Category Archives: महान शिक्षकों की क़लम से

लेनिन – जनवाद के लिए सबसे आगे बढ़कर लड़ने वाले के रूप में मज़दूर वर्ग

मज़दूरों में राजनीतिक वर्ग-चेतना बाहर से ही लायी जा सकती है, यानी केवल आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मज़दूरों और मालिकों के सम्बन्धों के क्षेत्र के बाहर से। वह जिस एकमात्र क्षेत्र से आ सकती है, वह राजसत्ता तथा सरकार के साथ सभी वर्गों तथा स्तरों के सम्बन्धों का क्षेत्र है, वह सभी वर्गों के आपसी सम्बन्धों का क्षेत्र है। इसलिए इस सवाल का जवाब कि मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने के लिए क्या करना चाहिए, केवल यह नहीं हो सकता कि ‘‘मज़दूर के बीच जाओ’’ – अधिकतर व्यावहारिक कार्यकर्ता, विशेषकर वे लोग, जिनका झुकाव ‘‘अर्थवाद’’ की ओर है, यह जवाब देकर ही सन्तोष कर लेते हैं। मज़दूरों तक राजनीतिक ज्ञान ले जाने कि लिए सामाजिक-जनवादी कार्यकर्ताओं को आबादी के सभी वर्गों के बीच जाना चाहिए और अपनी सेना की टुकड़ियों को सभी दिशाओं में भेजना चाहिए।

कम्युनिस्ट पार्टी की ज़रूरत के बारे में लेनिन के कुछ विचार…

पूँजीवाद के युग में, जबकि मज़दूर जनता निरन्तर शोषण की चक्की में पिसती रहती है और अपनी मानवीय क्षमताओं का विकास वह नहीं कर पाती है, मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टियों की सबसे ख़ास विशेषता यही होती है कि अपने वर्ग के केवल एक अल्पमत को ही वह अपने साथ ला पाती है। कोई भी राजनीतिक पार्टी अपने वर्ग के केवल एक अल्पमत को ही अपने अन्दर समाविष्ट कर सकती है। उसी तरह जिस तरह कि किसी भी पूँजीवादी समाज में वास्तविक रूप से वर्ग चेतन मज़दूर तमाम मज़दूरों का मात्र एक अल्पमत होते हैं। इसलिए इस बात को मानने के लिए हम बाध्य हैं कि मज़दूरों के व्यापक जनसमुदायों का निर्देशन और नेतृत्व केवल यह वर्ग चेतन अल्पमत ही कर सकता है।

लेनिन – आम लोगों में मौजूद मर्दवादी सोच और मेहनतकश स्त्रियों की घरेलू ग़ुलामी के ख़िलाफ़ संघर्ष के बारे में कम्युनिस्ट नज़रिया

बहुत कम पति, सर्वहारा वर्ग के पति भी इनमें शामिल हैं, यह सोचते हैं कि अगर वे इस ‘औरतों के काम’ में हाथ बँटायें, तो अपनी पत्नियों के बोझ और चिन्ताओं को कितना कम कर सकते हैं, या वे उन्हें पूरी तरह से भारमुक्त कर सकते हैं। लेकिन नहीं, यह तो ‘पति के विशेषाधिकार और शान’ के ख़िलाफ़ होगा। वह माँग करता है कि उसे सुकून और आराम चाहिए। औरत की घरेलू ज़िन्दगी का मतलब है एक हज़ार तुच्छ कामों में अपने स्व को नित्यप्रति कुर्बान करते रहना। उसके पति के, उसके मालिक के, पुरातन अधिकार बने रहते हैं और उन पर ध्यान नहीं जाता। वस्तुगत तौर पर, उसकी दासी अपना बदला लेती है। यह बदला छिपे रूप में भी होता है। उसका पिछड़ापन और अपने पति के क्रान्तिकारी आदर्शों की समझदारी का अभाव पुरुष की जुझारू भावना और संघर्ष के प्रति दृढ़निश्चयता को पीछे खींचने का काम करता रहता है। ये चीजें दीमक की तरह, अदृश्य रूप से, धीरे-धीरे लेकिन यकीनी तौर पर अपना काम करती रहती है। मैं मज़दूरों की ज़िन्दगी को जानता हूँ और सिर्फ किताबों से नहीं जानता हूँ। स्त्रियों के बीच हमारा कम्युनिस्ट काम, और आम तौर पर हमारा राजनीतिक काम, पुरुषों की बहुत अधिक शिक्षा-दीक्षा की माँग करता है। हमें पुराने दास-स्वामी के दृष्टिकोण का निर्मूलन करना होगा, पार्टी में भी और जन समुदाय के बीच भी। यह हमारे राजनीतिक कार्यभारों में से एक है, एक ऐसा कार्यभार जिसकी उतनी ही आसन्न आवश्यकता है जितनी मेहनतकश स्त्रियों के बीच पार्टी कार्य के गहरे सैद्धान्तिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण से लैस स्त्री और पुरुष कामरेडों का एक स्टाफ गठित करने की।

