बोलते आँकड़े-चीख़ती सच्चाइयाँ
देश की एक-तिहाई आबादी स्थायी रूप से अकालग्रस्त!

  • राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो (एन.एन.एम.बी.) के अनुसार भारत की वयस्क आबादी के एक तिहाई से भी अधिक का बी.एम.आई. (बॉडी मास इंडेक्स) 18.5 से कम है और वे दीर्घकालिक कुपोषण से ग्रस्त हैं। इनमें भी अनुसूचित जनजातियों के 50 प्रतिशत और अनुसूचित जातियों के 60 प्रतिशत लोगों का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। उड़ीसा में 40 प्रतिशत आबादी का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। विकसित राज्य माने जाने वाले महाराष्ट्र में 33 प्रतिशत आबादी का बी.एम.आई. 18.5 से कम है। कई गाँवों में तो 70 प्रतिशत लोगों का बी.एम.आई. 18.5 से कम पाया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन कहता है कि अगर किसी समुदाय के 40 प्रतिशत से अधिक सदस्यों का बी.एम.आई. 18.5 से कम हो तो उसे अकालग्रस्त माना जाना चाहिए। इस मानक से भारत में अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों और पूरे उड़ीसा को स्थायी रूप से अकालग्रस्तता की स्थिति में माना जाना चाहिए।
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  • रिपोर्ट के अनुसार भारत में 5 वर्ष की उम्र तक के 43 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और उनका वज़न उम्र के लिहाज़ से कम है।
  • अन्तरराष्ट्रीय खाद्यनीति शोध संस्थान की 2007 की रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी की दृष्टि से दुनिया के 118 देशों में भारत का स्थान 94वाँ था, जबकि पाकिस्तान का 88वाँ और चीन का 47वाँ। अन्तरराष्ट्रीय खाद्यनीति शोध संस्थान और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किये गये ‘वैश्विक भूख सूचकांक’ (ग्लोबल हंगर इण्डेक्स) 2008 के अनुसार, दुनिया के 88 देशों में भारत का 66वाँ स्थान है। अफ्रीकी देशों और बांग्लादेश को छोड़कर भूखे लोगों के मामले में भारत सभी देशों से पीछे है। दुनिया में कुल 30 करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और 2015 तक भूख की समस्या मिटा देने के संयुक्त राष्ट्र संघ के आह्नान के बावजूद 2030 तक इनकी संख्या बढ़कर 80 करोड़ हो जाने का अनुमान है। इस आबादी का 25 प्रतिशत हिस्सा सिर्फ भारत में रहता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य व कृषि संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, पूरी दुनिया में 85 करोड़ 50 लाख लोग भुखमरी, कुपोषण या अल्पपोषण के शिकार हैं। इनमें से लगभग 35 करोड़ आबादी भारतीय है। हर तीन में से एक (यानी लगभग 35 करोड़) भारतीयों को प्राय: भूखे पेट सोना पड़ता है। न तो पूरी दुनिया के स्तर पर और न ही भारत के स्तर पर इसका कारण खाद्यान्न की कमी नहीं, बल्कि बढ़ती महँगाई और आम लोगों की घटती वास्तविक आय है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1991 में प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उपलब्धता 580 ग्राम थी जो 2007 में घटकर 445 ग्राम रह गयी।
  • उल्लेखनीय है कि इस दौरान समाज के समृद्ध तबक़ों (उच्च मध्यवर्ग तक) ने खाने-पीने पर अपना ख़र्च काफी बढ़ाया है। यानी औसत खाद्यान्न उपलब्धता में उपरोक्त अवधि में दर्शायी गयी कमी से भी अधिक कटौती ग़रीब के भोजन में हुई है। उसी रिपोर्ट के अनुसार, उदारीकरण के इन 18 वर्षों के दौरान समाज के ग़रीब हिस्से की प्रतिव्यक्ति कैलोरी खपत में भी काफी कमी आयी है। जहाँ विकसित देशों के लोग औसतन अपनी कुल आमदनी का 10 से 20 फीसदी भोजन पर ख़र्च करते हैं, वहीं भारत के लोग अपनी कुल कमाई का औसतन क़रीब 55 फीसदी हिस्सा खाने पर ख़र्च करते हैं। लेकिन कम आय वर्ग के भारतीय नागरिक अपनी आमदनी का 70 प्रतिशत भाग भोजन पर ख़र्च करते हैं, और फिर भी उसे दो जून न तो भरपेट भोजन मिलता है, न ही पोषणयुक्त भोजन। औसतन एक आदमी को प्रतिदिन 50 ग्राम दाल चाहिए, लेकिन भारत की नीचे की 30 फीसदी आबादी को औसतन 13 ग्राम ही नसीब हो पाता है। वर्ष 2006 से 2007 के बीच दाल की क़ीमतों में 110 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ। चन्द एक सीज़नल सब्ज़ियों को छोड़कर, हरी सब्ज़ी तो ग़रीब खा ही नहीं सकता। प्याज़, टमाटर और आलू तक ख़रीदना भी साल के अधिकांश हिस्से में उसके लिए मुश्किल होता है। आज से 50 वर्षों पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में औसतन जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के अनुसार, ख़ासकर 1991 में निजीकरण- उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के बाद से अनाज की खपत में भारी गिरावट आयी है। 1991 में पाँच व्यक्तियों का औसत परिवार एक साल में करीब 880 किलो अनाज खाता था, जो 2008 तक घटकर 770 किलो रह गया।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी के शिकार लोगों में से आधे लोग भारत में रहते हैं।
  • इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल बच्चों में से 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ की सहस्‍त्राब्दी लक्ष्य समीक्षा रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश में 15 लाख बच्चे अपने पहले जन्मदिन से पहले ही मौत के मुँह में समा जाते हैं। पैदा होने वाले हर 1000 बच्चों में से 74 बच्चे 5 वर्ष की उम्र से पहले ही मर जाते हैं।

 

मज़दूर बिगुल, फरवरी 2011

 


 

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