Category Archives: अर्थनीति : राष्‍ट्रीय-अन्‍तर्राष्‍ट्रीय

पेट्रोल मूल्य वृद्धि लोगों की जेब पर सरकारी डाकेज़नी

यह बजट घाटा इसलिए नहीं पैदा हुआ कि सरकार भारत के मेहनतकशों और मज़दूरों पर ज्यादा ख़र्च कर रही है। यह बजट घाटा इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि सरकार बैंकों को अरबों रुपये के बेलआउट पैकेज देती है, कारपोरेट घरानों के हज़ारों करोड़ के कर्जों को माफ करती है और उन्हें टैक्सों में भारी छूट देती है, धनी किसानों को ऋण माफी देती है और देश के धनिक वर्ग पर करों के बोझ को घटाती है। इसके अलावा, ख़ुद सरकार और उसके मंत्रियों-आला अफसरों के भारी तामझाम पर हज़ारों करोड़ रुपये की फिज़ूलखर्ची होती है। ज़ाहिर है, अमीरों को सरकारी ख़ज़ाने से ये सारे तोहफे देने के बाद जब ख़ज़ाना ख़ाली होने लगता है, तो उसकी भरपाई ग़रीब मेहनतकश जनता को लूटकर की जाती है। पेट्रोल के दामों में वृद्धि और उस पर वसूल किये जाने वाले भारी टैक्स के पीछे भी यही कारण है।

फ़्रांस : होलान्दे की जीत सरकोज़ी की नग्न अमीरपरस्त और साम्राज्यवादी नीतियों के ख़िलाफ जनता की नफरत का नतीजा है, समाजवाद की जीत नहीं

फ़्रांस में सामाजिक जनवादियों की जीत वास्तव में पूँजीवाद के संकट का एक परिणाम है। विश्व पूँजीवाद मन्दी के जिस भँवर में फँसा हुआ है उसकी कुछ राजनीतिक कीमत तो उसे चुकानी ही थी। नवउदारवादी नीतियों का खुले तौर पर पालन करने वाली पार्टियाँ अलग-अलग देशों में चुनावों में हार रही हैं। यूनान में भी एक वामपंथी गठबन्धन ने चुनावों में प्रभावी प्रदर्शन किया। संकट के शुरू होने के बाद से यूरोप में 11 सरकारें बदल चुकी हैं। कुछ चुनाव के ज़रिये और कुछ शासक वर्ग के अलग-अलग धड़ों के बीच गठबन्धन के ज़रिये। आर्थिक संकट का पूरा बोझ पूँजीपति वर्ग जनता पर डाल रहा है। यह आर्थिक संकट बैंकों की सट्टेबाज़ी और जुआबाज़ी के कारण पैदा हुआ था। जब बैंकों के दिवालिया होने की हालत हुई तो वित्तीय इजारेदार पूँजी के इशारों पर चलने वाली सरकारों ने जनता के पैसों से बैंकों को बचाया। और जब सरकारी ख़ज़ाने में सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने लायक पैसे की भी कमी पड़ने लगी तो फिर तमाम सरकारी कल्याणकारी नीतियों, सामाजिक सुरक्षा योजनाओं, शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार आदि के मद में कटौती की जाने लगी। मेहनतकश जनता समाज की सारी ज़रूरतों को पूरा करती है, सारे सामान बनाती है, सारी समृद्धि पैदा करती है और उस समृद्धि को संचित करने वाला पूँजीपति वर्ग जब अपने ही अति-उत्पादन और पूँजी की प्रचुरता के संकट का शिकार हो जाता है तो उस संकट का बोझ मेहनतकश जनता पर डाल दिया जाता है और उसको बताया जाता है कि यह ”राष्ट्रीय संकट” है और उन्हें अपनी ”देशभक्ति” का प्रमाण देने के लिए पेट पर पट्टी बाँध लेनी चाहिए! इस समय पूरे यूरोप में यही हो रहा है।

