वजीरपुर स्टील उद्योगः मौत और मायूसी के कारखाने

अमित

कौन कहता है कि गुलामी खत्म हो चुकी है? जी हाँ गुलामी बदस्तूर जारी है, बस एक नये रूप में। आज गुलामों को जंजीरों से नहीं बाँधा जाता, ना ही उनकी खरीद फ़रोख्त होती है, लेकिन जीवन के हालात, कार्यस्थल की परिस्थितियाँ किसी गुलामों से कम नहीं है। इन गुलामों को आज़ादी है अपने मालिक चुनने की लेकिन ज़िन्दगी की आज़ादी नहीं।

बिल्कुल सही पढ़ा आपने, यह कोई काल्पनिक कथा नहीं है, यह है असली कहानी वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में काम करनेवाले लाखों मज़दूरों की, जिनकी ज़िन्दगी किसी नर्क से कम नहीं।

वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र जो कि भारत के सबसे बड़े स्टील उद्योगों में से एक है। जहाँ ‘स्टेनलेस स्टील’ के बर्तन बनाने का काम होता है। लेकिन इन कारखानों में काम की परिस्थिति बेहद खतरनाक है, आये दिन मज़दूरों की मौत होना, बेहद उच्च ताप पर झुलसना तो रोज की घटना है। ऊपर से औद्योगिके कचरे की वजह से झुग्गियों की यह हालत है कि बजबजाती नालियों में मच्ठर भी पैदा होने से डरते हैं, क्योंकि वहाँ सिर्फ गन्दा पानी ही नहीं बहता, तेजाब भी बहता है।

आइए देखते हैं यहाँ के कारखानों में काम कैसे होता है और दुर्घटनायें काम का जैसे हिस्सा बन गयी हैं।

सबसे पहले स्टील की लम्बी प्लेट(इंत) जो कि करीब 15-16 फीट लम्बी और 6 इंच चौड़ी होती है, शुरुआती कच्चे माल के रूप में आता है। फिर उसे कटर की मशीन पर ले जाया जाता है, जहाँ पर लम्बे प्लेट की कटाई होती है, कटाई के बाद लगभग डेढ़ फीट के टुकड़े में बन जाता है फिर इस टुकड़ें को गरम रोला मशीन पर भेजा जाता है। यहाँ मशीन की मदद से बड़ी भट्ठी चलती है जिसमें तापमान करीब 1300 डिग्री सेण्टीग्रेड होता है। इस भट्ठी के एक ओर कुछ मज़दूर स्टील के टुकड़ों को रेलिंग मशीन में डालते हैं और दूसरी तरफ यह टुकड़ा गरम होकर लोहे की चादर का रूप ग्रहण करता है। इस चादर को निकालने का काम मज़दूर खड़े होकर करते हैं। इतनी गर्मी में वहाँ खड़े होकर स्टील की भारी पत्ती को उठाना और मशीन से बाहर निकालना लगभग असम्भव काम होता है। लगातार आधा घण्टा काम करना भी बेहद कष्टदायक होता है। मज़दूरों का झुलसना और गमी की वजह से चमड़े ओर शरीर का जर्जर होना बिल्कुल आम बात हे। कहने की ज़रूरत नहीं कि सुरक्षा का कोई इन्तजाम नहीं होता।

फिर गर्म मशीन के बाद पत्ती को सफाई के लिए तेजाब के कारखाने में भेजा जाता है। यहाँ स्टील की मिलावट को हटाया जाता है ओर जंग से बचने के लिए उस पर ऑक्साईड की परत चढ़ायी जाती है। स्टील के प्लेट पर अशुद्धता के रूप में तेल, ग्रीस, लोहे का अंश और दूसरे अन्य पदार्थ मौजूद रहते हैं। फिर इस चादर को सल्फ्यूरिक एसिड या नाइट्रिक एसिड में धोया जाता है। इस प्रक्रिया में स्टील की मिलावट दूर हो जाती है और चादर पर ऑक्साइड की बेहद पतली परत चढ़ जाती है, जो कि जंगरोधक का काम करती है। तेजाब से मज़दूरों के हाथ जलने का खतरा रहता है और साँस के माध्यम से शरीर के अन्दर जाने से कैंसर और टीबी की बीमारी होती है।

