बंगलादेश में एक बार फिर मुनाफे़ की आग की बलि चढ़े 52 मज़दूर

– भारत

भारत हो या बंगलादेश या कोई अन्य पूँजीवादी देश, मालिकों के लिए मज़दूरों की अहमियत कीड़े-मकोड़ों से ज़्यादा नहीं होती। बीते 8 जुलाई को बंगलादेश में ढाका के नारायणगंज क्षेत्र में जूस के कारख़ाने में भीषण आग लगी, जिसमें 52 मज़दूरों की जान चली गयी और कई घायल हुए। 35,000 वर्ग फ़ीट में बने कारख़ाने में सिर्फ़ दो जगह सीढ़ियाँ थीं, मालिक ने जेल की तरह सारे दरवाज़ों पर ताला लगा रखा था, जिससे मज़दूर आग लगने के समय भाग भी नहीं पाये और जलकर मर गये। कुछ मज़दूर तो ऊँची छत से कूदने के कारण मारे गये।
साजीब ग्रुप की यह कम्पनी ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, भारत, भूटान, नेपाल जैसे देशों में अपना माल निर्यात करती थी, पर इतनी बड़ी कम्पनी होने के बावजूद इसके कारख़ाने में सुरक्षा के कोई इन्तज़ाम नहीं थे और न ही आग लगने के बाद निकलने का कोई रास्ता था। आग इतनी भीषण थी कि उसे बुझाने में 3-4 दिन लग गये।
बंगलादेश में टेक्सटाइल सेक्टर सबसे बड़ा सेक्टर है। चीन के बाद बंगलादेश सिले-सिलाए कपड़ों का दुनिया में सबसे अधिक निर्यात करने वाला देश है। 84 प्रतिशत निर्यात राजस्व बंगलादेश को इसी से मिलता है। 45 लाख मज़दूर क़रीब 4,500 गारमेण्ट के कारख़ानों में काम करते हैं। इसके बावजूद यहाँ के कारख़ानों में स्थिति नर्क से भी बदतर है। सुरक्षा से लेकर बुनियादी इन्तज़ाम तक इनमें मौजूद नहीं है। इसी कारण आये-दिन कारख़ानों में आग लगने की घटनाएँ सामने आती हैं।
बंगलादेश में कारख़ाने में आग की यह कोई पहली घटना नहीं है। सबको याद होगा कि बंगलादेश के इतिहास में मज़दूरों के लिए सबसे बड़ी जानलेवा घटना 2013 में घटी थी जब ढाका के राणा प्लाज़ा गारमेण्ट सेण्टर में आग लगने से 1100 से भी ज़्यादा मज़दूर मारे गये थे। इतनी भयानक घटना के बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं। अगस्त 2016 में दक्षिण बंगलादेश के चटगाँव में फ़र्टिलाइज़र कम्पनी में गैस लीक होने से 100 मज़दूर मारे गये। 2019 में एक गोदाम में आग लगने से 67 मज़दूरों की मौत हो गयी। 2010 में ग़ैर-क़ानूनी केमिकल कारख़ाने में आग लगने से 123 मज़दूरों मारे गये और 2012 में ढाका के ताज़रीन फै़शन फै़क्ट्री में आग से 117 मज़दूरों की मौत हुई थी। बंगलादेश के कारख़ानों में आग से मज़दूरों की मौतों की यह फे़हरिस्त लम्बी है। एक रिपोर्ट बताती है कि 1990 के बाद से बंगलादेश के कारख़ानों में आग लगने की 50 से ज़्यादा बड़ी घटनाएँ हुई हैं, जिनमें हज़ारों मज़दूर मारे जा चुके हैं। इन्हें दुर्घटना या हादसा कहना सच्चाई के साथ अन्याय होगा। ये सब मालिकों व बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मुनाफ़े की हवस को पूरा करने के लिए की गयी हत्याएँ हैं।
दुनिया की सारी बड़ी गारमेण्ट कम्पनियों का माल यहाँ तैयार होता है, जिसके लिए मज़दूर 18-18 घण्टे तक खटते हैं। और वेतन के नाम पर 94 डॉलर यानी क़रीब 7,000 रुपये तक ही पाते हैं। आज बंगलादेश के जिस तेज़ विकास की चर्चा होती है, वह इन्हीं मज़दूरों के बर्बर और नंगे शोषण पर टिका हुआ है।
इन कारख़ानों में साधारण दस्तानों से लेकर जूते तक नहीं दिये जाते और केमिकल वाले काम भी मज़दूर नंगे हाथों से ही करते हैं। फै़क्टरियों में हवा की निकासी तक के लिए कोई उपकरण नहीं लगाये जाते, जिस वजह से हमेशा धूल-मिट्टी और उत्पादों की तेज़ गन्ध के बीच मज़दूर काम करते हैं। जवानी में ही मज़दूरों को बूढ़ा बना दिया जाता है और दस-बीस साल काम करने के बाद ज़्यादातर मज़दूर ऐसे मिलेंगे जिन्हें फेफड़ों से लेकर चमड़ी की कोई न कोई बीमारी होती है।
राणा प्लाज़ा की घटना के बाद मल्टीनेशनल कम्पनियों ने कारख़ानों में सुरक्षा के इन्तज़ाम पुख़्ता करने के बड़े-बड़े दावे किये, मज़दूरों को आग से बचने के लिए प्रशिक्षण दिया और यह दिखाने के लिए और भी बहुत सी नौटंकी की कि मज़दूरों की जान को लेकर वे कितने “चिंतित” हैं। लेकिन आये दिन होने वाली आग लगने की घटनाएँ इन कम्पनियों की नौटंकी का राज़ खोल देती हैं और यह नंगी सच्चाई सबके सामने आ जाती है कि इन्हें अपने मुनाफ़े से ज़्यादा कोई प्यारा नहीं है। इसी लिए बंगलादेश में श्रम क़ानूनों का कोई महत्व नहीं है। बंगलादेशी सरकार और उनकी प्रधानमंत्री शेख हसीना भी मज़दूरों की मौत पर चुप्पी साधे बैठी रहती है। आख़िर उसे भी अपने पूँजीपति आक़ाओं की सेवा करनी है। हर जगह मज़दूरों की हो रही मौतों की ज़िम्मेदार यह समूची मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था है, जो मज़दूरों के ख़ून की आख़िरी बूँद तक को निचोड़कर अपना मुनाफ़ा निकालती है।
हम मज़दूरों के लिए यह ज़िन्दगी और मौत का सवाल है कि हम इस समूची पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की तैयारी करें, अपनी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण करें और मज़दूर राज क़ायम करने की लड़ाई लड़ें, चाहे इसमें कितना ही समय क्यों न लग जाये। वरना हमारी आने वाली पीढ़ियाँ भी ऐसे ही पशुओं के समान जीने और मरने को मजबूर होंगी।

मज़दूर बिगुल, सितम्बर 2021


 

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