मनरेगा मज़दूरों के बजट को खाती अफ़सरशाही

– रमन, क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन, हरियाणा

महात्मा गाँधी राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी क़ानून यानी मनरेगा की शुरुआत 2005 में हुई थी। इस योजना को शुरू करने का कांग्रेस का मक़सद था कि गाँव से शहर की ओर पलायन करती आबादी को किस तरह से गाँव में ही रोके रखा जाये और सामाजिक असन्तोष को फूटने से रोका जा सके। इसके लिए उन्होंने 100 दिनों के पक्के रोज़गार के नाम पर मनरेगा स्कीम चालू की थी। आज जब बेरोज़गारी अपने चरम पर है तो एक बहुत बड़ी आबादी बेरोज़गार होकर मनरेगा में रोज़गार पाने के लिए मशक़्क़त करती रहती है कि उन्हें मनरेगा में तो काम देर-सवेर थोड़ा बहुत मिल जाता है।
अगर हम बात करें हरियाणा के कैथल ज़िले की कलायत तहसील की तो यहाँ पर भी मनरेगा का जो काम है वह सभी मज़दूरों को नहीं मिलता। असल में सरकारी दावों की बात करें तो मनरेगा क़ानून 2005 कहता है कि‍ इसका मक़सद है ग्रामीण क्षेत्रों में छिपी बेरोज़गारी को कम करना। यानी इस क़ानून के तहत 1 वर्ष में एक परिवार के वयस्क सदस्यों को 100 दिन के रोज़गार की गारण्टी दी जायेगी। रोज़गार के पंजीकरण के 15 दिन के भीतर काम देने और काम ना देने की सूरत में बेरोज़गारी भत्ता देने की बात कही गयी है। मनरेगा के तहत न्यूनतम मज़दूरी भी अलग-अलग राज्यों के हिसाब से तय की गयी। हरि‍याणा में अभी फि़लहाल 315 रुपये दिहाड़ी तय की गयी है। लेकिन इसके तहत काम मिलता ही काफ़ी कम दिन है। वहीं हम बजट की बात करें तो वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में निर्मला सीतारमण ने मनरेगा के लिए 73,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। यदि इसकी तुलना बीते वित्त वर्ष के संशोधित बजट के आबण्टन 1,11,500 करोड़ रुपये से की जाये तो यह क़रीब 34.52 फ़ीसदी कम है। बजट कम होने का सीधा मतलब श्रम दिवस के कम होने और रोज़गार के अवसरों में कमी से भी है। साथ ही इस बजट का एक बड़ा हिस्सा भी अफ़सरशाही की जेब में चला जाता है।
हमने क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन के बैनर तले 10 साल से गाँव में बन्द पड़े काम की फिर से शुरुआत की थी। काम तो साल में 25 से 30 दिन ही मिला मगर इस दौरान हमने मनरेगा में हो रहे भ्रष्टाचार को भी काफ़ी नज़दीक से देखा; मनरेगा ऑफ़िस के अधिकारियों की कुछ गाँव विशेष के मेटों के साथ साँठ-गाँठ हो जाती है और फिर मनरेगा का ज़्यादातर काम उन गाँवों को मिलना शुरू हो जाता है जिनके मेटों के साथ उनका गठजोड़ बनता है। मनरेगा में जो आबादी काम करती है उसके नाम के साथ-साथ ऐसे नाम भी वर्करों की लिस्ट में शामिल किये जाते हैं जो मनरेगा में काम करने नहीं आते। उनका सिर्फ़ काग़ज़ों में नाम चलता है और जो पैसा आता है उसका बड़ा हिस्सा अधिकारियों तथा थोड़ा-बहुत हिस्सा उन फ़र्ज़ी मज़दूरों की जेब में चला जाता है और यह सिलसिला जारी रहता है। एक ओर मज़दूर काम के लिए मनरेगा विभाग के चक्कर लगाते रहते हैं और दूसरी ओर मनरेगा का जो बजट मज़दूरों के लिए तय हुआ है वह अधिकारियों की जेबों में जाता रहता है। इस भ्रष्टाचार के ऊपर रोक लगाना वैसे तो किसी एक आदमी के बस की बात नहीं मगर इसको रोकने के लिए क्रान्तिकारी मनरेगा मज़दूर यूनियन के साथी लगातार गाँव-गाँव में मनरेगा मज़दूरों की कमेटियों का गठन कर रहे हैं और इन कमेटियों में जो मज़दूर शामिल हैं उनको मनरेगा विभाग से जुड़े हुए काग़ज़ी काम भी सिखाये जाते हैं जैसे डिमाण्ड भरना, मस्टररोल भरना, यह पता करना कि कितने लोगों का काम आया है, कितने लोग काम पर जाते हैं, किसी की फ़र्ज़ी हाज़िरी तो नहीं भरी जा रही, आदि। इन सभी कामों के लिए प्रशिक्षित करने का काम भी किया जाता है और जो भी काग़ज़ी काम होता है उसको व्हाट्सएप के माध्यम से हर मज़दूर के सम्पर्क में लेकर आने का काम भी किया जाता है। ऐसा करने से मज़दूरों में आत्मविश्वास बढ़ता है और साथ ही साथ हर मज़दूर काम के प्रति निगरानी और ज़िम्मेदारी को भी समझना शुरू कर देता है।
यूनियन के अन्दर जनवाद की बहाली के लिए सभी फ़ैसले सामूहिकता में लिये जाते हैं और मेट का चुनाव भी मज़दूरों के बीच में से ही ख़ुद मजदूर करते हैं। साथ ही मनरेगा मज़दूरों की यूनियन पाठशाला भी हर हफ़्ते चलायी जाती है जिसमें मज़दूरों को सिर्फ़ आर्थिक माँगों पर न गोलबन्द करते हुए बल्कि उन्हें समाज परिवर्तन की समूचे मज़दूर वर्ग की लम्बी लड़ाई के लिए भी राजनीतिक तौर पर शिक्षित-प्रशिक्षित किया जाता है। मज़दूर वर्ग के नेता लेनिन ने ट्रेड यूनियन को मज़दूरों की पहली पाठशाला कहा है। उनका मतलब यही था कि अगर कोई यूनियन मज़दूरों की असल लड़ाई को लड़ रही है तो वह मज़दूरों की आर्थिक माँगों को लेकर लड़ने के साथ-साथ उनके राजनीतिक स्तरोन्नयन का काम भी करेगी। मज़दूरों की असल यूनियन वही होती है जो मज़दूरों में उनकी आर्थिक माँगों से राजनीतिक माँगों की तरफ़ बढ़ने की समझ और साहस पैदा करती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में जाति व धर्म की कितनी गहरी जड़ें हैं। मज़दूरों की असल लड़ाई लड़ने वाली यूनियन इन जाति-धर्म की दीवारों पर चोट करने के साथ-साथ मज़दूरों में वर्ग एकजुटता पैदा करने का काम करेगी ताकि हर जाति-धर्म से आने वाले मज़दूरों में सर्वहारा चेतना पैदा की जा सके।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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