नमो फ़ासीवाद! रोगी पूँजी का नया राग!

कविता

पहले पाँच विधान सभाओं के चुनाव होने हैं और फिर अगले साल लोक सभा चुनाव होंगे। मँहगाई और भ्रष्टाचार पर कुछ लोकलुभावन बातें कहने के अलावा किसी पार्टी के पास कोई मुद्दा नहीं है। फिर वही पुराना नुस्खा आजमाने पर सभी जुट गये हैं- धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण।

इसमें हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी सर्वाधिक आक्रामता के साथ आगे हैं। चौरासी कोसी परिक्रमा, संकल्प दिवस वगैरह-वगैरह के द्वारा फिर आर.एस.एस., विहिप और उनके अन्य अनुषंगी संगठन 1990-92 जैसा माहौल बनाने पर जुट गये हैं। 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद पहली बार मुजफ्फरनगर में इतने भीषण दंगे हुए। वहाँ आग कुछ ठण्डी हो ही रही थी कि शिविर में रह रहे दो मुस्लिम युवकों की हत्या, एक युवती से बलात्कार और महापंचायतों के नये सिलसिले ने तनाव फिर से बढ़ा दिया है। उ.प्र. में जो साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है, उसका लाभ सपा को भी मिलेगा। पीछे छूट जाने के बावजूद कांग्रेस और बसपा भी दंगे की आँच पर अपनी चुनावी गोट लाल करने की हर चन्द कोशिश कर रहे हैं।

नरेन्द्र मोदी का चेहरा आगे करके भाजपा ने हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद को मॉडर्न चेहरा देने की सफल कोशिश की है। कारपोरेट घरानों में प्रबंधन और कम्प्यूटर आदि के पेशे से जुड़ी, नवउदारवाद की जारज औलादों को- महानगरीय खुशहाल मध्यवर्गीय युवाओं को नरेन्द्र मोदी के रूप में नया नायक मिल गया है। गाँवों के धनी किसानों का रुझान भी भाजपा की तरफ हुआ है। वैसे भी धनी किसानों-कुलकों के वर्ग में बुर्जुआ जनवादी चेतना काफी न्यून होती है और धार्मिक पूर्वाग्रहों की जड़ें गहरी होती हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट का जो दबाव विनियोजित अधिशेष के इस छोटे भागीदार पर पड़ रहा है, वह फ़ासीवाद की राजनीति की ओर इसके झुकाव को तेजी से बढ़ा रहा है। आर.एस.एस. पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार पटेल को राष्ट्रीय नायक के रूप में उभारकर संघ-भाजपा एक तीर से दो शिकार कर रही हैं।  एक ओर तो कांग्रेस के अनुदारवादी धड़े के नेता पटेल को अपनाकर वह एक स्वीकार्य राष्ट्रीय बुर्जुआ नेता को आगे करके (आख़िर हेडगेवार, गोलवलकर, देवरस, वाजपेयी, आडवाणी तो ऐसे ऐतिहासिक राष्ट्रीय नेता हो नहीं सकते, आजादी की लड़ाई में भागीदारी के श्रेय वाला, गाँधी और नेहरू की धाराओं से अलग एक अनुदारवादी व्यक्तित्व पटेल का ही हो सकता था, चाहे उन्हें अपनाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों की ऐसी की तैसी क्यों न करनी पड़े) वह राष्ट्रीय बुर्जुआ पार्टी होने की अपनी दावेदारी पुख़्ता कर रही है, दूसरे मध्यम जाति के उस भारी वोट बैंक में भी अपनी पैठ मजबूत करने की कोशिश कर रही है जो मुख्यतया धनी मझोले मालिक किसानों की आबादी है। पटेल चाहे जो भी हों, अपने को उन्होंने महज पटेलों, कुर्मियों, कोइरियों, सैंथवारों जैसी मध्य जातियों के नेता के रूप में तो कभी सोचा भी नहीं होगा।

