पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसमान में केसरिया धुन्ध के बीच इतिहास के रथचक्र को पीछे घुमाने की कवायद

बिगुल संवाददाता

गोरखपुर। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसमान में तीन दिनों तक (22–24 दिसम्बर) इतने केसरिया रंग उड़ाये गये कि वे धुन्ध बनकर छाये रहे। अवसर था विश्‍व हिन्दू महासंघ (विश्‍व भर के हिन्दू संगठनों का छाता संगठन) के महासम्मेलन और विराट हिन्दू संगम का। स्थानीय गोरखनाथ पीठ के उत्तराधिकारी गोरखपुर सदर सांसद योगी आदित्यनाथ के संयोजकत्व में कई देशों से साधु-सन्त-धर्माचार्य और हिन्दुत्व के झण्डाबरदार पधारे हुए थे। गोरखनाथ मन्दिर प्रांगण में दो दिवसीय सम्मेलन के दौरान प्रतिनिधियों ने जो ‘गहन विचार-विमर्श’ किया और तीसरे दिन महाराणा प्रताप इण्टर कॉलेज प्रांगण में ‘हिन्दुत्व के हितों के रक्षार्थ’ जिस भावी ‘महाभारत’ के लिए बिगुल फूँका उसका मूल स्वर यही था कि हिन्दुओं के हितों की रक्षा तभी हो सकती है जब इतिहास के रथ के चक्के को पीछे घुमा दिया जायेगा।

इस तीन दिवसीय हिन्दू महाआयोजन के दौरान दुनिया के तथाकथित एकमात्र हिन्दू राष्‍ट्र नेपाल में राजशाही के ख़ात्मे पर जिस तरह विलाप किया गया उसी से यह स्पष्‍ट हो जाना चाहिये कि ‘हिन्दुत्व की रक्षार्थ’ जुटे इस सन्त समागम के पास देश की जनता को देने के लिए कौनसी जीवनदृष्टि या आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था है। नेपाल में राजशाही के ख़ात्मे के लिए ‘धर्मान्तरित इसाइयों’ और (माओवादी नेता प्रचण्ड-बाबूराम भट्टराई के लिए इसी विशेषण का प्रयोग किया गया) आई.एस.आई. की हिन्दुत्व विरोधी साज़िश को ज़िम्‍मेदार ठहराया गया। यह नेपाली जनता की उन महान कु़र्बानियों का अपमान है जो उसने नेपाल में लोकशाही की स्थापना के लिए संघर्षों में दी हैं। दुनिया भर की जनता ने सामन्ती निरंकुश राजशाहियों को इतिहास की जिस कूड़ेदानी में फेंक दिया है उसमें से छाँट-बीनकर उसे फिर से स्थापित करने की कोशिशें मानवता को मध्ययुगीन अँधेरे में पहुँचा देने की कोशिशों के अलावा और क्या हो सकती हैं।

तीन दिनों तक चले इस हिन्दू महासंगम में नेपाल में राजशाही के खात्मे पर विलाप के अलावा दुनिया भर में हिन्दुओं पर हो रहे कथित अत्याचारों, ‘हिन्दुओं के मानबिन्दुओं’ (यानी मन्दिरों) पर हुए आतंकी हमलों का बदला लेने की हुंकारें गूँजती रहीं और भारतीय संशोधनवादी कम्युनिस्टों के कुकर्मों के हवाले दे-देकर कम्युनिज़्म की विचारधारा को पानी पी-पीकर कोसा-सरापा जाता रहा। सम्मेलन में नेपाल को फिर से हिन्दू राष्‍ट्र के साथ ही समूचे दक्षिण एशिया में हिन्दुत्व का ध्वज फहराने के प्रस्ताव पारित किये गये और अन्तिम दिन ‘विराट हिन्दू संगम’ में इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक नये ‘महाभारत’ का शंखनाद किया गया।

मतलब यह कि इस तीन दिनी महाआयोजन में आक्रामक हिन्दुत्व के आर.एस.एस. के चिर-परिचित एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए हुंकार भरा गया। आर.एस.एस. के ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ और इस समागम में जुटे साधु-सन्तों के ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की अवधारणाएँ बिल्कुल एक हैं। 23 दिसम्बर की आम सभा में एक वक्ता ने अत्याधिक जोश में आकर ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की सच्चाई इन शब्दों में प्रकट की कि अगर योगी आदित्यनाथ को भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाये तो मुसलमानों और अन्य सभी अल्पसंख्यकों को मताधिकार से वंचित कर दिया जायेगा। आर.एस.एस. के विचारक गुरु गोलवलकर की पुस्तक ‘वी एण्ड अवर नेशनहुड डिफ़ाइण्ड’ में भी हिन्दू राष्‍ट्र की अवधारणा इन्हीं शब्दों में व्यक्त की गयी है। गोलवलकर ने लिखा है : “…जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा, अर्थात हिन्दू राष्‍ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ की गु़लामी करते हुए, बिना कोई माँग किये, बिना किसी प्रकार का विशेषाधिकार माँगे, विशेष व्यवहार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे : यहाँ तक कि बिना नागरिकता के अधिकार के रहना होगा। उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़ना चाहिए। हम एक प्राचीन राष्‍ट्र हैं। हमें उन विदेशी जातियों से जो हमारे देश में रह रही हैं उसी प्रकार निपटना चाहिए जैसे कि प्राचीन राष्‍ट्र विदेशी नस्लों से निपटा करते हैं।”