ये दरिद्रता के आँकड़े नहीं बल्कि आँकड़ों की दरिद्रता है

इनकी अक्ल ठिकाने लगाने का एक आसान तरीक़ा तो यह है कि इनके एअरकंडीशंड दफ्तरों और गद्देदार कुर्सियों से घसीटकर इन्हें किसी भी मज़दूर बस्ती में ले आया जाये और कहा जाये कि दो दिन भी 28 रुपये रोज़ पर जीकर दिखाओ। मगर ये अकेले नहीं हैं। अमीरों से लेकर खाये-पिये मध्यवर्गीय लोगों तक एक बहुत बड़ी जमात है जो कमोबेश ऐसा ही सोचते हैं। इनकी निगाह में मज़दूर मानो इन्सान ही नहीं हैं। वे ढोर-डाँगर या बोलने वाली मशीनें भर हैं जिनका एक ही काम है दिन-रात खटना और इनके लिए सुख के सारे साधन पैदा करना। ग़रीबों को शिक्षा, दवा-इलाज़, मनोरंजन, बच्चों की ख़ुशी, बुजुर्गों की सेवा, किसी भी चीज़ का हक़ नहीं है। ये लोग मज़दूरों को सभ्यता-संस्कृति और मनुष्यता की हर उस उपलब्धि से वंचित कर देना चाहते हैं जिसे इन्सानियत ने बड़ी मेहनत और हुनर से हासिल किया है।

पूँजीपतियों की सेवा में एक और बजट

इस बजट में जहाँ अमीरों के लिए राहत है वहीं ग़रीबों के लिए आफ़त है। यह अमीरों को और अमीर बनाने वाला और ग़रीबों को और अधिक निचोड़ने वाला बजट है। सरकार की ऐसी नीतियाँ समाज के भीतर वर्ग ध्रुवीकरण को लगातार तीख़ा कर रही हैं जिसके नतीजे के तौर पर सामाजिक हालात लगातार विस्फोटक होते जा रहे हैं। बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई, अन्याय, अपमान के विरुद्ध मेहनतकशों के ग़ुस्से के सम्भावित विस्फोटों से भी देश के हुक्मरान चिन्तित हैं। ऐसी हर परिस्थिति से निपटने के लिए भी वे पहले से ही तैयारी कर रहे हैं। यही मुख्य वजह है कि इस बजट में रक्षा बजट में भारी बढ़ोत्तरी की गयी है और भविष्य में और भी बढ़ाने की तैयारी की जा रही है। 2012-13 के रक्षा बजट के लिए 1.93 लाख करोड़ की रक़म रखी गयी है जो कि कुल घरेलू उत्पादन के 1.90 प्रतिशत के क़रीब है। निकट भविष्य में सरकार की योजना इसे बढ़ाकर ढाई लाख करोड़ करने की है। रक्षा बजट में इस बड़ी बढ़ोत्तरी के लिए चीन से ख़तरे का बहाना बनाया गया है। लेकिन इस देश के लुटेरे हुक्मरानों को वास्तविक ख़तरा बाहरी नहीं है बल्कि छह दशकों से लूट-दमन की मार झेलते आ रहे मेहनतकशों से है, जिनके सब्र का प्याला लगातार भरता जा रहा है। इस देश के हुक्मरानों को दिन-रात इस देश के करोड़ों मेहनतकशों के इस दमनकारी-अन्यायपूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ उठ खड़े होने का डर सताता रहता है। उनका यह सम्भावित डर कब एक हक़ीक़त बनेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा।

महज़ पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है! हमें पूँजीवाद का विकल्प पेश करना होगा!

लेकिन सवाल यह है कि आज जो पूँजीवाद-विरोध अमेरिका और यूरोपीय देशों की सड़कों पर जनता कर रही है, उसमें किसी क्रान्तिकारी परिवर्तन तक पहुँच पाने की क्षमता है या नहीं? यहाँ पर हम एक समस्या का सामना करते हैं। यह सच है कि आज पूँजीवाद अपने असमाधेय और अन्तकारी संकट से घिरा हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि इस संकट के कारण पूँजीवादी व्यवस्था अपने आप धूल में नहीं मिल जायेगी। इस संकट ने उसे जर्जर और कमज़ोर बना दिया है। लेकिन अगर मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में एक संगठित प्रतिरोध मौजूद नहीं होगा, तो पूँजीवादी व्यवस्था जड़ता की ताक़त से टिकी रहेगी। ठीक उसी तरह जैसे अगर कोई बूढ़ा-बीमार आदमी भी कुर्सी को कसकर जकड़ कर बैठ जाये तो उसे वहाँ से हटाने के लिए संगठित बल प्रयोग की ज़रूरत पड़ेगी। आज यही संगठित शक्ति ग़ायब दिखती है।

