पूँजीवादी “सुधारों” से तबाह चीन की मेहनतकश जनता नये बुर्जुआ शासकों के खि़लाफ़ लड़ रही है

संदीप

‘बिगुल’ के पिछले अंक में हमने रॉबर्ट वील के लेख के आधार पर चीन में मेहनतकशों की स्थिति और युवा मज़दूरों के बीच बढ़ती वर्ग चेतना को दर्शाती विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस बार हम प्रसिद्ध चीनी विद्वान प्रोफ़ेसर पाओ यू-चिङ के एक भाषण के आधार पर चीन की मौजूदा हालत के बारे में एक और रिपोर्ट प्रस्तुत कर रहे हैं। पाओ यू-चिङ माओ त्से-तुङ के विचारों और प्रयोगों की क्रान्तिकारी विरासत को स्वीकार करती हैं। वे हाङकाङ स्थित चिङकाङशान इंस्टीट्यूट से जुड़ी हुई हैं। कुछ वर्ष पहले प्रकाशित उनका लेख ‘समाजवाद पर पुनर्विचार’ भी चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना पर विचारोत्तेजक   सामग्री देता है। – सम्पादक

पूँजीवादी पथगामियों द्वारा चीन में “सुधारों” की शुरुआत से अब तक तीस वर्ष से अधिक का समय गुज़र चुका है और इस दौरान चीनी जनता को समझ आ चुका है कि पूँजीवाद में सुधार का अर्थ वास्तव में क्या होता है। अब मज़दूरों-किसानों से लेकर बुद्धिजीवी तक इन सुधारवादी नीतियों का मुखर विरोध करने लगे हैं। राजकीय उपक्रमों में काम कर चुके मज़दूर कह रहे हैं, “जिन फ़ैक्ट्रियों को हमने दशकों तक ख़ून-पसीना बहाकर खड़ा किया था उन्हें तुमने देशी-विदेशी पूँजीपतियों को बेच दिया, इमारतें और मशीनें नष्ट कर दीं और अब हमारी ज़मीनें भी छीन रहे हो, तुमने चीन की सम्पदा को आम जनता के हाथ से छीनकर हम लोगों को दिन-रात हाड़ गलाने और तिल-तिल कर मरने के लिए छोड़ दिया है।” बुद्धिजीवी भी मुखर होकर कहने लगे हैं कि ये समाजवादी चोगे में लिपटे पूँजीवादी सुधार हैं और इनसे चीन में अमीरों-गरीबों की बीच की खाई और चौड़ी होती जा रही है।

मज़दूरों और शहरी आबादी के लिए सुधारों” का मतलब क्या है?

कम्यूनों को भंग करने के साथ ही संशोधनवादियों ने औद्योगिक क्षेत्र के उत्पादन सम्बन्धों में बुनियादी परिवर्तन आरम्भ कर दिये। श्रम “सुधार” इसका एक ज़रूरी घटक था, जिसका उद्देश्य स्थायी रोज़गार प्रणाली को ख़त्म करना और राजकीय उपक्रमों के मज़दूरों को उजरती मज़दूरों और उनकी श्रमशक्ति को माल में तब्दील करना था।

 तथाकथित श्रम सुधारों के तहत सबसे पहले माओ के समय से लागू आठ-स्तरीय वेतन प्रणाली को बदल दिया गया। इसके तहत मज़दूरों को प्रतिस्पर्द्धा के लिए उकसाकर वेतन में बोनस जोड़ा गया। मज़दूरों ने इस बदलाव का प्रतिरोध बोनस को आपस में बाँटकर किया ताकि महँगी होती जीवनस्थितियों का मुकाबला किया जा सके। उन्होंने संशोधनवादियों द्वारा मासिक वेतन को पीस-रेट के अनुसार भुगतान में बदलने का भी प्रतिरोध किया, क्योंकि वे जानते थे कि यह उन्हें बाँटने की रणनीति है। दरअसल, सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान मज़दूरों को अच्छी तरह समझ में आ गया था कि उन्हें आपस में बाँटने के लिए भौतिक प्रोत्साहन को इस्तेमाल किया जा सकता है।