तेज़ाब से धुलाई होने के बाद फोड़ाई मशीन की बारी आती है। यहाँ पर काम सबसे खतरनाक और जानलेवा होता है। यहाँ स्टील की चादर को मजबूती और आकार प्रदान किया जाता है। यहाँ ठण्डी रोलिंग मशीन में स्टील शीट की रोलिंग के दौरान पत्ती टूटकर बहुत तेजी से शरीर में घुस जाती है। पत्ती के पेट या सीने में घुसने पर मौत तक हो जाती है। हाथ पैर कटना या शरीर में अंग भंग होना आम बात है। सुरक्षा के इन्तजाम के लिए पूरे शरीर को ढँकनेवाली स्टील की प्लेट जो कि कमर में एक बेल्ट से जुड़ी हुई हो, पैरों में अच्छी गुणवत्ता वाले खास किस्म के बूट हाने चाहिये। पर यहाँ सुरक्षा के नाम पर महज खानापूर्ति है जो कपड़ों के दस्तानों और घटिया जूतों से की जाती है। घायल होने पर मालिक मज़दूरों का अच्छा इलाज कराने के बजाय झोलाछाप डॉक्टरों से दिखलाकर अपना पल्ला झाड़ लेता है। अगर मज़दूर काम के लायक नहीं रह गया तो बिना किसी मुआवजे के या नाममात्र का मुआवजा देकर काम से निकाल देता है।

फोड़ाई मशीन से निकलने के बाद स्टील की चादर भट्ठी पर जाती है जहाँ पर इसे ताप दिया जाता हैं। इस भट्ठी का भी तापमान तेज होता है लेकिन गरम रोला के मुकाबले कम होता है।

तपायी भट्ठी से निकलने के बाद यह फिर से ठण्डी रोलिंग मशीन पर रोलिंग के लिए जाती है। इसे तैयारी मशीन भी कहते हैं यहाँ भी समस्या फोड़ायी मशीन जैसी है, यानी स्टील की पत्ती टूटकर बदन में घुस जाती है। लेकिन फोड़ायी के मुकाबले खतरा यहाँ थोड़ा कम है।

तैयारी से निकलकर फर्नेस पर जाने के बाद स्टील के प्लेट को प्रेस मशीन में भेजा जाता है। यहाँ स्टील प्लेट का बर्तन का आकार प्रदान करने का काम होता है। फोड़ायी मशीन के बाद सबसे खतरनाक काम प्रेस लाईन के मज़दूरों का है। यहाँ बर्तन को आकार प्रदान करते हुए मशीन में फँसकर उँगलियाँ और हाथ कट जाया करते हैं। वजीरपुर के ऐसे हजारों मज़दूरों की उँगलियाँ कटी हुई हैं।

प्रेस लाईन से निकलने के बाद जब बर्तन बन जाता है तो इसमें चमक प्रदान करने के लिए पॉलिश में भेजा जाता है। पॉलिश के दौरान हानिकारक रसायन उनके शरीर पर पड़ता रहता है जिससे पूरे शरीर पर कालिख-सी पुत जाती है। यह रसायन साँस के माध्यम से शरीर के भीतर जाकर कैंसर और टीबी जैसी घातक बीमारियों को जन्म देता है।

यहाँ हमने फैक्ट्रियों में काम के हालात और उनसे सम्बन्धित दुर्घटनाओं की चर्चा की। ऐसा नहीं है कि यहाँ मज़दूर वर्ग के ‘‘हितैषी’’ मौजूद नहीं हैं या इनको इन हालात की जानकारियाँ नहीं हैं। देश के ‘‘नामी-गिरामी’’ ट्रेड यूनियनों की पूरी बारात है यहाँ पर। इनका मुख्य पेशा दलाली है। ये मज़दूरों से केस दर्ज कराने के नाम पर पैसा लूटने का काम करती हैं और मालिकों को बचाने का काम करती हैं। जब भी कोई मज़दूर किसी दुर्घटना का शिकार होता है तो ये यूनियनें मज़दूरों को हक़ और न्याय दिलाने के बजाय मालिकों से मिलकर(पैसे खाकर) शर्मनाक समझौता करने पर मजबूर कर देती हैं। मज़दूरों की तकलीफ यहीं खत्म नहीं होती। फैक्ट्रियों में पिसने के बाद झुग्गियों में जाते हैं तो रिहायश की स्थितियाँ नर्क से कम नहीं हैं। नीचे बजबजाती नालियाँ और इनके बीच में मात्र छः फीट चौड़े और आठ फीट लम्बे कमरे में एक साथ तीन से चार लोग रहने को मजबूर हैं। इन नालियों में फैक्ट्रियों से निकलनेवाला कचरा और तेजाब बहता रहता है जिनसे बच्चों के पैर खराब होते हैं और कई जानलेवा बीमारियाँ घेरती हैं। साफ सड़कों पर कूड़े फिंकवाकर झाड़ू लगानेवाले नरेन्द्र मोदी के चमचों को वजीरपुर की गन्दी बस्तियाँ नज़र नहीं आतीं। पूँजीपतियों का यह पालतू कुत्ता मोदी जो अपने मालिक की सेवा के लिए मज़दूर वर्ग के ऊपर गन्दगी फैला रहा है; इसे साफ करने का काम स्वयं मज़दूर वर्ग को ही उठाना है, अपनी क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियनें खड़ी करके, क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करके और आनेवाली मज़दूर क्रान्ति को सम्पन्न करके।

 

मज़दूर बिगुल, नवम्‍बर 2014


 

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