफ़े की दर भी बढ़ती है। यानी, पूँजीपति वर्ग हमेशा यह चाहता है कि मज़दूर की श्रमशक्ति के पुनरुत्पादन के लिए ज़रूरी वस्तुएँ, विशेष तौर पर भोजन सस्ता हो। यह खेतिहर पूँजीपति वर्ग, विशेष तौर पर, पूँजीवादी भूस्वामी और बाक़ी पूँजीपति वर्ग में अन्तरविरोध का एक मसला भी होता है। खेतिहर पूँजीपति वर्ग चाहता है कि उसे उसके उत्पाद की ज़्यादा ऊँची क़ीमत मिले। लेकिन यह मज़दूर वर्ग के लिए भी बुरा होता है और बाक़ी पूँजीपति वर्ग के लिए भी।
यदि भोजन महँगा होता है, तो पूँजीपति वर्ग पर मज़दूरी बढ़ाने का दबाव पैदा होता है। पूँजीपति वर्ग एक सीमा तक ही मज़दूरी बढ़ने के दबाव को रोक सकता है। यदि भोजन महँगा होता जाता है और मज़दूरी नहीं बढ़ती, तो मज़दूर वर्ग की वास्तविक मज़दूरी घटती है। वास्तविक मज़दूरी उपभोग के सामानों का वह झोला है, जो मज़दूर अपनी मज़दूरी से ख़रीद सकता है। यदि ये सामान महँगे होते हैं, लेकिन मज़दूरी नहीं बढ़ती, तो यह झोला छोटा होता जायेगा, यानी वास्तविक मज़दूरी घटती जायेगी। लेकिन वास्तविक मज़दूरी को लम्बे समय तक इतना नहीं घटाया जा सकता है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति का पुनरुत्पादन ही न कर सके या उसे स्वस्थ रूप में पुनरुत्पादित ही न कर सके, क्योंकि पूँजीपति वर्ग स्वयं श्रम करके मूल्य का उत्पादन नहीं करता है, बल्कि मज़दूर वर्ग के श्रम से ही मूल्य पैदा होता है। साथ ही, जब भी मज़दूर के उपभोग की वस्तुएँ महँगी होती हैं, तो मज़दूर अपनी मज़दूरी को बढ़ाने के लिए संघर्ष भी करते हैं। इसलिए इन वस्तुओं और विशेष तौर पर भोजन के महँगे होने का मुनाफ़े की दर पर भी प्रतिकूल असर पड़ता है और पूँजीपति वर्ग भी नहीं चाहता है कि भोजन की कीमतें बढ़ें।
दूसरी बात, जिस दौर में पूँजीपति वर्ग भोजन व अन्य उपभोग की वस्तुओं की क़ीमतों के बढ़ने पर भी मज़दूरी को पुराने स्तर पर रखने में कामयाब होता है, उस दौर में भूमि लगान या इजारेदार लगान के कारण उसकी वास्तविक मज़दूरी में कटौती होती है। जिस दौर में ये वस्तुएँ महँगी होने पर पूँजीपति वर्ग को मज़दूरी बढ़ानी पड़ती है, उस दौर में भूमि लगान या इजारेदार लगान के कारण पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े में कटौती होती है। कई बार मज़दूर वर्ग की मज़दूरी और पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े दोनों में ही कटौती होती है।
लाभकारी मूल्य की वजह से भारत में भोजन की कीमतें बढ़ती हैं। पूँजीपति वर्ग इसलिए लाभकारी मूल्य को ख़त्म नहीं करना चाहता कि मज़दूर वर्ग की वास्तविक मज़दूरी बढ़े, बल्कि वह इसलिए लाभकारी मूल्य को ख़त्म करना चाहता है ताकि उसका मुनाफ़ा बढ़े, क्योंकि तब वह मज़दूर की मज़दूरी को कम कर सकता है। मज़दूर वर्ग को उस सूरत में अपनी मज़दूरी को पुराने स्तर पर बनाये रखने के लिए लड़ने की तैयारी करनी चाहिए ताकि लाभकारी मूल्य के ख़त्म होने की सूरत में वह अपनी वास्तविक मज़दूरी को बढ़ा सके। लेकिन किसी भी सूरत में वह खेतिहर पूँजीपति वर्ग, सूदखोरों, आढ़तियों, व्यापारियों और बिचौलियों की बेशी मुनाफ़ाख़ोरी के लिए बनी लाभकारी मूल्य की व्यवस्था का समर्थन नहीं कर सकता है। लाभकारी मूल्य मज़दूर-विरोधी है और समाज-विरोधी है।
