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अपनी हरकतों के चौतरफा विरोध से बौखलाये संघी फासीवादी गिरोह की झूठ पर टिकी मुहिम

भाजपा की केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को हवा दे रही हैं। इसके विभिन्न केन्द्रीय मंत्रियों, मुख्य मंत्रियों, सांसदों, विधायकों व अन्य नेताओं द्वारा मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काऊ बयान लगातार आ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी साम्प्रदायिकता के विषय पर कम ही बोलते हैं। उनकी चुप्पी और कभी कभी दिए जाने वाले गोल-मोल ब्यानों से हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को स्पष्ट संदेश जाता है कि वे अपने काले कामों में जोर-शोर से लगे रहें, कि उनकी खिलाफ़ कार्रवाई करने का सरकार का कोई इरादा नहीं है। सन् 2002 में गुजरात में मुख्य मंत्री होने के दौरान मुस्लमानों के कत्लेआम की कमाण्ड सम्भालने वाले मोदी से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?

मोदी सरकार का मज़दूर विरोधी चेहरा और असंगठित मज़दूरों के आन्दोलन की चुनौतियाँ

भाजपा और नरेन्द्र मोदी आज पूंजीपति वर्ग की ज़रूरत है। आज विश्वभर में आर्थिक मन्दी छायी हुई है जिसके कारण मालिकों का मुनाफा लगातार गिरता जा रहा है। ऐसे में मालिकों को ऐसी ही सरकार की ज़रूरत है जो मन्दी के दौर में डण्डे के ज़ोर से मज़दूरों को निचोड़ने में उनके वफादार सेवक का काम करे और मज़दूरों की एकता को तोड़े। यही कारण है कि मोदी सरकार पूरी मेहनत और लगन से अपने मालिकों की सेवा करने में लगी हुई है। परिणामस्वरूप बेरोज़गारी भयंकर रूप से बढ़ती जा रही है और जिनके पास रोज़गार है उनके शोषण में भी इज़ाफ़ा होता जा रहा है व छँटनी का ख़तरा लगातार सिर पर मँडरा रहा है। इसके अलावा महंगाई बेतहाशा बढ़ती जा रही है; स्कूल-कॉलेजों की फीस, इलाज का खर्च भी बढ़ता जा रहा है। हमारी जेबों को झाड़ने के लिए लगातार टैक्स बढ़ाये जा रहे हैं और बुनियादी सुविधाओं में कटौती की जा रही है। जनता के गुस्से को शान्त रखने के लिए जनता को धर्म के नाम पर बाँटने की साजिशें की जा रही है। दलितों और अल्पसंख्यकों पर भयंकर जुल्म ढाये जा रहे हैं। कुल मिलाकर मोदी सरकार के “अच्छे दिन” ऐसे ही हैं।

युद्ध की वि‍भीषिका और शरणार्थियों का भीषण संकट

पूँजीवादी देशों में शासक वर्गों के दक्षिणपंथी एवं वामपंथी धड़ों के बीच शरणार्थियों की समस्या पर बहस कुल मिलाकर इस बात पर केन्द्रित होती है कि शरणार्थियों को देश के भीतर आने दिया जाये या नहीं। सापेक्षत: मानवतावादी चेहरे वाले शासकवर्ग के वामपंथी धड़े से जुड़े लोग आमतौर पर शरण‍ार्थियों के प्रति उदारतापूर्ण आचरण की वकालत‍ करते हैं और यह दलील देते हैं कि शरणार्थियों की वजह से उनकी अर्थव्यवस्था को लाभ पहुँचता है। लेकिन शासकवर्ग के ऐसे वामपंथी धड़े भी कभी यह सवाल नहीं उठाते कि आखिर शरणार्थी समस्या की जड़ क्या है। वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें अच्छी तरह से पता है कि यदि वे ऐसे बुनियादी सवाल उठाने लगेंगे तो पूँजीवादी व्यवस्था कटघरे में आ जायेगी और उसका मानवद्रोही चरित्र उजागर हो जायेगा। सच तो यह है कि साम्राज्यवाद के युग में कच्चे माल, सस्ते श्रम एवं बाज़ारों पर क़ब्ज़े के लिए विभिन्न साम्राज्यवादी मुल्कों के बीच होड़ अवश्यम्भावी रूप से युद्ध की विभीषिका को जन्म देती है।

ये मौतें बीमारी की वजह से हैं या कारण कुछ और है?