यह है हिन्दू राष्‍ट्र की मूल संकल्पना जिसे साकार करने का संकल्प इस महाआयोजन में लिया गया। योगी आदित्यनाथ ने सभा में दहाड़ते हुए यहाँ तक कहा कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ‘हिन्दुओं’ को शस्त्र उठाने से भी नहीं हिचकना चाहिए। यानी पिछले दिनों हिन्दू राष्‍ट्र और हिन्दू स्वाभिमान के पुनरुत्थान के लिये गुजरात में जिस तरह मुसलमानों का राज्य प्रायोजित नरसंहार किया गया भविष्‍य में उसे और दुहराये जाने का संकल्प दुहराया गया।

सम्मेलन में इस पर भी काफ़ी चिन्ता और गुस्सा प्रकट किया गया कि भारत सरकार ने नेपाल में हिन्दू राष्‍ट्र को बचाने के लिए मदद नहीं की। हालाँकि यह तथ्यत: गलत भी है। नेपाल की राजशाही को बचाने के लिए अमेरिकी–ब्रिटेन साम्राज्यवादियों के साथ ही भारत सरकार से जितना बन पड़ा उतनी मदद देने में कोई कोर–कसर बाकी नहीं रखी थी लेकिन नेपाली जनता की इच्छाओं के आगे उनकी दाल नहीं गली। नेपाल को भारत सरकार ने भारी परिमाण में पैसे से मदद के अलावा फ़ौजी और खु़फ़िया मदद भी की लेकिन जब उसने देखा कि नरेश ज्ञानेन्द्र और समूचे राजपरिवार के प्रति समूची नेपाली जनता भीषण आक्रोश से भरी हुई है और उसकी जनवादी आकांक्षाओं को कुचला नहीं जा सकता तो उसने माओवादियों और सात दलों के गठबन्धन के एजेण्डे को आगे बढ़ाने में मदद करने में ही भलाई समझी। नेपाल की राजशाही के पतन पर यह चीखपुकार हताशा से उपजी हाहाकार के सिवा कुछ नहीं है। ऐसी चीख़–पुकारों पर इतिहास का एक आम विद्यार्थी भी कान नहीं दे सकता। दरअसल, इस चीख़–पुकार के पीछे असली चिन्ता दूसरी है। यह कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की अगुवाई में जिन लुटेरी आर्थिक नीतियों का कहर दुनिया की मेहनतकश जनता के ऊपर बरपा हो रहा है उससे पैदा हो रहा आक्रोश कहीं नेपाल की तरह भारत सहित दक्षिण एशिया के अन्य देशों के आसमान को भी लाल न कर दे। इसीलिए केसरिया धुन्ध फैलाकर इस ‘लाल ख़तरे’ को टालने की कोशिशें हो रही हैं। ‘हिन्दू राष्‍ट्र’ के इन अलमबरदारों से पूछा जाना चाहिए कि उनका ‘राष्‍ट्रीय गौरव’ तब कहाँ चला जाता है जब वे सरकारों में बैठकर अमेरिका–यूरोप के साम्राज्यवादियों के तलुए चाटते हैं। देश के अधिकांश हिन्दू संगठनों के मातृ संगठन आर.एस.एस. की अमेरिका–परस्ती, पूँजीपरस्ती और आर्थिक–सामाजिक समानता के सिद्धान्तों के प्रति उसकी घृणा तो जगज़ाहिर है। आज से 57 साल पहले आर.एस.एस. के अंग्रेज़ी मुखपत्र ‘ऑर्गनाइज़र’ के 3 अप्रैल 1950 के सम्पादकीय में अमेरिकापरस्ती की वकालत करते हुए जो पीड़ा व्यक्त की थी आज वह दूर हो गयी होगी। देखिये ‘ऑर्गनाइज़र’ में क्या लिखा गया था :

“अमेरिका भारत की मदद के लिए उतना उत्साही नहीं है क्योंकि भारत कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ उसके विश्‍व संघर्ष में सहयोग नहीं कर रहा है— हम भारत के लोग अपनी प्राचीन उदार परम्पराओं के चलते आंग्ल–अमेरिकी लोगों से अधिक निकट हैं।— ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका के साथ जुड़कर ही एक राष्‍ट्र के रूप में हम अपने पूर्ण स्थान को प्राप्त कर पायेंगे।”

कहने की ज़रूरत नहीं कि आंग्ल–अमेरिकी उदार परम्पराएँ जिस रूप में ‘इराक–अफ़गानिस्तान की जनता पर कहर बनकर बरस रही हैं’ उससे हिन्दू राष्‍ट्रवादियों को कितना असीम–सुख प्राप्त हो रहा होगा। और आज जब भारतीय शासक वर्ग अमेरिका के साथ अच्छी तरह जुड़ गया है तो ‘एक राष्‍ट्र के रूप में’ उन्हें ‘पूर्ण स्थान’ मिलने में अब बहुत देर नहीं लगनी चाहिए!

पूर्वी उत्तर प्रदेश के सियासी आसमान पर यह केसरिया धुन्ध ऐसे समय में उड़ायी गयी जब उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव आसन्न है। क्या यह महज़ संयोग है कि जिस दिन गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में साधु समाज दहाड़ रहा था उसी दिन लखनऊ में आर.एस.एस. के राजनीतिक मुख और मुखौटे एक बार फिर राम मन्दिर का राग ज़ोर–शोर से अलाप रहे थे। देश की चुनावी सियासत के रंग–ढंग को समझने वालों के लिए यह समझना कठिन नहीं कि यह चुनावी मौसम की केसरिया बहार भी है।

 

बिगुल, दिसम्‍बर 2006-जनवरी 2007

 


 

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