धीरे-धीरे सुधारवादियों ने नए भर्ती किये मज़दूरों को अस्थायी ठेका जारी करते हुए 1980 तक मज़दूरों के स्थायी रोज़गार की स्थिति को बदल दिया। 1990 के दशक के आरम्भ में बड़े पैमाने पर निजीकरण और राजकीय उपक्रमों के पुनर्गठन की शुरुआत के साथ इसमें और तेजी आयी तथा 1999 तक पूर्व राजकीय उपक्रमों (शहरी सामूहिक उपक्रमों की छोटी संख्या सहित) के स्थायी मज़दूरों की संख्या घटकर 47.5 प्रतिशत रह गयी। इस व्यापक छँटनी, कारखाने बन्द करके दी गई जबरन सेवानिवृत्ति और राजकीय उपक्रमों के पुनर्गठन ने दसियों लाख मज़दूरों को सड़क पर ला पटका। इनमें से अधिकांश को नौकरी से निकाले जाने पर केवल मामूली-सा भुगतान किया गया।

छँटनी के बाद अधिकांश मज़दूरों को मिलने वाले भत्ते भी बन्द हो गए और आसमान छूती चिकित्सा क़ीमतों ने स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया। अब चीन के अस्पताल मुनाफ़ा कमाने के संस्थानों में तब्दील हो चुके हैं। इन अस्पतालों में महँगी और विदेशों से आयातित दवाएँ देने से पहले जाँच आदि के नाम पर बड़ी रकम ऐंठी जाती है, जिनमें से अधिकतर जाँचें ग़ैरज़रूरी होती हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है कि मुनाफ़ा पीटने के साथ ही समाज से कट चुके चिकित्सकों को भी ऊँचा वेतन और सुविधाएँ आदि दिये जा सकें। स्वास्थ्य बीमा या स्वास्थ्य की देखभाल आदि की सुविधाओं के बिना चीन की मेहनतकश जनता तब तक अस्पताल का रुख़ नहीं करती है जब तक कि उनकी मामूली बीमारियाँ बढ़ कर किसी गम्भीर बीमारी में तब्दील नहीं हो जातीं। अन्त में जब वे अस्पताल पहुँचते हैं तो उन्हें मोटी रकम लिये बिना भर्ती करने तक से इंकार कर दिया जाता है।

“सुधारों” की कड़ी में श्रम सुधार के तहत बड़े पैमाने पर मज़दूरों की छँटनी से पहले आवास सम्बन्धी “सुधारों” की शुरुआत हुई थी। “सुधारों” के नाम पर वे तमाम मकान मज़दूरों को ही बेच दिये गये जिनमें वे और उनके परिवार दशकों से रहते आये थे। लेकिन आवासीय क्षेत्र में निजीकरण के साथ ही फैक्ट्रियों ने अपने मज़दूरों को आवास की सुविधा मुहैया कराना बन्द कर दिया, जैसाकि वे समाजवाद के दौर में करती थीं। आज स्थिति यह है कि मज़दूरों को नियमित काम मिलता है तो वे ख़ुद को ख़ुशकिस्मत समझते हैं, इस पर भी उनकी मज़दूरी इतनी नहीं होती कि वे किराये पर मकान लेकर रह सकें। मकानों और उनके किरायों में पचास से सौ गुना वृद्धि हो चुकी है। नौजवान मज़दूर या तो अपने माँ-बाप के साथ ही रहते हैं या कई मज़दूरों के साथ दड़़बेनुमा क्वार्टरों में रहते हैं, जहाँ उनको ठीक से आराम भी नहीं मिल पाता।

जिन मज़दूरों को औपचारिक क्षेत्र में काम नहीं मिलता वे कोई भी काम करके अपना गुज़ारा चलाते हैं और उनमें से अधिकतर अपनी बुनियादी ज़रूरतें तक पूरी नहीं कर पाते । कई मज़दूर सड़कों पर खाने-पीने का सामान, या कम कीमत वाला अन्य सामान बेच कर अपना पेट पालते हैं, तो कुछ मज़दूर कुछेक घण्टों या दिनों के लिए काम पा जाते हैं। इन अस्थायी या आकस्मिक कामों में निर्वाह के लिए आवश्यक रकम से भी कम का भुगतान किया जाता है – जो औपचारिक क्षेत्र के नियमित कामों के आधे से कम होता है।

