पंजाब के संगरूर में दलित खेत मज़दूर की बर्बर हत्या!

दलितों के सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण के विरुद्ध साझा जुझारू संघर्ष छेड़ने होंगे

– अखिल भारतीय जाति-विरोधी मंच

पंजाब के संगरूर ज़िले में जातिवादी गुण्डों की पिटाई से घायल दलित खेत मज़दूर की 16 नवम्बर को चण्डीगढ़ के पीजीआई अस्पताल में मौत हो गयी। जगमेल सिंह नामक इस शख़्स का गाँव के ही कुछ सवर्ण लोगों से 21 अक्टूबर को छोटा-मोटा झगड़ा हुआ था। इस झगड़े को गाँव वालों के बीच-बचाव के बाद सुलझा भी लिया गया था। लेकिन रंजिश पाले हुए जातिवादी गुण्डों ने 7 नवम्बर को जगमेल सिंह को धोखे से बुलाकर लाठियों और सरियों से बेरहमी से पीटा। बेहोश होने तक उसकी पिटाई की गयी तथा पानी माँगने पर पेशाब पीने के लिए मजबूर किया गया। बेरहमी की इन्तहा यहीं नहीं रुकी बल्कि अपराधियों ने पीड़ित के ज़ख़्मों को पेचकस से कुरेदकर उन्हें तेज़ाब से भी जलाया! पीड़ित जगमेल को चण्डीगढ़ पीजीआई में दाख़िल कराया गया लेकिन बुरी तरह घायल होने के चलते वह बच नहीं सका। संक्रमण का फैलाव रोकने के लिए उसकी टाँग काटनी पड़ी लेकिन सभी अंगों के काम करना बन्द कर देने के कारण उसकी मौत हो गयी। जगमेल के परिवार में पत्नी और तीन बच्चे रह गये हैं। हालाँकि पुलिस ने आरोपियों पर मामला दर्ज करके कुछ को गिरफ़्तार भी किया है किन्तु यह बर्बर घटना देश में ग़रीब दलितों की हालत और उनके उत्पीड़न का जीता-जागता प्रमाण है।

दलितों के पैर धोने और उनके घर पर खाना खाने का ढोंग-पाखण्ड करने से कुछ नहीं होने वाला!

दलित उत्पीड़न की यह घटना कोई नयी घटना नहीं है। ख़ुद सरकारी आँकड़ों की मानें तो पिछले कुछ वर्षों में दलित उत्पीड़न की घटनाओं में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हुई है। मनुवाद और ब्राह्मणवाद की पैरोकार भाजपा के सत्ता में आने के बाद जातिवादी हमले और तेज़ हुए हैं। नेशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की पिछली रिपोर्ट के अनुसार 2006 से 2016 के बीच के दस सालों में दलित विरोधी अपराधों में 66 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। 2006 में 27,070 दलित विरोधी अपराध के मामले दर्ज हुए थे, 2011 में इनकी संख्या बढ़कर 33,719 हो गयी। 2016 में दलित उत्पीड़न के 48,801 मामले दर्ज हुए। देशभर में दलित विरोधी जातिगत नफ़रत व हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है। 1989 में एससी/एसटी एक्ट के लागू होने के बावजूद देश में औसतन हर 15 मिनट पर एक दलित उत्पीड़न का शिकार होता है; हर घण्टे दलितों के ख़िलाफ़ 5 से ज़्यादा हमले दर्ज होते हैं; हर दिन दो दलितों की हत्या कर दी जाती है। दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी भयानक है। प्रतिदिन औसतन 6 दलित स्त्रियाँ बलात्कार का शिकार होती हैं। कुछ समय पहले ग्रामीण व कृषि मामलों के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर ज्ञान सिंह व उनकी टीम ने पंजाब के 11 ज़िलों के 1,017 घरों से प्राथमिक स्तर के तथ्य एकत्रित किये थे। अप्रैल 2019 में जारी किये गये उनके विश्लेषण के मुताबिक़ खेत मज़दूरी का काम करने वाली 70 प्रतिशत महिलाओं ने माना है कि उनका यौन शोषण हुआ। इनमें 92 प्रतिशत महिलाएँ दलित हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ पंजाब में 15 लाख मज़दूर खेतों में काम करते हैं जिनमें बड़ी संख्या दलितों की है। दूसरे राज्यों से आकर पंजाब में खेत मज़दूरी करने वालों में भी एक बड़ी संख्या दलितों की होती है। पंजाब ही नहीं बल्कि देशभर में दलित मज़दूर आबादी को आर्थिक तौर पर अति-शोषण और सामाजिक तौर पर उत्पीड़न झेलना पड़ता है।

प्रशासन और अदालत के सामने मामले आ जाने के बाद भी वास्तविक न्याय मिलने की कोई गारण्टी नहीं!

