अन्तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस (8 मार्च) के शताब्दी वर्ष के अवसर पर
स्त्री मुक्ति के संघर्ष को सामाजिक-आर्थिक मुक्ति के व्यापक संघर्ष से जोड़ना होगा!
आधी आबादी को शामिल किये बिना मानव मुक्ति की लड़ाई सफल नहीं हो सकती!!

सम्‍पादक मण्‍डल

इस 8 मार्च को अन्तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस मनाये जाने के 99 वर्ष पूरे हो गये और इसके शताब्दी वर्ष की शुरुआत हो गयी। पूरी दुनिया में इस दिन को मेहनतकश आम स्त्रियों की मुक्ति के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन शोषण, अत्याचार, पुरुष वर्चस्ववाद के तमाम रूपों से मुक्ति और जीवन के हर पहलू में पूर्ण समानता के लिए स्त्रियों के संघर्ष का प्रतीक है।

शताब्दी वर्ष की शुरुआत का यह मौका पिछली एक सदी की उपलब्धियों को याद करने, आज़ादी की राह की बाधाओं को पहचानने और आगे की चुनौतियों को समझकर नये संकल्प लेने का मौका है। यह मौका ऐसे समय पर आया है जब दुनियाभर की मेहनतकश महिलाएँ एक साथ कई तरह के हमलों का सामना कर रही हैं। पूँजीवादी भूमण्डलीकरण के दौर में हर देश में उदारीकरण- निजीकरण की जो नीतियाँ लागू हुई हैं उन्होंने मेहनतकश अवाम को उजरती गुलामी की ज़ंजीरों में और भी बुरी तरह जकड़ दिया है। और पूँजी के सबसे निकृज्ट कोटि के गुलामों के रूप में स्त्रियों पर इन नीतियों का कहर सबसे बुरे रूप में टूटा है। स्त्रियों के सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए देशी-विदेशी कम्पनियों में होड़ लगी हुई है। आर्थिक शोषण के साथ ही उन्हें तमाम तरह के अपमान, अत्याचारों, दमन-उत्पीड़न और अपराधों का भी शिकार होना पड़ता है। दूसरी ओर, स्त्रियों की आज़ादी और बराबरी की बढ़ती चाहत को कुचलने के लिए हर तरह की रूढ़िवादी, कट्टरपन्थी शक्तियों ने भी स्त्रियों पर हमला बोल दिया है। स्त्री आन्दोलन के भीतर भी तरह-तरह के भटकावग्रस्त विचारों का बोलबाला है।

NariSabha-5पिछले सौ वर्षों में दुनिया भर में स्त्रियाँ अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती रही हैं और पूँजी की लूट और पितृसत्ता के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती रही हैं। दुनिया के सभी देशों में स्त्रियों ने मेहनतकश वर्गों के आन्दोलनों, किसानों के संघर्षों और राष्‍ट्रीय मुक्ति युद्धों में पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष किया है और बेमिसाल कुर्बानियाँ दी हैं। जिन देशों में जनता ने क्रान्ति करके लुटेरी व्यवस्था को उखाड़ फेंका वहाँ भी आधी आबादी ने क्रान्तिकारी युद्धों में और उसके बाद नये समाज के निर्माण में बराबरी से शिरकत की है। अन्तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस की शुरुआत ही मज़दूर वर्ग के संघर्ष से हुई थी। 1857 में 8 मार्च को अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में महिला कपड़ा मज़दूरों ने बेहतर मज़दूरी और कार्य स्थितियों के लिए विशाल प्रदर्शन का आयोजन किया जिसका सरकार ने बुरी तरह दमन किया। लेकिन इन महिलाओं ने दो वर्ष बाद अपने अधिकारों के लिए लड़ने के लिए अपनी पहली यूनियन बनायी। इसके 51 वर्ष बाद 8 मार्च के दिन ही न्यूयॉर्क में करीब 20,000 महिला श्रमिकों ने बेहतर कार्य स्थितियों, वोट देने के अधिकार और बेहतर मज़दूरी के लिए प्रदर्शन किया। दो वर्ष बाद 1910 में कोपेनहेगेन में दुनिया भर की मजदूर पार्टियों के अन्तरराष्‍ट्रीय मंच ने अन्तरराष्‍ट्रीय महिला सम्मेलन का आयोजन किया। इसी सम्मेलन में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी की क्रान्तिकारी नेता क्लारा ज़ेटकिन ने यह प्रस्ताव रखा कि 8 मार्च को अन्तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाय। इस प्रस्ताव को एकमत से स्वीकार किया गया और तब से पूरी दुनिया में 8 मार्च को अन्तराष्‍ट्रीय महिला दिवस के तौर पर मनाया जा रहा है।

