जानवरों जैसा सलूक किया जाता है मज़दूरों के साथ

राजेश, नोएडा

पिछले तीन बार से बिगुल पढ़ रहा हूँ। पहली बार यह मुझे नारा लगाकर भाषण देते और बिगुल बेच रहे कार्यकर्ताओं से मिला था। उनकी बातें सुनकर ही मैंने बिगुल ख़रीदा और मई दिवस का अंक पढ़कर सोच लिया था कि बिगुल को चिट्ठी लिखूँगा। बिगुल के उन कार्यकर्ताओं ने भी मुझे कहा था कि चिट्ठी लिखना। मैं, मज़दूरों को रोज़-रोज़ जिस तरह अपमानित होना पड़ता है, उस पर लिखना चाहता हूँ, लेकिन पहले मैं अपने बारे में थोड़ा-सा बताता हूँ।

मैं नोएडा, यूपी की एक्सपोर्ट गारमेण्ट फैक्टरी में काम करता हूँ। घर में खेती-बाड़ी से ख़र्चा न चल पाने की वजह से मैं 12वीं की पढ़ाई के बाद ही पिछले साल मई में बिहार के दरभंगा से नोएडा काम करने आया था। यहाँ आने से पहले सोचता था कि शहर में मेहनत-मजूरी करने वाले को गाँव की तरह अपमानित नहीं होना पड़ता होगा। सोचा था कि शहर में मज़दूरी करके कुछ पैसे बचाऊँगा और घर पर पैसा भेजकर माँ-बाबूजी की मदद करूँगा। इसलिए यहाँ आकर मैंने सेक्टर-8 की एक लॉज में कुछ लोगों के साथ मिलकर कमरा किराये पर लिया। जिस मंज़िल पर हमारा कमरा है वहाँ चार कमरे और हैं। दो में परिवार रहते हैं और दो कमरों में तीन-तीन लड़के मिलकर रहते हैं। कमरे का किराया 800 रुपया है। छोटे से उस कमरे में सीलन है और रोशनी नहीं आती। मकान मालिक एक गुज्जर है, जो उसकी लॉज में रहने वाले मज़दूरों को बिहारी कहकर बुलाता है, चाहे वे मघ्यप्रदेश के हों, या उत्तर प्रदेश के, या बिहार के। उसके लिए हम सभी बिहारी हैं।

मुझे 2200 महीने की पगार मिलती है और 12-14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। ओवरटाइम सिंगल रेट से देता है और एक भी छुट्टी नहीं मिलती। मैं काम से नहीं घबराता, लेकिन इतनी मेहनत से काम करने के बाद भी सुपरवाइजर माँ-बहन की गाली देता रहता है, ज़रा सी ग़लती पर गाली-गलौज करने लगता है, और अक्सर हाथ भी उठा देता है। मज़दूर लोग दूर गाँव से अपना और अपने परिवार का पेट पालने के लिए आये हैं, इसलिए नौकरी से निकाले जाने के डर से वे लोग कुछ नहीं बोलते। शुरू-शुरू में एक-दो फैक्टरी में मैंने पलटकर जवाब दिया तो मुझे काम से निकाल दिया गया। यहाँ मेरा कोई जानने वाला नहीं है, इसलिए मेरे लिए काम करना बहुत ही ज़रूरी है। इसी बात पर मैं भी अब कुछ नहीं बोलता। लेकिन बुरा बहुत लगता है कि सुपरवाइज़र ही नहीं, मैनेजर, चौकीदार और ख़ुद मालिक लोग भी हमें जानवर से ज्यादा कुछ नहीं समझते। कारख़ाने में घुसने के समय और काम खत्म करने के बाद बाहर लौटते समय गेट पर बैठे चौकीदार हम लोगों की तलाशी ऐसे लेते हैं, जैसे हम चोर हों। यही नहीं, हम लोगों को चाय पीने, बीड़ी पीने और यहाँ तक कि पेशाब करने के लिए नहीं जाने दिया जाता। बस लंच में ही समय मिलता है। उसके अलावा यदि ज़रूरत हो तो सुपरवाइज़र के आगे नाक रगड़नी पड़ती है। औरत मज़दूरों के साथ तो और भी बुरा बर्ताव होता है। गाली-गलौज, छेड़छाड़ तो आम बात है, जैसे वे औरत नहीं, उस फैक्टरी का प्रोडक्ट हों। एक-दो औरत मज़दूरों ने विरोध किया और पलटकर गाली भी दी, तो उन्हें काम से निकाल दिया गया और बड़ा बेइज्ज़त किया।

अभी मैं जिस फैक्टरी में काम करता हूँ, उसका एक मोटा, गंजा, तोंदियल मालिक है, जिसे देखकर यही लगता है कि वह मज़दूरों का ख़ून चूस-चूसकर मोटा रहा है। एक बार कारख़ाने में घुसते समय उसकी गाड़ी के आगे-आगे चलने की वजह से उसने एक मज़दूर को बहुत मारा था, और उसके बाद पुलिस बुलाकर उसी मज़दूर पर चोरी का इल्जाम लगाकर थाना भिजवा दिया था। वहाँ पुलिसवालों ने भी उसे बहुत मारा था और उस कारख़ाने के आगे कभी न दिखने की धमकी दिये थे। उस मज़दूर का एक महीने की तनख्‍वाह और दो महीने का ओवरटाइम मालिक पर बाकी था। लेकिन वो उसे नहीं मिला। उस पर से उसके साथ ऐसा बर्ताव किया गया जैसे वह इन्सान नहीं जानवर हो।

हमारे कारख़ाने के मैनेजर से मिलने के लिए एक ट्रेडयूनियन का नेता भी अक्सर आता रहता है। बाकी मज़दूर बताते हैं कि वह मालिकों का दलाल है, एक बार हमारी फैक्टरी की हड़ताल तुड़वाने में वह सबसे आगे रहा था। मज़दूर उस पर विश्वास करते थे, लेकिन अब उसके कुछ चमचों को छोड़कर कोई उस पर विश्वास नहीं करता।

कारख़ाने में ही नहीं, मज़दूर को तो हर जगह बेइज्ज़त किया जाता है। एक दिन किराया देने में देरी होने पर लॉज का मालिक सीधे माँ-बहन की गाली देने लगता है, और किराने की दुकान के लाला का पैसा देने में देर हो जाये तो वह मारपीट तक कर देता है। हम लोग छुट्टी वाले दिन बस से घुमने के लिए कहीं जाते हैं, तो ड्राइवर-कण्डक्टर भी गाली देता है और बिहारी कहता है।

इस सब से ग़ुस्सा आता है, लेकिन किसी के साथ की उम्मीद न होने की वजह से कुछ बोलते नहीं बनता। बस चुपचाप सहते रहते हैं। बिगुल को पढ़कर लगता है कि मज़दूर लोग बिखरे हुए हैं, इसलिए उनके साथ ऐसा होता है। मुझे यह लगने लगा है हम मज़दूर कहीं के भी हों, हमें इन्सान नहीं समझा जाता। इसलिए मजदूर लोगों को इकट्ठा होना चाहिए। नहीं तो मुझ जैसे सैकड़ों मज़दूर ऐसे ही अकेले घुटते रहेंगे और हमारी लॉज का गुज्जर मालिक तथा कारख़ाने का मालिक जैसे लोग हम लोगों को ऐसे ही बेइज्ज़त करते रहेंगे। हमको इन्सान नहीं समझा जायेगा, बुनियादी अधिकारी मिलना तो दूर की बात है!

 

बिगुल, जून 2009


 

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