पहले तो दलित विरोधी उत्पीड़न के बहुत सारे मामले सामाजिक डर और आर्थिक असुरक्षा के चलते पुलिस-प्रशासन के सामने ही नहीं आ पाते। किन्तु पुलिस और कोर्ट की फ़ाइलों में दर्ज होने के बाद भी न जाने कितने मामलों में न्याय नहीं हो पाता। देशभर में हुए भयंकर दलित विरोधी काण्ड और उनकी न्यायिक प्रक्रिया हमारी न्याय व्यवस्था पर भी बहुत से सवाल खड़े करती है। आप ख़ुद ही देखिए कि देशभर में दलितों के ख़िलाफ़ संगठित हिंसा करने वालों का क्या बिगड़ा। ये चन्द उदाहरण मात्र हैं:

  1. 44 दलितों की हत्या, किलवनमनी, तमिलनाडु, 25 दिसम्बर 1968, न्यायिक परिणाम – सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया।
  2. 13 दलितों की हत्या, चुन्दुर, आन्ध्रप्रदेश, 6 अगस्त 1991, न्यायिक परिणाम – 2014 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।
  3. 10 दलितों की हत्या, नागरी, बिहार, 11 नवम्बर 1998, न्यायिक परिणाम – मार्च 2013 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।
  4. 22 दलितों की हत्या, शंकर बीघा गांव, बिहार, 25 जनवरी, 1999, न्यायिक परिणाम – जनवरी 2015 में सभी आरोपी बरी।
  5. 21 दलितों की हत्या, बथानी टोला, बिहार, 11 जुलाई 1996, न्यायिक परिणाम – अप्रैल 2012 में सभी आरोपियों को छोड़ दिया गया।
  6. 32 दलितों की हत्या मियांपुर, बिहार, 2000, न्यायिक परिणाम – 2013 में सभी को छोड़ दिया गया।
  7. 58 दलितों की हत्या, लक्ष्मणपुर बाथे, 1 दिसम्बर 1997, न्यायिक परिणाम – 2013 में सभी को छोड़ दिया गया।
  8. महाराष्ट्र का प्रसिद्ध नितिन आगे केस, जिसमें एक दलित नौजवान को गांव के सामने मार दिया गया था, 28 अप्रैल 2014, न्यायिक परिणाम – 23 नवम्बर 2017 के दिन सबको छोड़ दिया गया।

उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि दलितों के विरुद्ध हुए बहुत-से बर्बर से बर्बर हत्याकाण्डों में भी सज़ाएँ बिल्कुल नहीं हुई। ये चन्द आँकड़े साफ़ बता रहे हैं कि 70 साल की आज़ादी के बाद भी ग़रीब दलित आबादी हर रूप से कितनी अरक्षित है। जिन मामलों में कुछ आरोपियों को सज़ा हुई, उनके लिए पीड़ितों को अदालत के भीतर और बाहर लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी और सामाजिक-आर्थिक बहिष्कार से लेकर झूठे आरोपों में फँसाये जाने तक का सामना करना पड़ा।

दलित मुक्ति का रास्ता जातीय पहचान की राजनीति और प्रतीकवाद से नहीं बल्कि वर्ग आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन से होकर जाता है!