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाला

देश के ग़रीबों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ बेरोकटोक जारी है। ग़रीब जनता काम और रिहायश की बदतर परिस्थितियों, पौष्टिक भोजन और आराम की कमी के कारण स्वास्थ्य सम्बन्धी गम्भीर समस्याओं का सामना कर रही है। इलाज़ की उचित सुविधाओं तक पहुँच न होने के कारण उनकी स्थिति और गम्भीर हो गयी है। मुनाफ़ाख़ोर पूँजीवादी व्यवस्था से और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। जो व्यवस्था ख़ुद ही असाध्य रोगों से ग्रस्त हो वह जनता के रोग कैसे दूर सकती है? लेकिन पूँजीवादी सरकारें जनता में व्यवस्था के प्रति झूठी उम्मीदें पैदा करने की कोशिशें करती रहती हैं। एक ओर उदारीकरण और निजीकरण के दौर में स्वास्थ्य और चिकित्सा को भी बाज़ार में बिकाऊ माल बना दिया गया है, सरकारी अस्पतालों की हालत दिन-ब-दिन ख़राब होती जा रही है। दूसरी ओर, जनता के ग़ुस्से पर पानी के छींटे डालने के लिए कुछ कल्याणकारी योजनाएँ चला दी जाती हैं। 2005 में देश के अठारह राज्यों में शुरू हुआ राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एन.आर.एच.एम) ऐसी ही एक ”महत्वाकांक्षी” योजना थी। लेकिन अफ़सोस, सरकार की यह महत्वाकांक्षा इस व्यवस्था के ही एक असाध्य रोग – भ्रष्टाचार – की बलि चढ़ गयी।

अण्णा हज़ारे का आन्दोलन झूठी उम्मीद जगाता है

यदि कोई सामाजिक क्रान्ति आर्थिक सम्बन्धों में आमूलगामी बदलाव की बात नहीं करती, यदि मुट्ठीभर लोगों का उत्पादन के सभी साधनों पर एकाधिकार बना रहता है और समाज की बहुसंख्यक आबादी महज़ उनके लिए मुनाफ़ा पैदा करने के लिए जीती रहती है तो किसी भी तरह की ऊपरी पैबन्दसाज़ी से भ्रष्टाचार जैसी समस्या दूर नहीं हो सकती। यदि कोई आमूलगामी क्रान्ति उत्पादन के साधनों को मुट्ठीभर मुनाफ़ाख़ोरों के हाथों से छीनकर जनता के हाथों में नहीं देती, परजीवी पूँजी के तमाम गढ़ों, शेयर बाज़ारों आदि पर ताले नहीं लटका देती, भारत जैसे देशों में होने वाली कोई क्रान्ति अगर सारे विदेशी कर्ज़ों को मंसूख़ नहीं करती, सारी विदेशी पूँजी को ज़ब्त करके जनता के हाथों में नहीं सौंप देती, नीचे से ऊपर तक सारे प्रशासकीय ढाँचे को ध्वस्त कर उसका नये सिरे से पुनर्गठन नहीं करती तो न सिर्फ़ समाज में असमानता, अन्याय और अत्याचार बने रहेंगे बल्कि हर स्तर पर वह भ्रष्टाचार भी बना रहेगा जिसे अण्णा हज़ारे और उनकी टीम महज़ एक क़ानून बनाकर दूर करने के दावे कर रही है।

