न्यूनतम मज़दूरी बढ़ी लेकिन किसकी – आपकी या हमारी?
दिल्ली के विधायकों के वेतन में 300 प्रतिशत वृद्धि और मज़दूरों के वेतन में 15 प्रतिशत की वृद्धि

आशु

दिल्ली की मुख्यमन्त्री शीला दीक्षित ने 23 फ़रवरी को बड़े ज़ोर-शोर से मीडिया-कांप्रेफन्स कर मज़दूरों के वेतन में 15 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी का ऐलान किया। यह बढ़ोत्तरी 29 रोज़गार सूचियों के लिए है। इसके अनुसार अब अकुशल मज़दूर (हेल्पर) को 234 रुपये प्रतिदिन (6084 प्रतिमाह), अर्द्धकुशल मज़दूर को 259 रुपये प्रतिदिन (6734 प्रतिमाह) तथा कुशल मज़दूर को  284 रुपये (7140 प्रतिमाह) के हिसाब से वेतन मिलेगा। लेकिन सवाल ये है कि कागज़ों पर हुई इस वृद्धि का लाभ मज़दूरों को मिलेगा भी या नहीं?

अगर मज़दूरों के हालात पर नज़र डाली जाये तो मौजूदा समय में दिल्ली में 45 लाख मज़दूरों की संख्या असंगठित क्षेत्र मे कार्यरत है; जिसमें से एक-तिहाई आबादी व्यापारिक प्रतिष्ठानों, होटलों और रेस्तरों आदि में लगी हुई है। करीब 27 प्रतिशत हिस्सा मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र, यानी कारखाना उत्पादन में लगा हुआ है। जबकि निर्माण क्षेत्र यानी इमारतें, सड़कें, फ्लाईओवर आदि बनाने का काम करने में भी लाखों मज़दूर लगे हुए हैं। ये ज़्यादातर मज़दूर 12-14 घण्टे खटने के बाद मुश्किल से 3000 से 4000 रुपये कमा पाते हैं, यानी मज़दूरों के लिए न्यूनतम मज़दूरी क़ानून या आठ घण्टे के क़ानून का कोई मतलब नहीं रह जाता है बाकी ईएसआई, पीएफ़ जैसी सुविधाएँ तो बहुत दूर की बात है। दिल्ली की शान कही जाने वाली जाने वाली मेट्रो रेल में तो न्यूनतम मज़दूरी की सरेआम धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। वैसे खुद दिल्ली सरकार की मानव विकास रपट 2006 में यह स्वीकार किया गया है कि ये मज़दूर जिन कारख़ानों में काम करते हैं उनमें काम करने की स्थितियाँ इन्सानों के काम करने लायक नहीं हैं। इसकी ताज़ा मिसाल तुगलकाबाद एक्स. की घटना है (देखिये फ़रवरी मज़दूर बिगुल अंक में) जिसमें अवैध फैक्टरी में बॉयलर फटने से 12 मज़दूर मारे गये तथा 6 मज़दूर घायल हो गये है। इतनी बड़ी घटना के बाद भी दोषी मालिक ‘सक्षम’ दिल्ली पुलिस के हाथ नहीं आया। हाँ, जब इसी मालिक से घूस वसूलनी होती होगी, तब पुलिस उसे पाताल से भी ढूँढ़ निकालती होगी! श्रम विभाग ने खानापूरी के लिए मुआवज़े का नोटिस तो लगा दिया लेकिन घटना के एक महीने बाद भी पीड़ित परिवारों कोई मुआवज़ा नहीं मिला।

साफ़ है कि देश की राजधानी में जब मज़दूर इतनी अमानवीय,  नारकीय स्थितियों में काम कर रहे हैं तो पूरे देश के मज़दूरों की दशा क्या होगी। वैसे देश के संविधान में मज़दूरों के हित के लिए 260 श्रम क़ानून बनाये गये हैं लेकिन ये “श्रम क़ानून” “शर्म क़ानून” बनकर रह गये हैं। आज सभी मज़दूर साथी जानते हैं कि सारे श्रम क़ानून ठेकेदारों और मालिकों की जेब में रहते हैं वहीं दूसरी ओर क़ानूनों को लागू करने वाले श्रम विभाग में चपरासी से लेकर अफसरों तक घूस का तंत्र चलता है। “पैसा फेंको, तमाशा देखो!” और ऐसा भी नहीं है कि इस गोरखधन्धे की ख़बर नेताओं-मंत्री को न हो। क्योंकि दिल्ली में ही कई बड़े नेताओं की फैक्टरियाँ चल रही है जहाँ कोई श्रम क़ानून लागू नहीं होता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है दिल्ली के पूर्व श्रममंत्री मंगतराम सिंघल की बादली में चलने वाली फैक्टरी का जहाँ 3 से 4 हजार रुपये में मज़दूर काम करते हैं।

ऐसे में वेतन वृद्धि की सरकारी घोषणा दिल्ली के लाखों मज़दूरों के साथ एक फूहड़ मज़ाक नहीं तो और क्या है? दूसरी तरफ दिल्ली सरकार ने नेताओं के वेतन में 300 प्रतिशत वृद्धि का प्रस्ताव रखा है! इसके अनुसार अब विधायक का वेतन 32,000 रुपये से बढ़कर 1,00,000 रुपये  तथा मुख्यमंत्री का वेतन 55,000 रुपये से बढ़कर 1,30,000 रुपये हो जायेगा। बताने की ज़रूरत नहीं कि इस वेतन बढ़ोत्तरी को सीधे जनता की जेब से ही वसूल किया जायेगा।