अब अगर स्वास्थ्य सेवाओं की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हेल्थ सिस्टम की रैंकिंग में भारत का स्थान पूरी दुनिया में 112वाँ है। गृहयुद्ध की मार झेल रहा लीबिया भी इस क्षेत्र में भारत से आगे है। भारत में हर तीस हजार की आबादी पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, हर एक लाख की आबादी पर 30 बेड वाले एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र और हर सब डिविजन पर एक 100 बेड वाले सामान्य अस्पताल का प्रावधान है। आज की मौजूदा हालत में ये प्रावधान ऊंट के मुंह में जीरा ही हैं लेकिन असल में होता क्या है कि जनता तक ये प्रावधान भी नहीं पहुँच पाते हैं। मतलब नौबत ये है कि ऊंट के मुंह में जीरा तक नहीं है। भारत में आज के समय में 381 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं जिनमें एक एमबीबीएस डॉक्टर को तैयार करने में 30 लाख से ज्यादा का खर्चा आता है। जाहिर है यह सब मेडिकल कॉलेज बनाने में और डॉक्टरों की पढ़ाई का सारा पैसा देश की जनता द्वारा दिए गए टैक्स से ही आता है, लेकिन यहाँ से डिग्री लेने के बाद अधिकतर डॉक्टर बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में या फिर निजी व्यवसाय में उसी जनता की जेब काटने में जुट जाते हैं। जो थोड़े से डॉक्टर सरकारी नौकरी करना भी चाहते हैं तो उनके लिए जन स्वास्थ्य सेवाओं या सरकारी अस्पतालों में वैकेंसी नहीं निकलती। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में डॉक्टरों की भारी कमी का आलम ये है कि भारत में दस हजार की आबादी पर सरकारी और प्राइवेट मिलाकर कुल डॉक्टर ही 7 हैं और अगर अस्पतालों में बिस्तरों की बात करें तो दस हजार की आबादी पर सिर्फ 9 बिस्तर मौजूद हैं। दूसरे देशों से तुलना की जाये तो क्यूबा में प्रति दस हजार आबादी 67 डॉक्टर हैं, रूस में 43, स्विट्ज़रलैंड में 40 और अमेरिका में 24 डॉक्टर हर दस हजार की आबादी पर हैं।

हिन्दुत्ववादी फासिस्टों द्वारा दंगा कराने के हथकण्डों का भण्डाफोड़

15 अगस्त की घटना का माहौल संघ परिवार द्वारा काफी पहले से ही बनाया जा रहा था। उस दिन वहाँ भीड़ जुटाने के लिए शाहाबाद डेरी, बवाना, नरेला आदि निकटवर्ती क्षेत्रों के संघ कार्यकर्ताओं को पहले से ही मुस्तैद कर दिया गया था। संघ परिवार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से यह सबकुछ किये जाने के मुस्लिम समुदाय के आरोप के जवाब में संघ के प्रांत प्रचार-प्रमुख राजीव तुली ने मीडिया को बताया, ‘‘ये सभी आरोप आधारहीन हैं। स्थानीय मुस्लिम मस्जिद के सामने की जगह को क़ब्ज़ा करने की फ़ि‍राक में हैं। मस्जिद अनधिकृत है। दरअसल ये लोग हमारे राष्ट्रीय झण्डे का अनादर करते हैं।” बाहरी दिल्ली के डी.सी.पी. विक्रमजीत सिंह ने भी संघ के प्रांत प्रचार प्रमुख के सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि मस्जिद सरकारी ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा करके बना है। सच्चाई तो यह है कि होलम्बी कलां फ़ेज-2 में मौजूद कुल 28 मन्दिर भी सरकारी ज़मीन पर बिना किसी अलॉटमेण्ट या अनुमति के ही बने हुए हैं और तीन और ऐसे मन्दिर निर्माणाधीन हैं, फिर इस एक मस्जिद को ही मुद्दा क्यों बनाया जा रहा है।

एक गोभक्त से भेंट / हरिशंकर परसाई

बच्चा, लोगो की मुसीबतें तो तब तक खतम नही होंगी, जब तक लूट खत्म नही होगी, एक मुद्दा और भी बन सकता है बच्चा, हम जनता मे ये बात फैला सकते हैं कि हमारे धर्म के लोगो की सभी मुसीबतों का कारण दूसरे धर्मो के लोग हैं, हम किसी ना किसी तरह जनता को धर्म के नाम पर उलझये रखेगे बच्चा।

यह समय फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को और व्‍यापक व धारदार बनाने का है

इन आधारों पर बिहार चुनाव के नतीजों के बाद यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मतदाताओं की बहुसंख्या ने भाजपा गठबन्धन को नकार दिया है। तो क्या उसने महागठबन्धन के दलों को वास्तविक समर्थन दिया है और उनसे उसे अपने जीवन में बदलाव आ जाने की उम्मीद है? नहीं, यह सोचना भी ग़लत होगा। दरअसल, यह विकल्पहीनता का चुनाव था। मतदाता इस बारे में किसी भ्रम के शिकार नहीं हैं। आधी सदी से ज़्यादा समय के तजुर्बों ने उनके सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि कोई भी पूँजीवादी चुनावी पार्टी उनकी आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के ढाई दशक के शासन को भी लोग अच्छी तरह से जानते हैं। लेकिन फिर भी चुनाव के समय मतदाताओं की सोच यह होती है कि जब कोई ऐसा विकल्प सामने नहीं है जो उनकी आकांक्षाओं को सही मायने में पूरा करे तो क्यों न दो बुराइयों में से कम बुराई वाले को चुन लिया जाये। महागठबन्धन का चुनाव इसी तरह कम बुराई का चुनाव था। यह लालू-नीतीश-काँग्रेस में आस्था जताना या उनकी नीतियों का समर्थन नहीं है।