लेकिन आज 8 मार्च की इस क्रान्तिकारी विरासत को धूमिल करने और उसे महज़ एक त्योहार में बदल देने की कोशिशें की जा रही हैं। तमाम कम्पनियाँ इस दिन मध्यवर्गीय महिलाओं को लुभाने के लिए कॉस्मेटिक्स से लेकर कपड़ों-गहनों तक के विज्ञापन परोसती रही हैं। लेकिन कम्पनियों और पूँजीवादी मीडिया की ही क्यों बात की जाये, बहुतेरे स्त्री संगठन भी इस मौके पर कुछ रस्मी कवायदें करके छुट्टी पा लेते हैं। स्त्री मुक्ति के संघर्षों को ऐसे अनुष्‍ठानवाद के दायरे से बाहर निकालना ज़रूरी है। अन्तरराष्‍ट्रीय महिला दिवस के मौके पर कुछेक कार्यक्रम कर लेने भर से कुछ नहीं होने वाला। साथ ही स्त्री आन्दोलन को मध्यवर्गीय दायरे से बाहर निकालकर करोड़ों मेहनतकश स्त्रियों के बीच ले जाना होगा। भारत जैसे गरीब देशों की मेहनतकश स्त्रियाँ मीडिया की निगाहों से ही नहीं, आम रोज़मर्रा के जीवन से भी मानो अनुपस्थित होती जा रही हैं। उन्हें देखना हो तो वहाँ चलना होगा जहाँ वे देशभर में फैले एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग ज़ोनों की फैक्टरियों में सुबह से शाम तक 12-12 घंटे खट रही हैं, छोटे-छोटे कमरों में माइक्रोस्कोप पर निगाहें गड़ाये सोने के सूक्ष्म तारों को सिलिकॉन चिप्स से जोड़ रही हैं, निर्यात के लिए सिले-सिलाए वस्त्र तैयार करने वाली फैक्टरियों में कटाई-सिलाई कर रही हैं, खिलौने तैयार कर रही हैं या फूड प्रोसेसिंग के काम में लगी हुई हैं, इसके अलावा वे बहुत कम पैसे पर स्कूलों में पढ़ा रही हैं, टाइपिंग कर रही हैं, करघे पर काम कर रही हैं, सूत कात रही हैं और पहले की तरह बदस्तूर खेतों में भी खट रही हैं। महानगरों में वे दाई-नौकरानी का भी काम कर रही हैं और ‘बार मेड’ का भी। और यह सब कुछ करने के बाद भी घर और बच्चे भी सँभाल रही हैं।

सस्ता होने के कारण स्त्रियों के श्रम को तमाम कम्पनियाँ और कारपोरेशन बुरी तरह निचोड़ रहे है; पूँजी की गुलामी का शिकार तो स्त्री और पुरुष दोनों ही हैं लेकिन स्त्रियों को पूँजी की गुलामी के साथ-साथ पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है। सड़क से लेकर घर तक उसे अपमान और दमन-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। स्त्रियों की एक विशाल आबादी तमाम पूँजीवादी आधुनिकता आ जाने के बावजूद चूल्हे-चौखट में ही कैद है। जो स्त्रियाँ बाहर निकल रही हैं और काम कर रही हैं उन्हें भी पूँजी के शोषण के अतिरिक्त असुरक्षा और अपमान के माहौल में जीना पड़ता है।

