Category Archives: महान शिक्षकों की क़लम से

एंगेल्स – काम के उचित दिन की उचित मज़दूरी

एंगेल्स ने यह लेख ‘दि लेबर स्टैण्डर्ड’ के लिए मई 1-2, 1881 को लिखा था जो उसी वर्ष 7 मई को प्रकाशित हुआ था। इस लेख में एंगेल्स ने बताया है कि मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक लक्ष्य सिर्फ पूँजीपति वर्ग द्वारा तय तथाकथित उचित मज़दूरी को प्राप्त करना नहीं है। वास्तव में यह ”उचित मज़दूरी” उचित है ही नहीं। मज़दूर वर्ग का अन्तिम लक्ष्य अपने श्रम के उत्पादों पर पूर्ण नियन्त्रण है। यह एक अलग बात है कि जब पूँजीपति वर्ग अपने द्वारा तय तथाकथित उचित मज़दूरी देने से भी मुकर जाता है तो मज़दूर आन्दोलन को उसके लिए भी लड़ना होता है। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं होना चाहिए कि मज़दूर वर्ग का आन्दोलन इसे ही अन्तिम लड़ाई समझे।

एँगेल्स – मार्क्‍स की समाधि पर भाषण

जैसेकि जैव प्रकृति में डार्विन ने विकास के नियम का पता लगाया था, वैसे ही मानव इतिहास में मार्क्‍स ने विकास के नियम का पता लगाया था। उन्होंने इस सीधी-सादी सच्चाई का पता लगाया जो अब तक विचारधारा की अतिवृद्धि से ढकी हुई थी — कि राजनीति, विज्ञान, कला, धर्म, आदि में लगने के पूर्व मनुष्य जाति को खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना और सिर के ऊपर साया चाहिए। इसलिए जीविका के तात्कालिक भौतिक साधनों का उत्पादन और फलत: किसी युग में अथवा किसी जाति द्वारा उपलब्ध आर्थिक विकास की यात्रा ही वह आधार है जिस पर राजकीय संस्थाएँ, क़ानूनी धारणाएँ, कला और यहाँ तक कि धर्म सम्बन्धी धारणाएँ भी विकसित होती हैं। इसलिए इस आधार के ही प्रकाश में इन सबकी व्याख्या की जा सकती है, न कि इससे उल्टा, जैसाकि अब तक होता रहा है।

लेनिन – मार्क्‍सवाद और सुधारवाद

सुधारवादियों का मजदूरों पर प्रभाव जितना अधिक सशक्त होता है, मजदूर उतने ही निर्बल होते हैं, बुर्जुआ वर्ग पर उनकी निर्भरता उतनी ही ज्यादा होती है, तरह-तरह के दाँव-पेंचों से इन सुधारों को शून्य में परिणत कर देना बुर्जुआ वर्ग के लिए उतना आसान होता है। मजदूर आन्दोलन जितना अधिक स्वावलम्बी तथा गहन होता है,उसके ध्‍येय जितने अधिक विस्तृत होते हैं, सुधारवादी संकीर्णता से वह जितना अधिक मुक्त होता है, मजदूरों के लिए अलग-अलग सुधारों को सुदृढ़ बनाना तथा उनका उपयोग करना उतना ही आसान होता है।

कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र से एक अंश

आधुनिक मज़दूर की दशा बिल्कुल उल्टी है। उद्योग की उन्नति के साथ, ऊपर उठने के बजाय, वह स्वयं अपने वर्ग के अस्तित्व के लिए आवश्यक अवस्थाओं के स्तर के नीचे गिरता जाता है। वह कंगाल हो जाता है और उसकी मुफ़लिसी आबादी और दौलत से भी ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है। ऐसी स्थिति में यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि बुर्जुआ वर्ग अब समाज का शासक बने रहने के और समाज पर अपने अस्तित्व की अवस्थाओं को, अनिवार्य नियम के रूप में, लादने के अयोग्य है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने के अयोग्य है क्योंकि वह अपने ग़ुलाम को ग़ुलामी की हालत में ज़िन्दा रहने की गारण्टी देने में असमर्थ है, क्योंकि वह उसके जीवन स्तर में ऐसी गिरावट नहीं रोक सकता जिसके फलस्वरूप वह उसकी कमाई खाने के बजाय उसका पेट भरने को मजबूर हो जाता है। समाज अब बुर्जुआ वर्ग के मातहत नहीं रह सकता – दूसरे शब्दों में, बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व अब समाज से मेल नहीं खाता। … बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी क़ब्र खोदने वालों को पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा वर्ग की विजय दोनों समान रूप से अनिवार्य हैं।