लेकिन क्या लाभकारी मूल्य से ग़रीब किसान को लाभ नहीं होगा? नहीं होगा। क्योंकि ग़रीब किसान साल भर में जितना अनाज बेचता है, उससे ज़्यादा ख़रीदता है। दूसरी बात, ग़रीब किसान को लाभकारी मूल्य मिल ही नहीं पाता है क्योंकि सरकारी मण्डियों तक उसकी पहुँच नहीं है। इसलिए वह लाभकारी मूल्य से 30 प्रतिशत तक कम क़ीमतों पर अपने अनाज को धनी किसानों, व्यापारियों और आढ़तियों को बेचता है, जिससे कि उन्हें वाणिज्यिक मुनाफ़ा हासिल होता है। साथ ही, ग़रीब किसानों की उपज की क़ीमतों में से ये धनी किसान, आढ़ती और व्यापारी अपने द्वारा दिये गये उधार के बेहद ऊँचे ब्याज भी काट लेते हैं। इस प्रकार वे सूद के ज़रिए भी ग़रीब किसान को लूटते हैं। इसके अलावा, यही ग़रीब किसान मज़दूर के रूप में अक्सर धनी किसान वर्ग के खेतों में काम भी करता है और बेशी मूल्य पैदा कर धनी किसानों को उद्यमी मुनाफ़ा भी देता है। और जिन मामलों में ग़रीब किसान थोड़ी-बहुत ज़मीन किराये पर लेकर खेती करता है, उनमें वह लगान के रूप में अपना लगभग पूरा ही अतिरिक्त उत्पाद (उसकी बुनियादी आवश्यकता के ऊपर) पूँजीवादी भूस्वामी को सौंप देता है। इस प्रकार लगान के ज़रिए भी पूँजीवादी ज़मींदार द्वारा ग़रीब काश्तकार किसान की लूट-खसोट होती है। हालाँकि इस मामले में लगान का चरित्र अभी पूरी तरह से पूँजीवादी नहीं हुआ है क्योंकि पूँजीवादी लगान वह होता है जो कि उजरती श्रम के शोषण से पैदा होने वाले बेशी मूल्य का वह हिस्सा होता है, जोकि उजरती श्रम का शोषण करने वाले पूँजीवादी किसान को मिलने वाले औसत मुनाफ़े से ऊपर का बेशी मुनाफ़ा होता है, जो कि पूँजीवादी भूस्वामी को मिलता है। लेकिन हम जानते हैं कि पूँजीवादी खेती में इस प्रकार के पिछड़े रूप भी पूँजीवादी लगान के साथ-साथ मौजूद रहते हैं।
इस प्रकार धनी पूँजीवादी कुलक व फ़ार्मर, आढ़तिये, सूदख़ोर और व्यापारी ग़रीब मेहनतकश किसानों को उद्यमी मुनाफ़े, सूद, लगान और व्यापारिक मुनाफ़े, सभी के ज़रिए लूटते-खसोटते हैं। यह लूट-खसोट सामाजिक उत्पीड़न के साथ भी जुड़ जाती है, क्योंकि अधिकांश ग़रीब मेहनतकश किसान दलित और तथाकथित निम्न जातियों से आते हैं, जबकि धनी कुलक व फ़ार्मर आम तौर पर उन मँझोली जातियों से आते हैं जो कि आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक तौर पर गाँवों में प्रभुत्वशाली हो चुकी हैं और साथ ही तथाकथित ऊँची जातियों से आते हैं।