आज अस्मितावाद (यानी दलितों को उनकी जातीय पहचान और अस्मिता के आधार पर संगठित और गोलबन्द करना) तथा प्रतीकवाद (यानी मूर्ति बनवाने या तोड़े जाने और किसी के बारे में किसी के द्वारा कुछ कह देने जैसे मुद्दों को ही मुखरता से उठाना और दलित-ग़रीब आबादी के असल मुद्दों पर चुप रहना) से दलितों का कोई भला नहीं होने वाला। हमें यह बात समझ लेनी होगी कि बिना क्रान्ति के दलित मुक्ति नहीं हो सकती और बिना जाति-व्यवस्था विरोधी व्यापक आन्दोलनों के क्रान्ति का विचार भी एक ख़याली पुलाव भर है। जातिवाद और ब्राह्मणवाद आज संस्कारित तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा कर रहा है। जातिवाद, साम्प्रदायिकता और तमाम तरह की अस्मितावादी राजनीति आज पूँजीवाद के लिए ‘संजीवनी बूटी’ के समान है। व्यवस्था के ठेकेदार पूँजीवाद द्वारा परिष्कृत करके अपना ली गयी जाति-व्यवस्था का अपने हितों के लिए ख़ूब इस्तेमाल कर रहे हैं। यही कारण है कि आज़ादी के 72 साल बाद भी जातिवादी दमन-उत्पीड़न घटने के बजाय बढ़ ही रहे हैं। यदि देशव्यापी आँकड़ों पर नज़र दौड़ायें तो दलितों का क़रीब 95 प्रतिशत हिस्सा खेतिहर मज़दूर, निर्माण मज़दूर औद्योगिक मज़दूर के तौर पर खट रहा है या फिर सफ़ाई जैसे काम में लगा है।

पहचान और प्रतीकों की राजनीति करने वाले लोग बिरले ही इस मेहनतकश दलित आबादी के मुद्दों को उठाते हैं। इस मज़दूर आबादी के मुद्दे सीधे तौर पर देश की अन्य मेहनतकश आबादी के साथ भी जुड़ते हैं। दलित विरोधी उत्पीड़न के मुद्दों के ख़िलाफ़ लड़े जाने वाले संघर्षों को मज़बूती के साथ तभी लड़ा जा सकता है जब हर जाति की व्यापक मेहनतकश जनता को जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लामबद्ध किया जायेगा। शिक्षा-रोज़गार-चिकित्सा-आवास-महँगाई जैसे मुद्दों पर होने वाले संघर्षों में हर जाति की मेहनतकश जनता की साझा भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। साथ ही मेहनतकशों के बीच वैचारिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक मुहिम चलाया जाना भी बेहद ज़रूरी है जिसके माध्यम से लोगों के बीच जाति-व्यवस्था के इतिहास और वर्तमान से जुड़े विभिन्न पहलुओं और इसकी समाप्ति के आवश्यक कार्यभारों व चुनौतियों को स्पष्टता के साथ रखा जा सके। तथाकथित उच्च जाति वालों के सामने भावनात्मक अपीलों से कुछ नहीं होगा। जाति-व्यवस्था विरोधी आन्दोलनों को मेहनतकश वर्ग की एकजुटता के दम पर ही असल मुक़ाम तक पहुँचाया जा सकता है। हम देश की आम मेहनतकश जनता, छात्रों-युवाओं व जातिविरोधी कार्यकर्त्ताओं से अपील करते हैं कि हमारी बातों पर ग़ौर करें। हमें उम्मीद है कि जाति-व्यवस्था को समाप्त करने के लिए होने वाले व्यापक संघर्षों हेतु संवाद और वैचारिक बहस-मुबाहिसे का स्वस्थ माहौल ज़रूर बनेगा।

‘अखिल भारतीय जाति विरोधी मंच’, संगरूर (पंजाब) की दलित उत्पीड़न की घटना की कड़ी भर्त्सना करता है और पंजाब और केन्द्र सरकार से माँग करता है:-

  1. जगमेल सिंह के हत्यारों को तुरन्त सख़्त सज़ा दो!
  2. जगमेल सिंह के आश्रितों को उचित मुआवज़ा दो!
  3. दलित उत्पीड़न के लम्बित मामलों को फ़ास्ट ट्रैक अदालतों से हल करो!
  4. जातिवादी उत्पीड़न के ख़िलाफ़ कड़े क़ानून बनाओ और इन्हें सख़्ती से लागू करने का इन्तज़ाम करो!
  5. तमाम जातिवादी संस्थाओं, सभाओं और पंचायतों पर रोक लगाओ!
  6. राजकीय संस्थाओं की ओर से जातिवादी कार्यक्रमों में भागीदारी और सरकारी अनुदान पर तत्काल रोक लगाओ!

मज़दूर बिगुल, नवम्बर 2019


 

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