महिन्द्रा एंड महिन्द्रा के मालिकाने वाली दक्षिण कोरिया की सांगयोंग कार कम्पनी के मज़दूरों का जुझारू संघर्ष

विराट

 

हड़ताल तोड़ने के लिए सशस्त्र पुलिस के बर्बर हमले का मज़दूरों ने डटकर मुकाबला किया

हड़ताल तोड़ने के लिए सशस्त्र पुलिस के बर्बर हमले का मज़दूरों ने डटकर मुकाबला किया

दक्षिण कोरिया की कार कम्पनी सांगयोंग मोटर्स के मज़दूर पिछले 7 सालों से छंटनी के ख़िलाफ़ एक शानदार संघर्ष चला रहे हैं। इन सात सालों में उन्होंने सियोल शहर के पास प्योंगतेक कारखाने पर 77 दिनों तक कब्ज़ा भी किया है, राज्यसत्ता का भयंकर दमन भी झेला है, कई बार हार का सामना किया है लेकिन अभी भी वे अपनी मांगों को लेकर डटे हुए हैं। दमन का सामना करते हुए 2009 से अब तक 28 मज़दूर या उनके परिवार वाले आत्महत्या या अवसाद (डिप्रेशन) के कारण जान गँवा चुके हैं। वैसे तो दुनिया में कहीं भी मज़दूर संघर्ष करें तो वह केवल उन्हीं मज़दूरों का संघर्ष नहीं होता बल्कि पूरे मज़दूर वर्ग का संघर्ष होता है लेकिन सांगयोंग मोटर्स के मज़दूरों के साथ खड़े होकर भारत के मज़दूर इस संघर्ष में विशेष रूप से बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। सांगयोंग मोटर्स का मालिकाना अप्रैल 2014 से भारत के महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ग्रुप के पास आ गया है। सितम्बर 2015 महीने में सांगयोंग मोटर्स के मज़दूर दक्षिण कोरिया से विशेष तौर पर भारत आये ताकि भारत के मज़दूरों का भी समर्थन हासिल करके महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ग्रुप पर दबाव बना सकें और संघर्ष में जीत हासिल कर सकें। लेकिन संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों के जाल में फँसकर फिलहाल उन्हें प्रबन्धन से बहाली का मौखिक आश्वासन लेकर ही वापस लौट जाना पड़ा है। ऐसे आश्वासन इन मज़दूरों को पहले भी दिये जा चुके हैं लेकिन उनका कोई नतीजा नहीं निकला है। इसके बावजूद दक्षिण कोरिया के मज़दूर अपने संघर्ष को आखिरी साँस तक जारी रखेंगे और ऐसे में भारत के जुझारू मज़दूर संगठनों के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि इस संघर्ष में वे दक्षिण कोरिया के मज़दूरों का साथ दें।
सांगयोंग मोटर्स का मालिकाना 2009 से पहले चीन की कम्पनी शंघाई ऑटोमोटिव कॉर्पोरेशन (एस.ए.आई.सी.) के पास था लेकिन सभी मालिकों की तरह चीन की कम्पनी ने भी अपने मालिकाने के दौरान मज़दूरों के अधिकारों को कोई महत्व नहीं दिया और अन्त में सांगयोग मोटर्स के जरिये अच्छा मुनाफ़ा कमाकर और फिर मुनाफ़े की दर गिरने पर कम्पनी को दिवालिया दिखाकर चलती बनी। हर देश में बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ विकास का ढिंढोरा पीटते हुए ही आती हैं लेकिन उनका असली मकसद मज़दूरों को निचोड़कर मुनाफ़ा कमाना ही होता है। दिवालिया होने जैसी स्थिति सांगयोंग मोटर्स की नहीं थी लेकिन इस बहाने के ज़रिये सांगयोंग मोटर्स ने अप्रैल 2009 में कम्पनी के 37 फीसदी (7179 में से 2646) मज़दूरों को छँटनी का नोटिस थमा दिया। बाद में कम्पनी ने कहा कि वह केवल 978 मज़दूरों को ही कम्पनी से निकालेगी और कम्पनी की स्थिति सुधरने पर उन्हें वापस ले लेगी। मज़दूरों ने प्रबन्धन से इस कदम को वापस लेने के लिए वार्ताएँ चलाई लेकिन प्रबन्धन जब नहीं झुका तो अन्तत: सांगयोंग मोटर्स के लगभग 1000 मज़दूरों ने 22 मई को कारखाने पर कब्ज़ा कर लिया।