अमेरिकी साम्राज्यवाद का कर्ज़ संकट

पिछले लगभग एक दशक से अमेरिकी सरकार द्वारा, चाहे सरकार रिपब्लिकन पार्टी की हो या डेमोक्रेटिक पार्टी की, अमेरिका के पूँजीपतियों को टैक्सों में बड़ी राहत दी जाती रही है। बुश प्रशासन द्वारा 2001, 2003 तथा फिर 2005 में अमेरिकी पूँजीपतियों पर लगने वाले टैक्सों में भारी कटौती की गयी। दिसम्बर 2010 में ओबामा प्रशासन ने भी पूँजीपतियों पर इन टैक्स कटौतियों को जारी रखने का फ़ैसला लिया। पूँजीपतियों के लिए यह टैक्स कटौती लगभग 1 खरब डॉलर तक है। ओबामा के ही शब्दों में पूँजीपतियों पर टैक्स का “यह पिछली आधी सदी में सर्वाधिक निम्न स्तर है।” पूँजीपतियों को टैक्सों में दी जाने वाली इस बड़ी छूट के चलते सरकार की आमदनी कम हुई है। नतीजतन इससे अमेरिकी सरकार का कर्ज़ संकट बढ़ा है।

बेहिसाब बढ़ती महँगाई सरकार की लुटेरी नीतियों का नतीजा है

महँगाई की असली वजह यह है कि खेती की उपज के कारोबार पर बड़े व्यापारियों, सटोरियों और कालाबाज़ारियों का कब्ज़ा है। ये ही जिन्सों (चीज़ों) के दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में कृषि उपज और खुदरा कारोबार के क्षेत्र को बड़ी कम्पनियों के लिए खोल देने के सरकार के फैसले से स्थिति और बिगड़ गयी है। अपनी भारी पूँजी और ताक़त के बल पर ये कम्पनियाँ बाज़ार पर पूरा नियन्‍त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। पूँजीवादी नीतियों के कारण अनाजों के उत्पादन में कमी आती जा रही है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आज खेती संकट में है। पूँजीवाद में उद्योग के मुकाबले खेती का पिछड़ना तो लाज़िमी ही होता है लेकिन भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। अमीर देशों की सरकारें अपने फार्मरों को भारी सब्सिडी देकर खेती को मुनाफे का सौदा बनाये हुए हैं। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में सरकारी उपेक्षा और पूँजी की मार ने छोटे और मझोले किसानों की कमर तोड़ दी है। साम्राज्यवादी देशों की एग्रीबिज़नेस कम्पनियों और देशी उद्योगपतियों की मुनाफाखोरी से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं और बहुत बड़ी किसान आबादी के लिए खेती करके जी पाना मुश्किल होता जा रहा है। इसका सीधा असर उन देशों में खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है।

सुधार के नीमहकीमी नुस्ख़े बनाम क्रान्तिकारी बदलाव की बुनियादी सोच

”भ्रष्टाचार मुक्त” पूँजीवाद भी सामाजिक असमानता मिटा नहीं सकता और सबको समान अवसर नहीं दे सकता। दूसरी बात यह कि पूँजीवाद कभी भ्रष्टाचारमुक्त हो ही नहीं सकता। जब भ्रष्टाचार का रोग नियन्त्रण से बाहर होकर पूँजीवादी शोषण-शासन की आर्थिक प्रणाली के लिए और पूँजीवादी जनवाद की राजनीतिक प्रणाली के लिए सिरदर्द बन जाता है, तो स्वयं पूँजीपति और पूँजीवादी नीति निर्माता ही इसपर नियन्त्रण के उपाय करते हैं। तमाम किस्म के राजनीतिक सुधारवादियों की जमातें बिना क्रान्तिकारी बदलाव के, व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ”भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन” करने लगती हैं। यह पूँजीवादी व्यवस्था की ‘नियन्त्रण एवं सन्तुलन’ की आन्तरिक यान्त्रिकी है। सुधारवादी सिद्धान्तकारों का शीर्षस्थ हिस्सा तो पूँजीवादी व्यवस्था के घाघ संरक्षकों का गिरोह होता है। उनके नीचे एक बहुत बड़ी नीमहकीमी जमात होती है जो पूरी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की कार्यप्रणाली का अध्ययन किये बिना कुछ यूटोपियाई हवाई नुस्ख़े सुझाती रहती है और जनता को दिग्भ्रमित करती रहती है। ऐसे लोगों की नीयत चाहे जो हो, वे पूँजीवाद के फटे चोंगे को रफू करने, उसके पुराने जूते की मरम्मत करने और उसके घोड़े की नाल ठोंकने का ही काम करते रहते हैं।