साथियो, ये हालात तब हैं जब जनता बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, बदहाली से त्रस्त है! एक तरफ़ देश में भूख से मौतें हो रही हैं और आम आदमी की थाली सूनी होती जा रही है और दूसरी तरफ़ देश के जनप्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेता-मंत्री अपनी आने वाली सात पुश्तों के लिए ऐयाशी की मीनारें खड़ी कर रहे हैं। साफ़ है कि बीस वर्षों के उदारीकरण-निजीकरण के दौर में जो तरक्‍़क़ी हुई है, उसका फल ऊपर की 15 फ़ीसदी आबादी को ही मिला है। देश में शहरी और ग्रामीण मज़दूर आबादी उजरती ग़ुलामों जैसा जीवन जीने के लिए मजबूर है।

अगर हम इस असम्भव बात को एक बार मान भी लें कि मज़दूर को वर्तमान न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार वेतन मिलने लगे, तो भी मज़दूर की ज़ि‍न्दगी के हालात में कोई ज़मीन-आसमान का अन्तर नहीं आयेगा। वैसे भी आज सरकार जिन मापदण्डों पर न्यूनतम मज़दूरी तय करती है वे नाकाफ़ी और अधूरे हैं क्योंकि इसमें केवल मज़दूर के भोजन सम्बन्धी आवश्यकताओं को ही आधार बनाया जाता है। इसलिए वास्तव में न्यूनतम मज़दूरी रेखा वास्तव में कुपोषण-भुखमरी रेखा है।

ऐसे समय में भारत के मज़दूरों का माँग-पत्रक आन्दोलन यह माँग करता हैं कि सरकार अपने 15वें राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन (1957) की सिफ़ारिश के अनुसार न्यूनतम मज़दूरी की गणना में प्रत्येक कमाने वाले पर तीन व्यक्तियों के लिए प्रति व्यक्ति 2700 कैलोरी खाद्यान्न, कपड़ा, आवास, ईंधन, बिजली, आदि का खर्च शामिल करे। इसके अतिरिक्त शिक्षा, दवा-इलाज, पर्व-त्योहार, शादी एवं बुढ़ापे का खर्च भी न्यूनतम मज़दूरी में शामिल होना चाहिए। इसके आधार पर न्यूनतम मज़दूरी 11,000 रुपये तय होनी चाहिए जो एक मज़दूर की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर सके।

दूसरी बात यह कि जब तक देश में श्रम विभाग का ढाँचा गैरजनतान्त्रिक और मज़दूर-विरोधी बना रहेगा, तब तक श्रम-क़ानून सिर्फ कागज़ों की शोभा बढ़ाने के लिए रहेंगे। इसलिए मज़दूर माँग-पत्रक की एक प्रमुख माँग यह भी है कि श्रम-विभाग की कार्यप्रणाली को जनवादी बनाने के लिए संयुक्त जाँच कमेटी (इंस्पेक्टोरेट) का गठन किया जाये जिसमें मज़दूर प्रतिनिधियों, मालिक के प्रतिनिधियों, लेबर इंस्पेक्टर के साथ-साथ नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाना चाहिए।

मेहनतकश साथियो! लम्बे संघर्षों और कुर्बानियों की बदौलत जो क़ानूनी अधिकार हमने हासिल किये थे, उनमें से ज़्यादातर हमसे छीने जा चुके हैं। जो शेष कागज़ों पर मौजूद भी हैं उनका व्यवहार में कोई मतलब नहीं रह गया है। ज़ाहिरा तौर पर, मज़दूर की असली मुक्ति तो मेहनतकश सत्ता के कायम होने पर ही होगी। लेकिन आज चुपचाप अन्याय और अत्याचार सहने से क्या यह बेहतर नहीं कि हम एकजुट होकर अपने हक़-अधिकार की लड़ाई को तेज़ कर दें? इन हक़ों की लड़ाई के लिए मज़दूरों को नये सिरे गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसी मकसद से भारत के मज़दूरों का माँग-पत्रक आन्दोलन भी शुरू किया गया है। इस माँग-पत्रक में 26 श्रेणी की माँगें हैं जो आज भारत के मज़दूर वर्ग की लगभग सभी प्रमुख आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। माँग-पत्रक-2011 मज़दूर वर्ग की उन सभी माँगों को देश की पूँजीवादी सरकार के सामने रखता है जिनका वायदा उसने देश के मेहनतकशों से किया है। अगर वे इन वायदों को नहीं निभा सकते  तो पूँजीवाद जनतंत्र की असलियत बेनक़ाब हो जाएगी। अगर सरकार 80 फीसदी जनता से किये गये वायदे भी नहीं निभा सकती है तो फिर उसे जनता का प्रतिनिधि कहलाने का और देश चलाने का कोई नौतिक अधिकार नहीं है।

 

 

मज़दूर बिगुल, मार्च 2011

 


 

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