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आर.एस.एस. बहुत व्यवस्थित ढंग से शहरों की मज़दूर बस्तियों में पैर पसार रहा है। किसानी पृष्ठभूमि से उजड़कर आये, निराश-बेहाल असंगठित युवा मज़दूरों और लम्पट सर्वहारा की सामाजिक परतों के बीच वह अपना आधार तैयार कर रहा है।

औद्योगिक कारपोरेट घराने और वित्त क्षेत्र के मगरमच्छ नवउदारवाद की नीतियों को बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलाना चाहते हैं। इसके लिये एक निरंकुश सत्ता की जरूरत होगी। इसलिए इन शासक वर्गों का एक हिस्सा भी नरेन्द्र मोदी पर दाँव आजमाना चाहता है। उसे बस डर यही है कि साम्प्रदायिक तनाव ऐसी सामाजिक अराजकता न पैदा कर दे कि पूँजी निवेश का माहौल ही ख़राब हो जाये। पूँजीपति वर्ग हिन्दुत्ववादी फ़ासीवाद का इस्तेमाल जंजीर से बँधे कुत्ते के समान करना चाहता है। पर हालात की गति उनकी इच्छा से स्वतंत्र भी हो सकती है। जंजीर से बँधा कुत्ता जंजीर छुड़ाकर अपनी मनमानी भी कर सकता है।

पटना में मोदी की रैली के पहले हुए बम विस्फोटों ने साम्प्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण को बढ़ाने में आग में घी का काम किया है। यह काम इस्लामी कट्टरपंथियों का है, यह प्रमाणित हो चुका है। इस्लामी कट्टरपंथ की राजनीति हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथ को ही बल पहुँचा रही है। भाजपा ने पटना बम विस्फोट में मारे गये लोगों की अस्थिकलश यात्रा निकालकर और मोदी को उनके घरों पर भेजकर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने की पूरी कोशिश की है।

इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद भी फ़ासीवाद का ही दूसरा रूप है, जो मुस्लिम हितों की हिफाजत के नाम पर जिहाद का झण्डा उठाकर जो कारगुजारियाँ कर रहा है उससे भारत में हिन्दुत्ववादियों का ही पक्ष मजबूत हो रहा है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इतिहास गवाह है कि सर्वइस्लामवाद का नारा देने वाले वहाबी कट्टरपंथ ने पूरी दुनिया में हर जगह अन्तत: साम्राज्यवाद का ही हितपोषण किया है। आज भी, लीबिया में, इराक में, सीरिया में, मिस्र में, अफगानिस्तान में- हर जगह उनकी यही भूमिका है। भारत में हर धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी को यह बात समझनी ही होगी कि वे अपनी हिफाजत धार्मिक कट्टरपंथ का झण्डा नहीं बल्कि वास्तविक धर्मनिरपेक्षता का झण्डा उठाकर ही कर सकते हैं। वास्तविक धर्मनिरपेक्षता की राजनीति केवल क्रान्तिकारी मज़दूर राजनीति ही हो सकती है जो जाति और धर्म से परे व्यापक मेहनतकश अवाम की जुझारू एकजुटता क़ायम कर सकती है।

पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान यदि अस्तित्व में नहीं आयेगा, तो लाजिमी तौर पर उसका फ़ासीवादी समाधान सामने आयेगा। क्रान्ति के लिए यदि मज़दूर वर्ग संगठित नहीं होगा तो जनता फ़ासीवादी बर्बरता का कहर झेलने के लिए अभिशप्त होगी। समाजवाद या फ़ासीवादी बर्बरता – भारतीय समाज के सामने ये दो ही विकल्प ध्रुवीकृत रूप में बचे रह जायेंगे।

यही वह यक्षप्रश्न है जो आज जनता की हरावल क्रान्तिकारी शक्तियों के सामने खड़ा है। अब न समय है, जूझना ही तय है।

 

मज़दूर बिगुलदिसम्‍बर  2013

 


 

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