गिरती इमारतों से हर वर्ष होती सैकड़ों मौतें: जिम्मेदार कौन?

नितेश

building collapseपिछली 4 अगस्त को महाराष्ट्र के ठाणे जिले में भारी बरसात के कारण एक पुरानी इमारत के गिरने से 11 लोगों की मौत हो गयी व 7 अन्य घायल हो गये। इस घटना के एक सप्ताह पूर्व ही मुम्बई के ठाकुर्ली इलाके में भारी बरसात के कारण एक तीन मंजिला इमारत के गिरने से 9 लोगों की मौत हो गयी थी। इस तरह की घटनाएं मुम्बई जैसे शहरों में आमतौर पर होती रही हैं। मुम्बई में केवल 2008 से 2012 के बीच 100 से ज्यादा इमारतों के ढहने की घटनाएं दर्ज है। साल 2013 में बरसात के मौसम में अप्रैल से जून महीने के अन्दर इमारतों के ढहने से 100 से ज्यादा लोगों की मौते हुईं। इसके अतिरिक्त 4 अप्रैल 2013 को एक निर्माणाधीन इमारत के गिरने से 74 लोगों की मौत हो गयी जिसमें ज़्यादातर इमारत में काम करने वाले मजदूर और उनके परिजन थे। पिछले साल तमिलनाडु में भी एक 11 मंजिला इमारत भारी बरसात के कारण ढह गयी थी जिसमें 61 लोग मारे गये थे। राजधानी दिल्ली के लक्ष्मीनगर में इमारत गिरने से उसमें रहने वाले 100 से ज़्यादा लोग मारे गये थे। इस तरह की घटनाओं की एक लम्बी सूची है।

व्यापक स्तर पर देखा जाय तो मुख्यतः दो तरह की घटनाएं सामने आती हैं। एक तरफ तो ऐसी घटनाएं हैं जिनमें पुराने मकान भारी बरसात या अपनी जर्जर अवस्था के कारण गिर जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ खराब बिल्डिंग मैटेरियल और निर्माण के गलत व असुरक्षित तरीकों के कारण निर्माणाधीन या नयी इमारतों के गिरने की घटनाएं होती हैं। दोनों ही प्रकार की घटनाएं हर साल सैंकड़ों लोगों की जिन्दगी निगल जाती हैं और साथ ही सरकार की सक्रियता व जिम्मेदारी पर सवाल खड़े कर जाती हैं।

अकेले मुम्बई में करीब 14000 इमारतें ऐसी हैं जो 70 साल से भी ज्यादा पुरानी हैं। इनमें से 900 से ज्यादा इमारतें अत्यधिक ख़तरनाक स्थिति में हैं। सवाल उठता है कि इनमें लोग रहते क्यों हैं? क्या ये लोग जानते नहीं हैं कि इन इमारतों में रहना कितना खतरनाक है? ज़ाहिर है उन लोगों से अधिक इन इमारतों में रहने के खतरे को कोई नहीं जानता जिनके सिर पर चौबीसों घण्टे यह खतरा मँडराता रहता है।

बी.बी.सी. की रिपोर्ट के मुताबिक मुम्बई एशिया के सबसे महंगे घरों और महंगे रिहायशी किराये वाले शहरों में से एक है। ब्लूमबर्ग विश्लेषण 2012 के अनुसार एक औसत भारतीय नागरिक को मुम्बई में एक अच्छा सुविधासम्पन्न फ्लैट लेने के लिए 300 सालों तक काम करना पड़ेगा। इस प्रकार मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा भी मुम्बई में घर खरीदने में असमर्थ होता है। मकानों के किराये भी इतने अधिक हैं कि एक परिवार के रहने के लिए दो कमरे का फ्लैट भी 12 हजार से 20 हजार तक मिलता है जिसके साथ एक से दो लाख तक की अमानत राशि (पगड़ी) भी जमा करानी पड़ती है। इस तरह एक कम आय वाले व्यक्ति या परिवार के लिये घर खरीदना या किराये पर लेना सपने की बात बन जाती है। लोगों को झुग्गियों या चालों में रहना पड़ता है। गौर करने वाली बात है कि मुम्बई की 60 प्रतिशत जनसंख्या झुग्गियों और चालों में रहती है जबकि दूसरी तरफ मुम्बई में 5 लाख से ज्यादा नये फ्लैट अमीर ग्राहकों का इन्तजार कर रहे हैं और अखबारों के पन्ने विज्ञापनों से रंगे जा रहे हैं।

