हमें आज़ाद होना है तो मज़दूरों का राज लाना होगा।

किशन, वज़ीरपुर, दिल्ली

मेरा नाम किशन है और मैं बिहार औरंगाबाद का रहने वाला हूँ। बचपन से ही मैं ग़रीबी में पला-बड़ा हुआ हूँ। घर पर हमेशा ही पैसे की किल्लत बनी रहती थी। घर का ख़र्च कम हो सके इसलिए बचपन में ही मेरे फूफा मुझे अपने घर ले गये। यहीं मैंने थोड़ा-बहुत पढ़ना सीखा, मैं नौवीं कक्षा तक पहुँच गया। परन्तु यहाँ मेरा दिल नहीं लगता था क्योंकि फूफा मेरे और अपने बच्चों के बीच फ़र्क़ करते थे। मुझे खाने को भी औरों से अलग दिया जाता था पर घर का काम तो ख़ूब लिया जाता था। यहीं मेरे मन में घर से बाहर निकलने का विचार पलने लगा। मेरा भाई दिल्ली में मज़दूरी कर कमा रहा था और सुना था कि शहर की बात ही कुछ और है, मैंने भी मन ही मन मज़दूरी कर अपने पैरों पर खड़ा होने की बात सोची और फूफा का घर छोड़ अपने माँ-बाप के पास आ गया। उस समय मेरी उम्र 13 साल थी और उसी साल मैं ज़िद करके दिल्ली जाने वाली गाड़ी – महाबोधी एक्सप्रेस पकड़कर दिल्ली के लिए रवाना हो गया। मेरा भाई दिल्ली में शकुरपुर में काम कर रहा था और मैंने भी यही सोचा कि अब मेहनत करूँगा और अपनी मर्जी से रहूँगा। ट्रेन से उतरकर मैं सुस्ताने के लिए प्लेटफ़ार्म पर बैठा ही था कि एक आदमी मुझसे पूछने लगा कि मैं कहाँ जाऊँगा और मेरे जवाब देने पर उसने बताया कि वह मुझे यहीं पास में ही काम पर लगवा देगा। उसके साथ 3 और लोग थे। मैं उस पर विश्वास कर उसके साथ चल दिया, सोचा कमाना ही तो है चाहे वज़ीरपुर या यहाँ और लगा कि जो बात गाँव में सुनी थी वह सही है कि शहर में काम ही काम है। ये आदमी मुझे एक बड़ी बिल्डिंग में पाँचवीं मंज़िल की एक फ़ैक्टरी में ले गया और बोला कि यहाँ जी लगाकर काम करो और महीने के अन्त में मालिक से पैसे ले लेना। फ़ैक्टरी में ताँबे के तार बेले जाते थे। फ़ैक्टरी के अन्दर मेरी उम्र के ही बच्चे काम कर रहे थे। सुपरवाइज़र दिन में जमकर काम करवाता था और होटल का खाना खाने को मिलता था। फ़ैक्टरी से बाहर जाना मना था। एक महीना गुज़र गया पर मालिक ने पैसा नहीं दिया। महीना पूरा होने के 10 दिन बाद मैं मालिक के दफ्तर पैसे माँगने लगा तो उसने कहा कि मुझे तो वह ख़रीद चुका है और मुझे यहाँ ऐसे ही काम करना होगा। यह बात सुनकर मैं घबरा गया। मैं फ़ैक्टरी में गुलामी करने को मजबूर था। मैंने जब और लड़कों से बात की तो पता चला कि वे सब भी बिके हुए थे और मालिक की गुलामी करने को मजबूर हैं। 5-6 महीने मैं गुलामों की तरह काम करता रहा। पर मैं किसी भी तरह आज़ाद होना चाहता था। मैं भागने के उपाय सोचने लगा। पर दिनभर सुपरवाइज़र बन्द फ़ैक्टरी में पहरा देता था। रात को ताला बन्द कर वह सोने चला जाता था। कमरे में दरवाज़े के अलावा एक रोशनदान भी था जिस पर ताँबे के तार बँधे थे। रात को जब सभी लड़के सो गये मैंने रोशनदान का तार खोला और उस खिड़की से बाहर निकल गया। खिड़की खुली छत की ओर मुँह खोलती थी। पर नीचे उतरने का दरवाज़ा बन्द था और पाँच मंज़िला बिल्डिंग से छलाँग लगाना भी मुमकीन नहीं था। मैं वापस आकर सो गया। अगले दिन फ़ैक्टरी में काम किया और बाहर निकलने का उपाय सोचता रहा। रात को मैं उठा और ताँबे के तार को रस्सी की तरह गुँथना शुरू कर दिया। रात को 11 बजे से 1 बजे तक मैं तार को गुँथता रहा। इस तार को मैंने मशीन से बाँध दिया और सामने वाले दरवाज़े से तार बाहर निकाल दिया। खिड़की से निकलकर मैं तार के सहारे नीचे उतरा पर ताँबे के तार पर हाथ फिसल गये और मैं नीचे गिर गया। मेरे शरीर से ख़ून बह रहा था पर मैं आज़ाद होने के कारण ख़ुश था। पास में ही ट्रेन की आवाज़ आ रही थी यानी आसपास ही प्लेटफ़ार्म था। 