समयपुर, लिबासपुर का लेबर चौक

रामाधार, बादली

बाहरी दिल्ली के उत्तरी भाग में समयपुर इलाका पड़ता है। दिल्ली-42 में स्थित समयपुर व लिबासपुर में दो लेबर चौक (मजदूर अड्डा) भी है। घोषित तौर पर किसी सरकारी कागज में लेबर चौक जैसा कुछ भी नहीं होता है। यहाँ की भौगोलिक परिस्थिति ये है कि ये समयपुर इलाके की तंग व व्यस्त सड़क है जो कि जी.टी. करनाल रोड़ से सीधा बादली स्टेशन तक जाती है। इस चौक पर परचून, मेडिकल ,बैण्ड मास्टर आदि दुकानें पर्याप्त मात्रा में है। इस तंग व व्यस्त सड़क पर मजदूर भी रोजगार पाने की उम्मीद में भारी संख्या में बैठते है। इस चौक को छोटी लेबर चौक बोलते है। यहाँ पर सुबह 9 बजे करीब 200 मजदूर प्रतिदिन आराम से देखे जा सकते हैं। लेबर चौक की कोई जगह न होने के कारण मजदूरों को आए दिन वहाँ के दुकानदारों से गालियाँ सुननी पड़ती है। आए दिन एक-दो मजदूरों को पीटना व उनके ऊपर पानी फेंक देना तो जैसे इन्होंने पेशा ही बना लिया है। मजदूरों में भी कोई आपसी एकता नहीं है इसलिए इन लोकल साँडों का कोई विरोध नहीं कर पाता। कोई पार्टी(काम) आती है तो सारे मजदूर पार्टी को घेर लेते है जिससे कि 5-10 मिनट के लिए कभी-कभी पूरी रोड़ ही जाम हो जाती है। पार्टियां भी जब अपने-आप को मजदूरों से घिरा हुआ पाती है तो मनमाने तरीके से मजदूरों को कम कीमत पर ले जाती है। एक बार तो फ़ैक्टरी मालिक मजदूर को तय करके ले गया कि शाम साढ़े पांच बजे तक का काम 1 घण्टा लन्च के ब्रेक के साथ का 250 रु. दिहाड़ी देगा। काम करवाने के बाद बोला कि 7 बजे तक काम करेगा तभी रुपये मिलेंगे और गाली-गलौच करने लगा। इतने पर मजदूर ने काम छोड़ दिया और कहा चौक पर आओगे तब बतायेंगे। इतने पर मालिक ने गाली देते हुए दो-चार झापड़ लगा दिए। और बोला कल आऊंगा लेबर लेने तेरी जो औकात हो उखाड़ लेना। मजदूर को चुपचाप मार खाकर आना पड़ा। अगले दिन उसने कई मजदूरों को बताया मगर किसी ने साथ ना दिया। और कोई आश्वासन भी ना दिया। खाली विलाप ही किया कि क्या कर सकते हो भैया।

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घटनाए और भी बहुत सारी है। मगर समस्या का दुखड़ा रोने से कुछ नहीं होता। मुख्य जड़ तो यही है। कि जब तक हम अपनी ताकत को नहीं पहचानते तब तक कुछ नहीं कर पाएंगे। एक आदमी आऐगा और दो सौ लोगों के बीच किसी में किसी एक मजदूर भाई को पीटकर चला जाऐगा।

ये तो छोटी लेबर चौर की छोटी कहानी है। यही से 500 मीटर की दूरी पर लिबासपुर में बड़ी लेबर चौक है। यहाँ पर तो सड़क व्यस्त है मगर गलियाँ तंग नहीं है। आसपास में सड़क के किनारे डी.डी.ए. के खाली प्लॉट पड़े हुए है। ट्रांस्पोर्ट के टैम्पो व टाटा 407 की गाड़ियों का स्टैण्ट भी है। पन्चर की बड़ी दुकान है। सार्वजनिक शौचालय है व उठने-बैठने के लिए छायादार जगह भी है मगर ये भी कोई घोषित चौक नहीं है। यहाँ भी मजदूर बड़ी संख्या में रहते हैं। यहाँ सुबह 9 बजे करीब 600-700 मजदूर काम की तलाश में रहते हैं। छोटी चौक पर तब भी थोड़े शरीफ लोग आते है मगर यहाँ तो छँटे हुए गुण्डे ठेकेदार व कमीने मालिक अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियों से लेबर लेने आते है। मजदूरों के साथ जो परिस्थितियाँ छोटी चौक पर है उससे भी भंयकर परिस्थितियाँ यहाँ है। यहाँ पर भी वजह वही है कि आपस में कोई एकता नहीं है जिससे रोज गाली गलौच व मार, डांट सब सहना पड़ता है और अपनी मेहनत की पूरी मजदूरी भी नहीं माँग पाते है।

 

मज़दूर बिगुलमार्च  2013

 


 

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