शहरों में रहने और काम करने वाले मज़दूरों के अतिरिक्त 20 करोड़ प्रवासी मज़दूर काम की तलाश में शहरों में आते हैं। अधिकांश महिला मज़दूर तटीय क्षेत्रों में स्थित निर्यात आधारित उद्योगों में काम करती हैं या अमीरों के यहाँ घरेलू काम करती हैं। अधिकतर प्रवासी पुरुष मज़दूर निर्माण कम्पनियों के लिए काम करने को मजबूर होते हैं। वे शहर में सबसे मुश्किल, गन्दा और जोखिमभरा काम करते हैं, ताकि अपने परिवार को ज़िन्दा रखने के लिए घर पर कुछ पैसा भेज सकें। शहरी निवासी का क़ानूनी दर्जा न होने के कारण उनके मालिक उनके साथ जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं और उनकी मज़दूरी तक हड़प लेते हैं।

यदि पूरा परिवार काम की तलाश में शहर आता है तो शहरी निवासी का क़ानूनी दर्जा और पैसा नहीं होने के कारण मज़दूरों के बच्चे स्कूल नहीं जा पाते। निर्यात आधारित फैक्ट्रियों में उन्हें भयंकर भीड़भरे दड़बेनुमा क्वार्टरों में रहना पड़ता है और निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों को अक्सर निर्माण स्थल के पास बने टेण्टों में ही सोने के लिए मजबूर किया जाता है। कुल मिलाकर, उनके अपने ही देश में उनके साथ उसी तरह का व्यवहार किया जाता है जैसा कि पूरी दुनिया में अवैध रूप से काम करने वाले प्रवासी मज़दूरों के साथ किया जाता है।

सबसे गम्भीर बात यह है कि चीन के मेहनतकशों को अब वह गरिमा और सम्मान प्राप्त नहीं है जो उन्हें समाजवादी दौर में प्राप्त था। उस समय उन्हें देश का “निर्माता” कहा जाता था और उन्हें निर्णय करने और कार्यस्थल पर नियन्त्रण के लिए कई अधिकार प्राप्त थे। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान अधिकांश फैक्ट्रियों में अनुचित नियम-क़ानूनों के ख़ात्मे के लिए संघर्ष हुए थे। उस दौरान मज़दूरों को प्रबन्धन के खि़लाफ़ बोलने का अधिकार था और नौकरी से निकाले जाने या दण्ड का भय नहीं था। मज़दूरों में उच्च स्तर की राजनीतिक चेतना थी और वे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आपस में चर्चा किया करते थे।  अब समाज और कार्यस्थल पर मज़दूरों की स्थिति वैसी ही हो गयी है जैसी क्रान्ति-पूर्व चीन में हुआ करती थी।

पुराने मज़दूर उस समय आक्रोश से भर उठे जब उन पूर्व राजकीय उपक्रमों को राजनीतिक सम्पर्कों वाले मुट्ठीभर धनिकों के हाथ में सौंप दिया गया, जिन्हें उन्होंने कई दशकों तक खून-पसीना बहाकर खड़ा किया था। एक पुराने मज़दूर ने, जिसकी उम्र सत्तर वर्ष से अधिक है, बताया कि समाजवाद के दौर में वे ओवरटाइम या बोनस लिये बिना इतवार को स्वेच्छा से ओवरटाइम किया करते थे। उसने यह भी बताया कि उसकी फैक्ट्री के पुराने मज़दूर इतवार और छुट्टी के दिनों में भी फैक्ट्री जाया करते थे ताकि ये यह सुनिश्चित किया जा सके कि सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है। उन्होंने अपनी पूरी क्षमा और सामर्थ्य उन फैक्ट्रियों में लगा दिया और फैक्ट्रियों को अपना मानकर उनमें काम किया। ये मज़दूर उस समय आक्रोश से भर उठे जब संशोधनवादियों ने श्रम सुधारों पर अमल करने के लिए यह आरोप लगाया कि मज़दूरों की आरामतलबी और कामचोरी के कारण राजकीय उपक्रम किसी काम के नहीं रह गये थे।