इस शोषण और उत्पीड़न के ही कारण पिछले दो दशकों में क़रीब पौने दो करोड़ ग़रीब मेहनतकश किसान खेती से उजड़ चुके हैं और अर्द्धसर्वहारा से पूर्ण सर्वहारा में तब्दील हो चुके हैं। जब तक एक छोटी जोत उनके पास थी, तब भी उनकी आर्थिक हालत बेहद ख़राब थी और अब भी बेहद ख़राब है, लेकिन पूँजीवाद ने मालिक होने का वहम और मानसिकता उनके दिमाग़ से निकाल दिया है, जो कि एक छोटी जोत का स्वामी के कारण अक्सर उनके अन्दर पायी जाती थी।
इन पौने दो करोड़ ग़रीब मेहनतकश किसानों को खेती से उजाड़ने का काम किसने किया है? ग्रामीण पूँजीपति वर्ग ने, जिसमें पूँजीवादी कुलक व फ़ार्मर, पूँजीवादी ज़मींदार, आढ़तिये, व्यापारी, सूदख़ोर और बिचौलिये शामिल हैं और जो कि अक्सर एक ही व्यक्ति हुआ करते हैं। इनके द्वारा मुनाफ़े, सूद, लगान व व्यापारिक मुनाफ़े के रूप में मेहनतकश ग़रीब किसानों की लूट भारत में विकिसानीकरण व सर्वहाराकरण का सबसे बड़ा कारण है।
खेतिहर मज़दूरों की लूट सीधे तौर पर पूँजीवादी कुलकों व फ़ार्मरों के ज़रिए उजरती श्रम के शोषण के तौर पर होती है। इन खेतिहर मज़दूरों को भी सूदख़ोरी के ज़रिए भी लूटा जाता है, क्योंकि घर में शादी, किसी की बीमारी, किसी को बाहर भेजने आदि के लिए इन्हें जिस नक़दी की आवश्यकता होती है, वह इनके पास नहीं होती है। मज़दूरों की इस मजबूरी का फ़ायदा धनी किसान व कुलक खूब उठाते हैं और उन्हें बेहद ऊँची ब्याज दरों पर क़र्ज़ देकर लूटते हैं। इस लूट में सरकार भी मूक समर्थक होती है क्योंकि सरकारी संस्थागत ऋण तक इन ग़रीब मेहनतकश खेत मज़दूरों और ग़रीब किसानों की कोई पहुँच नहीं होती है। नतीजतन, गाँव के धनी किसानों-कुलकों-सूदखोरों पर इनकी निर्भरता सरकार जानबूझकर बनाये रखती है। और ये ही धनी किसान-कुलक अपनी राजनीतिक हनक का इस्तेमाल कर अक्सर ही अपने भारी-भरकम क़र्ज़ सरकार से माफ़ करवाते हैं, जो कि एक प्रकार जनता के धन का धनी किसानों-कुलकों द्वारा ग़बन है। लेकिन ये ख़ुद कभी ग़रीब किसानों व खेतिहर मज़दूरों का क़र्ज़ माफ़ नहीं करते और क़र्ज़ की अदायगी नहीं होने पर उनके खेत और यहाँ तक कि घर छीन लेने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। कई बार उनसे बँधुआ मज़दूरी करवाकर भी ये सूद की वसूली के नाम पर अति-मुनाफ़ा कमाते हैं।
जब खाद्यान्न के महँगे होने के ही कारण मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ने का दबाव पैदा होता है, तो ये ही धनी किसान-कुलक उनकी मज़दूरी पर ‘कैप’, यानी ऊपरी सीमा लगाने का काम भी करते हैं। इस समय पंजाब और हरियाणा में ‘मज़दूर-किसान एकता’ की बात करते हुए ये धनी किसान-कुलकों मज़दूरों की मज़दूरी पर कैप लगाने और उसे घटाने के फ़रमान अपनी जातीय पंचायतों द्वारा जारी कर रहे हैं। ये वही धनी किसान और कुलक हैं, जो कि खेती क़ानूनों के मसले पर मज़दूरों का समर्थन लेने के लिए ‘मज़दूर-किसान एकता’ का झाँसा दे रहे हैं!