कम्युनिस्ट जीवनशैली के बारे में माओ त्से-तुङ के कुछ उद्धरण

कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाये? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी यह देखना चाहिए कि वह व्यापक मज़दूर-किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं? क्रान्तिकारी वह है जो मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाना चाहता हो, और अपने अमल में मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है या प्रतिक्रान्तिकारी है। अगर कोई आज मज़दूर-किसानों के जन-समुदाय के साथ एकरूप हो जाता है, तो आज वह क्रान्तिकारी है; लेकिन अगर कल वह ऐसा नहीं करता या इसके उल्टे आम जनता का उत्पीड़न करने लगता है, तो वह क्रान्तिकारी नहीं रह जाता अथवा प्रतिक्रान्तिकारी बन जाता है।

लेनिन – बुर्जुआ जनवाद : संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा; अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा

बुर्जुआ जनवाद, जो सर्वहारा वर्ग को शिक्षित-दीक्षित करने और उसे संघर्ष के लिए प्रशिक्षित करने के वास्ते मूल्यवान है, सदैव संकीर्ण, पाखण्डपूर्ण, जाली और झूठा होता है, वह सदा अमीरों के लिए जनवाद और गरीबों के लिए झाँसा होता है।

कार्ल मार्क्स – मज़दूर वर्ग का नारा होना चाहिए – “मज़दूरी की व्यवस्था का नाश हो!”

आजकल उद्योग की उन सभी शाखाओं में जो फ़ैक्टरी-क़ानूनों के मातहत हैं, काम के दिन पर कुछ सीमाएँ लगी हुई हैं। पर इन सीमाओं के बावजूद यह आवश्यक हो सकता है कि, और कुछ नहीं तो मज़दूरों के श्रम के मूल्य के पुराने स्तर को क़ायम रखने के लिए, उनकी मज़दूरी बढ़ाई जाये। श्रम की तीव्रता बढ़ा कर एक घण्टे में आदमी से उतनी ही ताक़त ख़र्च कराई जा सकती जितनी वह पहले दो घण्टे में ख़र्च करता था। इन उद्योगों में, जिन पर फ़ैक्टरी-क़ानून लागू हो गये हैं, यह चीज़़ किसी हद तक मशीनों को तेज़ करके, और उन मशीनों की संख्या बढ़ा कर जिन्हें अब अकेले एक आदमी को देखना पड़ता है, की गयी है। यदि श्रम की तीव्रता में होने वाली वृद्धि का, या एक घण्टे में लिए जाने वाले श्रम के परिमाण में बढ़ती का, काम के दिन की लम्बाई में होने वाली कमी से कुछ उचित अनुपात रहता है, तो मज़दूर की ही जीत होगी। पर यदि यह सीमा भी पार कर ली जाती है तो एक ढंग से मज़दूर का जो फ़ायदा हुआ है, वह दूसरे ढंग से उससे छीन लिया जाता है, और तब हो सकता है कि दस घण्टे का काम उसके लिए उतना ही प्राणलेवा बन जाये जितना पहले बारह घण्टे का था। श्रम की बढ़ती हुई तीव्रता के अनुसार मज़दूरी बढ़वाने के लिए लड़कर मज़दूर पूँजी की इस प्रवृत्ति को रोकने की जो कोशिश करता है, उसके द्वारा वह केवल अपने श्रम के मूल्य को कम होने से रोकता है और अपनी नस्ल को ख़राब होने से बचाता है।