लेनिन – क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों से मज़दूर का वार्तालाप

”आर्थिक संघर्ष को ही राजनीतिक रूप देने” की माँग राजनीतिक कार्य के क्षेत्र में स्वयंस्फूर्ति की पूजा करने की प्रवृत्ति को सबसे स्पष्ट रूप में व्यक्त करती है। बहुधा आर्थिक संघर्ष स्वयंस्फूर्त ढंग से, अर्थात ”क्रान्तिकारी कीटाणुओं, यानी बुद्धिजीवियों” के हस्तक्षेप के बिना ही, वर्ग-चेतन सामाजिक-जनवादियों के हस्तक्षेप के बिना ही, राजनीतिक रूप धारण कर लेता है। उदाहरण के लिए, समाजवादियों के कोई हस्तक्षेप न करने पर भी ब्रिटिश मज़दूरों के आर्थिक संघर्ष ने राजनीतिक रूप धरण कर लिया। लेकिन सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार यहीं ख़त्म नहीं हो जाता कि वे आर्थिक आधार पर राजनीतिक आन्दोलन करें; उनका कार्यभार इस ट्रेड-यूनियनवादी राजनीति को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक संघर्ष में बदलना और आर्थिक संघर्ष से मज़दूरों में राजनीतिक चेतना की जो चिंगारियाँ पैदा होती हैं, उनका इस्तेमाल इस मकसद से करना है कि मज़दूर को सामाजिक-जनवादी राजनीतिक चेतना के स्तर पर उठाया जा सके। किन्तु मार्तीनोव जैसे लोग मज़दूरों की अपने आप उठती हुई राजनीतिक चेनता को और ऊपर उठाने तथा बढ़ाने जाने के बजाय स्वयंस्फूर्ति के सामने शीश झुकाते हैं और उबा देने की हद तक बार-बार यही बात दोहराते रहते हैं कि आर्थिक संघर्ष मज़दूरों को अपने राजनीतिक अधिकारों के अभाव के बारे में सोचने की ”प्रेरणा देता है”। सज्जनो, यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि अपने आप उठती हुई ट्रेड-यूनियनवादी राजनीतिक चेतना आपको यह प्रेरणा नहीं दे पाती कि सामाजिक-जनवादी होने के नाते आपके क्या कार्यभार हैं।

कार्ल मार्क्‍स – मज़दूर का अलगाव

मज़दूर जितना अधिक उत्पादन करता है, उसके पास उपभोग करने के लिए उतना ही कम रहता है, वह जितना अधिक मूल्य पैदा करता है, वह ख़ुद उतना ही अधिक मूल्यहीन और महत्वहीन होता जाता है, उसका उत्पादन जितना ही अधिक सुन्दर-सुगठित होता है, मज़दूर उतना ही कुरूप-बेडौल बनता जाता है, उसकी बनायी वस्तुएँ जितनी अधिक सभ्य होती जाती हैं, मज़दूर उतना ही अधिक बर्बर होता जाता है। उसका श्रम जितना अधिक शक्तिशाली होता जाता है, मज़दूर उतना ही अधिक शक्तिहीन होता जाता है, उसका श्रम जितना ही कुशल होता जाता है, मज़दूर उतना ही कम कुशल होता जाता है और वह उतना ही अधिक प्रकृति का दास बन जाता है।