6 महीने बाद मैंने दुनिया देखी थी और मुझे डर था कि मैं कहीं यह खो न दूँ, इसलिए मैं दर्द के बावजूद नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच गया पर मैं वहाँ नहीं रुका बल्कि पटरी पकड़कर मैं दूसरे स्टेशन पैदल ही चला गया कि मैं पकड़ा न जाऊँ। अगले स्टेशन से मैंने पहले गोरखपुर की गाड़ी पकड़ी और लोगों से पूछते हुए वापस बिहार पहुँच गया। पर गाँव पहले जैसा ही था और मेरी शहर जाने की फिर से इच्छा होने लगी। एक महीने बाद मैं फिर से दिल्ली की ट्रैन में बैठ गया। इस बार मैं सतर्क था और भाई के पास शकुरपुर पहुँच गया। भाई ने मुझे चप्पल फ़ैक्टरी में हेल्पर के काम पर लगवा दिया। 1 महीने में ही मैं काम सीख गया और 8 घण्टे के 6500 रुपये कमाने लगा। एक बात ग़ौर करने लायक थी कि चप्पल फ़ैक्टरी के 8 घण्टे और ताँबे फ़ैक्टरी के 6 महीने में ज़्यादा अन्तर नहीं था। गुलामी तो अभी भी थी, बस 8 घण्टे में बँधी हुई थी और उसके बदले मालिक हमें 6500 रुपये दे रहा था। मैं इस पैसे का अधिकतर हिस्सा अपने भाई को दे देता था जो पैसे गाँव भेज देता था। वह मुझसे कम ही पैसा घर भेजता था और इस वजह से मुझसे जलता था और इसी कारण करीब 3 साल पहले होली के दिन उसने मुझ पर चोरी का झूठा इलजाम लगा दिया। मैंने उसे पैसे दिये और उससे अलग आकर वज़ीरपुर रहने लगा। क्योंकि आदमी कहीं भी मेहनत कर कमा सकता है। वज़ीरपुर में मैं स्टील लाइन में काम करने लगा। मैंने यहाँ प्रेस का काम किया और पिछले साल तक बिडींग का काम सीख लिया। पिछले साल यानी 2014 में वज़ीरपुर की हड़ताल हुई। इस हड़ताल में मैंने भी भगीदारी की, यह वज़ीरपुर के हर मज़दूर की हड़ताल थी। इस हड़ताल से मालिक अभी तक थरथराते हैं। मुझे हड़ताल के बाद एक पर्चा मिला जिसमें यह बताया गया कि मालिक मज़दूर को लूटकर ही अमीर होते हैं और हमारी मेहनत का मोल हमें नहीं देते हैं। मालिक हमारा ख़ून चूसकर ही तिजोरी भरता है। मुझे यह बात अच्छी लगी और मैं पर्चे में लिखी राजा पार्क में हो रही सभा में पहुँच गया और मज़दूरों की यूनियन से जुड़ गया। राजा पार्क में ही मुझे मज़दूर बिगुल अख़बार मिला। कमरे पर आकर मैंने अख़बार पढ़ा तो सब समझ आने लगा। गुलामी आज भी कायम है, बस अभी पहले जैसे नहीं है। ताँबे की फ़ैक्टरी में गुलामी हो या वज़ीरपुर में 6500 रुपये में काम करना हो मालिक मुनाफ़े के लिए मज़दूर को खटाता है। मैंने तो यह समझ लिया है कि बिना मालिकों के राज को उखाड़े हम आजा़द नहीं हो सकते हैं। हमें आजा़द होना है तो मज़दूरों का राज लाना होगा। बस मैं भी अब मज़दूर अख़बार लेकर मज़दूरों के बीच जा रहा हूँ और आजा़दी की बात बता रहा हूँ। आप सब लोग भी जो बिगुल पढ़ते हैं और लोगों तक अख़बार को पहुँचाओ।

 

मज़दूर बिगुल, जून 2015


 

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