लेनिन – हड़तालों के विषय में

हड़ताल मजदूरों को सिखाती है कि मालिकों की शक्ति तथा मजदूरों की शक्ति किसमें निहित होती है; वह उन्हें केवल अपने मालिक और केवल अपने साथियों के बारे में ही नहीं, वरन तमाम मालिकों, पूँजीपतियों के पूरे वर्ग, मजदूरों के पूरे वर्ग के बारे में सोचना सिखाती है। जब किसी फैक्टरी का मालिक, जिसने मजदूरों की कई पीढ़ियों के परिश्रम के बल पर करोड़ों की धनराशि जमा की है, मजदूरी में मामूली वृध्दि करने से इन्कार करता है, यही नहीं, उसे घटाने का प्रयत्न तक करता है और मजदूरों द्वारा प्रतिरोध किये जाने की दशा में हजारों भूखे परिवारों को सड़कों पर धकेल देता है, तो मजदूरों के सामने यह सर्वथा स्पष्ट हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग समग्र रूप में समग्र मजदूर वर्ग का दुश्मन है और मजदूर केवल अपने ऊपर और अपनी संयुक्त कार्रवाई पर ही भरोसा कर सकते हैं। अक्सर होता यह है कि फैक्टरी का मालिक मजदूरों की ऑंखों में धूल झोंकने, अपने को उपकारी के रूप में पेश करने, मजदूरों के आगे रोटी के चन्द छोटे-छोटे टुकड़े फेंककर या झूठे वचन देकर उनके शोषण पर पर्दा डालने के लिए कुछ भी नहीं उठा रखता। हड़ताल मजदूरों को यह दिखाकर कि उनका ”उपकारी” तो भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया है, इस धोखाधाड़ी को एक ही वार में खत्म कर देती है।

मार्क्‍स-एंगेल्‍स – पूँजीपति वर्ग के पास आर्थिक संकट को रोकने का एक ही तरीका है : और भी व्यापक और विनाशकारी संकटों के लिए पथ प्रशस्त करना और इन संकटों को रोकने के साधनों को घटाते जाना !

बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व और प्रभुत्व की लाज़िमी शर्त पूँजी का निर्माण और वृद्धि है; और पूँजी की शर्त है उजरती श्रम। उजरती श्रम पूर्णतया मज़दूरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पर निर्भर है। उद्योग की उन्नति, बुर्जुआ वर्ग जिसका अनभिप्रेत संवर्धक है, प्रतिस्पर्द्धा से जनित मज़दूरों के अलगाव की संसर्ग से जनित उनकी क्रान्तिकारी एकजुटता से प्रतिस्थापना कर देती है। इस तरह, आधुनिक उद्योग का विकास बुर्जुआ वर्ग के पैरों के तले उस बुनियाद को ही खिसका देता है, जिस पर वह उत्पादों को उत्पादित और हस्तगत करता है। अत:, बुर्जुआ वर्ग सर्वोपरि अपनी कब्र खोदने वालों को ही पैदा करता है। उसका पतन और सर्वहारा की विजय, दोनों समान रूप से अवश्यम्भावी हैं।

कार्ल मार्क्‍स के जन्मदिन (5 मई) के अवसर पर

मार्क्‍स ने जिस दूसरी महत्त्वपूर्ण बात का पता लगाया है, वह पूँजी और श्रम के सम्बन्ध का निश्चित स्पष्टीकरण है। दूसरे शब्दों में, उन्होंने यह दिखाया कि वर्तमान समाज में और उत्पादन की मौजूदा पूँजीवादी प्रणाली के अन्तर्गत किस तरह पूँजीपति मज़दूर का शोषण करता है। जब से राजनीतिक अर्थशास्त्र ने यह प्रस्थापना प्रस्तुत की कि समस्त सम्पदा और समस्त मूल्य का मूल स्रोत श्रम ही है, तभी से यह प्रश्न भी अनिवार्य रूप से सामने आया कि इस बात से हम इस तथ्य का मेल कैसे बैठायें कि उजरती मज़दूर अपने श्रम से जिस मूल्य को उत्पन्न करता है, वह पूरा का पूरा उसे नहीं मिलता, वरन उसका एक अंश उसे पूँजीपति को दे देना पड़ता है? पूँजीवादी और समाजवादी, दोनों ही तरह के अर्थशास्त्रियों ने इस प्रश्न का ऐसा उत्तर देने का प्रयत्न किया, जो वैज्ञानिक दृष्टि से संगत हो, परन्तु वे विफल रहे। अन्त में मार्क्‍स ने ही उसका सही उत्तर दिया। वह उत्तर इस प्रकार है : उत्पादन की वर्तमान पूँजीवादी प्रणाली में समाज के दो वर्ग हैं – एक ओर पूँजीपतियों का वर्ग है, जिसके हाथ में उत्पादन और जीवन-निर्वाह के साधन हैं, दूसरी ओर सर्वहारा वर्ग है, जिसके पास इन साधनों से वंचित रहने के कारण बेचने के लिए केवल एक माल – अपनी श्रम-शक्ति – ही है और इसलिए जो जीवन-निर्वाह के साधन प्राप्त करने के लिए अपनी इस श्रम-शक्ति को बेचने के लिए मजबूर है।