लेनिन – राजनीतिक उद्वेलन और प्रचार कार्य का महत्व

अन्तत:, औसत संस्तर के बाद सर्वहारा के निम्नतर संस्तर के समूह आते हैं। बहुत सम्भव है कि समाजवादी समाचारपत्र पूरी तरह या प्राय: पूरी तरह उनकी समझ से परे होगा (आख़िर पश्चिमी यूरोप में भी सामाजिक-जनवादी मतदाताओं की संख्या सामाजिक-जनवादी अख़बारों के पाठकों की संख्या से कहीं अधिक है), लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना बिल्कुल बेतुका होगा कि सामाजिक-जनवादियों के समाचारपत्र को मज़दूरों के यथासम्भव अधिक निम्नतर संस्तर के अनुरूप बनाना चाहिए। इससे तो केवल यही निष्कर्ष निकलता है कि ऐसे संस्तरों पर प्रचार के दूसरे साधनों से प्रभाव डालना चाहिए : अधिक सरल, सुबोध भाषा में लिखी पुस्तिकाओं, मौखिक प्रचार तथा मुख्यत: स्थानीय घटनाओं पर परचों द्वारा।

लेनिन – बुर्जुआ चुनावों और क़ानूनी संघर्षों के बारे में सर्वहारा क्रान्तिकारी दृष्टिकोण

जो बदमाश हैं या मूर्ख हैं, वे ही यह सोच सकते हैं कि सर्वहारा वर्ग को पहले पूँजीपति वर्ग के जुए के नीचे, उजरती ग़ुलामी के जुए के नीचे होनेवाले चुनावों में बहुमत प्राप्त करना है और तभी उसे सत्ता हाथ में लेनी है। यह हद दर्जे की बेवकूफी या पाखण्ड है, यह वर्ग-संघर्ष तथा क्रान्ति का स्थान पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत तथा पुरानी सत्ता के रहते हुए चुनावों को देना है।

लेनिन – संघर्ष के रूपों के प्रश्न पर मार्क्‍सवादी नज़रिया

…संघर्ष के रूपों के प्रश्न के विवेचन से हर मार्क्‍सवादी को क्या बुनियादी अपेक्षाएँ करनी चाहिए? पहली चीज़, मार्क्‍सवाद समाजवाद के तमाम अपरिष्कृत रूपों से इस बात में भिन्न है कि वह आन्दोलन को संघर्ष के किसी एक विशेष रूप के साथ नहीं बाँधता। वह संघर्ष के सर्वथा विविध रूपों को मान्यता देता है, इसके अलावा वह उन्हें ”गढ़ता” नहीं, बल्कि मात्र क्रान्तिकारी वर्गों के संघर्ष के उन रूपों का सामान्यीकरण करता है, उन्हें संगठित करता है तथा उन्हें सचेतन अभिव्यक्ति देता है, जो आन्दोलन के दौरान स्वयं जन्म लेते हैं। समस्त अमूर्त फार्मूलों और समस्त मताग्रहवादी नुस्ख़ों का असंदिग्ध शत्रु मार्क्‍सवाद चल रहे उस जन-संघर्ष की ओर सावधनीभरा रुख़ अपनाने की अपेक्षा करता है, जो आन्दोलन के विकसित होने के साथ, जन-साधारण की वर्ग चेतना की वृद्धि के साथ, आर्थिक तथा राजनीतिक संकटों के तीक्ष्ण होने के साथ बचाव और धावे की नयी तथा अधिक विविध विधियों को जन्म देता है। इसलिए, मार्क्‍सवाद संघर्ष के केवल संबद्ध घड़ी में संभव तथा विद्यमान रूपों तक अपने को किसी भी सूरत में सीमित नहीं रखता, यह तो इसे मान्यता देता है कि संघर्ष के नये रूप, जो संबद्ध कालावधि में कार्यकर्ताओं के लिए अज्ञात होते हैं, संबद्ध सामाजिक परिस्थिति में परिवर्तन के साथ अनिवार्यत: उत्पन्न होते हैं। इस मामले में मार्क्‍सवाद जन-साधारण के अमल से सीखता है – अगर ऐसा कहना संभव हो – और अपने बन्द अध्ययनकक्षों में ”व्‍यवस्थापनकर्ताओं” द्वारा गढ़े गए संघर्ष के रूप जन-साधारण को सिखाने का दावा करने से वह कोसों दूर रहता है।