मोदी सरकार के खेती क़ानूनों पर मज़दूर वर्ग का नज़रिया साफ़ होना चाहिए : पहला और दूसरा क़ानून खेतिहर पूँजीपति वर्ग और कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध है और उसमें मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को किसी एक का पक्ष कतई नहीं चुनना चाहिए बल्कि अपनी स्वतंत्र अवस्थिति से दोनों का ही विरोध करना चाहिए क्योंकि पूँजीपति वर्ग के इन दो धड़ों के बीच झगड़ा ही इस बात का है कि गाँव के ग़रीब मेहनतकश किसानों और खेतिहर मज़दूरों को लूटने का विशेषाधिकार किसके पास हो। धनी किसान व कुलक यह लड़ाई लाभकारी मूल्य को बचाने के लिए लड़ रहे हैं, जिसमें मज़दूरों और ग़रीब मेहनतकश किसानों का कोई हित नहीं है। उल्टे लाभकारी मूल्य से उनके हितों को हानि होती है क्योंकि इसकी वजह से भोजन महँगा होता है और उनकी वास्तविक मज़दूरी में कमी आती है। इसलिए पहले दो क़ानूनों पर चल रहे आन्दोलन में हमें कुलकों-धनी किसानों या बड़े पूँजीपति वर्ग का साथ नहीं देना चाहिए, बल्कि अपनी स्वतंत्र राजनीतिक ज़मीन से अपनी स्वतंत्र माँगों के लिए संघर्ष करना चाहिए। यानी कि उन माँगों पर संघर्ष करना चाहिए जो कि ग़रीब किसानों और मज़दूरों की स्वतंत्र माँगें हैं।
गाँवों में अपने ही शोषक-उत्पीड़क कुलक व धनी किसान वर्ग के शोषण करने के विशेषाधिकार को खेतिहर मज़दूर व ग़रीब किसान भला क्यों बचायेंगे? वे इस विशेषाधिकार को छीनने का प्रयास कर रहे बड़े पूँजीपति वर्ग का समर्थन क्यों करेंगे, जबकि इससे परिवर्तन सिर्फ़ यह होगा कि खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों के लुटेरे बदल जायेंगे? ज़ाहिरा तौर पर मज़दूर और ग़रीब किसान लूट और शोषण के ख़िलाफ़ लड़ेंगे, चाहे वह धनी किसान व कुलक करें या फिर बड़ा पूँजीपति वर्ग। वे अपनी स्वतंत्र माँगों के लिए लड़ेंगे, मसलन खेती के क्षेत्र में सरकार द्वारा अधिसंरचना के विकास की माँग, जिसका लाभ ग़रीब और मँझोले किसानों को होगा, मज़दूरी बढ़ाने की माँग जिसका लाभ खेतिहर सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा को होगा, रोज़गार गारण्टी की माँग जिसका लाभ भी समूचे गाँव के ग़रीबों को होगा, धनी किसानों व कुलकों समेत समूचे पूँजीपति वर्ग पर विशेष टैक्स लगाकर लागत को कम करने की माँग जिसका लाभ विशेष तौर पर ग़रीब व मँझोले किसानों को होगा। यह आखिरी माँग भी केवल और केवल पूँजीपति वर्ग पर विशेष टैक्स लगाने की माँग के साथ ही उठायी जा सकती है क्योंकि उसके बिना इसका अर्थ होगा खेती में लगने वाले कच्चे मालों, मशीनरी, आदि के उत्पादन में लगे मज़दूरों की मज़दूरी को कम करना।
जहाँ तक तीसरे क़ानून यानी आवश्यक वस्तु क़ानून में संशोधन का प्रश्न है, मज़दूर वर्ग इसका स्पष्ट तौर पर विरोध करता है क्योंकि यह जनविरोधी क़दम है और व्यापारियों को कालाबाज़ारी और जमाख़ोरी का मौक़ा देता है।
स्पष्ट है कि गाँवों का धनी किसान व कुलक कई रूपों में खेतिहर मज़दूरों और ग़रीब मेहनतकश किसानों को लूटता है, तबाह और बरबाद करता है। यह गाँवों में हमारा शत्रु वर्ग है। इसके साथ वर्ग सहयोग की नीति अपनाने वाले वास्तव में कुलकों और धनी किसानों के एजेण्ट हैं, जो कि मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन में घुसे हुए हैं। ऐसी शक्तियों की कुलकपरस्त राजनीति को लगातार बेनक़ाब करना होगा, गाँव में अपने भाइयों-बहनों को यह समझाना होगा कि ऐसी शक्तियों से सावधान रहें जो कुलकों व धनी किसानों का समर्थन करने की बात कर रहे हैं, जो कि एक ही साथ आपकी मज़दूरी पर कैप लगा रहे हैं, आपको सूदख़ोरी और लगानख़ोरी से लूट रहे हैं और साथ ही ‘मज़दूर-किसान एकता’ का नारा देकर आपको ठगने का प्रयास कर रहे हैं। गाँवों में मज़दूरों व ग़रीब मेहनतकश किसानों के बीच यह क्रान्तिकारी प्रचार ही आज हमारा प्रमुख कार्य है।

मज़दूर बिगुल, जून 2021


 

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