स्वास्थ्य सुरक्षा गँवाने के साथ ही मज़दूरों को लगातार ख़तरनाक़ और विषाक्त स्थितियों में काम करना पड़ रहा है। किसी भी फैक्ट्री में, चाहे वह किसी बड़ी कम्पनी की हो या छोटे मालिकों की, पर्यावरण और मज़दूरों की सुरक्षा के नियमों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ायी जाती हैं। असुरक्षित और प्रदूषित वातावरण में काम करने के कारण होने वाली मौतों और दुर्घटनाओं के आँकड़े भी कम विचलित करने वाले नहीं हैं। अलग-अलग उम्र के मज़दूर अमेरिका से आयातित ख़तरनाक़ इलेक्ट्रॉनिक कचरे से निकलने वाली विषैली धातुओं से किसी भी तरह की सुरक्षा के बिना काम करते हैं, जबकि ख़तरनाक खदानों में काम करने वाले मज़दूरों की मौतों की संख्या भी चीन में सबसे अधिक है। 2003 के आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार प्रत्येक दस लाख टन कोयले की खुदाई के दौरान चार मज़दूरों की मौत होती है, जोकि रूस और सभी पश्चिमी देशों की मृत्य दर से अधिक है।

बेहिसाब अय्याशी का जीवन बिताने वाले बेहद धनी लोगों – भ्रष्ट नौकरशाहों और नये पूँजीपतियों – के अतिरिक्त, शहरी आबादी का करीब 20 फ़ीसदी हिस्सा भी पिछले तीस वर्षां से सुविधासम्पन्न जीवन बिता रहा है। इनमें से कुछ ऐसे पेशेवर हैं जो घरेलू और विदेशी व्यवसायों की चाकरी करते हैं। इन्हें इतना अधिक वेतन मिलता है कि ये पश्चिमी देशों के कथित मध्यवर्ग की तुलना में अधिक ऊँचे स्तर का जीवन बिताते हैं और महँगे होटलों-रेस्तराओं में अच्छी-खासी रकम खर्च करते हैं। शहरी आबादी के इस वर्ग के अन्य लोगों में विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसरों सहित मौजूदा और सेवानिवृत्त नौकरशाह आते हैं। ये लोग अपने जीवन से काफी सन्तुष्ट  हैं और सुधारवादी नीतियों का समर्थन करते हैं। हालांकि, आरामदायक जीवन के बावजूद, सुधारों की आलोचना करने वालों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है और हाल ही में तीखे वैचारिक हमलों के साथ ही ये ज़्यादा मुखर हुए हैं।

सुधारों” के बाद किसानों की बदतर हालत

1979 में राजनीतिक सत्ता मज़बूत करने के साथ ही संशोधनवादियों ने जन कम्यूनों को भंग करना शुरू कर दिया था। किसानों को सामूहिक व्यवस्था त्यागने और निजी खेती शुरू करने के लिए उकसाने के मकसद से संशोधनवादियों ने ऊँचे दाम पर अनाज ख़रीदने से शुरुआत की। शुरुआती वृद्धि के बाद वहाँ अनाज का उत्पादन ठहराव का शिकार हो गया। इसका एक कारण यह था कि कम्यून के वर्षों के दौरान निर्मित कृषि ढाँचे में गिरावट शुरू हो गई और किसी भी तरह की मरम्मत के लिए किया जाना वाला निवेश बेहद कम हो गया। यही नहीं, कम्यून व्यवस्था के ढहने के बाद इस तरह के कृषि ढाँचे की परियोजनाओं के लिए मज़दूरों को संगठित करना भी असम्भव हो गया। इसके अतिरिक्त, उत्पादन ब्रिगेडों और कम्यूनों द्वारा लाये गये कृषि यन्त्र तेज़ी के साथ घिसने लगे और व्यक्तिगत तौर पर किसानों के पास इतना धन नहीं था कि नये यन्त्र खरीद सकें। यही नहीं, याङत्से नदी के डेल्टा के क्षेत्र, जहाँ ज़मीन छोटी-छोटी पट्टियों में बँटी है, जैसे कुछ क्षेत्रों में कृषि यन्त्रों को प्रयोग करना अब बिल्कुल सम्भव नहीं रहा। इन क्षेत्रों के किसान साधारण औज़ारों के साथ खेती के पुराने तरीके इस्तेमाल करने के लिए मजबूर हैं, जो वे सामूहिकीकरण से पहले किया करते थे।

दूसरा कारक है तेजी के साथ घटती खेती योग्य ज़मीन, जिसका काफी हिस्सा अब औद्योगिक और व्यापारिक इस्तेमाल के लिए दे दिया गया है और किसान भी इस पर फसल नहीं उगाते क्योंकि कृषि उत्पादन में उतना मुनाफ़ा नहीं होता। बाढ़ और सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं तथा पर्यावरण के प्रदूषण की वजह से भी ज़मीन का बड़ा हिस्सा कृषि योग्य नहीं रह गया है। साथ ही, खेती में पूँजी की घुसपैठ के बाद बड़ी संख्या में मज़दूरों के देहात से शहरों की ओर जाने के कारण भी चीन के देहात क्षेत्र में मज़दूरों की कमी हो गयी है।