सांगयोग मोटर फैक्ट्री की छत पर लाल झण्डों के साथ खड़े मज़दूर

सांगयोग मोटर फैक्ट्री की छत पर लाल झण्डों के साथ खड़े मज़दूर

मज़दूरों के बीच ज़बर्दस्त आक्रोश था क्योंकि पिछले 5 महीनों से मज़दूरों को पग़ार भी नहीं दी गयी थी। इसके बाद 77 दिनों तक कम्पनी के गुण्डों और पुलिस के साथ मज़दूरों का जुझारू संघर्ष चलता रहा। जब मालिकों ने गुण्डों और पुलिस का सहारा लिया तो मज़दूरों ने भी खुद को हथियारबन्द कर लिया। पुलिस ने इलेक्ट्रिक गन (टेज़र) का इस्तेमाल किया जिससे शरीर पर भयंकर घाव हो जाते हैं। मजदूरों ने भी जवाब में पेट्रोल बमों, स्टील की छड़ों व अपने औज़ारों से उनका मुकाबला किया और जैसे-जैसे दिन बीतते गये यह संघर्ष और भी तीखा होता गया। 20 जुलाई को सरकार ने अपनी पूरी ताक़त से मज़दूरों पर हमला किया और पानी और गैस की सप्लाई काट दी। अगले दिन बिजली भी काट दी गयी और हेलिकॉप्टरों के ज़रिये आँसू गैस का बड़े पैमाने पर छिड़काव किया गया। आँसू गैस के साथ ही ऐसे रसायन का भी छिड़काव किया गया जिससे चमड़ी जल जाती है। 3000 की संख्या में पुलिस बल और कम्पनी के गुण्डे कई दिनों तक प्लांट को मजदूरों के कब्ज़े से छुड़ाने की कोशिश करते रहे लेकिन मज़दूर गुलेलों द्वारा नट-बोल्ट फेंककर पुलिस की बंदूकों का सामना करते रहे। आसपास के दूसरे कारखानों के मज़दूरों ने भी प्लांट के भीतर मज़दूरों को हर सम्भव मदद पहुँचाई और बाहर से वे पुलिस की नाक में दम करते रहे। पुलिस ने मज़दूरों के खाने और दवा-इलाज की सप्लाई पर भी बाहर से रोक लगा दी लेकिन इसके बाद भी मज़दूरों ने हार नहीं मानी और वे डटे रहे। अन्तत: 4 और 5 अगस्त को उनके संघर्ष को बेरहमी से कुचल दिया गया और मज़दूरों की तात्कालिक हार हुई। 978 में से 48 फीसदी (478) को एक साल की अवैतनिक छुट्टी दे दी गयी और 52 फीसदी (510) मजदूरों को ज़बर्दस्ती रिटायरमेंट दे दिया गया। यूनियन से कहा गया कि कम्पनी की स्थिति सामान्य होने पर इन मज़दूरों को तरजीह दी जायेगी। केवल इतना ही नहीं इसके बाद कम्पनी ने यूनियन के ख़िलाफ़ प्लांट को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए मुकदमा भी ठोक दिया और लगभग 20 करोड़ रुपये का जुर्माना मज़दूरों के सिर पर लाद दिया।
तब से लेकर अब तक सांगयोंग मोटर्स के मज़दूर लगातार अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं ताकि यह जुर्माना हटाया जा सके, उनकी फिर से बहाली हो और इस प्रकरण में जिन मज़दूरों की जानें गयी हैं उनके परिवारों के लिए गुज़र-बसर का ठोस इन्तज़ाम किया जा सके। इस बीच वे 4 बार लम्बी भूख हड़तालें चला चुके हैं, 70 मीटर ऊंचे टॉवर पर ठण्ड में तीन महीनों से अधिक तक रहकर अपना प्रतिरोध जता चुके हैं और अब दक्षिण कोरिया से मज़दूरों का प्रतिनिधि मण्डल भारत भी आया ताकि भारत के मज़दूरों के साथ मिलकर महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ग्रुप पर दबाव बनाकर अपनी माँगें पूरी करा सकें।
महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ग्रुप के चेयरमैन आनन्द महिन्द्रा ने जनवरी 2015 में दक्षिण कोरिया में सांगयोंग मोटर्स की नयी कार टिवोली के उद्घाटन के मौक़े पर मज़दूरों को विश्वास दिलाया था कि अगर यह गाड़ी बाज़ार में अच्छा मुनाफा कमाती है तो वे निश्चित ही निकाले गये मज़दूरों को वापस काम पर ले लेंगे। जनवरी से सितम्बर के बीच इस गाड़ी की अच्छी-खासी बिक्री हुर्इ है लेकिन मज़दूरों से किया गया वायदा पूरी तरह से भुला दिया गया है। यह कोई ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि मालिकों द्वारा इस तरह के वायदे भुलाने के लिए ही किये जाते हैं।
भारत की संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की बेशर्मी
सांगयोंग के मज़दूरों का प्रतिनिधि मण्डल जब मुम्बई आया तो उन्हें यहाँ की ग़द्दार ट्रेड यूनियनों से रूबरू होना पड़ा। खुद को प्रगतिशील और जुझारू कहने वाली बड़ी ट्रेड यूनियनों के नेताओं से सांगयोंग के मज़दूरों ने मुलाकात की ताकि वे इस संघर्ष में भारत के भीतर उनका सही मार्गदर्शन कर सकें और महिन्द्रा एंड महिन्द्रा ग्रुप पर दबाव बना सकें लेकिन यहाँ पर वे धोखा खा गये। भारत के मज़दूरों की सबसे बड़ी दुश्मन संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों ने अब दक्षिण कोरिया के मज़दूरों की लड़ाई को भी गड्ढे में डालने की ठान ली है। सांगयोंग के मज़दूरों के लिए ज़ोरदार आवाज़ उठाने के बजाय ये यूनियनें उन्हें नसीहतें देने में लगी रहीं और वार्ताओं के ज़रिये मामले को सुलटाने का आश्वासन देती रहीं। बेहद सीमित संसाधनों के साथ ‘करो या मरो’ की लड़ाई ठानकर आये सांगयोंग मज़दूरों को इन यूनियनों द्वारा यह विश्वास दिलाया जाता रहा कि आनन्द महिन्द्रा बेहद उदार और मज़दूरों के संरक्षक हैं और अगर वे सब्र रखें तो अवश्य ही आनन्द महिन्द्रा जी उनकी फरियाद सुनेंगे। तीन-तिकड़म करके मालिकों के साथ बातचीत कराना और झूठे आश्वासन दिलाना इन ट्रेड-यूनियनों का मुख्य काम रह गया है। यहाँ भी प्रबन्धन से मज़दूरों के प्रतिनिधिमण्डल की बातचीत तो हुर्इ लेकिन उसका परिणाम केवल इतना निकला कि प्रबन्धन ने मामले पर सोचने और दोबारा बहाली का महज़ मौखिक आश्वासन ही दिया। आश्वासन तो जनवरी में आनन्द महिन्द्रा ने भी दिया था, वह भी ख़ुद दक्षिण कोरिया जाकर, तब फिर उस आश्वासन का क्या हुआ? इन ट्रेड यूनियनों ने अपना कर्तव्य अपने पुराने तरीके से निभाया है यानी कि हर मसले का मेज़ पर बैठकर निबटारा करने की कवायद करते रहना। फलत: सांगयोंग के मज़दूर एक तरह से निराश ही लौटे हैं। संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की इस घृणित ग़द्दारी के बाद भले ही सांगयोंग के मज़दूरों को अपने देश वापस लौट जाना पड़ा हो लेकिन यह संघर्ष जारी रहेगा। जुझारू मज़दूर संगठनों को ऐसे में दृढ़ता से सांगयोंग के मज़दूरों के साथ खड़ा होना होगा और नये सिरे से भारत में इसके लिए आवाज़ उठानी होगी।
हमें इस अमर नारे को एक बार फिर याद करना होगा:
‘दुनिया के मज़दूरो, एक हो! तुम्हारे पास खोने के लिए सिर्फ़ अपनी बेडि़याँ हैं, जीतने के लिए पूरी दुनिया है!’

मज़दूर बिगुल, अक्‍टूबर-नवम्‍बर 2015


 

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