Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

यूपीए सरकार का नया एजेण्डा : अब बेरोकटोक लागू होंगी पूँजीवादी विकास की नीतियाँ

इस सरकार का असली एजेण्डा है देशी-विदेशी पूँजीपतियों को जनता को लूटने की खुली छूट देना। राष्ट्रपति के इसी अभिभाषण में सरकारी कम्पनियों के विनिवेश से लेकर वित्तीय क्षेत्र के सुधरों के नाम पर उसे विदेशी बड़ी पूँजी के लिए खोलने से लेकर कई घोषणाएँ की गयी हैं। जुलाई में पेश किये जाने वाले बजट में पूँजीपतियों को फायदा पहुँचाने वाले आर्थिक ”सुधारों” की ठोस योजनाएँ पेश करने की तैयारी चल रही है। सुधारों की कड़वी घुट्टी जनता के गले के नीचे उतारने के लिए भी ज़रूरी है कि उसे ढेरों लोकलुभावन योजनाओं की चाशनी में लपेटकर पेश किया जाये।

बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम ने जी-20 देशों की बैठक में कहा कि मन्दी का असर ग़रीब देशों में कहीं ज़्यादा पड़ता है सिर्फ नौकरी जाने या आमदनी कम होने के तौर पर ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और शिक्षा सूचकों – जीवन सम्भाव्यता, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और पढ़ाई पूरी करने वाले बच्चों की संख्या में यह दिखायी देता है। आर्थिक मन्दी की सबसे ज़्यादा मार झेलने वाले लोगों में ग़रीब देशों की महिलाएँ, बच्चे और ग़रीब होते हैं। हाल में मन्दी के दौरान के आँकड़े बताते हैं कि स्कूली पढ़ाई छुड़वाने वाले बच्चों में लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या बहुत ज़्यादा थी।
  • मन्दी के नतीजे में चीज़ें महँगी होती हैं, ग़रीबी बढ़ती है और ग़रीबी बढ़ना अपने आप मृत्यु दर बढ़ने में बदल जाता है। जैसेकि सकल घरेलू उत्पाद में 3 प्रतिशत की कमी को प्रति 1000 शिशुओं के जन्म पर 47 से 120 और ज़्यादा मृत्यु दर से जोड़ा जा सकता है। विकासशील देशों में उस देश के अमीर बच्चों की तुलना में ग़रीब बच्चों के मरने की सम्भावना चार गुना बढ़ गयी है और लड़कों की तुलना में लड़कियों की शिशु मृत्युदर पाँच गुना बढ़ गयी है।
  • यह संकट ग़रीब देशों में कई लोगों के लिए जीवन और मौत का सवाल है और आर्थिक विकास, स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या और मृत्यु दर के पुराने स्तर पर पहुँचने में कई साल लग सकते हैं। अनुमान के मुताबिक 2010 में आर्थिक स्थिति बहाल होने तक मानव विकास को पहुँची चोट गम्भीर होगी और सामाजिक बहाली में कई साल लगेंगे। पुराने संकट का इतिहास बताता है कि इसके दुष्प्रभाव 2020 तक पड़ते रहेंगे।
  • जापान में बेरोज़गार मज़दूरों को गाँव भेजने की कोशिश

    लगातार फैलती विश्वव्यापी मन्दी के कारण बढ़ती बेरोज़गारी को कम करने के लिए पूँजीवाद के सिपहसालारों के पास कोई उपाय नहीं है। पूँजीपतियों को अरबों डॉलर के पैकेज देने के बाद भी अर्थव्यवस्था में तेज़ी नहीं आ पा रही है। गोदाम मालों से भरे पड़े हैं और लोगों के पास उन्हें ख़रीदने के लिए पैसे नहीं हैं। लगातार छँटनी, बेरोज़गारी और तनख़्वाहों में कटौती के कारण हालत और बिगड़ने ही वाली है। ऐसे में शहरों में बेरोज़गारों की बढ़ती फ़ौज से घबरायी पूँजीवादी सरकारें तरह-तरह के उपाय कर रही हैं, लेकिन इस तरह की पैबन्दसाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है। पूँजीवादी नीतियों के कारण खेती पहले ही संकटग्रस्त है, ऐसे में शहरी बेरोज़गारों को गाँव भेजने या ग्रामीण बेरोज़गारों को वहीं रोककर रखने की उनकी कोशिशें ज़्यादा कामयाब नहीं हो सकेंगी। लेकिन, अगर क्रान्तिकारी शक्तियाँ सही सोच और समझ के साथ काम करें तो ये ही कार्यक्रम ग्रामीण मेहनतकश आबादी को संगठित करने का एक ज़रिया बन सकते हैं।