एंगेल्स – मज़दूरी व्यवस्था

मज़दूरी की दर ऊँची बनाये रखने और काम के घण्टे कम करने के संघर्ष में ट्रेड यूनियनों का बहुत बड़ा लाभ यह है कि वे जीवन स्तर ऊँचा बनाये रखने और उसे बेहतर करने में मदद करती हैं। लन्दन के पूर्वी भाग में बहुत से पेशे ऐसे हैं जिनका श्रम राजगीर मिस्त्रियों तथा राजगीर के साथ काम करने वाले मज़दूरों से अधिक कुशल और उनके जैसा कठिन नहीं है, फिर भी वे इसके मुकाबले आधी मज़दूरी ही कमा पाते हैं। क्यों? सिर्फ़ इसलिए क्योंकि एक शक्तिशाली संगठन पहले वाले मज़दूरों को तुलनात्मक रूप से ऊँचा जीवन स्तर बनाये रखने में सक्षम बनाता है जिससे उनकी मज़दूरी निर्धारित होती है – जबकि दूसरे वाले मज़दूरों को असंगठित और कमज़ोर होने के नाते अपने नियोक्ताओं के अपरिहार्य और मनमाने अतिक्रमण का शिकार होना पड़ता है; उनका जीवन स्तर लगातार गिरता जाता है, वे लगातार कम से कम मज़दूरी पर जीना सीख लेते हैं, और उनकी मज़दूरी स्वाभाविक रूप से उस स्तर तक गिर जाती है जिसे उन्होंने खुद पर्याप्त मान लेना सीख लिया है ।

लेनिन – फ़ैक्ट्री-मज़दूरों की एकता, वर्ग-चेतना और संघर्ष का विकास

जो कोई काम पर लगता है, वह अपने मालिक से अक्सर असन्तुष्ट होता है, उसकी शिक़ायत अदालत में या सरकारी अधिकारी के पास करता है। अधिकारी तथा अदालत दोनों विवाद आमतौर पर मालिक के पक्ष में निपटाते हैं उसका समर्थन करते हैं। परन्तु मालिक का यह हित साधन किसी आम विनियम या किसी क़ानून पर नहीं, वरन पृथक-पृथक अधिकारियों की ताबेदारी पर आधारित होता है, जो भिन्न-भिन्न अवसरों पर कम या अधिक मात्रा में उसकी रक्षा करते हैं और जो मामले को अनुचित रूप से, मालिक के पक्ष में इसलिए तय करते हैं कि वे या तो मालिक के परिचित होते हैं, या फिर इसलिए कि वे कामकाज के हालात के बारे में अपरिचित होते हैं तथा मज़दूर को समझने में असमर्थ होते हैं। ऐसे अन्याय का प्रत्येक पृथक मामला मज़दूर तथा मालिक के बीच प्रत्येक पृथक टक्कर पर, प्रत्येक पृथक अधिकारी पर निर्भर करता है। लेकिन फैक्ट्री मज़दूरों का इतना बड़ा समूह जमा कर लेती है, उत्पीड़न को ऐसी सीमा पर पहुँचा देती है कि प्रत्येक पृथक मामले की जाँच करना असम्भव हो जाता है। आम विनियम तैयार किये जाते हैं, मज़दूरों तथा मालिकों के बीच सम्बन्धों के बारे में एक क़ानून बनाया जाता है, ऐसा क़ानून, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। इस क़ानून में मालिकों के लिए हित साधन को राज्य की सत्ता का सहारा दिया जाता है। पृथक अधिकारी द्वारा अन्याय का स्थान क़ानून द्वारा अन्याय ले लेता है। उदाहरण के लिए, इस प्रकार के विनियम प्रकट होते हैं — यदि मज़दूर काम से ग़ैर-हाज़िर है, तो वह मज़दूरी से ही हाथ नहीं धोता, वरन उसे ज़ुर्माना भी देना पड़ता है, जबकि मालिक यदि काम के न होने पर मज़दूरों को घर वापस भेज देता है, तो उसे कुछ नहीं देना पड़ता; मालिक मज़दूर को कठोर भाषा का उपयोग करने पर बरखास्त कर सकता है, जबकि मालिक का इस प्रकार का बर्ताव होने पर मज़दूर काम नहीं छोड़ सकता; मालिक को अपनी ही सत्ता के आधार पर ज़ुर्माना करने, मज़दूरी में कटौतियाँ करने, उससे ओवरटाइम काम करने की माँग करने का अधिकार होता है, आदि।