1980 के दशक के अन्त से आय के मुख्य स्रोत के तौर पर फसल की बिक्री पर निर्भर किसानों की ज़िन्दगी और भी दुश्कर हो गयी है। उस पर से, विश्व व्यापार संगठन के साथ क़रार के कारण वर्ष 2003 से चीन ने अनाज और अन्य कृषि उत्पादों का आयात भी आरम्भ कर दिया है। कृषि बाजार के उदारीकरण के लिए सरकार द्वारा उठाए गए क़दमों के कारण फसल की कीमत में उतार-चढ़ाव होता रहता है, जबकि खेती में निवेश की लागत लगातार बढ़ती जा रही है। 1990 के दशक के आरम्भ से देहात के लोगों ने बड़ी संख्या में शहर की ओर प्रवास आरम्भ कर दिया था। मौजूदा समय में तकरीबन 20 करोड़ किसान प्रवासी मज़दूरों के तौर पर शहरों में काम करते हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि तीसरी दुनिया के अन्य देशों की तरह चीन की खेती अब किसान आबादी के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसकी वजह से उन्हें मज़दूरी करने के लिए शहरों का रुख करना पड़ता है।

कम्यून प्रणाली की स्थापना के समय स्थापित स्वास्थ्य सेवा प्रणाली भी कम्यूनों को भंग किये जाने के साथ ही ढह गयी। कम्यून प्रणाली ध्वस्त होने के बाद, पूर्व कम्यून सदस्यों ने स्वास्थ्य एवं अन्य सुविधाएँ गँवा दीं।

बीमारियों की रोकथाम करने वाली किसी प्रणाली की कमी के कारण टीबी या अन्य बीमारियों ने दोबारा पैर पसार लिये हैं, जिन्हें 1950 के दशक में मुख्यतः समाप्त कर दिया गया था। इसके अतिरिक्त, एचआईवी/एड्स जैसे रोगों और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति सरकारी उपेक्षा और सुविधाओं के अभाव के कारण भी दसियों लाख लोग त्रस्त हैं।

कम्यूनों के ख़ात्मे के साथ ही कम्यूनों द्वारा संगठित ग्रामीण शिक्षा प्रणाली भी ध्वस्त हो गयी। स्कूल की इमारतों और शिक्षकों की तनख़्वाहों के लिए सरकार से मिलने वाला सहयोग कम हो गया या पूरी तरह समाप्त कर दिया गया। कुछ धनी गाँवों में भले ही अपने स्कूल हों लेकिन ग़रीबी से जूझ रहे अधिकांश गाँवों में स्कूल चलाने के लिए स्रोत-संसाधन ही नहीं हैं। 1990 के आरम्भ में ही इन गाँवों के स्कूलों की इमारतें जर्जर हो गयी थीं और उनकी मरम्मत की ज़रूरत थी। कई शिक्षकों ने महीनों तक बिना तनख्वाह के ही बच्चों को पढ़ाना जारी रखा, पर धीरे-धीरे वह भी बन्द हो गया।

तीस वर्षों के कठोर श्रम के बाद, चीन के किसान एक बार फिर पुरानी स्थिति में लौट आये हैं। वे आदिम उपकरणों से खेती करते हैं और प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं के दौरान लाचार होते हैं। सरकार से किसी तरह का सहयोग मिलना तो दूर की बात है, बल्कि नौकरशाह अब किसानों से शुल्क वसूलते हैं और डेवलपरों से सौदा होने पर उन्हें ज़मीन से बेदखल कर देते हैं।

 

तीस वर्षों के सुधार” ने चीन के पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट कर डाला है  

चीन में सीमित प्राकृतिक संसाधन और बेहद कम खेती योग्य जमीन है। ऐसे में चीन में किसी भी तरह का दीर्घकालिक विकास प्राकृतिक संसाधनों और खेती योग्य जमीन के संरक्षण पर ही आधरित हो सकता है। लेकिन तीस वर्षों के पूँजीवादी सुधारों में देश के लिए ज़रूरी नीतियों से उलट नीतियों पर अमल किया गया।