ऐसे में यह सोचने का मुद्दा है कि स्त्रियों की मुक्ति का रास्ता आखिर क्या होगा? स्त्री मुक्ति के संघर्ष को शहरी शिक्षित उच्च मध्यवर्गीय कुलीनतावादी दायरे के बाहर लाना होगा। हमें स्त्री मुक्ति के नाम पर स्त्री मुक्ति के आन्दोलन को महज़ स्त्री की पहचान की लड़ाई तक सीमित कर देने वाली एनजीओ संगठनों की घातक राजनीति के खिलाफ भी संघर्ष करना होगा। संसदीय वामपंथी पार्टियों से जुड़े स्त्री संगठनों ने तो मुख्य माँग संसद विधानसभाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण को बना दिया है। हम समझते हैं कि यह स्त्री आन्दोलन को भी संसदीय राजनीति के नरककुण्ड में समेट देने की एक साज़िश के सिवा कुछ नहीं है। इसका मतलब संसद को जनता के एक वास्तविक मंच के रूप में मान्यता दिलाना होगा जबकि सच यह है कि संसद और विधानसभाएँ पूरी तरह लुटेरों, अपराधियों, और इस पूँजीवादी व्यवस्था के खाँटी सेवकों का अड्डा बन चुकी हैं। आज पूँजीवादी जनवाद की जो हालत है उसमें अगर कुछ और महिलाओं को पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधि बनने का मौका मिल ही गया तो इससे देश की बहुसंख्यक स्त्री आबादी के जीवन पर क्या असर पड़ेगा? एक समय था जब जनवादी अधिकारों की लड़ाई में स्त्रियों को बुर्जुआ चुनाव में वोट देने और चुनाव लड़ने के अधिकार की माँग एक बुनियादी माँग थी। लेकिन आज दुनिया उससे बहुत आगे बढ़ चुकी है। आज इस माँग का मतलब आधी आबादी के बीच संसदीय जनतंत्र के बारे में भ्रम पैदा करना होगा। अगर पूँजीवादी सत्ता अपने कारणों से यह कानून लागू करे तो हम उसका विरोध नहीं करेंगे लेकिन स्त्री आन्दोलन को इस सवाल तक महदूद रखने के हम सख्त ख़िलाफ़ हैं।

इसे पश्चिमी देशों के उदाहरण से समझा जा सकता है। अधिकांश पश्चिमी देशों में कानूनी तौर पर बहुतेरे बुनियादी नागरिक अधिकार हासिल कर लेने के बावजूद वास्तव में आज तक स्त्रियों को सामाजिक समानता प्राप्त नहीं हैं। वे दोयम दर्जे की नागरिक हैं। काम करने वाली औरतें वहाँ भी असंगठित क्षेत्र में सस्ता श्रम बेचने को बाध्य हैं और निकृष्‍टतम कोटि की उजरती गुलाम हैं। मुख्यतः मध्यम वर्ग और अन्य सम्पत्तिशाली वर्गों की स्त्रियाँ और सामान्यतः सभी स्त्रिया वहाँ घरेलू दासता से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकी हैं। जीवन के हर क्षेत्र में उन्हें आर्थिक शोषण के साथ ही यौन-उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है। धार्मिक मूल्यों-मान्यताओं के साथ ही, तरह-तरह की फासिस्ट प्रवृत्तियों और साथ ही बीमार बुर्जुआ संस्‍कृति का दबाव भी उन्हें ही सबसे अधिक झेलना पड़ता है। अभी भी गर्भपात और तलाक से लेकर बलात्कार तक बहुत सारे मामलों में, पश्चिमी देशों में कानून स्त्रियों के प्रति भेदभावपूर्ण बने हुए हैं। दूसरी बात यह कि पश्चिम की स्त्रियों ने जो भी अधिकार हासिल किये हैं, वह उन्हें बुर्जुआ समाज ने तोहफे के तौर  पर नहीं दिये हैं। ये अधिकार सामाजिक क्रान्तियों, वर्ग-संघर्षों और नारी समुदाय के शताब्दियों लम्बे संघर्ष से हासिल हुए हैं।