इन परिस्थितियों के कारण पुराने जर्जर घरों में रहने वाले लोग वहीं रहने के लिये मजबूर होते हैं। मकान मालिक ऐसे घरों की मरम्मत भी नहीं कराते जिससे ख़तरा और बढ़ जाता है। जो लोग ख़ुद के घरों में रहते हैं वे इसलिये भी घर छोड़ नहीं पाते कि पुनर्विकास या पुनर्वासन न होने की स्थिति में उनकी जमीन के भी छिन जाने का खतरा रहता है जिससे वे बिल्कुल ही बेघर हो जायेंगे। ठाणे में 4 अगस्त को हुई घटना में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। महानगर पालिका के द्वारा ख़तरनाक इमारत चिन्हित किये जाने के बाद भी लोगों ने यही कहा कि हमारे पास कहीं और जाने का विकल्प नहीं है।

ऐसे समय में नगरपालिका या सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि जब तक इन इमारतों का पुनर्विकास अथवा पुनर्निर्माण नहीं हो जाता तब तक लोगों के रहने का इन्तजाम ट्रांजिट कैम्प या फिर किसी दूसरी जगह करे, पर नगरपालिका महज कागज का एक नोटिस भेजकर या बिना भेजे ही सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लेती है। परिणाम होता है सैकड़ों लोगों की मौत।

अब दूसरे प्रकार की घटना पर आते हैं। महंगे घरों को खरीदने में असमर्थ लोग अखबारों के सस्ते घरों के विज्ञापनों में फंस जाते हैं। ये सस्ते घर कैसे होते हैं? सस्ते घर वास्तव में छोटे ठेकेदारों द्वारा बनाये गये अवैध घर होते हैं। इनको बनाने में किसी भी मानदण्ड का प्रयोग नहीं किया जाता, सबसे घटिया निर्माण सामग्री इस्तेमाल की जाती है तथा किसी भी सुरक्षा मानक का ध्यान नहीं रखा जाता। पुलिस और नगरनिगम की इसमें बस इतनी सी भूमिका रहती है कि वे ठेकेदारों से पैसे खाकर अपनी आँखें बन्द कर लेते हैं। ऐसे घर किस पैमाने पर बनते हैं इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि महाराष्ट्र सरकार के अनुसार 2010 में केवल ठाणे जिले में 5 लाख अवैध इमारतें या घर थे। कई बार तो ऐसे घर निर्माण के दौरान ही गिर जाते हैं जिससे सैकड़ों मज़दूर अपनी जान गँवा बैठते हैं।

इस तरह के सस्ते घरों को बेचने के लिये अखबारों, लोकल ट्रेनों और टी.वी. चैनलों को विज्ञापनों से पाट दिया जाता है। कम आय वाल लोग इनकी तरफ आकिर्षत हो जाते हैं और इनके जाल में फँस जाते हैं। घर में रहने के पहले दिन से ही पानी टपकने, सीलन, रंग उखड़ने और प्लास्टर गिरने की शुरुआत हो जाती है। अच्छी निर्माण सामग्री इस्तेमाल न होने और कमजोर बनावट के चलते ऐसे मकान भारी बारिश में ढह जाते हैं। निर्माण के मानदण्डों के मुताबिक कोई भी मकान बनवाने पर ढाँचा इस तरीके से बनाया जाता है कि अगर घर किसी वजह से गिरता भी है तो उसमें रहने वाले लोगों को सुरक्षित निकलने का पर्याप्त अवसर तथा पर्याप्त निकास मिल सके। गलत तरीके से बनाये गये घर बिना मौका दिये अचानक गिरते हैं जिससे ज्यादा लोगों की मौतें होती हैं। इस प्रकार सैकड़ों लोग ठेकेदारों और बिल्डरों के मुनाफे की हवस का शिकार बन जाते हैं। घर गिरने के बाद अगर कभी ठेकेदार पकड़े भी जाते हैं तो मामला ठण्डा पड़ने पर कुछ ही समय में पैसे के बल पर छूट भी जाते हैं।

यह सोचने वाली बात है कि ऐसे समय में जब तकनीक इस स्तर पर पहुँच चुकी है कि भूकम्परोधी और अन्य आपदाओं से बचने वाले घर बनाये जा सकते हैं तब भी सैकड़ों घर कुछ लोगों के मुनाफ़े की वजह से बारिश भी नहीं झेल पाते! ऐसे समय में जब उच्च तकनीक का इस्तेमाल करके हर परिवार को एक अच्छा घर और सुविधाएं प्रदान की जा सकती हैं तब भी लोग ऐसे घरों में रहने के लिए मजबूर हैं जो किसी भी दिन उनकी मौत का कारण बन सकते हैं!

 

 

मज़दूर बिगुल, अगस्‍त-सितम्‍बर 2015


 

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