चीन में विश्व की खेती योग्य ज़मीन का केवल 9 प्रतिशत है, जबकि उसे दुनिया की 22 प्रतिशत आबादी को भोजन उपलब्ध कराना होता है। सुधारों के आरम्भ से अब तक कृषि भूमि को औद्योगिक और व्यापारिक इस्तेमाल के लिए देने और किसानों द्वारा खेती नहीं करने के कारण खेती योग्य ज़मीन में काफ़ी कमी आयी है।

इसके अलावा, चीन में प्रति व्यक्ति केवल 2,000 क्यूबिक मीटर पानी ही उपलब्ध है, जोकि पूरी दुनिया में उपलब्ध औसत पानी का एक चौथाई है। औद्योगिक उत्पादन और शहरीकरण की ऊँची दर के कारण पानी की खपत बढ़ गयी है, जिससे सिंचाई और ग्रामीण आबादी को बेहद कम पानी मयस्सर होता है। चीन के जल संसाधन मन्त्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन की कुल 114,000 किलोमीटर की लम्बाई वाली नदियों में से 28.9 पानी प्रतिशत ही अच्छी गुणवत्ता का है और 29.8 प्रतिशत पानी की गुणवत्ता कम है। 16.1 प्रतिशत पानी मनुष्यों के छूने लायक भी नहीं है और नदियों का शेष 25.2 प्रतिशत पानी इतना प्रदूषित हो चुका है कि उसे किसी काम में नहीं लाया जा सकता।

प्रदूषण का यह आलम है कि 1990 के दशक के अन्त में, क्षेत्र के 17 करोड़ लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने वाली पीली नदी 226 दिनों तक सूखी रही। नदियाँ ही नहीं, बल्कि चीन में भूमिगत जल भी तेज़ी से कम हो रहा है। जल संसाधन मन्त्रालय के ही अनुसार, भूमिगत जल के तेज़ी से घटते स्तर ने भूकम्पों और भूस्खलनों के ख़तरे तथा ज़मीन के बंजर होने की समस्या को और बढ़ा दिया है। जल प्रदूषण के साथ ही, वायु और भूमि प्रदूषण की समस्या भी बहुत गम्भीर हो चुकी है। दुनिया के 20 सबसे ज़्यादा प्रदूषित शहरों में से 16 चीन के शहर हैं। वायु प्रदूषण से शहरवासियों को साँस की गम्भीर बीमारियाँ हो रही हैं, जबकि जल और भूमि प्रदूषण ग्रामीण आबादी के लिए घातक साबित हो रहा है; कुछ गाँवों में, कैंसर की दर राष्ट्रीय औसत से 20 या 30 प्रतिशत अधिक है। प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग और चीन के पर्यावरण की तबाही निर्यात को बढ़ाकर जीडीपी की उच्च दर को क़ायम रखने की अन्धाधुन्ध रणनीति का सीधा परिणाम है। पर्यावरण सम्बन्धी नियमों के उल्लंघन और भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों ने भी चीन के पर्यावरण को नष्ट करने में भूमिका निभायी है।

चीनी जनता प्रतिरोध कर रही है…

पिछले तीस वर्षों के “सुधारों” के अनुभव से चीनी जनता को यह समझ आ गया है कि वास्तव में पूँजीवाद क्या है। कोई भी अब यह नहीं मानता कि चीन अब भी एक समाजवादी देश है। पूर्व राजकीय मज़दूरों को औद्योगिक क्षेत्र के उजरती मज़दूरों में तब्दील करके समाजवादी अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करना और किसानों को ज़मीन से बेदख़ल करके प्रवासी मज़दूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर करना यूरोपीय देशों में शुरुआती पूँजीवादी विकास के आदिम पूँजी संचय जैसा ही है। लेकिन चीन के मज़दूर-किसान तीस वर्षों तक समाजवादी रूपान्तरण के दौर के गवाह रहे हैं। इसलिए वे जानते हैं कि माओ त्से-तुङ की सर्वहारा लाइन का अनुसरण करने वाली सच्ची कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सामूहिक रूप से काम करके वे क्या हासिल कर सकते हैं।