दुनिया में केवल मज़दूर वर्ग के राज में ही स्त्रियों को वास्तविक समानता हासिल हुई है। 1917 में रूस में अक्टूबर क्रान्ति के बाद मानव इतिहास में पहली बार कोई ऐसी राज्यसत्ता अस्तित्व में आई, जिसने औरतों को हर मायने में समान अधिकार दिये। समान सुविधाओं के अतिरिक्त हर क्षेत्र में समान काम के अवसर, समान काम के लिए समान वेतन, समान सामाजिक-राजनीतिक अधिकार, विवाह और तलाक के सम्बन्ध में बराबर अधिकार, अतीत में वेश्‍यावृत्ति जैसे पेशों के लिए विवश औरतों का सामाजिक पुनर्वास आदि अनेक कदम उठाकर रूस की समाजवादी सरकार ने एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम किया। समाजवादी निर्माण के पूरे दौर में, नारी मुक्ति के क्षेत्र की उपलब्धियाँ भी अभूतपूर्व थीं। पिछड़े हुए रूसी समाज में क्रान्ति के बाद के चार दशकों में उत्पादन, सामाजिक- राजनीतिक कार्रवाइयों, सामरिक मोर्चे और बौद्धिक गतिविधियों के दायरे में जितनी तेजी से औरतों की हिस्सेदारी बढ़ी, वह रफ्तार जनवादी क्रान्तियों के बाद यूरोप-अमेरिका के देशों में पूरी दो शताब्दियों के दौरान कभी नहीं रही थी। चन्द-एक दशकों में ही सोवियत समाज से यौन अपराध और यौन रोगों का पूरी तरह खात्मा हो गया, इस तथ्य को पश्चिम के मीडिया ने भी स्वीकार किया था। चीन में भी क्रान्ति के बाद ऐसा ही हुआ था। लेकिन सभी भूतपूर्व समाजवादी देशों में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के साथ ही पूँजीवादी समाज की तमाम बुराइयाँ तेज़ी से लौट आयी हैं।

कई लोग पूँजीवाद द्वारा लायी गयी आधुनिकता को ही स्त्री मुक्ति मान बैठते हैं। यह एक बड़ी भूल है। यह एक कृत्रिम मुक्ति होती है और वास्तव में स्त्री की गुलामी को नये रूप में स्थापित करती है पूँजीवाद स्त्रियों को घर की चौखट से थोड़ा बाहर निकालता भी है तो केवल उन्हें माल बना डालने और उनके सस्ते श्रम को निचोड़ने के लिए।

पूँजी और पितृसत्ता की सत्ताएँ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। पुरुष वर्चस्ववाद के सामन्ती मूल्यों को पूँजीवाद ने अपना लिया है। स्त्रियों की असमान स्थिति और पितृसत्ता का वह अपने लिए इस्तेमाल करता है। आधी आबादी को परिवर्तन के संघर्ष से अलग रखने के लिए भी ज़रूरी है कि पुरुषों और स्त्रियों के बीच समानता के मूल्यों और उसूलों को बढ़ावा न दिया जाये। पितृसत्ता के खिलाफ कोई भी लड़ाई पूँजीवाद विरोधी लड़ाई से अलग रहकर सफल नहीं हो सकती। दूसरी ओर यह भी सही है कि आधी आबादी की भागीदारी के बिना मज़दूर वर्ग भी अपनी मुक्ति की लड़ाई नहीं जीत सकता।

 

 

बिगुल, मार्च 2009

 


 

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