    नरेगा: सरकारी दावों की ज़मीनी हकीकत – एक रिपोर्ट

    पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अतिपिछड़े इलाक़े मर्यादपुर में किये गये देहाती मज़दूर यूनियन और नौजवान भारत सभा द्वारा हाल ही में किये गये एक सर्वेक्षण से यह बात साबित होती है कि नरेगा के तहत कराये गये और दिखाये गये कामों में भ्रष्टाचार इतने नंगे तरीक़े से और इतने बड़े पैमाने पर किया जा रहा है कि यह पूरी योजना गाँव के सम्पन्न और प्रभुत्वशाली तबक़ों की जेब गर्म करने का एक और ज़रियाभर बनकर रह गयी है। साथ ही यह बात भी ज्यादा साफ हो जाती है कि पूँजीवाद अपनी मजबूरियों से गाँव के गरीबों को भरमाने के लिए थोड़ी राहत देकर उनके गुस्से पर पानी के छींटे मारने की कोशिश जरूर करता है लेकिन आखिरकार उसकी इच्छा से परे यह कोशिश भी गरीबों को गोलबंद होने से रोक नहीं पाती है। बल्कि इस क्रम में आम लोग व्यवस्था के गरीब-विरोधी और अन्यायपूर्ण चेहरे को ज्यादा नजदीक से समझने लगते हैं और इन कल्याणकारी योजनाओं के अधिकारों को पाने की लड़ाई उनकी वर्गचेतना की पहली मंजिल बन जाती है।

    मन्दी के विरोध में दुनियाभर में फैलता जनआक्रोश

    अमेरिकी वित्तीय बाजार से शुरू हुई मन्दी की आग पूरे विश्व में फैल चुकी है। अरबों डालरों के बेलआउट पैकेजों की बरसात भी इस आग पर काबू पाने में नाकाम रही है। सम्पत्ति रिस-रिसकर नीचे आती है, यह दावा करने वाले पूँजीवादी ‘ट्रिकल-डाउन’ सिद्धान्त से अब कुछ भी छनकर नीचे नहीं आ रहा है सिवाय तालाबन्दियों, छँटनियों के। हाँ, लेकिन बेलआउट पैकेजों की लगातार जारी बरसात से कम्पनियों और बैंकरों की तिजोरियाँ जरूर लबालब भर रही हैं। इस सारी प्रक्रिया में एक नया अध्‍याय अब जुड़ रहा है। वह है जन-आक्रोश का दुनिया के बहुत सारे देशों में फैलना जो साधारण हड़तालों से लेकर पुलिस के साथ खूनी झड़पों के रूप में सामने आ रहा है। इतिहास खरगोश की चाल चलता है, कभी बहुत तेज, फिर छलाँगों के रूप में और कभी एकदम सोया लगता है। पिछले 30-32 वर्षा से विश्व स्तर पर ही सब कुछ ठहरा-ठहरा सा लगता था। लेकिन अब हालत बदल रही है। एक बार फिर जनसंघर्षों की हवा गर्म हो रही है।

    आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूरों पर

    विश्वव्यापी आर्थिक संकट की लपटें पूरे भारत में तेज़ी से फैल रही हैं और सबसे ज्यादा मज़दूरों को अपनी चपेट में ले रही हैं। अन्तहीन मुनाफाखोरी की हवस में पागल पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकश जनता की बेरहम लूट और बेहिसाब उत्पादन से पैदा हुए इस संकट की मार मेहनतकश जनता को ही झेलनी पड़ रही है। सरकार के श्रम विभाग के सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष के अन्तिम तीन महीनों में 5 लाख से अधिक मज़दूरों की छँटनी की जा चुकी थी। यह एक प्रकार की नमूना रिपोर्ट थी, जिससे मेहनतकशों पर पड़ने वाले छँटनी-तालाबन्दी के भयावह असर का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है।

    बोलते आँकड़े चीखती सच्चाइयाँ

  • वर्ल्ड बैंक के अनुसार मौजूदा संकट 2009 में 5 करोड़ 30 लाख और लोगों को 2 अमेरिकी डॉलर की रोजाना आमदनी से भी कम, यानी गरीबी में धकेल देगा। इसकी वजह से लोगों को अपनी आजीविका के साधन बेचने पड़ सकते हैं, अपने बच्चों की पढ़ाई छुड़वानी पड़ सकती है, और वे कुपोषण का शिकार हो सकते हैं।
  • वित्तीय संकट का नतीजा 2009 से 2015 के बीच औसतन 2 लाख से लेकर 4 लाख नवजात शिशुओं की अतिरिक्त मौत के रूप में सामने आने का अनुमान है। और अगर संकट जारी रहा तो कुल मिलाकर 14 लाख से लेकर 28 लाख शिशुओं के असमय मरने का अनुमान है। सकल घरेलू उत्पाद में एक इकाई की कमी होने का नतीजा लड़कियों के लिए 1,000 में से 7.4 प्रतिशत औसत मृत्‍युदर, जबकि लड़कों के लिए 1,000 में से 1.5 प्रतिशत औसत मृत्‍युदर होती है।
  • विश्‍व खाद्य कार्यक्रम के मुताबिक दुनिया के कुल भूखे लोगों में से आधे भारत में हैं।
  • इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 35 प्रतिशत आबादी या लगभग 35 करोड़ लोग खाद्य-सुरक्षा के लिहाज से असुरक्षित हैं, और उन्हें न्यूनतम ऊर्जा जरूरतों का 80 प्रतिशत से भी कम मिल पा रहा है।
  • जनता की कार, जनता पर सवार