पिछले 15 वर्षों में, “सुधार” की नीतियों का संगठित विरोध करने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है। कई जगह छँटनीशुदा मज़दूरों ने फैक्ट्रियों को बेचने या उन्हें बन्द करने के विरोध में कुछ दिनों तक उन पर कब्ज़ा कर लिया। पुराने मज़दूरों ने पेंशन आदि लाभ के लिए विरोध प्रदर्शन किये हैं। किसानों ने पर्याप्त मुआवज़े के बिना भूमि के अधिग्रहण और उनके क्षेत्र में प्रदूषण फैलाने वाली फैक्ट्रियों के निर्माण का विरोध किया है। शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों के बहुत से लोग पुलिस और स्थानीय अधिकारियों के अत्याचार का विरोध कर रहे हैं। वर्ष 2005 में, 100 या इससे अधिक लोगों वाले 74,000 प्रदर्शन हुए, जो 2006 में 90,000 की संख्या को पार कर गये। इसके बाद सरकार ने आँकड़े जारी करना ही बन्द कर दिया क्योंकि स्पष्टतः विरोध-प्रदर्शन की इस संख्या में और इज़ाफ़ा हुआ है।

एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि संशोधनवादियों द्वारा प्रचारित झूठों का भण्डाफोड़ करने वाले बुद्धिजीवियों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है। इनमें से कई बुद्धिजीवी,”सुधारों” की शुरुआत होने पर इस भ्रम और झूठ का शिकार हो गए थे कि यह “चीनी विशेषताओं वाला समाजवाद” है। 1989 में छात्र आन्दोलन में शिरक़त करने वाले कई बुद्धिजीवी भी यह मानते थे कि मुक्त बाज़ार की नीतियों को अपनाने से चीन की कई समस्याओं का समाधान हो जायेगा। लेकिन पिछले 15 वर्षों में, प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने ऐसे सभी झूठों का पर्दाफ़ाश करना शुरू कर दिया है। इन बुद्धिजीवियों ने “सुधारों” से पहले के क्रान्तिकारी दौर के तीस वर्षों की ज़बर्दस्त उपलब्धियों के आँकड़े पेश करके संशोधनवादियों के इस दावे की धज्जियाँ उड़ा दी हैं कि समाजवादी दौर में बहुत कम विकास हुआ था। जब संशोधनवादियों ने कहा कि समाजवादी युग के दौरान आत्मनिर्भरता पर आधारित चीन का विकास खुद पर थोपा हुआ निर्वासन था, तो इन्हीं बुद्धिजीवियों ने यह आरोप लगाते हुए इन दावों को ख़ारिज कर दिया कि संशोधनवादी विदेशी पूँजी, विदेशी तकनोलॉजी ओर विदेशी बाज़ारों पर अति-निर्भरता के चलते अपने देश को विदेशी एकाधिकारियों को सौंप रहे हैं, जिससे चीन की आर्थिक और राजनीतिक स्वायत्तता ख़त्म हो रही है।

पिछले दो वर्षों से इंटरनेट के माध्यम से, प्रकाशनों, सार्वजनिक मंचों के ज़रिये चीन में जीवन्त और ज़बर्दस्त बहसें छिड़ी हुई हैं। इन चर्चाओं और बहसों का दायरा और गहराई सुधार शुरू होने के समय की तुलना में कहीं अधिक है। अब “सुधारों” पर भी पहले से अधिक कठोर और प्रत्यक्ष हमले हो रहे हैं, जिसके चलते “सुधारों” का समर्थन करने वाले अब बचाव की मुद्रा में आ गये हैं।

सितम्बर 2007 में, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 17वीं कांग्रेस के प्रतिनिधियों को 170 लोगों द्वारा हस्ताक्षर किया गया एक पत्र सौंपा गया था जिसमें खुला आरोप लगाया गया था कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में शक्तिशाली लोग अब चीन के सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते और उन्होंने मार्क्सवाद- लेनिनवाद और माओवाद के सिद्धान्तों के साथ ग़द्दारी की है। पिछले दो वर्षों में हुए परिवर्तनों से पता चलता है कि चीन के पूँजीवादी सुधारों का विरोध करने वाली ताकतें मज़बूत हो रही हैं। हालाँकि, इसमें कोई सन्देह नहीं कि दुनिया के अन्य किसी भी देश की तरह चीन में समाजवाद के लिए लम्बा, कठोर और उतार-चढ़ावभरा संघर्ष करना होगा। चीन की समाजवादी विरासत और माओ द्वारा बताया गया सिद्धान्त और व्यवहार का रास्ता इस संघर्ष को जीत के मुकाम तक ले जायेगा।

 

बिगुल, जनवरी 2009

 


 

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