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“विकास” की चमक के पीछे की काली सच्चाई

सच्चाई यह है कि खाद्यान्न के भण्डारण और संरक्षण के काम को भी ठीक तरीके से अंजाम दिया जाये तो भी आबादी की ज़रूरतों को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है। इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के मुताबिक भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। फिर भी तीस करोड़ से ज़्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं, जो पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा है। देश में हर साल 44 हज़ार करोड़ रुपये का अनाज, फल और सब्‍ज़ि‍याँ इसलिए बर्बाद हो जाती हैं क्योंकि उनके भण्डारण के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि कृषि मंत्री ने संसद के पिछले मानसून सत्र में यह जानकारी दी थी। आलीशान होटल, मॉल, एअरपोर्ट, एक्सप्रेस हाइवे आदि के निर्माण पर हज़ारों अरब खर्च कर रही सरकारें आज़ादी के बाद से 66 साल में अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम नहीं बनवा पायी हैं, क्या इससे बढ़कर कोई सबूत चाहिए कि पूँजीपतियों की सेवक ये तमाम सरकारें जनता की दुश्मन हैं?

यह व्यवस्था अनाज सड़ा सकती है लेकिन भुख से मरते लोगों तक नहीं पहुँचा सकती है!

प्रधानमन्त्री ने कहा कि सरकार के लिए सड़ रहे अनाज को ग़रीबों में वितरित कर पाना मुमकिन नहीं है। यानी कि अनाज सड़ जाये तो सड़ जाये, वह भूख से मरते लोगों के बीच नहीं पहुँचना चाहिए। लेकिन क्यों? सामान्य बुद्धि से यह सवाल पैदा होता है कि जिस समाज में लाखों लोग भुखमरी और कुपोषण के शिकार हों वहाँ आख़िर क्यों हर साल लाखों टन अनाज सड़ जाता है, उसे चूहे खा जाते हैं या फिर न्यायालय ही उसे जला देने का आदेश दे देता है? हाल में ही एक अन्तरराष्ट्रीय एजेंसी की रिपोर्ट आयी जिसमें यह बताया गया कि भुखमरी के मामले में भारत 88 देशों की तालिका में 67वें स्थान पर है। श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान और अफ्रीका के कई बेहद ग़रीब देश भी भुखमरी से ग्रस्त लोगों की संख्या में भारत से पीछे हैं। पूरी दुनिया के 42 प्रतिशत कुपोषित बच्चे और 30 प्रतिशत बाधित विकास वाले बच्चे भारत में पाये जाते हैं। लेकिन इसके बावजूद इस देश में लाखों टन अनाज गोदामों में सड़ जाता है। आख़िर क्यों? ऐसा कौन-सा कारण है?

विश्वव्यापी खाद्य संकट की “खामोश सुनामी” जारी है…

आने वाले समय में ये तमाम स्थितियाँ बद से बदतर होती जायेंगी। पूँजीवाद जिस गम्भीर ढाँचागत संकट का शिकार है, उसके चलते खेती को संकट से उबारने के लिए निवेश कर पाने की सरकारों की क्षमता कम होती जायेगी। ग़रीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की योजनाओं में तो पहले से ही कटौती की जा रही थी, अब मन्दी के दौर में इन पर कौन ध्यान देगा? जो सरकारें ग़रीबों को सस्ती शिक्षा, इलाज, भोजन मुहैया कराने के लिए सब्सिडी में लगातार कटौती कर रही थीं, वे ही अब बेशर्मी के साथ जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपये पूँजीपतियों को घाटे से बचाने के लिए बहा रही हैं। मन्दी का रोना रोकर अरबों रुपये की सरकारी सहायता बटोर रहे धनपतियों की अय्याशियों, जगमगाती पार्टियों और फिजूलखर्चियों में कोई कमी नहीं आने वाली, लेकिन ग़रीब की थाली से रोटियाँ भी कम होती जायेंगी, सब्ज़ी और दाल तो अब कभी-कभी ही दिखती हैं।