    नैनो कार का बहुसंख्यक आबादी के लिए न होने और उससे इसका कोई सरोकार न होने के बावजूद इसी बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की टैक्स के रूप में जमा गाढ़ी कमाई के बदौलत इसे तैयार किया गया है। प. बंगाल में मुख्य कारखाना हटने और गुजरात में लगने के बाद मोदी सरकार ने इसमें विशेष रूचि दिखायी और जनता का करोड़ो रूपया पानी की तरह इसपर बहा दिया। एक अनुमान के मुताबिक 1 लाख की कीमत वाली हरेक नैनो कार पर जनता की गाढ़ी कमाई का 60,000 रूपया लगा है। नैनो संयंत्र के लिए गुजरात सरकार ने टाटा को 0.1 प्रतिशत साधारण ब्याज की दर से पहले चरण के लिए 2,900 करोड़ का भारी-भरकम कर्ज दिया है जिसकी अदायगी बीस वर्षों में करनी है। कम्पनी को कौड़ियों के भाव 1,100 एकड़ जमीन दी गयी है। इसके लिए स्टाम्प ड्यूटी और अन्य कर भी नहीं लिये गये हैं। कम्पनी को 14,000 घनमीटर पानी मुफ्त में उपलब्ध कराया जा रहा है साथ ही संयंत्र में बिजली पहुँचाने का सारा खर्च सरकार वहन करेगी।

    आर्थिक संकट पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की लाइलाज बीमारी है

    पूंजीवाद में यह तथाकथित ‘‘अतिउत्पादन’’ वास्तव में अतिउत्पादन नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं होता कि समाज में ज़रूरी चीज़ों का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया हैं कि लोग उन सबका उपभोग नहीं कर सकते। आर्थिक संकटों के दौरान इस प्रकार की बातें आम होती हैं: कपड़ा मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस पकड़ा दी जाती है कि सूत और वस्त्रें का उत्पादन इतना ज्यादा हो गया है कि उसकी बिक्री नहीं हो पा रही है, इसलिए उत्पादन में कटौती और मजदूरों की छंटनी करना जरूरी हो गया है। लेकिन कपड़ा मजदूर और उनके परिवार मुश्किल से तन ढांप पाते हैं। कपड़ा पैदा करने वाले कपड़ा खरीद नहीं पाते। खान मजदूरों को यह कहकर छंटनी की नोटिस थमाई जाती है कि कोयले का अतिउत्पादन हो गया है और उत्पादन तथा मजदूरों की तादाद दोनों में कटौती जरूरी है। लेकिन, खान मजदूर और उनके परिवारों को ठिठुरते हुए जाड़े की रातें काटनी होती हैं क्योंकि उनके पास कोयला खरीदने को पैसा नहीं होता। इसलिए, पूंजीवादी अतिउत्पादन सापेक्षिक अतिउत्पादन होता है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक उत्पादन का आधिक्य केवल लोगों की क्रयशक्ति के सापेक्ष होता है। आर्थिक संकटों के दौर में मांग के अभाव में, पूंजीपति के गोदामों में माल का स्टाक जमा होता जाता है। विभिन्न माल पड़े-पड़े सड़ जाते हैं या यहां तक कि उन्हें जानबूझकर नष्‍ट किया जाता है। दूसरी ओर व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय रोटी-कपड़ा खरीदने की भी क्षमता नहीं रखता और भुखमरी से जूझता रहता है।

    मज़दूरों पर मन्दी की मार: छँटनी, बेरोज़गारी का तेज़ होता सिलसिला

    पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग मुनाफ़े की अन्धी हवस में जिस आर्थिक संकट को पैदा करता है वह इस समय विश्‍वव्यापी आर्थिक मन्दी के रूप में समूचे संसार को अपने शिकंजे में जकड़ती जा रही है। मन्दी पूँजीवादी व्यवस्था में पहले से ही तबाह-बर्बाद मेहनतकश के जीवन को और अधिक नारकीय तथा असुरक्षित बनाती जा रही है। इस मन्दी ने भी यह दिखा दिया है कि पूँजीवादी जनतन्त्र का असली चरित्र क्या है? पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी यानी ‘सरकार’ पूँजीपतियों के लिए कितनी परेशान है यह इसी बात से जाना जा सकता है कि सरकार पूँजीवादी प्रतिष्‍ठानों को बचाने के लिए आम जनता से टैक्स के रूप में उगाहे गये धन को राहत पैकेज के रूप में देकर एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही है। जबकि मेहनतकशों का जीवन मन्दी के कारण बढ़ गये संकट के पहाड़ के बोझ से दबा जा रहा है। परन्तु सरकार को इसकी ज़रा भी चिन्ता नहीं है। दिल्ली के कुछ औद्योगिक क्षेत्रों के कुछ कारख़ानों की बानगी से भी पता चल जायेगा कि मन्दी ने मज़दूरों के जीवन को कितना कठिन बना दिया है।